गंगा-जमुनी तहज़ीब से सारे नाले चिढ़ते हैं। जबकि यह संस्कृति उनकी गंदगी को बहा ले जाती है। यही मंजर आज मेरे शहर का था। हाल कुछ ऐसा था कि, नन्हे शिक्षण पथिकों का पथ संचलन के दौरान ही पाद शुद्धिकरण कर ले जा रहे जल से सब परेशान। तरह-तरह के शब्द, बातें व बाण।
नन्हे बच्चों को इन जलमग्न पथ पर एक नए पथिक के रूप में चलता देख मानो ऐसा दृश्य मेरी आँखो के सम्मुख चल रहा हो जैसे तुलसीदासजी अति आनंद में लीन भगवान राम जी को पहली बार ठुमक, ठुमक चलते देख भाव विभोर हो रहें हो। उनकी चंद पंक्तियाँ अनायास ही मेरे मन मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ करने लगी ही जैसे।
ठुमक चलत रामचंद्र,
बाजत पैंजनियां,
किलकि-किलकि उठत धाय,
गिरत भूमि लटपटाय,
धाय मात गोद लेत, दशरथ की रनियां…
ठुमक चलत रामचंद्र…
मुझे बादलों की कड़कड़ाहट से डर लगता है। बिजली के चमकने से डर लगता है। दिन में सूरज का छिपकर अंधेरे को न्योता देना डराता है। भीगी सड़कें, तर दीवारें, झुके हुए पेड़ और दुबके हुए जानवर डराते हैं। निर्माणाधीन विकास कार्यों का अधूरा होना डराता है। सरकार का सरकारी तन्त्र डराता है, अफसरी अकड़ से डर लगता है।
मुझे बारिश पसन्द है मगर वह बारिश नही, जो किसी के चूल्हे की आग ठंडी कर दे। जो किसी झोपड़ी में टपकना शुरू कर दे। जो ज़मीन में इतना पानी भर दे कि पाँव भी रखे न जा सकें। मौसम कोई भी हो, हमें उतना ही पसन्द है, जितने से आमलोगों की तक़लीफ़ न बढ़ जाए। मुझे अपनी पक्की छतें डराती हैं कि उनपर क्या गुज़रती होगी, जिनकी छते कच्ची हैं, झुग्गी झोपड़ी में दुबके बच्चे किस उम्मीदपर इसका लुत्फ़ लेंगे।
मैं डर जाता हूँ कि कहीं मौसम की कोई ज़्यादती, किसी को भूखा न सुलाए। हो सके, तो उनकी फिक्र कर लीजिएगा। अपने घरों में काम करने वालों से हमदर्दी से पेश आइये, उनकी ज़रूरतों को समझिए, क्योंकि यह बारिश, उन्हें सुक़ून तो नही ही दे रही होगी।
मुझे डर लगता है, डर यह कि कहीं मैं उस चीज़ का लुत्फ़ न लेने लग जाऊं, जिसके होने से आम दिलों में मायूसी जनम लेती है। मुझे कड़कते बादल डराते हैं। यह मेरे अंदर का डर है, जो फूली हुई मिट्टी को देख बढ़ जाता है। भरे हुए नाले और झरने से झरते परनाले देख दिल डूबने लगता है।
हाँ मैं कमज़ोर हूँ, जो अंधेरे से, बिजलियों से, आसमान की आवाज़ से, बरसते बादलों से डर जाता हूँ। अब बताओ इस न रुकने वाली बारिश में कैसे कहूँ की मौसम खूबसूरत है, मेरा धान जो कल तक खड़ा था, लोट गया है खेत में, अब बताओ इस लोटते हुए धान को देख क्यों न डरूँ। मुझे डर लगता है, उन आंखों को देखकर, जिनके ख्वाब यह पानी बहा ले जा रहा है। तालाब से बने इन रास्तों को पार कर रही इन नन्ही जानों की फिक्र लिए डरता हूँ। किसी के बेघर होने की खबर से डरता हूँ। उस बेघर परिवार की किसी नन्ही सी जान के सवाल से डरता हूँ, जो अक्सर हमारी सरकार, प्रशासन व नेताओं की उदासीनता का शिकार हो रही हैं। उसका वो रोते हुए सवाल करना, भाईया हमने किसी का क्या बिगड़ा था ? भगवान भी हम ग़रीबों की ओर आँखे बंद कर लेता है कहते हुए अपनी माँ से जाकर चिपट जाना। मानो एक पल सौ बार मार डालता है। उसके किसी सवालों का जवाब न देने पाने का ख्याल ही मुझे डराता है, रात भर मुझे सोने नही देता है।
मैं थोड़ा कमज़ोर हूँ, मुझे डर लगता है। हर उस चीज़ से डर लगता है, जिससे डरना चाहिए क्योंकि मेरा दिल, मन और मैं उतना ही आम हूँ, जितना होना चाहिए। मैं निडर हूँ तो केवल ज़ुल्म के सामने मगर मैं छिपकली से भी डर जाता हूँ। मेरा डर मुझे इंसान बने रहने देता है और देखो, मैं इस बरसते हुए पानी और चमकती बिजली से डर रहा हूँ...
वह कितने खुशनसीब हैं, जो कह लेते हैं। ज़मीन को देखता हूँ अक्सर, तो सोचता हूँ कि यह अनवरत चल कैसे लेती है, फिर देखता हूँ कि वह कहीं, सोते फोड़कर ठंडा पानी उगल देती है तो कहीं लावा उगलकर ज्वालामुखी बना देती है। यह धरती चलती है, क्योंकि कह लेती है और एक दिन कह नही पाने वाले सभी लोग चले जाएँगे और रह जाएंगी वह बातें, जो आज पढ़ सुन रहा हूँ....
तुम थे तो कितने दूर थे, अब नही हो, तो कितने अपने हो...
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