Monday, 25 December 2023

कल जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा


मुझे आज एक कन्फेशन करना है। मुझे कई बार संगीत बोर कर दे रहा है आजकल। ठीक-ठाक लगने वाला गाना भी मैं 1 मिनट से ज्यादा नहीं सुन सकता। कुछ महीनों पहले तक मुझे लिखते वक्त देर रात संगीत के चलने से दिक्कत नहीं होती थी। लेकिन अब मेरा ध्यान भंग हो जाता है। फिर सोचता हूँ समाज के वर्तमान परिदृश्य को तो मेरी रूह काँपने लगती है। आज अपने समाज के हालात देख सोच रहा हूँ……..


कल जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा, एकदम जर्जर बूढ़ा, तब तू क्या थोड़ा मेरे पास रहेगा? मुझ पर थोड़ा धीरज तो रखेगा न? मान ले, तेरे महँगे काँच का बर्तन मेरे हाथ से अचानक गिर जाए या फिर मैं सब्ज़ी की कटोरी उलट दूँ टेबल पर, मैं तब बहुत अच्छे से नहीं देख सकूँगा न! मुझे तू चिल्लाकर डाँटना मत प्लीज़! बूढ़े लोग सब समय ख़ुद को उपेक्षित महसूस करते रहते हैं, तुझे नहीं पता?

एक दिन मुझे कान से सुनाई देना बंद हो जाएगा, एक बार में मुझे समझ में नहीं आएगा कि तू क्या कह रहा है, लेकिन इसलिए तू मुझे बहरा मत कहना! ज़रूरत पड़े तो कष्ट उठाकर एक बार फिर से वह बात कह देना या फिर लिख ही देना काग़ज़ पर। मुझे माफ़ कर देना, मैं तो कुदरत के नियम से बुढ़ा गया हूँ, मैं क्या करूँ बता?

और जब मेरे घुटने काँपने लगेंगे, दोनों पैर इस शरीर का वज़न उठाने से इनकार कर देंगे, तू थोड़ा-सा धीरज रखकर मुझे उठ खड़ा होने में मदद नहीं करेगा, बोल? जिस तरह तूने मेरे पैरों के पंजों पर खड़ा होकर पहली बार चलना सीखा था, उसी तरह?

कभी-कभी टूटे रेकॉर्ड प्लेयर की तरह मैं बकबक करता रहूँगा, तू थोड़ा कष्ट करके सुनना। मेरी खिल्ली मत उड़ाना प्लीज़। मेरी बकबक से बेचैन मत हो जाना। तुझे याद है, बचपन में तू एक गुब्बारे के लिए मेरे कान के पास कितनी देर तक भुनभुन करता रहता था, जब तक मैं तुझे वह ख़रीद न देता था, याद आ रहा है तुझे?

हो सके तो मेरे शरीर की गंध को भी माफ़ कर देना। मेरी देह में बुढ़ापे की गंध पैदा हो रही है। तब नहाने के लिए मुझसे ज़बर्दस्ती मत करना। मेरा शरीर उस समय बहुत कमज़ोर हो जाएगा, ज़रा-सा पानी लगते ही ठंड लग जाएगी। मुझे देखकर नाक मत सिकोड़ना प्लीज़! तुझे याद है, मैं तेरे पीछे दौड़ता रहता था क्योंकि तू नहाना नहीं चाहता था? तू विश्वास कर, बुड्ढों को ऐसा ही होता है। हो सकता है एक दिन तुझे यह समझ में आए, हो सकता है, एक दिन!

तेरे पास अगर समय रहे, हम लोग साथ में गप्पें लड़ाएँगे, ठीक है? भले ही कुछेक पल के लिए क्यों न हो। मैं तो दिन भर अकेला ही रहता हूँ, अकेले-अकेले मेरा समय नहीं कटता। मुझे पता है, तू अपने कामों में बहुत व्यस्त रहेगा, मेरी बुढ़ा गई बातें तुझे सुनने में अच्छी न भी लगें तो भी थोड़ा मेरे पास रहना। तुझे याद है, मैं कितनी ही बार तेरी छोटे गुड्डे की बातें सुना करता था, सुनता ही जाता था और तू बोलता ही रहता था, बोलता ही रहता था। मैं भी तुझे कितनी ही कहानियाँ सुनाया करता था, तुझे याद है?

एक दिन आएगा जब बिस्तर पर पड़ा रहूँगा, तब तू मेरी थोड़ी देखभाल करेगा? मुझे माफ़ कर देना यदि ग़लती से मैं बिस्तर गीला कर दूँ, अगर चादर गंदी कर दूँ, मेरे अंतिम समय में मुझे छोड़कर दूर मत रहना, प्लीज़!

जब समय हो जाएगा, मेरा हाथ तू अपनी मुट्ठी में भर लेना। मुझे थोड़ी हिम्मत देना ताकि मैं निर्भय होकर मृत्यु का आलिंगन कर सकूँ। चिंता मत करना, जब मुझे मेरे सृष्टा दिखाई दे जाएँगे, उनके कानों में फुसफुसाकर कहूँगा कि वे तेरा कल्याण करें। तुझे हर अमंगल से बचायें। कारण कि तू मुझसे प्यार करता था, मेरे बुढ़ापे के समय तूने मेरी देखभाल की थी।

मैं तुझसे बहुत-बहुत प्यार करता हूँ रे, तू ख़ूब अच्छे-से रहना। इसके अलावा और क्या कह सकता हूँ, क्या दे सकता हूँ भला।

समाज का असल भाव यही है, असली मकसद यही है। मन की इच्छा यही है, दिन-रात की सोच यही है। बाकी भाईचारा, कुल-खानदान, परिवार की एकता, धर्म और मजहब खतरे में है का नारा... सब झूठ, मक्कारी और पाखंड है। 

क्या मैं 'मर्दे-नादाँ' (कृपया इससे जुड़े शेर का संदर्भ लें, जो पोस्ट के नीचे लिखा है) की कतार में तो नहीं आ गया?

“फूल की पत्ती से कट सकता है हीरे का जिगर
मर्दे-नादाँ पर कलामे-नर्म-ओ-नाजुक बेअसर।” 

फोटो- मैं, Kailash Baba, Harish Nagarkoti

Sunday, 26 November 2023

गगनचुंबी छवि की तलाश-


‘चलो कहीं भरपूर विकास दिखाया जाए, सियासी मिट्टी पर सीमेंट उगाया जाए।’ कुछ इसी तरह के उदाहरणों का मिट्टी परीक्षण होता रहा है और वर्तमान सरकार ने भी निरीक्षण-परीक्षण की जिरह पैदा करते हुए, उत्तराखंड में प्रगति का मुआयना शुरू किया है। संस्थानों की डिनोटिफिकेशन के बाद यह तो साबित हो रहा है कि चुनावी जुबान ने सत्तापक्ष की दिलदारी के नक्शे पर ऐसा नुकसान कर दिया जो प्रदेश के बूते से बाहर है।


ऐसे वक़्त में जब उत्तरकाशी स्थित सिल्क्यारा की धसकी हुई सुरंग में 14 दिनों से 41 मजदूर फंसे पड़े हैं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गगन में लड़ाकू विमान में बैठकर उड़ान भर रहे हैं। पिछले करीब एक हफ्ते से लग रहा था कि अंधेरी सुरंग में मजदूर कभी भी बाहर आ सकते हैं, लेकिन हर गुजरता दिन बेनतीजा साबित हो रहा है। इन सबसे बेपरवाह मोदीजी के उत्साह में कोई कमी नहीं आई है। एक राज्य से निकलकर दूसरे राज्य में चुनावी रैलियों को सम्बोधित करते हुए राजस्थान में गुरुवार की शाम को प्रचार अभियान थमने के तुरन्त बाद मोदी मथुरा पहुंचे जहां उन्होंने ब्रज रज उत्सव के नाम से आयोजित मीरा जन्मोत्सव में हिस्सा लिया। फिर वे शुक्रवार की अल्लसुबह कृष्णजन्मभूमि में उस स्थान पर भगवा वस्त्र धारण कर पहुंचे जहां श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। दूसरी तरफ शनिवार को सुरंग में बचाव अभियान इसलिये रुक गया क्योंकि ड्रिलिंग के दौरान ऑगर मशीन की ब्लेड सरियों से टकराकर टूट गई। अब मलबे को हाथ से हटाये जाने की तैयारी है और मजदूरों को बाहर का सूरज देखने के लिये अभी इंतज़ार करना पड़ सकता है।

मोदीजी के पास एक और डबल इंजिन वाले राज्य उत्तराखंड की सुरंग में फंसी 41 ज़िंदगियों के लिये चिंता करने का समय नहीं है। उन्हें आकाश में उड़ान भरकर पहले अपनी छवि को गगनचुंबी जो बनाना है।


वो 41 मज़दूर, अगर चंद्रयान-3 पर सवार होते तो 22 वें दिन चंद्रमा की कक्षा में पहुंच गये होते। लेकिन पिछले 16 दिनों से, वे ज़मीन के नीचे सुरंग में क़ैद हैं। उन्हें धरती की सतह पर भी वापस नहीं लाया जा सका है।

ये केवल उनके भविष्य की बात नहीं है। कल इन्हीं हिमालयी सुरंगों से होकर, बसों, कारों, रेल वगैरह में सवार, हज़ारों टूरिस्ट, तीर्थ यात्री और यहाँ के आम पहाड़ी लोग यात्राएं करेंगे। यकीन मानिये हम में से किसी के लिए भी, कोई चंद्रयान नहीं आयेगा।


साहब, युवा वोटर मांगे रोज़गार—



किसी भी देश व समाज के संतुलित विकास में उस देश के नियम व कानून बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। भारत में इन कानूनों-नियमों का शासन शास्त्र संविधान कहलाता है। शासन प्रशासन की शक्तियों का स्त्रोत हमारा भारतीय संविधान अपने आप में एक विशेष आयाम रखता है जिस आधार पर ही यह विश्व का सबसे लम्बा व विस्तृत संविधान होने का गौरव प्राप्त है। भारतीय संविधान निर्माण की गाथा ऐतिहासिक रही है।


जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया जारी है, वहां युवा नौकरियों और रोजगार का मुद्दा खूब गूंज रहा है। सिर्फ इसी आधार पर राजनीतिक दलों को कितना जनादेश प्राप्त होगा, यह कहना अनिश्चित है, लेकिन दलों के घोषणा-पत्रों में सरकारी नौकरियों को लेकर आश्वासन प्रमुख रूप से बांटे गए हैं। भाजपा या कांग्रेस के अलावा, मिजोरम की क्षेत्रीय पार्टियों को भी वायदा करना पड़ा है कि उनकी सरकार युवाओं के लिए इतनी सरकारी नौकरियां और रोजगार के अवसर पैदा करेगी। रोजगार के क्षेत्र में बड़े घोटाले सामने आ रहे हैं कि किस सरकार के दौरान कितने पेपर लीक कराए गए। अव्वल तो सरकारी नौकरियों में भर्ती की परीक्षाएं लटकाई जाती रही हैं। यदि परीक्षा हो गई, तो उनके नतीजे अनिश्चित अंधेरों में डूब जाते हैं। यदि परीक्षाओं के बाद सफल चेहरों को नियुक्ति-पत्र मिल भी गए, तो ज्वाइनिंग में आनाकानी की जाती रही है। अंतत: अदालतों में धक्के खाने पड़ते हैं और वहां भी सब कुछ अनिश्चित है। इन धांधलियों और घपलों पर युवा मतदाता सरकारी नौकरियों को लेकर पूरी तरह आश्वस्त कैसे हो सकता है? घोषित राजनीतिक आश्वासनों पर जनादेश दिए जाएंगे, सरकारें बनेंगी, उसके बाद नौकरी या रोजगार का वायदा, समयबद्ध और चरणबद्ध तरीके से, पूरा नहीं किया गया, तो युवा वोटर क्या कर सकते हैं? जनादेश तो पांच साल के लिए होता है। पांच साल के बाद राजनीतिक परिदृश्य और समीकरण क्या होंगे, पार्टियां इन चिंताओं में दुबली नहीं हुआ करतीं। अलबत्ता युवाओं के सामने आंदोलन का रास्ता जरूर खुला है।

