Sunday, 10 September 2023

रीढ़ लचीली और चमड़ी मोटी—


प्रजातंत्र सिर्फ सरकारी व्यवस्था में आवश्यक नहीं है, रिश्तो में भी आवश्यक है। जब तक कोई रिश्ता प्रजातांत्रिक नहीं होता, तब तक प्रेमिल नहीं हो सकता। शब्दों के बीज से विचारों के वृक्ष बनते हैं, मैं सचेत रहता हूं कि जब इनसे फूल झरें, तो सहेजे जाएं किताबों के बीच में।


शब्दों की चुभन, तमाम उम्र चुभती है। कितना भी मुस्कुरा दो, मगर दिल में वही बात दुखती है। एक राजनीतिक जीवनी में लिखा था- “वह एक आदर्श राजनीतिज्ञ की परिभाषा को चरितार्थ करते हैं। उनकी रीढ़ लचीली और चमड़ी मोटी है।”

यह कटाक्ष की तरह नहीं, बल्कि प्रशंसा की तरह लिखा था। जैसे पियानो-वादक की उंगली लंबी, बल्लेबाज़ की बाहें मजबूत, घड़ीसाज की आँखें बारीक, तबलावादक की हथेली सख़्त, चोर के कदम हल्के, हलवाई की नाक तेज, फेरीवाले की आवाज ऊँची होनी बेहतर है; उसी तरह राजनीतिज्ञ में ये दो गुण अवश्य हों। 

एक बेहतरीन वृत्तचित्र जैसी फ़िल्म है जिसमें एक व्यक्ति की नौकरी लगती है। उसको दिल्ली के केंद्रीय इलाके जहाँ तमाम सांसद रहते हैं, वहाँ से बंदर भगाने होते हैं। उसके प्रशिक्षण में उसे बंदर से संवाद करना सिखाते हैं। बंदर की तरह आवाज़ निकाल कर। वह दिन-रात रियाज़ करता है मगर बंदर की आवाज़ नहीं निकलती। हर महीने उसका वेतन काट लिया जाता है। 

आखिर वह एक तरकीब निकालता है। वह एक लंगूर का भेष धारण कर लेता है। वह बंदरों के बीच लंगूर बन कर उनको भगाता है।

नज़र से जो तजुर्बा हासिल हुआ है, वह कहता है कि आंखों की देखी आधी सच मानो और कानों की सुनी पर पूरा यक़ीन मत करो। क्योंकि अगर सिर्फ आंखे और कान ही तुमको सच के दर्शन करवाते, तो यूँ बहके बहके लोगों की भीड़ न होती। कुछ है, जो तुम्हे समझना है, बस यही दो लफ्ज़ उस चौखट पर बोलने है, कहने हैं और निकल जाना है उधर, जिधर नज़र को तराशना सिखाया जाता है....

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