नज़र से जो तजुर्बा हासिल हुआ है, वह कहता है कि आंखों की देखी आधी सच मानो और कानों की सुनी पर पूरा यक़ीन मत करो, क्योंकि अगर सिर्फ आंखे और कान ही तुमको सच के दर्शन करवाते, तो यूँ बहके बहके लोगों की भीड़ न होती। कुछ है, जो तुम्हे समझना है, बस यही दो लफ्ज़ उस चौखट पर बोलने है, कहने हैं और निकल जाना है उधर, जिधर नज़र को तराशना सिखाया जाता है।
यार मेरे, संडे आते-आते जीवन चाईनिज बैटरी सा हो जाता है। हम पांच/छह दिन बेतहाशा काम किए जाते हैं। इन पांच दिनों में कुछ लोगों से हम नाराज़ होते हैं, कुछ हमसे होते हैं। कोई हमें कुछ सुना जाता है और हम अनसुना कर जाते हैं। कितनी-कितनी अपेक्षाओं और उपेक्षाओं के बीच का जीवन जी रहे होते हैं हम। जीते जाते हैं बस इस आस में कि मेरे हिस्से में एक संडे तो है।
संडे को मन की गिरहें खुलनी शुरु होती है। सख्त और अनुशासित जीवन की पकड़ ढीली पड़नी शुरु होती है और हम ख़ुद भी उसे यूं ही छोड़ देते हैं। मन की गिरहें खुलनी शुरु होती है तो बातें शुरु होती है। हर वो बात जिसे पिछले छह दिनों तक हमने अनसुना किया, यूं कि जैसे मुझ पर किसी बात का कोई फर्क़ नहीं पड़ता। वो छोटी बातें जो दिमाग़ पर असर तो करती है लेकिन हम हावी होने देना नहीं चाहते। बातें, चाय, पोहे, बातें और तब तामझाम से अलग सीधे-साधे जीवनवाली चाय, वो चाय और उन दिनों ती चाय जिसके साथ एक वाक्य नत्थी हुआ करता-आज कौन चाय पिला रहा/रही है ?
किसी ने क्या खूब कहा है मेरे दोस्त मन का खुलना बहुत मुश्किल चीज़ है, सबके आगे नहीं खुलता। जिसके आगे खुल जाय तो समझिए कि शहर ने आपको अपना लिया है। मन खुला कि हम फैब इंडिया की कटलरी और तामझाम से एकदम टपरीवाली कांच की गिलास पर उतर आते हैं। एकदम मामूली, एकदम औसत, लेकिन मामूली और औसत होना आसान है क्या ? बिना मन के खुले ये संभव है क्या ? शहर में ये सबसे दुर्लभ बात है। आज मन खुला तो चाय की रंगत और पेश किए जाने का अंदाज़ भी बदल गया। शहर में रोज का जीवन आसान नहीं है, रोज हम एक युद्ध से गुज़रते हैं और परास्त होते हैं। बस ये है कि जिसके हिस्से संडे और मन को समझनेवाला कोई सामने बैठकर सुननेवाला हो तो वो समझिए एक दिन का विजेता है। हम सब टाइम और स्पेस से बँधे हैं। किसी एक में परिवर्तन दूसरे में भी बदलाव की वजह होती है। दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।
लेकिन, समय का एक ऐसा भी रूप है जो घड़ी के हिसाब से नहीं चलता उसे समझना कहीं ज्यादा मुश्किल है। आप गौर से देखें, तो पाएँगे कि समय तो केवल बिखराव ही लेकर आता है- बेतरतीबी, अव्यवस्था लेकर आता है। इसी में सृजन के बीज भी होते हैं। इसी से आपकी पूरी स्थिति बदलने वाली होती है।
और आप हैं कि सब कुछ फिक्स चाहते हैं जीवन में, कोई भी परिवर्तन आपको सहज स्वीकार नहीं होती जबकि स्थिरता समय का स्वभाव ही नहीं है, बदलाव और बिखराव ही सत्य है। आपको उसके साथ सामंजस्य बिठाना होगा, अनिश्चितता को स्वीकार करना होगा। यही राह है और यही मंजिल भी। इसे समझ जाएँगे तो बहुत से मनोविकारों या कल्पनाओं से बच कर वर्तमान क्षण का लुत्फ़ ले पाएँगे।
"उम्र के साथ इतवारों की तलब जल्दी-जल्दी लगने लगी है। सोचता हूं हाक़िम को एक चिट्ठी लिखूं, कि हफ्ते में दो इतवार का एलान कर दें, तलब बुरी चीज है।”
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