उनसे पूर्ण न्याय कब मिला है? बहरहाल तेलंगाना में कांग्रेस ने ‘जॉब कलैंडर’ तय करने का वायदा किया है। भाजपा ने तेलंगाना लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के मद्देनजर पारदर्शी और समयबद्ध समाधान देने का वायदा किया है। दोनों दलों को तेलंगाना में जनादेश मिलने के आसार नहीं हैं। राजस्थान में उन युवाओं को समर्थन दिया जा रहा है, जिन्होंने सरकारी नौकरियों में भर्ती की निरंतर और सिलसिलेवार देरी के खिलाफ आवाज उठाई है। तेलंगाना और राजस्थान में युवा बेरोजगारी दर क्रमश: 15.1 फीसदी और 12.5 फीसदी है, जो देश भर में सर्वाधिक हैं। कमोबेश बेरोजगारी की राष्ट्रीय दर करीब 8 फीसदी से तो ज्यादा है। राजस्थान लोक सेवा आयोग की परीक्षाएं विवादों और घोटालों में संलिप्त रही हैं। लगातार पेपर लीक, परीक्षा परिणामों में धांधलियों, कानूनी पचड़ों के कारण बीते चार साल में 8 परीक्षाएं रद्द करनी पड़ी हैं। मध्यप्रदेश में आज भी ‘व्यापम घोटाले’ की गूंज सुनाई देती है। हालांकि अब यह उतना प्रासंगिक चुनावी मुद्दा भी नहीं है। पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे 2022-23 के मुताबिक, मप्र में युवा बेरोजगारी की दर चुनावी राज्यों में सबसे कम 4.4 फीसदी है। तेलंगाना, राजस्थान और मिजोरम (11.9 फीसदी) में युवा बेरोजगारी की दर राष्ट्रीय दर से अधिक है। छत्तीसगढ़ में यह दर 7.1 फीसदी है। बेशक सरकारी नौकरियों और रोजगार के बेहतर अवसरों के आश्वासन सभी राजनीतिक दलों ने बांटे हैं, लेकिन युवा मतदाताओं की चिंताओं, प्रतिबद्धताओं और उनके सरोकारों पर ‘राजनीति’ ज्यादा की जा रही है। महिलाओं में बेरोजगारी की दर अधिक और गंभीर है। बहरहाल ये आंकड़े और संकेत चिंताजनक हैं।

Tuesday, 21 November 2023

कहां राजा भोज- कहां गंगू तेली —


बहुत दिनों से सोच रहा था आंखिर यह कहावत क्यों बनी होगी? मैंने अक्सर बचपन से लेकर आज तक हजारों बार इस कहावत को सुना था कि "कहां राजा भोज- कहां गंगू तेली" आमतौर पर यह ही पढ़ाया और बताया जाता था कि इस कहावत का अर्थ अमीर और गरीब के बीच तुलना करने के लिए है। पर गाँव से बाहर जाकर पता चला कि कहावत का दूर-दूर तक अमीरी- गरीबी से कोई संबंध नहीं है और ना ही कोई गंगू तेली से संबंध है। आज तक तो सोचता था कि किसी  गंगू नाम के तेली की तुलना राजा भोज से की जा रही है यह तो सिरे ही गलत है। बल्कि गंगू तेली नामक शख्स तो खुद राजा थे। 


जब इस बात का पता चला तो आश्चर्य की सीमा न रही साथ ही यह भी समझ आया यदि घुमक्कड़ी ध्यान से करो तो आपके ज्ञान में सिर्फ वृद्धि ही नहीं होती बल्कि आपको ऐसी बातें पता चलती है जिस तरफ किसी ने ध्यान ही नहीं दिया होता और यह सोचकर हंसी भी आती है। यह कहावत हम सब उनके लिए सबक है जो आज तक इसका इस्तेमाल अमीरी गरीबी की तुलना के लिए करते आए हैं। 

इस कहावत का संबंध मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल और उसके जिला धार से है। भोपाल का पुराना नाम भोजपाल हुआ करता था। भोजपाल नाम धार के राजा भोजपाल से मिला। समय के साथ इस नाम में से "ज" शब्द गायब हो गया और नाम भोपाल बन गया। 

अब बात कहावत की कहते हैं, कलचुरी के राजा गांगेय (अर्थात गंगू) और चालूका के राजा तेलंग (अर्थात तेली) ने एक बार राजा भोज के राज्य पर हमला कर दिया इस लड़ाई में राजा भोज ने इन दोनों राजाओं को हरा दिया उसी के बाद व्यंग्य के तौर पर यह कहावत प्रसिद्ध हुई "कहां राजा भोज-कहां गंगू तेली"।

❣️अनायास ही भूपेन हजारिका का यह गीत मुझे याद आता है--

गली के मोड़ पे.. 
सूना सा कोई दरवाजा
तरसती आंखों से रस्ता किसी का देखेगा। 
निगाह दूर तलक..  
जा के लौट आयेगी
करोगे याद तो हर बात याद आयेगी। 

कुछ क़िस्से, कुछ कहानियाँ ही इतिहास है। जिन्हें हम सब भूलते जा रहे हैं। सब समझाइए, लोगों के मन में छोटे-बड़े शहरों के प्रति मोह जगाइए, प्रेम जगाइए। पढ़ने वाले तो सब जगह पढ़ लेते हैं।

Thursday, 16 November 2023

कृत्रिम मेघा और पत्रकारिता



मेरा इकलौता सुझाव यह है कि, अपने सपने का अनुसरण करें और वहीं करें जो आपको सबसे अच्छा लगता हो। मैंने पत्रकारिता इसलिए चुना, क्योंकि मैं ऐसी जगहों पर होना चाहता था जहां इतिहास गढ़े जाते हों। 


स्वतंत्रता आंदोलन के कालखण्ड में राष्ट्र जागरण में समाचार पत्रों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, इसलिए हमारे देश में पत्रकारिता व्यवसाय नही, अपितु सांस्कृतिक मूल्यों के उन्नयन और सामाजिक न्याय का आश्वासन है। सूचना और संचार की क्रान्ति के इस युग में प्रेस की स्वायत्तता और अभिव्यक्ति सुरक्षित रहे, किन्तु समाज के प्रति मीडिया की संवेदनशीलता और अधिक अपेक्षित है।  

कृत्रिम बुद्धिमत्ता (कृत्रिम मेघा) आने वाले समय में पत्रकारिता में क्रांतिकारी परिवर्तन लायेगा। आने वाले भविष्य में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के युग में मीडिया नए कीर्तिमान स्थापित करेगा। यह ठीक वैसा ही वाक्या है जब देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने देश को कंप्यूटर व हर हाथ मोबाईल का सपना दिखाया था। जिसके अपने कुछ फ़ायदे व नुक़सान हैं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस भी इस क्षेत्र का एक अगला कदम है। 

बदलते समय के साथ तकनीक में बदलाव भी आवश्यक है और बदलते समय के साथ इससे अपनाना भी आवश्यक है। कृत्रिम बुद्धिमता आगामी समय की मांग है जो पत्रकारिता को आगे बड़ाने में सहायक सिद्ध होगा। कृत्रिम बुद्धिमत्ता आने वाले समय में पत्रकारिता में क्रांतिकारी परिवर्तन लायेगा। बदलते परिवेश में मीडिया की भूमिका में भी बदलाव आया है। एक सशक्त राष्ट्र निर्माण व विकास में मीडिया की अहम भूमिका है तथा लोकतंत्र में मीडिया का प्रमुख स्थान है तथा इसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भी कहा जाता है।


माना जाता है कि मीडिया सरकार व प्रशासन के बीच सेतु के रूप में कार्य करता है तथा सरकार की विकासात्मक नीतियों व कार्यक्रमों को लोगों तक पहुँचाने में मीडिया की अहम भूमिका रहती है। वहीं इन योजनाओं से मिलने वाले लाभों व योजना की सफलता व कमियों के बारे में फीडबैक देने भी में मीडिया की अहम भूमिका है।

आज जहां समाज और व्यवस्था के हर अंग में नैतिक गिरावट आई है, वहां पत्रकारिता की गिरावट के लिए केवल पत्रकारों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जहां वे पेशेवर मानकों और नैतिकता को बनाए रखने की जिम्मेदारी निभाते हैं, वहीं जनता भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 

एक जीवंत लोकतंत्र और मजबूत मीडिया पारिस्थितिकी तंत्र के लिए पत्रकारों और जनता के बीच साझेदारी की आवश्यकता होती है, जो सटीक, विश्वसनीय और सार्थक जानकारी के प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए मिलकर काम करते हैं। केवल सामूहिक प्रयासों से ही हम चुनौतियों से निपट सकते हैं और एक ऐसे भविष्य का निर्माण कर सकते हैं जहां पत्रकारिता लोकतंत्र के चौथे स्तंभ और सकारात्मक बदलाव के लिए एक आवश्यक शक्ति के रूप में विकसित हो। 

लोगों के लिए हर जगह जाना असंभव है, इसलिए दुनिया के बारे में उनकी समझ मीडिया पर निर्भर करती है। प्रसारण, टेलीविज़न, प्रिंट मीडिया तथा ऑनलाइन मीडिया सभी की ज़िम्मेदारी है कि वे लोगों को अच्छी तस्वीर प्रदान करें, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें झूठी जानकारी फैलानी चाहिए या जानबूझकर तथ्यों को विकृत करना चाहिए। मीडिया सूचनाओं और विचारों को संप्रेषित करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाता है। लेकिन, व्यावसायीकरण के कारण कई मीडिया अपनी निष्पक्षता खो चुके हैं। विशेष हितों और राजनीतिक स्थितियों के अनुरूप समाचार रिपोर्टों में हेराफेरी और छेड़छाड़ की जाती है। झूठी जानकारियों के फैलने से सामाजिक भ्रम पैदा हुआ और अविश्वास बढ़ा।  
 
भविष्य में समाज चाहे कैसा भी विकसित हो, मीडिया एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। और मीडिया चाहे कोई भी मॉडल विकसित करे, पाठ, ध्वनि और चित्र मीडिया की मुख्य सामग्री होंगे। मीडिया तस्वीर और ध्वनि के माध्यम से लोगों को विभिन्न प्रकार के मनोरंजन और जानकारी प्रदान करता है। लेकिन अगर मीडिया वास्तविक जीवन के प्रतिबिंब को नजरअंदाज करते हुए और केवल झूठी सुंदरता को लोगों तक पहुंचाते हुए, आँख बंद करके उच्च रेटिंग और व्यावसायिक हितों का पीछा करता है, तो इससे लोगों को वास्तविक जीवन में और अधिक निराशा महसूस होगी। इस संबंध में न केवल मीडिया, बल्कि मुझे डर है कि फिल्में भी वही भूमिका निभाती हैं। वास्तव में, फिल्में सबसे शक्तिशाली प्रचार सामग्री हैं। सभी देशों की फिल्में अपनी कलात्मक सामग्री के माध्यम से लोगों तक विचार पहुंचाती हैं।
  
मीडिया की झूठ जानकारियों से लोग जीवन में सच्चाई का सामना करने में असमर्थ हैं, जिससे लोगों के बीच अलगाव को भी बढ़ावा मिलता है। उदाहरण के लिए, इंटरनेट पर लोग अपने सच्चे विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने के लिए अधिकतर छद्म शब्दों का प्रयोग करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग गुमनाम ऑनलाइन वातावरण में अपनी राय अधिक खुलकर व्यक्त कर सकते हैं। लेकिन, यह गुमनामी अपने साथ झूठी, अपमानजनक और गैरजिम्मेदाराना बयानबाजी भी लाती है। आज इंटरनेट अफवाहों और दुर्भावनापूर्ण टिप्पणियों से भरा है, क्योंकि नेटिजनों को अपनी वास्तविक पहचान की ज़िम्मेदारी नहीं उठानी पड़ती है। संक्षेप में, मीडिया में फेक जानकारियों का प्रसार आधुनिक समाज में मूल्यों के असंतुलन को दर्शाता है। केवल इमानदारी संचार और पारस्परिक समझ के माध्यम से ही दुनिया को बढ़ावा मिलेगा।

लोकतंत्र के सजग प्रहरी के रूप में जन-जन की आवाज़ बनकर राष्ट्र एवं समाज को सही दिशा देने वाले सभी पत्रकार बंधुओं को राष्ट्रीय प्रेस दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ। आपकी सजग, स्वतंत्र और साहसिक पत्रकारिता राष्ट्रनिर्माण के यज्ञ में आवश्यक आहुति है।

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Friday, 27 October 2023

हां तुम बिलकुल —


अधिकांश सुन्दरी-सेवियों के जीवन में एक ऐसा समय आता है जब सुंदरियाँ उनके पास श्रद्धा-पूर्ण पत्र भेजने लगते हैं। कोई उनकी शारीरिक प्रशंसा करता है कोई उनके सद्विचारों पर मुग्ध हो जाता है। मुझ जैसे अदने से लेखक को भी कुछ दिनों पूर्व यह सौभाग्य प्राप्त है। ऐसे पत्रों को पढ़ कर हृदय कितना गद्गद हो जाता है इसे किसी मुझ जैसे भोले लड़के ही से पूछना चाहिए। अपने फटे कंबल पर बैठा हुआ वह कैसे गर्व और आत्मगौरव की लहरों में डूब जाता है। भूल जाता है कि रात को गीली लकड़ी से भोजन पकाने के कारण सिर में कितना दर्द हो रहा था खटमलों और मच्छरों ने रात भर कैसे नींद हराम कर दी थी। मैं भी कुछ हूँ यह अहंकार उसे एक क्षण के लिए उन्मत्त बना देता है। पिछले साल सावन के महीने में मुझे एक ऐसा ही पत्र मिला। उसमें मेरी मनगणत प्रसंग की दिल खोल कर दाद दी गयी थी।

