जब टेलिविज़न मेरे घर आया, तो मैं किताबें पढ़ना भूल गया था। जब कार मेरे दरवाजे पर आई, तो मैं चलना भूल गया। हाथ में मोबाइल आते ही मैं चिट्ठी लिखना भूल गया। जब मेरे घर में कंप्यूटर आया, तो मैं स्पेलिंग भूल गया। जब मेरे घर में एसी आया, तो मैंने ठंडी हवा के लिए पेड़ के नीचे जाना बंद कर दिया। जब मैं शहर में रहा, तो मैं मिट्टी की गंध को भूल गया। मैं बैंकों और कार्डों का लेन-देन करके पैसे की कीमत भूल गया। परफ्यूम की महक से मैं ताजे फूलों की महक भूल गया। फास्ट फूड के आने से मेरे घर की महिलायें पारंपरिक व्यंजन बनाना तक भूल गई..
हमेशा इधर-उधर भागता, मैं भूल गया कि कैसे रुकना है और अंत में जब मुझे सोशल मीडिया मिला, तो मैं बात करना भूल गया दोस्त।
मेरे दोस्त तुम्हें मालूम है न, यहाँ मकान हो या फिर दिल, रहना है तो किराया दो, बस प्रारूप अलग है। बस इसी ख्याल के चलते कुछ सोचने लिखने का मन हुआ तो अपने स्कूल के दिनों का एक क़िस्सा लिख डाला। आजकल तो जरा सा बादल क्या गरजे, मौसम विभाग का अलर्ट आने लगता है, अलर्ट देखते ही स्कूल बंद कर दिये जाते हैं, एक हमारा जमाना भी था। हम छुट्टी के लिये लाख बहाने बना बैठते थे, मजाल कभी छुट्टी मिल जाये।
भोर की नींद से जागकर भादो को बरसते हुए सुनना और पानी की आवाज़ सुनकर ठंड के मारे पैरों को सिकोड़ लेना अब बस स्मृतियों में बचा है।
बचपन में अक्सर एक छाते में खुद को बचाते तीन लोग घर आते औऱ आते हुए पूरे भीग जाते थे, ये भला किसे याद न होगा।
वो स्कूल के दिनों में अगर सुबह बारिश हुई तो पढ़ाई बन्द रहेगी, ऐसी कल्पना करके स्कूल जाना और पूरे दिन मन मारकर पढ़ लेना,हमारे कच्चे अरमानों पर वज्रपात नहीं था तो क्या था ?
याद करूँ तो दसवी की बारिश सबसे हसीन बारिश होगी,जहां जीवन में पहली बार पता चला कि आकर्षण सिर्फ़ दो चुंबक सटाने से नहीं होता बल्कि कुछ लोग भी होते है,एकदम चुम्बक जैसे... जो आपको सतत खींचते रहते हैं।
प्रेम की आहट वाली वही बारिश भला कैसे भूली जा सकती है। ठीक यही जुलाई के दिन.. पहले ही दिन कोई स्कूल में अपने भीगे बालों को चेहरे से हटाता और दो मासूम आँखों से न जाने क्या-क्या कहता स्कूल आया था। तबसे लेकर साल भर मन प्रेम की आहट में भीगा रहा... इतनी मासूम ख्वाहिश तो आज तक नही हुई कि कोई बस देख ले तो हम खुश हो जाएं।
काश आज खुशियां इतनी ही सस्ती होतीं।
इंटरमीडिएट की बारिश सबसे सख्त बारिश थी। जीवन के अभावों और संघर्ष से उपजी एक एसिडिक बारिश जिसने बताया कि बाबू हर बरसता सावन सुंदर नही होता, बल्कि इसे मेहनत, प्रतिभा और परिश्रम से सुंदर बनाना पड़ता है।
कॉलेज का सारा सावन तो इस रूठे सावन को सुंदर बनाने में चला गया और देखते ही देखते दिल सावन के आसमान का वो खाली बादल बन गया,जिसमें अंधकार था,बिजली थी,हवा थी... बस बारिश न थी।
और फिर तो सालों साल तक मन के किसी कोने में असंतोष का जेठ तपता रहा। कलम पीड़ा बन गई आप्राप्य की पीड़ा। संगीत की हर धुन से आग बरसता, सावन न बरसता।
धीरे-धीरे पढ़ने-लिखने,कुछ बनने और यशस्वी होने की लालसा से पका मन मौसम का सुख लेना भूल गया।
पर इन दिनों मन नें जाना है कि भीगने का कोई एक मौसम नहीं होता.. एक उत्साह, एक जुनून, एक सकारात्मकता घेरती है। ऐसा लगता है कि परिश्रम हर मौसम को सावन बना सकता है।
भोर में हवा की ठंडी आहट से उत्साह के नव नूपुर बजते हैं।
एक ऊर्जा है जो आसमान की तरह जाती है। प्रेम उत्साह औऱ सृजनात्मकता की ऊर्जा। मैनें सुना है,जैसी ऊर्जा आप भेजते हैं, लौटकर वैसा ही कुछ आपके पास आता है।
चाहता हूं तमाम सावन के ये बादल प्रेम की बरसात बनकर बरसे... टप-टप-टप..!
कहते सुनते बात तुम्हारी सो जाता हूँ, ऐसे ही मैं हर रोज़ ख़्वाबों का हो जाता हूँ। रात बहुत तकलीफ़ में गुजरती है दोस्त, कभी कभी तो ख्वाब में मर भी जाता हूं!
ये बादल, ये चाँद आसमान औऱ समंदर सब प्रेम की धुन बजाएं.. मेरे लिए और मेरे अपनों के लिए.. ❣️
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