मैं ने देखी, मैं की माया।
मैं को खोकर, मैं ही पाया।।
हम संतों के पास मार्गदर्शन के लिए नहीं जाते, हम चमत्कारों के लिए जाते हैं। हम इतने आलसी हैं कि किसी भी मार्ग पर चले बिना ही मंज़िल तक पहुँचना चाहते हैं। ईश्वर के प्रति प्रेम को हॄदय में रखने की बजाय, अलमारी में बने मंदिर में रखना चाहते हैं, जहाँ सुबह शाम ढोक देकर अपने मनचले मन को तसल्ली दी जा सके।
मार्ग में आने वाली बाधाएं और तप सहन किए बिना मन में मंज़िल के ख़्याली पुलाव पकाए जा सकते हैं लेकिन मंज़िल तक नहीं पहुँचा जा सकता। चमत्कार भी उसके साथ ही होता है, जो पिया मिलन के लिए रोता है।
कहते हैं कि तुम जिसके भी व्यक्तित्व पर अधिकार चाहोगे, उसे अपने जैसा ही बना लोगे। इसका विपरीत भी उतना ही सच है यानि हम जिसे भी अपने ऊपर अधिकार देंगे, हम उसके जैसे ही बन जाएँगे।
अधिकार में प्रभुत्व की इच्छा छुपी है। जहाँ भी दो (द्वैत) होंगे वहाँ अधिकार का यह युद्ध चलता रहेगा और इस युद्ध से अशांति उपजती रहेगी। बहुत से लोगों को कहते सुना होगा, "या तो तुम मेरे जैसे हो जाओ या फिर मैं तुम्हारे जैसा बन जाऊँ!" यह वाक्य मन की अशांति (द्वैत) को समाप्त कर के एक सहज जीवन जीने की कामना में बोला जाता है, एक ऐसा सुरक्षित जीवन जीने की कामना में बोला जाता है जहाँ अपना सबकुछ (व्यक्तित्व) खोने के बाद भी लगता हो कि सबकुछ मिल गया है। लेकिन यह सिर्फ़ एक कामना ही है।
सहज जीवन मात्र सत्य के प्रकाश के साथ ही जिया जा सकता है। सत्य का प्रकाश यानि प्रेम के साथ, यानि एक स्वस्थ मन के साथ। सत्य तुम्हें अपने जैसा बनाने का प्रयास नहीं करता, यह काम तो झूठ का है क्योंकि वह स्वयं के समाप्त होने से घबराता है।
अगर किसी ने तुम्हें अपने मन में जगह दी है तो तुम्हारी ज़िम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है कि तुम उसका मन गंदा न करो। अगर आपने किसी को अपने मन में जगह दी है तो यह देखना भी आपकी ज़िम्मेदारी है कि उसके आने से आपके मन में किन चीजों का आगमन हुआ है क्योंकि फिर उस ओर ही तुम्हारा गमन होगा।
जिस मन की आंखों से हम हर चीज़ को देखते हैं, उन आंखों पर एक ऐसा चश्मा लगा है जिसमें समय के साथ अनगिनत दरारें आ गई हैं। इन दरारों के पीछे से जो भी देखा जाएगा, वो चीज़ दरअसल वह नहीं होगी जो हमारी मन की आंखों ने देखी, भले से ही उसमें अनगिनत रंग नज़र आएं, भले से ही उसके अनगिनत स्वरूप नज़र आएं। असली स्वरूप तो तब ही दिखेगा जब हम अपना यह चश्मा उतार देंगे।
इसीलिए ऐसा नहीं है कि हमने यदि प्रेम को नहीं जाना तो सिर्फ़ प्रेम को ही नहीं जाना, प्रेम को न जान पाना किसी भी चीज़ के असली स्वरूप को न जान पाना है, फिर हमने कुछ भी नहीं जाना।
मेरे 'मैं' (मन) और तुम्हारे 'मैं' (मन) में बस उतना ही अंतर है
जितना सोने के कंगन और सोने के हार में है,दोनों एक ही तत्व (सोने) से बने हैं।
किसी ने क्या खूब फ़रमाया है, जवानी में कामवासना सताती है और बुढ़ापे में पत्रकार सताते हैं, जनाब ज़िंदगी कुछ यूँ ही बिताते (गँवाते) हैं।
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