पत्र-प्रेषक स्वयं एक अच्छे कवि हैं। मैं उनकी कविताएँ पत्रिकाओं में अक्सर देखा करता हूँ। कवि महोदय का पत्र, पत्र कम किसी उपहार से कहीं अधिक मर्मस्पर्शी था। प्यारे भैया ! कह कर मुझे सम्बोधित किया गया था मेरी रचनाओं की सूची और प्रकाशकों के नाम-ठिकाने पूछे गये थे। अंत में यह शुभ समाचार है कि मेरी पत्नी जी को आपके ऊपर बड़ी श्रद्धा है। वह बड़े प्रेम से आपकी रचनाओं को पढ़ती हैं। वही पूछ रही हैं कि आपका विवाह कहाँ हुआ है। आपकी संतानें कितनी हैं तथा उनकी कोई फोटो भी है हो तो कृपया भेज दीजिए। मेरी जन्म-भूमि और वंशावली का पता भी पूछा गया था। इस पत्र विशेषतः उसके अंतिम समाचार ने मुझे पुलकित कर दिया।


यह पहला ही अवसर था कि मुझे किसी महिला के मुख से चाहे वह प्रतिनिधि द्वारा ही क्यों न हो अपनी प्रशंसा सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गरूर का नशा छा गया। धन्य है भगवान् ! अब रमणियाँ भी मेरे कृत्य की सराहना करने लगीं ! मैंने तुरंत उत्तर लिखा। जितने कर्णप्रिय शब्द मेरी स्मृति के कोष में थे सब खर्च कर दिये। मैत्री और बंधुत्व से सारा पत्र भरा हुआ था। अपनी वंशावली का वर्णन किया। कदाचित् मेरे पूर्वजों का ऐसा कीर्ति-गान किसी भाट ने भी न किया होगा। स्पष्ट से अपनी बड़ाई करना उच्छृंखलता है मगर सांकेतिक शब्दों से आप इसी काम को बड़ी आसानी से पूरा कर सकते हैं। खैर मेरा पत्र समाप्त हो गया और तत्क्षण लेटर बॉक्स के पेट में पहुँच गया। इसके बाद से आज तक कोई पत्र न आया।

अपने विवरण के पूर्ण होने के पश्चात् मुझे अनायास ही याद आया “चांद सी महबूबा हो मेरी” गाने में हीरो अपनी हिरोइन के मोटापे से दुखी है। वह उस पर उसका मज़ाक़ भी बनाता है और डर के मारे खुद के मन को भी समझाता नजर आता है। वही अधिकतर हमारे समाज की भी समस्या आन पड़ी है। तभी तो आज प्रातः भ्रमण पर सड़क का नजारा आप देख सकते हैं। इतनी सुबह-सुबह आंखिर किसको क्या चाहिए। इसी उधेड़बुन में हम लगातार भीड़ का हिस्सा बने हुए हैं। उसने हरगिज़ नही सोचा था कि महबूबा एक ही बच्चे के बाद चांद जैसी गोल मटोल हो जायेगी। अगली लाइन में पिटने से बचने के लिए बेचारा मजबूरी में बोला "हां तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था"। यही हाल मेरे कुछ साथियों का भी है, यदि किसी के दिल पर लगे तो क्षमाप्रार्थी हूँ। वैसे मेरी नजर से तुम देखो तो फिर एक मस्त फ़साना याद आयेगा, ऐसे न देख मुझे नजर लग जायेगी, चोट जाने कहां-किधर लग जायेगी”। चल हट झूठे, बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला। 

खैर अब तो अपनी महबूबा की तुलना भी कोई चाँद से करने में इतना कतरायेगा, जैसे विक्रम वेताल ने कोई डरावनी कहानी से रूबरू कराया हो। इस पर बहादुर शाह ज़फ़र ने क्या खूब फ़रमाया है,—
तुम ने किया न याद कभी भूल कर हमें,
हम ने तुम्हारी याद में सब कुछ भुला दिया। 

व्यक्ति में इतनी ताकत हमेशा होनी चाहिए कि अपने दुख अपने संघर्षों से अकेले जूझ सके। जिस दिन ये समझ आ गया तो उस दिन लगने लगेगा बस जीवन इसी का एक पहलू है। 

“सिंह सुवन, सत्पुरुष वचन, कदली फलै इक बार,
तिरिया तेल हमीर हठ, चढ़ै न दूजी बार.“

यानीं सिंहनी एक बार में एक ही शावक को जन्म देती है सज्जन लोग बात को एक बार ही कहता है, केला एक बार ही फलता हैं। स्त्री को एक बार ही तेल उबटन लगाया जाता हैं ऐसा ही राव हम्मीर का हठ हैं यानि हम्मीर देव चौहान ने एक बार जो ठान लिया, फिर वो अपनी भी नहीं सुनते थे, इस कारण इन्हें हठीला हम्मीर भी कहा जाता हैं। 

    

Saturday, 21 October 2023

मानसिकता की सारी गड़बड़ —



मुझे लगता है हर किसी मन में कुछ पाने की दौड़ हमेशा नचाती है। अक्सर ऐसे में वह छूट जाता है जो सामने है, जो वर्तमान क्षण है। आप जो भी पाने के लिए दौड़ेंगे, वही नहीं मिलेगा। 

अहिंसक होना चाहेंगे, हो नहीं पाएँगे। शांत होना चाहेंगे, शांत नहीं हो पाएँगे। संसार से भागना चाहेंगे, भाग नहीं पाएँगे। जो भी होना होता है। वह कभी भी आपकी चाह से नहीं होता। चाह से चीजें दूर हटती जाती हैं। चाह दरअसल बाधा है। आप जो हो बस उसी के साथ राजी हो जाएँ। यही सुखी जीवन का मूल मंत्र है। तो पूरे होश के साथ आप अपनी सजगता बनाए रखें। प्रकृति स्वयं सब सिद्ध करेगी।


कभी सोचा है आपने, यह भ्रम किसने फैलाया कि स्त्री पर हाथ नहीं उठाया जाना चाहिए? तो चलिए आज कुछ इतिहास के तथ्यों के माध्यम से समझते हैं आंखिर हम किस हद तक सही हैं? हमारा पहाड़ किस दिशा की तरफ बड़ रहा है? विचार करियेगा...

हनुमान जी ने भी दो गदा खींच के मारा था लंकिनी को, भरत जी ने अपनी माँ कैकेई को भला बुरा सुनाया था, ज़रूरत पड़ने पर लक्ष्मण जी ने सूर्पनखा का नाक काट दिया, भगवान श्री कृष्ण ने भी पूतना का वध किया था!

जब रानी चेनम्मा और रानी लक्ष्मीबाई युद्ध के मैदान में गयी तो क्या स्त्री समझ कर उन पर वार नहीं किया गया होगा? युद्ध का मैदान स्त्री पुरुष का भेद क्या जाने?

कन्या है तो हाथ मत उठाओ, आखिर क्यों भाई? गलती करेगी तो मार भी पड़ेगी जैसे बेटे को पड़ती है, सब सुविधा दो लेकिन हाथ मत उठाओ?

इसी मानसिकता ने सारी गड़बड़ की है, दो थप्पड़ बचपन में लगाओ और फिर बताओ की तुम कहीं की परी नहीं हो, गलती करोगी तो कुटाई भी होगी, तब जाकर वह एक दम सही रास्ते पे चलेगी

सारा काम मेरी गुडिया, मेरी रानी, मेरी परी करने वालों ने बिगाड़ा है, लेकिन जब उनकी बेटी लव जिहाद का शिकार हो जाती है तब उनके पास छाती पीटने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता, एक घटना देखने को मिला है जिसमें अपनी बेटी को तो सुधार नहीं पाए लेकिन श्राद्ध जरूर किए थे तो आखिर ऐसा नौबत क्यों आया?

लड़का और लड़की दोनों को हमारा धर्म और कानून समानता का अधिकार देता है लेकिन अक्सर यह देखने को मिलता है गलती चाहे लड़की करे फिर भी ज्यादातर दोष लड़कों के ऊपर डाल दिया जाता है। 

आजकल अक्सर आपको बड़े शहरों में देखने को मिलेगा की बहुत सी लड़कियां नशा करती है, गलत रास्ते पर चलती है और इसका असर धीरे-धीरे छोटे-छोटे शहरों के साथ गांव में भी आने लगा है। इस पर हमारे देश की सिनेमा का बहुत बड़ा हाथ है। सास भी कभी बहूँ थी दिखाकर संयुक्त परिवारों का बंटाधार किया है। कौन और क्यूँ कोई सुध लेगा। जिसका सम्राट ही घर-परिवार त्याग आधुनिक महात्मा बन बैठा हो। 

आज फिर जुकरू से अकाउंट प्रतिबन्धित करवाने की तमन्ना है……..

Sunday, 8 October 2023

मैं....

पेड़ कितना मजबूत है
ये पेड़ नहीं आँधियाँ बतायेंगी,
तुम्हारे चित्त की हालत
तुम्हारे शब्द नहीं
तुम्हारी वृत्तियाँ बतायेंगी।
मैं ने देखी, 
मैं की माया।
मैं को खोकर, 
मैं ही पाया।
सिर्फ़ सिर झुका तो क्या झुका
अहंकार झुकाओ तो जानें……….


Sunday, 1 October 2023

फकीरी -



अपनी ज़िन्दगी भी यारों कुछ वो जींस, टी-शर्ट की यारी जैसी हो चली है। इस पर किसी ने खूब कहा कहा है, “जींस, टी-शर्ट तो वैसे भी मजदूरों के लिए बनाए गए थे जो आज बदलते वक्त के साथ फैशन में आ गए।”

अजीब है न!


जब कभी मैं प्रेम विषय पर कुछ लिखना चाहता हूं और दिमाग ब्लैंक हो जाता है तब मैं तुम्हारी तस्वीर देखता हूँ। तुम्हारी ऑंखें, तुम्हारे होंठ, तुम्हारा चेहरा। फिर उंगलियां तैरती है कीबोर्ड पर और छप जाती है कोई प्रेम कहानी। सच कहूं तो तुम पूरी किताब हो प्रेम की, मैं बस कुछ पन्नों को ही पढ़ पाया हूँ। बहुत मशरूफ़ रहता हूं, दुआ करो मुझे फुर्सत नसीब हो और पूरी किताब पढ़ सकूं तसल्ली से।

कहते हैं चमकीली धूप जब सर्द लकीर बनकर रह जाए तो दर्द होता है। अनगिनत पीड़ाओं को जब अल्फाजों की रूह न मिले तो दर्द होता है॥

ईश्वर ने हर किसी को कुछ रिश्तों के साथ धरती पर भेजा, उनके लिए शुक्रिया और शुक्रिया उन रिश्तों के लिए भी जो अपने आप ही बनते गए। कब कैसे किधर..? कुछ नहीं पता, पर बने। कुछ तूफान आने पर भी टिके रहे और कुछ हवा की जरा सी सरसराहट भी झेल न सके और उड़ गए। ऐसे रिश्तों के लिए शुभचिंतकों से नसीहतें मिलती रहती है कि मैंने इन्हें बिना-वजह ही सर पर चढ़ाया, खुशामद की। कुछेक लोगों को लगता है मेरा इनसे कोई गुप्त मतलब होता है तभी, अब मतलब क्या है वो तो मेरा दिल या उनका दिल ही जानता है।

वैसे जब पीड़ाओं को अल्फाज़ न मिले तो, मैं बस वही अल्फाज़ बनने की कोशिश करता हूं, पर वो शब्द कब पन्ने - पन्ने बढ़ते चले जाते हैं पता नहीं चलता। फिर रुकूं तो उन्हीं लोगों को तकलीफ होती है। नतीजा, वहीं रिश्ते पलायन करने लगते हैं और दोष अल्फाजों को देने लगते है। खैर अब मैंने फकीरी अपना ली है। अपनी चारपाई खुले आकाश के नीचे बिछाई है, न दीवारों का डर और न दरवाजे का। रही बात अल्फाज़ बनने की तो जन्मजात गुण है जो जाने नहीं वाला। बाकी जिन्हें ठहरना है वो ठहरें, जिन्हें जाना है वो शौक से जाएं।

वैसे अब उम्र धीरे-धीरे फिसल रही है। पता भी नहीं कितनी बाकी रही, रोज थोड़े पन्ने पढ़ता हूँ दुआ करो साँसे पूरी होने से पहले आखिरी पन्ना पलटकर बन्द कर दूं किताब।

मुझे मजनू नहीं बनना, न रांझा, न रोमियों। इनके जैसा कुछ नही चाहिए। मुझे इमरोज के फीमेल वर्जन की तलाश है। हो सके तो दुआ करना यहीं नसीब हो। जीवन की संध्या में तुम्हारे साथ रहने का सौभाग्य या कोई ऐसा मकान जो पटा पड़ा हो तुम्हारी तस्वीरों से। दीवारों, छतों, सीढ़ियों हर जगह बस तुम ही तुम। हो सके तो दुआ करना। सुना है जिसकी ऑंखें मासूम होती है ऊपर वाला भी उनकी सुनता है ...

