अपनी ज़िन्दगी भी यारों कुछ वो जींस, टी-शर्ट की यारी जैसी हो चली है। इस पर किसी ने खूब कहा कहा है, “जींस, टी-शर्ट तो वैसे भी मजदूरों के लिए बनाए गए थे जो आज बदलते वक्त के साथ फैशन में आ गए।”
अजीब है न!
जब कभी मैं प्रेम विषय पर कुछ लिखना चाहता हूं और दिमाग ब्लैंक हो जाता है तब मैं तुम्हारी तस्वीर देखता हूँ। तुम्हारी ऑंखें, तुम्हारे होंठ, तुम्हारा चेहरा। फिर उंगलियां तैरती है कीबोर्ड पर और छप जाती है कोई प्रेम कहानी। सच कहूं तो तुम पूरी किताब हो प्रेम की, मैं बस कुछ पन्नों को ही पढ़ पाया हूँ। बहुत मशरूफ़ रहता हूं, दुआ करो मुझे फुर्सत नसीब हो और पूरी किताब पढ़ सकूं तसल्ली से।
कहते हैं चमकीली धूप जब सर्द लकीर बनकर रह जाए तो दर्द होता है। अनगिनत पीड़ाओं को जब अल्फाजों की रूह न मिले तो दर्द होता है॥
ईश्वर ने हर किसी को कुछ रिश्तों के साथ धरती पर भेजा, उनके लिए शुक्रिया और शुक्रिया उन रिश्तों के लिए भी जो अपने आप ही बनते गए। कब कैसे किधर..? कुछ नहीं पता, पर बने। कुछ तूफान आने पर भी टिके रहे और कुछ हवा की जरा सी सरसराहट भी झेल न सके और उड़ गए। ऐसे रिश्तों के लिए शुभचिंतकों से नसीहतें मिलती रहती है कि मैंने इन्हें बिना-वजह ही सर पर चढ़ाया, खुशामद की। कुछेक लोगों को लगता है मेरा इनसे कोई गुप्त मतलब होता है तभी, अब मतलब क्या है वो तो मेरा दिल या उनका दिल ही जानता है।
वैसे जब पीड़ाओं को अल्फाज़ न मिले तो, मैं बस वही अल्फाज़ बनने की कोशिश करता हूं, पर वो शब्द कब पन्ने - पन्ने बढ़ते चले जाते हैं पता नहीं चलता। फिर रुकूं तो उन्हीं लोगों को तकलीफ होती है। नतीजा, वहीं रिश्ते पलायन करने लगते हैं और दोष अल्फाजों को देने लगते है। खैर अब मैंने फकीरी अपना ली है। अपनी चारपाई खुले आकाश के नीचे बिछाई है, न दीवारों का डर और न दरवाजे का। रही बात अल्फाज़ बनने की तो जन्मजात गुण है जो जाने नहीं वाला। बाकी जिन्हें ठहरना है वो ठहरें, जिन्हें जाना है वो शौक से जाएं।
वैसे अब उम्र धीरे-धीरे फिसल रही है। पता भी नहीं कितनी बाकी रही, रोज थोड़े पन्ने पढ़ता हूँ दुआ करो साँसे पूरी होने से पहले आखिरी पन्ना पलटकर बन्द कर दूं किताब।
मुझे मजनू नहीं बनना, न रांझा, न रोमियों। इनके जैसा कुछ नही चाहिए। मुझे इमरोज के फीमेल वर्जन की तलाश है। हो सके तो दुआ करना यहीं नसीब हो। जीवन की संध्या में तुम्हारे साथ रहने का सौभाग्य या कोई ऐसा मकान जो पटा पड़ा हो तुम्हारी तस्वीरों से। दीवारों, छतों, सीढ़ियों हर जगह बस तुम ही तुम। हो सके तो दुआ करना। सुना है जिसकी ऑंखें मासूम होती है ऊपर वाला भी उनकी सुनता है ...
कहाँ से लाऊँ रोशनी, खुशी व उम्मीद की बातें ? जो जीवन में ना के बराबर है। इन काले यथार्थ के अतल गह्वर में एक सर्जक के नाते मैं अपनी ओर से छींट भर रंग, चुटकी भर उजाला घोल सकता हूँ। इससे ज्यादा क्या ? ख़ुशी, उम्मीद, सपने शून्य में पैदा नहीं हो सकते। इन्हें एक ठोस आधार चाहिए होता है।
मेरे हाथ में क़लम है, लिखने को कुछ भी लिख दूँ, पल में हवाई महल खड़ा कर दूँ, दुष्टों का नाश कर दूँ, लाटरी लगवा दूँ, मगर जीवन की समस्याओं का ऐसा सरलीकृत हल देना सही होगा क्या ?
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