Wednesday, 27 September 2023

जब शहर सो रहा था-



अहा बारिश और मैं, कभी झम झम के स्वर से आपकी नींद खुले, तो देखो जैसे बारिश पंचम स्वर में आलाप ले रही हो। घुप्प अंधेरे में बरसते मेघ जल को सुनना प्रेम के जादुई अक्षरों को सुनने से कम नहीं होता। बिन बादल बरसात के इन्ही दिनों में कोई मनोहरा मन को हर ले गई होगी।


बरसती बूंदों के संगीत, उसका स्पर्श, उसे महसूस करने के अपरिमित सुख का एकमात्र अधिकारी। दामिनी दमक रही घन माही, मेरे घर आंगन में लगा छितवन चमकने लगता है, उसकी पत्तियां फूल आई हैं। फूलना कितनी सुखद क्रिया है। प्रेम और मिलन की अभिव्यक्ति है फूलना। जीवन पुष्पित पल्लवित होने का नाम है, फूल जैसे हो जाने का नाम है। फूलने का आनंद ही देवत्व है। देव पर फूल चढ़ाते हुए शायद ही कोई इस भाव में हो कि देव से मिलन का आह्लाद कैसा होता है। भागदौड़ कर फूल फेंक दिया , लो जी हो गया मिलन, शुष्क मन से अर्पित फूल देव तक पहुंचने से पहले ही रुक्ष हो जाते होंगे। 

सिंदूरी बादलों को छूकर आती हवा में लाज की गंध बसी है। अनायास ही सितंबर की खुमारी मन को गुदगुदाने लगती है और बीते पलों के नाव पर बैठा देती हैं। कितनी शहद सी स्मृतियाँ मौसम के परों पर बैठी आस पास उड़ने लगती हैं। 
  
सिहराती नदी का वह किनारा दिखने लगता है जहाँ साँझ के कोमल पाँवों में कोई लाली लगा रहा होता है और शबनमी चाँद मुस्कान की तरह उभरता है, सितारों की कतार रोशन हो उठती है। ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने पारिजात के फूलों की छड़ी हवा में उछाल दी। त्यौहारों की उमंग का कोष धीरे धीरे बढ़ रहा होता है। 

शामें और उनकी सरगोशियाँ, लैंप पोस्ट से आती मद्धिम मुलायम सी रोशनी, यूँ  ही घूमते घामते बेवजह ही किसी चाय की टपरी पर कदम रुकते हैं। उबलती चाय रूमानियत का पर्याय बन जाती है। मौसम का स्वाद और गाढ़ा हो जाता है। एक कहानी का अक्स दिखता है जिसकी नायिका नीली साड़ी और पफ ब्लाउज पहने नायक के कंधे पर सर रख कर शाम का ढलना देख रही है, दोनो चुप हैं पर दोनो के हृदय-मध्यांतर भावयामि के गीतों से भरी एक  धारा बह रही है। 

सितम्बर मयूर सा है, त्योहार सा है, कुमकुम सा है, रास सा है, फूल सा है, सुगंध सा है, बंशी की धुन सा है। सितम्बर प्रेम सा है, सितंबर प्रेम है। 

समय कब गुजर जाता है पता नहीं चलता, मैं अपनी सारी सजगताएं खो देना चाहता हूं, बरसते पानी में बहा देना चाहता हूं, बहाकर ठीक वैसे खुश होना चाहता हूं जैसे बच्चे पानी में कागज की नाव बहाकर खुश होते हैं। अचानक बस की पों पों से फूल कुम्हला जाता है। साढ़े छह बजे हैं। सड़क पर स्कूल बस आई है, एक मां अपने बच्चे को बस में बैठा रही है, बड़बड़ाए जाती है, पन्नी लपेटे बच्चा भी कूं कां करता हुआ पीठ पर बैग लादे पानी से बचते हुए बस में बैठ रहा है। मैं केवल इतना सुन पाता हूं, बड़ा ही गंदा मौसम है। मन में फांस सा धंस जाता है।

मौसम के सौंदर्य बोध की ग्रंथियों को मार कर हम कौन सी शिक्षा व्यवस्था का निर्माण कर रहे हैं, बच्चों का बचपन खाता स्कूल जेल से भी बदतर कब हो गया कुछ पता नहीं चला, मां बाप की इतनी हिम्मत नही है कि कह दें, मत जा स्कूल चल आज कैरम खेलते हैं, बरसात को सेलिब्रेट करते हैं। उन्हें डर है कि एक दिन भी क्लास मिस होने से बच्चा गंवार हो जायेगा। 

मुझे ख्याल आता है कि शायद सुपरसोनिक स्पीड से भागती हुई सभ्यता में ठहर कर बारिश को देखने बात अजीब हो सकती है या विकास की दौड़ में एक एक सेकंड का इस्तेमाल कर कर्मठ लोगों के मध्य बरसात की जल-तरंगो को सुनना कहीं असभ्यता की श्रेणी में तो नहीं आता। बारिश बदस्तूर जारी है, दामिनी दमक रही है, घनराज की दुंदुभी बज रही है, पन्नी में लिपटे लोग पानी में भाग रहे हैं, दरअसल पानी से भाग रहे हैं, दरअसल पूरी सभ्यता अब पानी से भाग रही है, या पानी के पीछे भाग रही है।

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