कहाँ से लाऊँ रोशनी, खुशी व उम्मीद की बातें ? जो जीवन में ना के बराबर है। इन काले यथार्थ के अतल गह्वर में एक सर्जक के नाते मैं अपनी ओर से छींट भर रंग, चुटकी भर उजाला घोल सकता हूँ। इससे ज्यादा क्या ? ख़ुशी, उम्मीद, सपने शून्य में पैदा नहीं हो सकते। इन्हें एक ठोस आधार चाहिए होता है। 

मेरे हाथ में क़लम है, लिखने को कुछ भी लिख दूँ, पल में हवाई महल खड़ा कर दूँ, दुष्टों का नाश कर दूँ, लाटरी लगवा दूँ, मगर जीवन की समस्याओं का ऐसा सरलीकृत हल देना सही होगा क्या ?

Wednesday, 27 September 2023

जब शहर सो रहा था-



अहा बारिश और मैं, कभी झम झम के स्वर से आपकी नींद खुले, तो देखो जैसे बारिश पंचम स्वर में आलाप ले रही हो। घुप्प अंधेरे में बरसते मेघ जल को सुनना प्रेम के जादुई अक्षरों को सुनने से कम नहीं होता। बिन बादल बरसात के इन्ही दिनों में कोई मनोहरा मन को हर ले गई होगी।


बरसती बूंदों के संगीत, उसका स्पर्श, उसे महसूस करने के अपरिमित सुख का एकमात्र अधिकारी। दामिनी दमक रही घन माही, मेरे घर आंगन में लगा छितवन चमकने लगता है, उसकी पत्तियां फूल आई हैं। फूलना कितनी सुखद क्रिया है। प्रेम और मिलन की अभिव्यक्ति है फूलना। जीवन पुष्पित पल्लवित होने का नाम है, फूल जैसे हो जाने का नाम है। फूलने का आनंद ही देवत्व है। देव पर फूल चढ़ाते हुए शायद ही कोई इस भाव में हो कि देव से मिलन का आह्लाद कैसा होता है। भागदौड़ कर फूल फेंक दिया , लो जी हो गया मिलन, शुष्क मन से अर्पित फूल देव तक पहुंचने से पहले ही रुक्ष हो जाते होंगे। 

सिंदूरी बादलों को छूकर आती हवा में लाज की गंध बसी है। अनायास ही सितंबर की खुमारी मन को गुदगुदाने लगती है और बीते पलों के नाव पर बैठा देती हैं। कितनी शहद सी स्मृतियाँ मौसम के परों पर बैठी आस पास उड़ने लगती हैं। 
  
सिहराती नदी का वह किनारा दिखने लगता है जहाँ साँझ के कोमल पाँवों में कोई लाली लगा रहा होता है और शबनमी चाँद मुस्कान की तरह उभरता है, सितारों की कतार रोशन हो उठती है। ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने पारिजात के फूलों की छड़ी हवा में उछाल दी। त्यौहारों की उमंग का कोष धीरे धीरे बढ़ रहा होता है। 

शामें और उनकी सरगोशियाँ, लैंप पोस्ट से आती मद्धिम मुलायम सी रोशनी, यूँ  ही घूमते घामते बेवजह ही किसी चाय की टपरी पर कदम रुकते हैं। उबलती चाय रूमानियत का पर्याय बन जाती है। मौसम का स्वाद और गाढ़ा हो जाता है। एक कहानी का अक्स दिखता है जिसकी नायिका नीली साड़ी और पफ ब्लाउज पहने नायक के कंधे पर सर रख कर शाम का ढलना देख रही है, दोनो चुप हैं पर दोनो के हृदय-मध्यांतर भावयामि के गीतों से भरी एक  धारा बह रही है। 

सितम्बर मयूर सा है, त्योहार सा है, कुमकुम सा है, रास सा है, फूल सा है, सुगंध सा है, बंशी की धुन सा है। सितम्बर प्रेम सा है, सितंबर प्रेम है। 

समय कब गुजर जाता है पता नहीं चलता, मैं अपनी सारी सजगताएं खो देना चाहता हूं, बरसते पानी में बहा देना चाहता हूं, बहाकर ठीक वैसे खुश होना चाहता हूं जैसे बच्चे पानी में कागज की नाव बहाकर खुश होते हैं। अचानक बस की पों पों से फूल कुम्हला जाता है। साढ़े छह बजे हैं। सड़क पर स्कूल बस आई है, एक मां अपने बच्चे को बस में बैठा रही है, बड़बड़ाए जाती है, पन्नी लपेटे बच्चा भी कूं कां करता हुआ पीठ पर बैग लादे पानी से बचते हुए बस में बैठ रहा है। मैं केवल इतना सुन पाता हूं, बड़ा ही गंदा मौसम है। मन में फांस सा धंस जाता है।

मौसम के सौंदर्य बोध की ग्रंथियों को मार कर हम कौन सी शिक्षा व्यवस्था का निर्माण कर रहे हैं, बच्चों का बचपन खाता स्कूल जेल से भी बदतर कब हो गया कुछ पता नहीं चला, मां बाप की इतनी हिम्मत नही है कि कह दें, मत जा स्कूल चल आज कैरम खेलते हैं, बरसात को सेलिब्रेट करते हैं। उन्हें डर है कि एक दिन भी क्लास मिस होने से बच्चा गंवार हो जायेगा। 

मुझे ख्याल आता है कि शायद सुपरसोनिक स्पीड से भागती हुई सभ्यता में ठहर कर बारिश को देखने बात अजीब हो सकती है या विकास की दौड़ में एक एक सेकंड का इस्तेमाल कर कर्मठ लोगों के मध्य बरसात की जल-तरंगो को सुनना कहीं असभ्यता की श्रेणी में तो नहीं आता। बारिश बदस्तूर जारी है, दामिनी दमक रही है, घनराज की दुंदुभी बज रही है, पन्नी में लिपटे लोग पानी में भाग रहे हैं, दरअसल पानी से भाग रहे हैं, दरअसल पूरी सभ्यता अब पानी से भाग रही है, या पानी के पीछे भाग रही है।

Sunday, 24 September 2023

एक दिन का विजेता -



नज़र से जो तजुर्बा हासिल हुआ है, वह कहता है कि आंखों की देखी आधी सच मानो और कानों की सुनी पर पूरा यक़ीन मत करो, क्योंकि अगर सिर्फ आंखे और कान ही तुमको सच के दर्शन करवाते, तो यूँ बहके बहके लोगों की भीड़ न होती। कुछ है, जो तुम्हे समझना है, बस यही दो लफ्ज़ उस चौखट पर बोलने है, कहने हैं और निकल जाना है उधर, जिधर नज़र को तराशना सिखाया जाता है।


यार मेरे, संडे आते-आते जीवन चाईनिज बैटरी सा हो जाता है। हम पांच/छह दिन बेतहाशा काम किए जाते हैं। इन पांच दिनों में कुछ लोगों से हम नाराज़ होते हैं, कुछ हमसे होते हैं। कोई हमें कुछ सुना जाता है और हम अनसुना कर जाते हैं। कितनी-कितनी अपेक्षाओं और उपेक्षाओं के बीच का जीवन जी रहे होते हैं हम। जीते जाते हैं बस इस आस में कि मेरे हिस्से में एक संडे तो है।

संडे को मन की गिरहें खुलनी शुरु होती है। सख्त और अनुशासित जीवन की पकड़ ढीली पड़नी शुरु होती है और हम ख़ुद भी उसे यूं ही छोड़ देते हैं। मन की गिरहें खुलनी शुरु होती है तो बातें शुरु होती है। हर वो बात जिसे पिछले छह दिनों तक हमने अनसुना किया, यूं कि जैसे मुझ पर किसी बात का कोई फर्क़ नहीं पड़ता। वो छोटी बातें जो दिमाग़ पर असर तो करती है लेकिन हम हावी होने देना नहीं चाहते। बातें, चाय, पोहे, बातें और तब तामझाम से अलग सीधे-साधे जीवनवाली चाय, वो चाय और उन दिनों ती चाय जिसके साथ एक वाक्य नत्थी हुआ करता-आज कौन चाय पिला रहा/रही है ?

किसी ने क्या खूब कहा है मेरे दोस्त मन का खुलना बहुत मुश्किल चीज़ है, सबके आगे नहीं खुलता। जिसके आगे खुल जाय तो समझिए कि शहर ने आपको अपना लिया है। मन खुला कि हम फैब इंडिया की कटलरी और तामझाम से एकदम टपरीवाली कांच की गिलास पर उतर आते हैं। एकदम मामूली, एकदम औसत, लेकिन मामूली और औसत होना आसान है क्या ? बिना मन के खुले ये संभव है क्या ? शहर में ये सबसे दुर्लभ बात है। आज मन खुला तो चाय की रंगत और पेश किए जाने का अंदाज़ भी बदल गया। शहर में रोज का जीवन आसान नहीं है, रोज हम एक युद्ध से गुज़रते हैं और परास्त होते हैं। बस ये है कि जिसके हिस्से संडे और मन को समझनेवाला कोई सामने बैठकर सुननेवाला हो तो वो समझिए एक दिन का विजेता है। हम सब टाइम और स्पेस से बँधे हैं। किसी एक में परिवर्तन दूसरे में भी बदलाव की वजह होती है। दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। 


लेकिन, समय का एक ऐसा भी रूप है जो घड़ी के हिसाब से नहीं चलता उसे समझना कहीं ज्यादा मुश्किल है। आप गौर से देखें, तो पाएँगे कि समय तो केवल बिखराव ही लेकर आता है- बेतरतीबी, अव्यवस्था लेकर आता है। इसी में सृजन के बीज भी होते हैं। इसी से आपकी पूरी स्थिति बदलने वाली होती है।

और आप हैं कि सब कुछ फिक्स चाहते हैं जीवन में, कोई भी परिवर्तन आपको सहज स्वीकार नहीं होती जबकि स्थिरता समय का स्वभाव ही नहीं है, बदलाव और बिखराव ही सत्य है। आपको उसके साथ सामंजस्य बिठाना होगा, अनिश्चितता को स्वीकार करना होगा। यही राह है और यही मंजिल भी। इसे समझ जाएँगे तो बहुत से मनोविकारों या कल्पनाओं से बच कर वर्तमान क्षण का लुत्फ़ ले पाएँगे।

"उम्र के साथ इतवारों की तलब जल्दी-जल्दी लगने लगी है। सोचता हूं हाक़िम को एक चिट्ठी लिखूं, कि हफ्ते में दो इतवार का एलान कर दें, तलब बुरी चीज है।”

Saturday, 23 September 2023

मेले, आशा के पंख



किसी ने सच ही कहा है बिना फूलों के शहद मधुमक्खी नही, एक लालच से ओतप्रोत व्यापारी अत्यधिक धन कमाने की आशा के साथ बनाता है। आशा एक पंख वाली चीज है जो आत्मा में बसती है और बिना शब्दों के धुन गाती है और कभी रुकती नहीं है। ठीक वैसे ही मेले और मेले में पनपने वाली कहानियाँ भी है।


बागेश्वर की गर्म धूप और डंगोली मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रम देखती सुनहरे सूट वाली वो लड़की। गुलाबी दुपट्टा जिससे चेहरे को धूप से बचाया गया और एक म्याऊं म्याऊं वाला बड़ा सा चश्मा।


मैं पहुंचे, उन्होंने देखा और इशारे से पास बुला कर बगल बैठा लिया। हम दोनों के कुर्ते सुनहरे थे। उन्होंने अपना संगीत प्रेम ज़ाहिर किया और हम कौतिक का एक वृहद् गोल चक्कर लेकर चाय पीने निकल पड़े। हमने देखी मेले में गजब की भीड़ पर उस भीड़ में मानो हम अकेले हों। ऐसे टहल रहे हों जैसे कोई नवाब अपनी रियासत के किसी बगीचे में अपनी महारानी की बाहों में बाहं डाले सैर पर निकला हो।


उन्होंने खूब बातें की। हम देखते रहे। हम सुनते रहे। सब मानो 5D में चल रहा था। जब उन्हें देखते तो कुछ सुनाई न देता, जब उन्हें सुनते तो कुछ दिखाई न देता। जिंदगी की तमाम उलझनों में स्वादिष्ट चाय सा है ख़्वाब तुम्हारा।


साथ होना पास होने से ज्यादा जरूरी होता है। वो चलीं गयीं। सब चले जाते हैं। जाते हुए उनको देर तक देखते रहे। ओझल होने तक। पलट कर दूसरी तरफ देखा तो उनकी खुशबू आ रही थी। कंधे के पास नाक रखी तो उनकी महक छूट गयी थी।

मुस्कुराहट कभी ऐसे भी सिकुड़ती है जैसे किसी पंक्षी के पर थकने के बाद। आंखें खुली हुई भी निस्तेज हो जाती हैं। कभी बसंत में ही चेहरा फीका पड़ जाता है। जीवन में कई दिन बड़े मशरूफ होते हैं। कई स्मृतियां यहीं किसी रंग से भीगे हुए पात्र में विलुप्त हो गए सिक्के की तरह गुम हो जाती हैं, फिर एकाएक यूं आकर सामने बैठती हों जैसे दरवाजे पर कोई फकीर जिसकी आंखों में सदियों का सन्यास है।

ऐसे ही कुछ स्मृतियां आंखों के सामने तैरने सी लगीं। जीवन के बाइस्कोप की रील पीछे घूमने लगी। हृदय में एक जोरदार धक्का सा लगा। जीवन के सारे दिन बादलों संग उमड़ आसमान में मंडराने लगे। एक कहानी जिसे मेले की इस भीड़ में शायद कोई महसूस कर पा रहा हो। प्रेम में हमेशा कुछ न कुछ छूट ही जाता है न? यहां मैं का सम्बोधन एक किरदार से है जिसे में बड़ी देर से देख रहा था। समझने की कोशिश कर रहा था। वैसे मेले के भी अपने रंग, अपनी कहानियाँ व अपने किरदार होते हैं।

♦️अनावश्यक टिप्पणी वाले टिप्पणीकारों के लिए नोट— जिस दिन बनूँगा इतिहास बनूँगा एक रात का किस्सा नही बनना चाहता मैं, जो भी करूँगा सबसे हट कर करूँगा औरों की तरह भीड़ का हिस्सा नही बनना चाहता मैं।

जय माँ कोटभ्रामरी 🙏🏻

Thursday, 14 September 2023

दिलों में धड़कती हिंदी-



अब हम तो जन्म से ही हिंदी माध्यम वाले लड़के हैं।लेकिन आजकल वाले बच्चे दुनिया में आने से पहले ही इंग्लिश मीडियम टाइप हो जाते हैं। हमारे और उनके बचपन में ही बहुत अंतर है। जहाँ हमें किसी रिश्तेदार के आने पर कहा जाता कि बेटा चाचा जी से "जय जय" करो ! और हम बेझिझक सलाम ठोक देते थे।
पर आजकल की मम्मियाँ कहतीं हैं बेटा अंकल को फ़्लाइंग किस दो !! और आसानी से बच्चा फ़्लाइंग किस के साथ बोनस में आँख भी मारता है। अब बच्चे तो मिटटी के कच्चे घड़े हैं वे वही सीखेंगे जो सिखाया जाएगा।


खैर इनके बाद आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो ,आज का इंसान भले ही अंग्रेज हो गया हो लेकिन गाली आज भी हिंदी में देता है। आज कोई अंग्रेजी बोले तो उसे हिंदी में समझाना पड़ता है। बरहाल हिंदी का हमारे जीवन में उतना ही महत्व है जितना कि psychology में P का है।

हिंदी है हम, वतन है हिंदुस्तां हमारा' लेकिन आज लगभग सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी में प्रश्न पूछना एक परंपरा सी है, जिससे हिंदी पूर्ण तय: उपेक्षित रही है। 

कोई भी भाषा राष्ट्र की धड़कती हुई जिंदगियों का स्पंदन है। भाषा संस्कृति की वाहक भी होती है। हमारी अपनी हिंदी भी कुछ ऐसी ही है, जिसमें जिंदगी के अनोखे रंग बयां होते रहते हैं। विपरीत परिस्थितियों में हिंदी ने देश में अपने पैर जमाए। मुगल काल में हिंदी का विकास तेजी से हुआ तब भक्ति आंदोलन ने हिंदी को जन-जन से जोड़ा था। अंग्रेजी राज में भी स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्य भाषा होने के चलते हिंदी का विकास हुआ।

अमीर खुसरो की पहेलियों, मुकरियों से होते हुए कबीर के दोहों, तुलसीदास की चौपाइयों से होती हुई हिन्दी आधुनिक युग तक पहुंची। यहीं पर हिंदी आम- बोलचाल से लेकर अखबार, टीवी, रेडियो, सिनेमा, विज्ञापन समेत कई विधाओं को व्यक्त करने का माध्यम बनी। स्मार्टफोन से लेकर मेट्रो शहरों तक हिंदी का आज धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। 1826 में हिंदी का पहला अखबार उदंत मार्तंड आया। 1950 में हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला।

आज हम 'हिंदी दिवस' मना रहे हैं जिसकी शुरुआत 14 सितम्बर 1953 को हुई थी। हम आज तक हिंदी को जनभाषा, राजकाज की भाषा एवं कानून की भाषा नहीं बना सके। यह एक ज्वलंत प्रश्न है। सोचिए जरा - भारत एक है, संविधान एक है, लोकसभा एक है, सेना एक है, मुद्रा एक है, राष्ट्रीय ध्वज एक है तब क्या इसी तरह समूचे देश में हिंदी को भी एक राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मान नहीं मिलना चाहिए?

 भारत और अन्य देशों में 70 करोड से अधिक लोग हिंदी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं और यह विश्व की सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली तीसरी भाषा है। भारत के अलावा कई अन्य देश ऐसे हैं, जहां लोग हिंदी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। इन देशों में नेपाल, मॉरीशस, फिजी, पाकिस्तान, सिंगापुर, त्रिनिदाद एंड टोबैगो,बांग्लादेश शामिल हैं।

 'हिंदी है हम, वतन है हिंदुस्तां हमारा' लेकिन आज देश में दो देश जी रहे हैं। एक पुराना भारत जिसे आज का शिक्षित वर्ग रूढ़िवादी मानता है। दूसरा भारत 'शिक्षित वर्ग- अंग्रेजीदां' है, जो न देश को जानता है, न परंपराओं के पीछे छिपे तत्वों को ही समझना चाहता है। मुगल आए तो उन्होंने 'भरत के भारत' को 'हिंदुस्तान' बना दिया। अंग्रेज आए तो यह 'इंडिया' बन गया। अंग्रेज चले गए तो 'इंडिया डैट इज भारत' बन गया, जो अंग्रेजियत है आज भी बची हुई है‌। इसे देखकर लगता है कि यह 'इंडिया डैट बाज भारत' न हो जाए।

लगता है आज देश में अंग्रेजों का राज (अंग्रेजी मानसिकता और संस्कृति का) स्थापित होने लगा है। भारतीय संस्कृति एवं हिंदी आज भी अंग्रेजीदां के साथ बंधी  है। इस बंधन को खोलना होगा, क्योंकि आज अंग्रेजियत हावी होती जा रही है। भारतीयता के साथ 'हिंदी की जड़' को 'अंग्रेजी कुल्हाड़ी' से काटा जा रहा है। क्या इसी का नाम 'अमृत महोत्सव' है।

आधुनिकता की ओर तेजी से अंग्रसर कुछ भारतीय ही आज भले ही अंग्रेजी बोलने में अपनी आन-बान-शान समझते हो, किंतु सच यही है कि 'हिंदी' ऐसी भाषा है जो प्रत्येक भारतवासी को वैश्विक स्तर पर मान-सम्मान दिलाती है। सही मायनों में हिन्दी विश्व की प्राचीन समृद्ध एवं सरल भाषा है।

भारत की राजभाषा हिंदी जो न केवल भारत में बल्कि अब दुनिया के अनेक देशों में बोली जाती है, पढ़ाई जाती है। भले ही दुनिया में अंग्रेजी भाषा का सिक्का चलता हो लेकिन हिंदी अब अंग्रेजी भाषा से ज्यादा पीछे नहीं है। उसका सम्मान कीजिए। हिंदी में बोलिए। हिंदी में पत्र व्यवहार कीजिए। तभी सार्थक होगा आज का 'हिंदी दिवस'।

♦️हिंदी का नाम "हिंदी" कैसे पड़ा?
आप सभी हिंदी दिवस के इतिहास के बारे में तो जानते ही हैं, लेकिन क्या आप यह जानते हैं आखिर हिंदी भाषा का नाम हिंदी कैसे पड़ा। अगर नहीं, तो चलिए आपको इसके बारे में बात करते हैं। शायद भी आप जानते होंगे कि असल में हिंदी नाम खुद किसी दूसरी भाषा से लिया गया है। फारसी शब्द ‘हिंद’ से लिए गए हिंदी नाम का मतलबसिंधु नदी की भूमि होता है। 11वीं शताब्दी की शुरुआत में फारसी बोलने वाले लोगों ने सिंधु नदी के किनारे बोली जाने वाली भाषा को ‘हिंदी’ का नाम दिया था।

♦️क्यों 14 सितंबर को ही मनाते हैं हिंदी दिवस?
14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाने की एक नहीं,बल्कि दो वजह है। दरअसल, यह वही दिन है, जब साल 1949 में लंबी चर्चा के बाद देवनागरी लिपि में हिंदी को देश की आधिकारिक भाषा घोषित किया गया था। इसके लिए 14 तारीख का चुनाव खुद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। वहीं, इस दिन को मनाने के पीछे एक और खास वजह है, तो एक मशहूर हिंदी कवि से जुड़ी हुई है। इसी दिन महान हिंदी कवि राजेंद्र सिंह की जयंती भी होती है। भारतीय विद्वान, हिंदी-प्रतिष्ठित, संस्कृतिविद और एक इतिहासकार होने के साथ ही उन्होंने हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने में अहम भूमिका निभाई थी।

जैसा कि आप जानते हैं, आज हिंदी देश की आधी से ज्यादा आबादी की आम जुबान है। सिनेमा, टीवी ने इसे बाजार व्यवसाय की एक कामयाब भूमिका में ढाला है। रोजगार की व्यापक दुनिया खुली है। फिर भी हिंदी हमारी जीवन शैली का जरूरी हिस्सा बनती नहीं दिख रही। आखिर क्यों? कौन सी ऐसी हिचक है जो आड़े आ रही है?

बाक़ी सबके लिए आज हिंदी दिवस है जो मेरे लिये रोज होता है और आज ये ख़ास सिर्फ इसलिए है क्योंकि चौदह सितम्बर प्रतियोगी परीक्षाओं में पूंछा जाने वाला एक महत्वपूर्ण प्रश्न भी है ! बकाया आज के दिन एक सेल्यूट गूगल इंडिक कीबोर्ड को भी जिसकी बजह से ये मन की बातें आप सब तक पहुँच पाती है। इस हिंदी कीबोर्ड पर, हम आप के विचार जब उँगलियों के रूप में थिरकते हैं तो हर रोज हिन्दी दिवस हो जाता है।
पढ़ने के लिये शुक्रिया... 

आप सभी हिंदी प्रेमियों को हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।

Sunday, 10 September 2023

प्रेम …. (One sided Love)




आज एक फ़ोन आया - हैलो हैंडसम! कैसे हो? क्या कर रहे हो इन दिनों?

आवाज़ जानी पहचानी सी थी फिर मैंने ट्रू कॉलर पर सर्च किया तो ये वही थी जिसके होने का मुझे अंदाज़ा था। 


मैंने भी जवाब दिया - “राजकुमार नाम है मेरा ! मैं आजकल इत्मिनान से दूसरों को ठीक करने का काम करता हूँ। अपनी सुनाइए आज अचानक सात साल बाद कैसे ?” 

दूसरी तरफ़ से जवाब आया - “इतना सख़्त लहज़ा ? वो भी अपने दोस्त के साथ ? एक शायर का दूसरे से ये बर्ताव ठीक नहीं महाराज।” 

मुझे हंसी आ गयी और जान बूझकर उस हँसी को व्यंग्यात्मक रूप देने से भी परहेज़ नहीं किया मैंने। 

और कह ही दिया - “ यूँ पैसे देकर ग़ज़ल ख़रीदने से कोई शायर नहीं बनता ये सोहबत आप पैसे वालों को मुबारक ! मैं मेरे क़िस्से कहानियों से खुश हूँ। रही बात लहज़े की तो वो तो ज़माना जैसा है वैसा तो बनना पड़ता ही है!”

दूसरी तरफ़ से जवाब आया -“ देखो ! ये शब्दों में तो तुमसे मैं जीत नहीं पाऊँगी इसलिए सीधे सीधे पूछ रही हूँ। आज भी सिंगल हो क्या ? मैं चाहती थी कि जो मेरे साथ हुआ वो सबके साथ हो पर तुमने तो मना ही कर दिया था तो मुझे बुरा लगा और हमारी दोस्ती भी ख़त्म कर ली मैंने ! उसके लिए माफ़ी “

मुझे तो जैसे मालूम ही था ये होना है -“ दोस्ती? हम दोस्त कब बने। सिर्फ़ एक मुलाक़ात हुई उसमे भी हमारी कोई बात नहीं हुई 2 दिन तुमने msg किए और फिर तुम्हारे प्रपोजल का सुनकर बात ख़त्म ! आज भी शायद ऐसा ही हो!”

दूसरी तरफ़ से जवाब आया -“ तुम्हारे लहजे में ग़ुरूर बढ़ गया है ये फेम का ग़ुरूर नहीं है। ज़रूर कोई है तुम्हारी ज़िंदगी में ! तुम जानते हो नहीं तो कोई आदमी नज़र मिलाकर ना नहीं कह सकता।“

मैं खो चुका था ये बात सुनकर इन दस दिनों में ये तीसरी बार मैं सुन रहा था कि मेरी बातों में किसी के साथ का ग़ुरूर झलक रहा है। 

मैंने भी बोल ही दिया -“ हाँ है कोई। मैं पसंद करता हूँ उसे पर वो नहीं! “ 

दूसरी तरफ़ से जवाब आया -“ वाह ! एक तरफ़ा में इतना ग़ुरूर ! अगर वो हाँ कर दे किसी दिन तो फिर तो तुम दुनिया से बाक़ी हसीनाओं को ही ख़त्म कर दोगे? “ 

मैंने भी कह ही दिया -“ हो सकता है फिर तो पहला नंबर तुम्हारा ही हो! दुनिया का तो पता नहीं पर हमारी ये आख़िरी बात है अब दोबारा 7 साल इंतज़ार मत करना!” 

दूसरी तरफ़ से जवाब आया -“ महाराज ! ये मौसमी बुख़ार है ! तीन महीने से पहले उतर जाएगा! फिर भी तो किसी रिश्ते को हाँ कहोगे ही ! हम दोस्त क्या बुरें है फिर?” 

चलो फिर, करते हैं इंतज़ार ! जब बुख़ार उतरेगा तो आपको ज़रूर याद करेंगे। आज ब्लॉक लिस्ट में एक नाम और जुड़ गया ..

ग़रीबों के लिए भगवान—



किसी ने क्या खूब फ़रमाया है साहब, इस जहां में रोता वही है जिसने सच्चे रिश्ते को महसूस किया हो, वरना मतलब का रिश्ता रखने वालों की आंखों में न शर्म होती है और न पानी।


कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो अमीर लोग कांवड़ नहीं ढोते हैं। अमीर लोग बाबाओं की भीड़ में नहीं बैठते हैं। अमीर लोग किसी धार्मिक स्थल पर पैदल नहीं जाते हैं। अमीर लोग मंदिरों की लाईनों में नहीं दिखते हैं। अमीर लोग नेताओ की रैलियों में नहीं होते हैं। अमीर लोग किसी जुलूस, प्रदर्शन में भी नहीं मिलते हैं। हर भीड़ का हिस्सा केवल गरीब होता है।

क्योंकि उसे आसानी से भ्रमित किया जा सकता है। उसके जानने, समझने के स्रोत बहुत नाजुक होते हैं। उससे नाजुक उसकी भावना होती है क्योंकि वह भावना स्थाई नहीं होती।

कुछ अपवादों को छोड़ कर देखा जाय तो अमीर कभी भी गरीब को अपने बराबर नहीं देखना चाहता इसलिए अपनी शिक्षा, ज्ञान और सही दिशा में किये गए मेहनत और प्रयासों की बात को वह सार्वजनिक नहीं करता, वह इस उपलब्धि को ईश्वर का चमत्कार बताता है। गरीब उसे सच मानने लगता है और उसे पाने के लिए हद से गुजरने लगता है।

शायद भारत मे गरीबी का मुख्य कारण अशिक्षा, अंधविश्वास, संसाधनों की कमी और लोगों को भ्रमित होना ही है।

“मैं वह नहीं हूँ साहब जो दिखता हूँ, मैं वह हूँ जो लिखता हूँ”

रीढ़ लचीली और चमड़ी मोटी—


प्रजातंत्र सिर्फ सरकारी व्यवस्था में आवश्यक नहीं है, रिश्तो में भी आवश्यक है। जब तक कोई रिश्ता प्रजातांत्रिक नहीं होता, तब तक प्रेमिल नहीं हो सकता। शब्दों के बीज से विचारों के वृक्ष बनते हैं, मैं सचेत रहता हूं कि जब इनसे फूल झरें, तो सहेजे जाएं किताबों के बीच में।


शब्दों की चुभन, तमाम उम्र चुभती है। कितना भी मुस्कुरा दो, मगर दिल में वही बात दुखती है। एक राजनीतिक जीवनी में लिखा था- “वह एक आदर्श राजनीतिज्ञ की परिभाषा को चरितार्थ करते हैं। उनकी रीढ़ लचीली और चमड़ी मोटी है।”

यह कटाक्ष की तरह नहीं, बल्कि प्रशंसा की तरह लिखा था। जैसे पियानो-वादक की उंगली लंबी, बल्लेबाज़ की बाहें मजबूत, घड़ीसाज की आँखें बारीक, तबलावादक की हथेली सख़्त, चोर के कदम हल्के, हलवाई की नाक तेज, फेरीवाले की आवाज ऊँची होनी बेहतर है; उसी तरह राजनीतिज्ञ में ये दो गुण अवश्य हों। 

एक बेहतरीन वृत्तचित्र जैसी फ़िल्म है जिसमें एक व्यक्ति की नौकरी लगती है। उसको दिल्ली के केंद्रीय इलाके जहाँ तमाम सांसद रहते हैं, वहाँ से बंदर भगाने होते हैं। उसके प्रशिक्षण में उसे बंदर से संवाद करना सिखाते हैं। बंदर की तरह आवाज़ निकाल कर। वह दिन-रात रियाज़ करता है मगर बंदर की आवाज़ नहीं निकलती। हर महीने उसका वेतन काट लिया जाता है। 

आखिर वह एक तरकीब निकालता है। वह एक लंगूर का भेष धारण कर लेता है। वह बंदरों के बीच लंगूर बन कर उनको भगाता है।

नज़र से जो तजुर्बा हासिल हुआ है, वह कहता है कि आंखों की देखी आधी सच मानो और कानों की सुनी पर पूरा यक़ीन मत करो। क्योंकि अगर सिर्फ आंखे और कान ही तुमको सच के दर्शन करवाते, तो यूँ बहके बहके लोगों की भीड़ न होती। कुछ है, जो तुम्हे समझना है, बस यही दो लफ्ज़ उस चौखट पर बोलने है, कहने हैं और निकल जाना है उधर, जिधर नज़र को तराशना सिखाया जाता है....

Sunday, 3 September 2023

मेरे 'मैं' और तुम्हारे 'मैं'



मैं ने देखी, मैं की माया।
मैं को खोकर, मैं ही पाया।।

हम संतों के पास मार्गदर्शन के लिए नहीं जाते, हम चमत्कारों के लिए जाते हैं। हम इतने आलसी हैं कि किसी भी मार्ग पर चले बिना ही मंज़िल तक पहुँचना चाहते हैं। ईश्वर के प्रति प्रेम को हॄदय में रखने की बजाय, अलमारी में बने मंदिर में रखना चाहते हैं, जहाँ सुबह शाम ढोक देकर अपने मनचले मन को तसल्ली दी जा सके।
मार्ग में आने वाली बाधाएं और तप सहन किए बिना मन में मंज़िल के ख़्याली पुलाव पकाए जा सकते हैं लेकिन मंज़िल तक नहीं पहुँचा जा सकता। चमत्कार भी उसके साथ ही होता है, जो पिया मिलन के लिए रोता है।

कहते हैं कि तुम जिसके भी व्यक्तित्व पर अधिकार चाहोगे, उसे अपने जैसा ही बना लोगे। इसका विपरीत भी उतना ही सच है यानि हम जिसे भी अपने ऊपर अधिकार देंगे, हम उसके जैसे ही बन जाएँगे।


अधिकार में प्रभुत्व की इच्छा छुपी है। जहाँ भी दो (द्वैत) होंगे वहाँ अधिकार का यह युद्ध चलता रहेगा और इस युद्ध से अशांति उपजती रहेगी। बहुत से लोगों को कहते सुना होगा, "या तो तुम मेरे जैसे हो जाओ या फिर  मैं तुम्हारे जैसा बन जाऊँ!" यह वाक्य मन की अशांति (द्वैत) को समाप्त कर के एक सहज जीवन जीने की कामना में बोला जाता है, एक ऐसा सुरक्षित जीवन जीने की कामना में बोला जाता है जहाँ अपना सबकुछ (व्यक्तित्व) खोने के बाद भी लगता हो कि सबकुछ मिल गया है। लेकिन यह सिर्फ़ एक कामना ही है।

सहज जीवन मात्र सत्य के प्रकाश के साथ ही जिया जा सकता है। सत्य का प्रकाश यानि प्रेम के साथ, यानि एक स्वस्थ मन के साथ। सत्य तुम्हें अपने जैसा बनाने का प्रयास नहीं करता, यह काम तो झूठ का है क्योंकि वह स्वयं के समाप्त होने से घबराता है।

अगर किसी ने तुम्हें अपने मन में जगह दी है तो तुम्हारी ज़िम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है कि तुम उसका मन गंदा न करो। अगर आपने किसी को अपने मन में जगह दी है तो यह देखना भी आपकी ज़िम्मेदारी है कि उसके आने से आपके मन में किन चीजों का आगमन हुआ है क्योंकि फिर उस ओर ही तुम्हारा गमन होगा।

जिस मन की आंखों से हम हर चीज़ को देखते हैं, उन आंखों पर एक ऐसा चश्मा लगा है जिसमें समय के साथ अनगिनत दरारें आ गई हैं। इन दरारों के पीछे से जो भी देखा जाएगा, वो चीज़ दरअसल वह नहीं होगी जो हमारी मन की आंखों ने देखी, भले से ही उसमें अनगिनत रंग नज़र आएं, भले से ही उसके अनगिनत स्वरूप नज़र आएं। असली स्वरूप तो तब ही दिखेगा जब हम अपना यह चश्मा उतार देंगे।

इसीलिए ऐसा नहीं है कि हमने यदि प्रेम को नहीं जाना तो सिर्फ़ प्रेम को ही नहीं जाना, प्रेम को न जान पाना किसी भी चीज़ के असली स्वरूप को न जान पाना है, फिर हमने कुछ भी नहीं जाना।

मेरे 'मैं' (मन) और तुम्हारे 'मैं' (मन) में बस उतना ही अंतर है
जितना सोने के कंगन और सोने के हार में है,दोनों एक ही तत्व (सोने) से बने हैं।

किसी ने क्या खूब फ़रमाया है, जवानी में कामवासना सताती है और बुढ़ापे में पत्रकार सताते हैं, जनाब ज़िंदगी कुछ यूँ ही बिताते (गँवाते) हैं।

Tuesday, 29 August 2023

चुनाव, लोकतंत्र और चौथा स्तंभ —



                                

'मज़बूत शब्द ज़ब्त से बनता है--धीरज, सहन करना, धैर्य के साथ खड़े रहना। मज़बूत अनिवार्यतः आक्रामक व्यक्ति को नहीं कहते हैं। मज़बूत उस व्यक्ति को कहते हैं, जिस व्यक्ति में धीरज हो, जिसमें विवेक हो।'


यूं तो चुनाव लोकतंत्र की आत्मा हैं और मतदान जनता का बड़ा हथियार है। जिससे वह चाहे जिसे सत्ता की कुंजी थमा दे और जिसे चाहे सत्ता से उतार फेंके। अमूनन लोग अपने चयनित प्रतिनिधियों से जनहितैषी काम की अपेक्षा रखते हैं वे खरे उतरते हैं तो फिर उन्हें चुनती है और उन्हें नकारती है जो उनकी इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते। इसीलिए जिसे जनता चुनती है उसको देश ही नहीं विदेशों में सम्मान मिलता है। इसे सूक्ष्म रुप में समझा जाए तो यह सम्मान अप्रत्यक्ष तौर पर जनता जनार्दन का होता है। करिश्मा जनता ही करती है।

लगता है लोकतंत्र के पायदानों की ओट में होने वाले ये चुनाव अपनी अहमियत खोते जा रहे हैं इसलिए सबसे पहले ज़रुरत है चुनाव आयोग को निष्पक्ष बनाने की, जो अन्य दलों की बात पर गौर करे। दलबदलुओं के लिए भी आयोग सख़्ती करेगा। दोबारा चुनाव पर रोक लगेगी। सिर्फ वहीं चुनाव हों जहां किसी की मृत्यु हो। यदि इन बातों पर अमल नहीं होता है तो यह पक्का है देश में लोकतंत्र जो अभी आक्सीजन पर है शीघ्र ख़त्म हो जाएगा। लोकतंत्र कायम रखना है तो सत्तापक्ष को चुनाव जीतने की ज़िद छोड़नी होगी। दूसरों को अवसर देकर ही देश में लोकतंत्र को मजबूत रखा जा सकता है। जनता के फैसले के बाद उस पर अमल होना चाहिए अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं।

'वैसे हम सोचते हैं कि अकेले आदमी की आवाज़ कौन सुनेगा? उसके गिरने की आवाज़ तो सुई के गिरने की आवाज़ से भी कम होती है। उसके गिरने की आवाज़ सिर्फ़ उसकी पत्नी सुनेगी और वह भी तब, जब वह कोई सौदा लेने बाज़ार न गई हो।' 

यहीं से प्रारम्भ होती है खोज, उस खोज से पत्रकारी। पत्रकार मानवता के कथाकार हैं, जो हमारे साझा अनुभवों के धागों को एक साथ जोड़ते हैं, हमें हमारी जीत, त्रासदियों और मानव आत्मा की अदम्य भावना की याद दिलाते हैं। गलत सूचना के युग में, पत्रकार गुमनाम नायक हैं, जो झूठ को चुनौती देने और सार्वजनिक चर्चा की अखंडता की रक्षा करने के लिए शब्दों की शक्ति का इस्तेमाल करते हैं। पत्रकारों में जनता की राय को आकार देने और बदलाव लाने की अविश्वसनीय क्षमता होती है। अपने अधिकार को स्वीकार करें, लेकिन याद रखें कि आपका असली औचित्य जनता की आवाज बनने में है। उनकी रुचियों को बनाए रखें और उन्हें अपनी रिपोर्टिंग के माध्यम से सशक्त बनाएं।

पत्रकारिता, जिसे अक्सर "चौथा स्तंभ" कहा जाता है, लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जो जनता को विश्वसनीय जानकारी प्रदान करता है और सत्ता में बैठे लोगों को जवाबदेह बनाता है। यह समाज को आकार देने, जनमत को प्रभावित करने और सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

सदियों से, पत्रकारिता तकनीकी प्रगति के साथ-साथ विकसित हुई है। टेलीग्राफी और फोटोग्राफी की शुरूआत से लेकर रेडियो और टेलीविजन के आगमन तक, प्रत्येक नवाचार ने पत्रकारिता की पहुंच और प्रभाव का विस्तार किया। आज, डिजिटल तकनीक और इंटरनेट ने वास्तविक समय की रिपोर्टिंग और वैश्विक कनेक्टिविटी को सक्षम करके परिदृश्य को एक बार फिर से बदल दिया है।

अपने मूल में, पत्रकारिता जनता के लिए एक प्रहरी के रूप में कार्य करती है, पारदर्शिता, जवाबदेही और एक अच्छी तरह से सूचित नागरिक सुनिश्चित करती है। यह दुनिया में होने वाली घटनाओं और उन लोगों के बीच एक पुल के रूप में कार्य करता है जिन्हें उनके बारे में जानने की आवश्यकता है। राजनीतिक विकास और सामाजिक अन्याय से लेकर वैज्ञानिक सफलताओं और सांस्कृतिक रुझानों तक विभिन्न मुद्दों पर रिपोर्टिंग करके, पत्रकारिता संवाद की सुविधा प्रदान करती है और नागरिक जुड़ाव को बढ़ावा देती है।

एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक मजबूत और स्वतंत्र प्रेस आवश्यक है। यह सत्ता में बैठे लोगों पर अंकुश के रूप में कार्य करता है, नागरिकों को चुनाव के दौरान और उसके बाद भी सूचित निर्णय लेने के लिए आवश्यक जानकारी प्रदान करता है। पत्रकारिता भ्रष्टाचार, मानवाधिकारों के हनन और पर्यावरणीय चुनौतियों को उजागर करने, परिवर्तन और न्याय की वकालत करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 

#journalist
#journalism

मानव स्वास्थ्य के दूसरे हत्यारे “ध्वनि प्रदूषण” को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता…



“बदल जाता है फितरत में बहाना देखकर थोड़ा, ज़माने को भी चलना है ज़माना देखकर थोड़ा। भटकना है, संभलना है, मचलना है, तड़पना है, मेरी किस्मत में क्या क्या है बताना देखकर थोड़ा। कहीं पहचान न लूँ मैं तुम्हारे असल चेहरे को दोस्त, गर पर्दा उठाना तो उठाना देख कर थोड़ा।”


हमारे पर्यावरण में प्रदूषण केवल वायु और जल प्रदूषण नहीं है। ध्वनि प्रदूषण आंखों के लिए अदृश्य है, लेकिन वह मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत ही खतरनाक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी "शोर प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियों का बोझ" रिपोर्ट में, ध्वनि के खतरों को वायु प्रदूषण के बाद मानव स्वास्थ्य के दूसरे हत्यारे के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। लंबे समय तक शोर-प्रदूषित वातावरण में रहने से मूड, नींद और स्वास्थ्य जैसे कई पहलुओं में समस्याएं पैदा होंगी।

कुछ लोगों में शोर सहन करने की क्षमता कम होती है, लेकिन इसका दोष उनकी स्वास्थ्य समस्याओं को नहीं ठहराया जा सकता। लोगों को एक शांत वातावरण में रहने का अधिकार है। शोर से उत्तेजित होने पर, कुछ लोगों को तत्काल शारीरिक या मनोवैज्ञानिक असुविधा का अनुभव होता है। यहां तक कि जो लोग सोचते हैं कि वे शोर से प्रतिरक्षित हैं, उनके स्वास्थ्य को अनजाने में नुकसान पहुंचाया जाता है। शोर की परिभाषा पर आसपास के वातावरण और घटना के समय के साथ व्यापक रूप से विचार किया जाना चाहिए। आमतौर पर यह माना जाता है कि 50dB से ऊपर की ध्वनि, जो मानव शरीर के लिए स्पष्ट असुविधा का कारण बनती है, वह शोर है।

तेज़ शोर के अलावा कम आवृत्ति का शोर भी एक आम प्रदूषण है। कम-आवृत्ति शोर को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, जैसे कि एयर कंडीशनर की आवाज जो हम अक्सर सुनते हैं, घरेलू उपकरणों के भिनभिनाने की आवाज, लिफ्ट की आवाज और बिजली के उपकरण के चार्जिंग की आवाज आदि वे सब कम आवृत्ति के शोर के स्रोत हैं। आम तौर पर, 20Hz से 200Hz की रेंज में ध्वनि कम आवृत्ति वाली ध्वनि होती है। इसके विपरीत, 500 हर्ट्ज से 2000 हर्ट्ज की सीमा में ध्वनि एक मध्यवर्ती आवृत्ति ध्वनि है। 2000Hz से ऊपर या यहां तक कि 16000Hz जितनी ऊंची ध्वनि उच्च-आवृत्ति ध्वनि से संबंधित है।
 
जो लोग लंबे समय तक शोर के संपर्क में रहते हैं, वे बहुत अधिक भावनात्मक और शारीरिक परेशानी, चिंता, चिड़चिड़ापन, क्रोध और अन्य समस्याएं लेकर आएंगे, और अनिद्रा से भी पीड़ित हो सकते हैं। पर्यावरणीय शोर में प्रत्येक डेसिबल वृद्धि के लिए, उच्च रक्तचाप की घटनाओं में 3% की वृद्धि होगी। एंडोक्रिनोलॉजी, मधुमेह और मूड से संबंधित कुछ हार्मोनों का स्तर भी शोर से जोड़ता है। उधर, सभी ध्वनियाँ बुरी नहीं हैं। प्रकृति में हवा और बारिश की आवाज़ और सुंदर संगीत आदि शोर नहीं हैं, वे लोगों को आराम दे सकते हैं। आशा है कि हर कोई शांत और खुशहाल वातावरण में रह सकता है।

बचपन और वो छुटका मन —




जब टेलिविज़न मेरे घर आया, तो मैं किताबें पढ़ना भूल गया था। जब कार मेरे दरवाजे पर आई, तो मैं चलना भूल गया।  हाथ में मोबाइल आते ही मैं चिट्ठी लिखना भूल गया। जब मेरे घर में कंप्यूटर आया, तो मैं स्पेलिंग भूल गया। जब मेरे घर में एसी आया, तो मैंने ठंडी हवा के लिए पेड़ के नीचे जाना बंद कर दिया। जब मैं शहर में रहा, तो मैं मिट्टी की गंध को भूल गया। मैं बैंकों और कार्डों का लेन-देन करके पैसे की कीमत भूल गया। परफ्यूम की महक से मैं ताजे फूलों की महक भूल गया। फास्ट फूड के आने से मेरे घर की महिलायें पारंपरिक व्यंजन बनाना तक भूल गई..

हमेशा इधर-उधर भागता, मैं भूल गया कि कैसे रुकना है और अंत में जब मुझे सोशल मीडिया मिला, तो मैं बात करना भूल गया दोस्त। 

मेरे दोस्त तुम्हें मालूम है न, यहाँ मकान हो या फिर दिल, रहना है तो किराया दो, बस प्रारूप अलग है। बस इसी ख्याल के चलते कुछ सोचने लिखने का मन हुआ तो अपने स्कूल के दिनों का एक क़िस्सा लिख डाला। आजकल तो जरा सा बादल क्या गरजे, मौसम विभाग का अलर्ट आने लगता है, अलर्ट देखते ही स्कूल बंद कर दिये जाते हैं, एक हमारा जमाना भी था। हम छुट्टी के लिये लाख बहाने बना बैठते थे, मजाल कभी छुट्टी मिल जाये। 


भोर की नींद से जागकर भादो को बरसते हुए सुनना और पानी की आवाज़ सुनकर ठंड के मारे पैरों को सिकोड़ लेना अब बस स्मृतियों में बचा है। 

बचपन में अक्सर एक छाते में खुद को बचाते तीन लोग घर आते औऱ आते हुए पूरे भीग जाते थे, ये भला किसे याद न होगा। 

वो स्कूल के दिनों में अगर सुबह बारिश हुई तो पढ़ाई बन्द रहेगी, ऐसी कल्पना करके स्कूल जाना और पूरे दिन मन मारकर पढ़ लेना,हमारे कच्चे अरमानों पर वज्रपात नहीं था तो क्या था ?

याद करूँ तो दसवी की बारिश सबसे हसीन बारिश होगी,जहां जीवन में पहली बार पता चला कि आकर्षण सिर्फ़ दो चुंबक सटाने से नहीं होता बल्कि कुछ लोग भी होते है,एकदम चुम्बक जैसे... जो आपको सतत खींचते रहते हैं।

प्रेम की आहट वाली वही बारिश भला कैसे भूली जा सकती है। ठीक यही जुलाई के दिन.. पहले ही दिन कोई स्कूल में अपने भीगे बालों को चेहरे से हटाता और दो मासूम आँखों से न जाने क्या-क्या कहता स्कूल आया था। तबसे लेकर साल भर मन प्रेम की आहट में भीगा रहा... इतनी मासूम ख्वाहिश तो आज तक नही हुई कि कोई बस देख ले तो हम खुश हो जाएं। 

काश आज खुशियां इतनी ही सस्ती होतीं।

इंटरमीडिएट की बारिश सबसे सख्त बारिश थी। जीवन के अभावों और संघर्ष से उपजी एक एसिडिक बारिश जिसने बताया कि बाबू हर बरसता सावन सुंदर नही होता, बल्कि इसे मेहनत, प्रतिभा और परिश्रम से सुंदर बनाना पड़ता है। 

कॉलेज का सारा सावन तो इस रूठे सावन को सुंदर बनाने में चला गया और देखते ही देखते दिल सावन के आसमान का वो खाली बादल बन गया,जिसमें अंधकार था,बिजली थी,हवा थी... बस बारिश न थी। 

और फिर तो सालों साल तक मन के किसी कोने में असंतोष का जेठ तपता रहा। कलम पीड़ा बन गई आप्राप्य की पीड़ा। संगीत की हर धुन से आग बरसता, सावन न बरसता।

धीरे-धीरे पढ़ने-लिखने,कुछ बनने और यशस्वी होने की लालसा से पका मन मौसम का सुख लेना भूल गया।

पर इन दिनों मन नें जाना है कि भीगने का कोई एक मौसम नहीं होता.. एक उत्साह, एक जुनून, एक सकारात्मकता घेरती है। ऐसा लगता है कि परिश्रम हर मौसम को सावन बना सकता है। 

भोर में हवा की ठंडी आहट से उत्साह के नव नूपुर बजते हैं। 
एक ऊर्जा है जो आसमान की तरह जाती है। प्रेम उत्साह औऱ सृजनात्मकता की ऊर्जा। मैनें सुना है,जैसी ऊर्जा आप भेजते हैं, लौटकर वैसा ही कुछ आपके पास आता है।

चाहता हूं तमाम सावन के ये बादल प्रेम की बरसात बनकर बरसे... टप-टप-टप..! 

कहते सुनते बात तुम्हारी सो जाता हूँ, ऐसे ही मैं हर रोज़ ख़्वाबों का हो जाता हूँ। रात बहुत तकलीफ़ में गुजरती है दोस्त, कभी कभी तो ख्वाब में मर भी जाता हूं!

ये बादल, ये चाँद आसमान औऱ समंदर सब प्रेम की धुन बजाएं.. मेरे लिए और मेरे अपनों के लिए.. ❣️

Saturday, 26 August 2023

मानव स्वास्थ्य के दूसरे हत्यारे ध्वनि प्रदूषण को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता…

“बदल जाता है फितरत में बहाना देखकर थोड़ा, ज़माने को भी चलना है ज़माना देखकर थोड़ा। भटकना है, संभलना है, मचलना है, तड़पना है, मेरी किस्मत में क्या क्या है बताना देखकर थोड़ा। कहीं पहचान न लूँ मैं तुम्हारे असल चेहरे को दोस्त, गर पर्दा उठाना तो उठाना देख कर थोड़ा।”




हमारे पर्यावरण में प्रदूषण केवल वायु और जल प्रदूषण नहीं है। ध्वनि प्रदूषण आंखों के लिए अदृश्य है, लेकिन वह मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत ही खतरनाक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी "शोर प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियों का बोझ" रिपोर्ट में, ध्वनि के खतरों को वायु प्रदूषण के बाद मानव स्वास्थ्य के दूसरे हत्यारे के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। लंबे समय तक शोर-प्रदूषित वातावरण में रहने से मूड, नींद और स्वास्थ्य जैसे कई पहलुओं में समस्याएं पैदा होंगी।

कुछ लोगों में शोर सहन करने की क्षमता कम होती है, लेकिन इसका दोष उनकी स्वास्थ्य समस्याओं को नहीं ठहराया जा सकता। लोगों को एक शांत वातावरण में रहने का अधिकार है। शोर से उत्तेजित होने पर, कुछ लोगों को तत्काल शारीरिक या मनोवैज्ञानिक असुविधा का अनुभव होता है। यहां तक कि जो लोग सोचते हैं कि वे शोर से प्रतिरक्षित हैं, उनके स्वास्थ्य को अनजाने में नुकसान पहुंचाया जाता है। शोर की परिभाषा पर आसपास के वातावरण और घटना के समय के साथ व्यापक रूप से विचार किया जाना चाहिए। आमतौर पर यह माना जाता है कि 50dB से ऊपर की ध्वनि, जो मानव शरीर के लिए स्पष्ट असुविधा का कारण बनती है, वह शोर है।

तेज़ शोर के अलावा कम आवृत्ति का शोर भी एक आम प्रदूषण है। कम-आवृत्ति शोर को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, जैसे कि एयर कंडीशनर की आवाज जो हम अक्सर सुनते हैं, घरेलू उपकरणों के भिनभिनाने की आवाज, लिफ्ट की आवाज और बिजली के उपकरण के चार्जिंग की आवाज आदि वे सब कम आवृत्ति के शोर के स्रोत हैं। आम तौर पर, 20Hz से 200Hz की रेंज में ध्वनि कम आवृत्ति वाली ध्वनि होती है। इसके विपरीत, 500 हर्ट्ज से 2000 हर्ट्ज की सीमा में ध्वनि एक मध्यवर्ती आवृत्ति ध्वनि है। 2000Hz से ऊपर या यहां तक कि 16000Hz जितनी ऊंची ध्वनि उच्च-आवृत्ति ध्वनि से संबंधित है।
 
जो लोग लंबे समय तक शोर के संपर्क में रहते हैं, वे बहुत अधिक भावनात्मक और शारीरिक परेशानी, चिंता, चिड़चिड़ापन, क्रोध और अन्य समस्याएं लेकर आएंगे, और अनिद्रा से भी पीड़ित हो सकते हैं। पर्यावरणीय शोर में प्रत्येक डेसिबल वृद्धि के लिए, उच्च रक्तचाप की घटनाओं में 3% की वृद्धि होगी। एंडोक्रिनोलॉजी, मधुमेह और मूड से संबंधित कुछ हार्मोनों का स्तर भी शोर से जोड़ता है। उधर, सभी ध्वनियाँ बुरी नहीं हैं। प्रकृति में हवा और बारिश की आवाज़ और सुंदर संगीत आदि शोर नहीं हैं, वे लोगों को आराम दे सकते हैं। आशा है कि हर कोई शांत और खुशहाल वातावरण में रह सकता है।

Friday, 18 August 2023

मुसाफ़िर जायेगा कहां…..




मेरे बागेश्वर में नगर पालिका की पहल पर ऑटो संचालित किये जाने के कारण मुझ जैसे बिना गाड़ी वाले लोगों को भी जब चाहें तब शहर के एक छोर से दूसरे छोर जाने का मौका मिल रहा है। सुबह की सबसे बड़ी समस्या कि बाज़ार तक कैसे जाया जाए? अक्सर घर से बाहर निकलते ही गाड़ी में बैठ जाने की आदत ने शायद शरीर के भीतर एक सुस्ती सी भर दी है। 


आज ज्यों ही शाम को बाहर सड़क पर कदम रखा तो एक सुहाने से मौसम का एहसास तन मन को रोमांचित कर गया। निगाहें किसी ऑटो रिक्शा को खोज रही थी तभी सड़क के किनारे एक व्यक्ति जो रिक्शा पर लेटा हुआ था मुझे देखकर सचेत हो गया। 

आज शाम को फिर कुछ खुरापात मन में सूझा, सोचा आज लम्बे समय के बाद किसी से हिंदी में बात की जाये। 

ऑटो वाले भाई से पूछा,

"त्री चक्रीय चालक पूरे बागेश्वर शहर के परिभ्रमण में कितनी मुद्रायें व्यय होंगी ?"

ऑटो वाले ने कहा,  "अबे हिंदी में बोल रे..

मैंने कहा, "श्रीमान,  मै हिंदी में ही वार्तालाप कर रहा हूँ।

फिर ऑटो वाले ने कहा, "मोदी जी पागल करके ही मानेंगे । चलो बैठो, कहाँ चलोगे?"

मैंने कहा, "परिसदन चलो"

ऑटो वाला फिर चकराया !😇



"अब ये परिसदन क्या है?" 

बगल वाले श्रीमान ने कहा, "अरे सर्किट हाउस जाएगा"

ऑटो वाले ने सर खुजाया और बोला, "बैठिये प्रभु"

रास्ते में मैंने पूछा, "इस नगर में कितने छवि गृह हैं ??" 

ऑटो वाले ने कहा, "छवि गृह मतलब ??"

मैंने कहा, "चलचित्र मंदिर"

उसने कहा, "यहाँ बहुत मंदिर हैं ... राम मंदिर, हनुमान मंदिर, बागनाथ मंदिर, चण्डिका मंदिर, शिव मंदिर"

मैंने कहा, "भाई मैं तो चलचित्र मंदिर की
बात कर रहा हूँ जिसमें नायक तथा नायिका प्रेमालाप करते हैं."

ऑटो वाला फिर चकराया, "ये चलचित्र मंदिर क्या होता है ??"

यही सोचते सोचते उसने सामने वाली गाडी में टक्कर मार दी। ऑटो का अगला चक्का टेढ़ा हो गया और हवा निकल गई।

मैंने कहा, "त्री चक्रीय चालक तुम्हारा अग्र चक्र तो वक्र हो गया"

ऑटो वाले ने मुझे घूर कर देखा और कहा, "उतर साले ! जल्दी उतर !" 

आगे पंक्चरवाले की दुकान थी। फिर मैंने सोचा दुकान वाले भाई से कुछ मदद लेकर इसकी सहायता की जाए तो दुकान वाले से कहा....

"हे त्रिचक्र वाहिनी सुधारक महोदय, कृपया अपने वायु ठूंसक यंत्र से मेरे त्रिचक्र वाहिनी के द्वितीय चक्र में वायु ठूंस दीजिये। धन्यवाद।"

दूकानदार बोला कमीने सुबह से बोहनी नहीं हुई और तू श्लोक सुना रहा है...

आज फिर एक बार और पता चला विद्यालय में हमें हिंदी के नाम पर उर्दू फारसी के शब्द पढ़ाएं गए हैं...✍️


मुझे लगता है आसपास के जरूरतमंद लोगों की मदद करना ईश्वर को प्रसन्न कर सकता है और यह एक बहुत बड़ी चैरिटी है जो हम रोज अपने क्रियाकलापों के माध्यम से कर सकते हैं। आजकल आस-पास तो मानो खो गया हो जुकरू भाई का भ्रमजाल ही आस-पास बन बैठा है, मानो यहां हर कोई खो सा गया है। वैसे मुझे लगता है, हर व्यक्ति अपने आप में एक बहुत बड़ी संस्था है जो किसी का जीवन छोटी-छोटी खुशियों से बदल सकता है। इसलिए हमेशा मुस्कुराते रहें, खुश रहें और स्वस्थ रहें।

Wednesday, 2 August 2023

मुझे डर लगता है—



गंगा-जमुनी तहज़ीब से सारे नाले चिढ़ते हैं। जबकि यह संस्कृति उनकी गंदगी को बहा ले जाती है। यही मंजर आज मेरे शहर का था। हाल कुछ ऐसा था कि, नन्हे शिक्षण पथिकों का पथ संचलन के दौरान ही पाद शुद्धिकरण कर ले जा रहे जल से सब परेशान। तरह-तरह के शब्द, बातें व बाण। 


नन्हे बच्चों को इन जलमग्न पथ पर एक नए पथिक के रूप में चलता देख मानो ऐसा दृश्य मेरी आँखो के सम्मुख चल रहा हो जैसे तुलसीदासजी अति आनंद में लीन भगवान राम जी को पहली बार ठुमक, ठुमक चलते देख भाव विभोर हो रहें हो। उनकी चंद पंक्तियाँ अनायास ही मेरे मन मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ करने लगी ही जैसे।  

ठुमक चलत रामचंद्र, 
बाजत पैंजनियां,
किलकि-किलकि उठत धाय, 
गिरत भूमि लटपटाय,
धाय मात गोद लेत, दशरथ की रनियां…
ठुमक चलत रामचंद्र…

मुझे बादलों की कड़कड़ाहट से डर लगता है। बिजली के चमकने से डर लगता है। दिन में सूरज का छिपकर अंधेरे को न्योता देना डराता है। भीगी सड़कें, तर दीवारें, झुके हुए पेड़ और दुबके हुए जानवर डराते हैं। निर्माणाधीन विकास कार्यों का अधूरा होना डराता है। सरकार का सरकारी तन्त्र डराता है, अफसरी अकड़ से डर लगता है। 


मुझे बारिश पसन्द है मगर वह बारिश नही, जो किसी के चूल्हे की आग ठंडी कर दे। जो किसी झोपड़ी में टपकना शुरू कर दे। जो ज़मीन में इतना पानी भर दे कि पाँव भी रखे न जा सकें। मौसम कोई भी हो, हमें उतना ही पसन्द है, जितने से आमलोगों की तक़लीफ़ न बढ़ जाए। मुझे अपनी पक्की छतें डराती हैं कि उनपर क्या गुज़रती होगी, जिनकी छते कच्ची हैं, झुग्गी झोपड़ी में दुबके बच्चे किस उम्मीदपर इसका लुत्फ़ लेंगे।

मैं डर जाता हूँ कि कहीं मौसम की कोई ज़्यादती, किसी को भूखा न सुलाए। हो सके, तो उनकी फिक्र कर लीजिएगा। अपने घरों में काम करने वालों से हमदर्दी से पेश आइये, उनकी ज़रूरतों को समझिए, क्योंकि यह बारिश, उन्हें सुक़ून तो नही ही दे रही होगी। 

मुझे डर लगता है, डर यह कि कहीं मैं उस चीज़ का लुत्फ़ न लेने लग जाऊं, जिसके होने से आम दिलों में मायूसी जनम लेती है। मुझे कड़कते बादल डराते हैं। यह मेरे अंदर का डर है, जो फूली हुई मिट्टी को देख बढ़ जाता है। भरे हुए नाले और झरने से झरते परनाले देख दिल डूबने लगता है।

हाँ मैं कमज़ोर हूँ, जो अंधेरे से, बिजलियों से, आसमान की आवाज़ से, बरसते बादलों से डर जाता हूँ। अब बताओ इस न रुकने वाली बारिश में कैसे कहूँ की मौसम खूबसूरत है, मेरा धान जो कल तक खड़ा था, लोट गया है खेत में, अब बताओ इस लोटते हुए धान को देख क्यों न डरूँ। मुझे डर लगता है, उन आंखों को देखकर, जिनके ख्वाब यह पानी बहा ले जा रहा है। तालाब से बने इन रास्तों को पार कर रही इन नन्ही जानों की फिक्र लिए डरता हूँ। किसी के बेघर होने की खबर से डरता हूँ। उस बेघर परिवार की किसी नन्ही सी जान के सवाल से डरता हूँ, जो अक्सर हमारी सरकार, प्रशासन व नेताओं की उदासीनता का शिकार हो रही हैं। उसका वो रोते हुए सवाल करना, भाईया हमने किसी का क्या बिगड़ा था ? भगवान भी हम ग़रीबों की ओर आँखे बंद कर लेता है कहते हुए अपनी माँ से जाकर चिपट जाना। मानो एक पल सौ बार मार डालता है। उसके किसी सवालों का जवाब न देने पाने का ख्याल ही मुझे डराता है, रात भर मुझे सोने नही देता है। 

मैं थोड़ा कमज़ोर हूँ, मुझे डर लगता है। हर उस चीज़ से डर लगता है, जिससे डरना चाहिए क्योंकि मेरा दिल, मन और मैं उतना ही आम हूँ, जितना होना चाहिए। मैं निडर हूँ तो केवल ज़ुल्म के सामने मगर मैं छिपकली से भी डर जाता हूँ। मेरा डर मुझे इंसान बने रहने देता है और देखो, मैं इस बरसते हुए पानी और चमकती बिजली से डर रहा हूँ...

वह कितने खुशनसीब हैं, जो कह लेते हैं। ज़मीन को देखता हूँ अक्सर, तो सोचता हूँ कि यह अनवरत चल कैसे लेती है, फिर देखता हूँ कि वह कहीं, सोते फोड़कर ठंडा पानी उगल देती है तो कहीं लावा उगलकर ज्वालामुखी बना देती है। यह धरती चलती है, क्योंकि कह लेती है और एक दिन कह नही पाने वाले सभी लोग चले जाएँगे और रह जाएंगी वह बातें, जो आज पढ़ सुन रहा हूँ....

तुम थे तो कितने दूर थे, अब नही हो, तो कितने अपने हो...