Saturday, 19 December 2020

"इश्क़ का डिजिटलाइज़ेशन"

आज हम आधुनिकतावाद के उस चरम पर हैं, जिसके बारे में हीर-राझे, राजुला-मालुशाही ने कभी सपने में भी इस तरह के इश्क की कल्पना नही की होगी। तो आप इसका भी अंदाज़ा लगाते चलें की ये नई पीढ़ी के लोग आपको कितना याद और कितना यादों में सम्भाल कर रखेंगे........


डिजिटल इंडिया के दौर में 'लिखे जो खत तुझे' और 'फूल तुम्हे भेजा है खत में' जैसे गीत अब सिर्फ गीत बनकर रह गए है,जबकि कभी इनमे एहसासों की सुगंध हुआ करती थी। अब हमैं इन अहसासों को कहानियों क़िस्सों के माध्यम से ही ज़िन्दा रखना होगा। चिट्ठी लिखना, महबूबा की गली से गुजरना व किताबो में गुलाब देना,जैसे क्रियाकलाप कम ही नज़र आते है।कारण मोहल्ले,समाज व सोसाइटी के साथ साथ इश्क़ का भी डिजिटल हो जाना है।

वर्तमान जमाने का इश्क़ इन्टरनेट के रहमो करम पर पल रहा है। इश्क़ उन्ही का परवान चढ़ रहा है जिनके पास तेज़ इन्टरनेट कनेक्शन है,धीमे कनेक्शन वालों के पास तो जब तक महबूबा का रिप्लाई आता,बड़ी देर हो चुकी होती है।जहां आपका इन्टरनेट से कनेक्शन टूटा वही इश्क़ की दीवारों से पपड़ी उखड़ने लग जाती है।क्योंकि कभी आँखें मिलती थी,लब मुस्कुराते हैं पर आज उंगलियाँ चलती हैं फ़ोन के कीपैड पर।

नयी पीढ़ी का इश्क़ फेसबुक,ट्विटर,व्हाट्सअप पर ही पनपता है और एक अंतराल के बाद वही कहीं खो जाता है।कभी इश्क़ में महबूबा के छत पर आने का इंतज़ार होता था आज उसके मैसेंजर पर ऑनलाइन आने का इंतज़ार होता है। कभी अपने हाथ से बनाए कार्ड दिए जाते थे और आज तरह तरह के स्टिकर कमेंट से रिझाया जाता है। गौर करने वाली बात ये हैं कि जितने ज्यादा बातचीत के जरिए बढ़ते जा रहे हैं रिश्ते उतने ही धीमी मौत मरते जा रहे हैं!


वैसे इसके फायदे भी कई है...पहले प्यार में नाकामी पर युवा प्रेमी हाथ की नस काट लेते थे पर अब विरोध में सिर्फ अपनी आईडी बंद कर दिया करते है। पहले इश्क़ के चर्चे मोहल्ले में न हो जाए इसका खतरा होता था वही आज आप फेसबुक/व्हाट्सअप पर दर्जनों के साथ इश्क़ लड़ा सकते बिना किसी को कानोकान खबर हुए।

वैसे इश्क़,इश्क़ होता है,डिजिटल हो या पौराणिक। कभी सिर्फ  गली मोहल्ले में प्यार तलाशने वाले आज सात समंदर पार महबूबा की खोज कर रहे,इसे भी विकास का ही एक भाग माना जाना चाहिए और वैसे भी अगर ज़ज़्बात सच्चे हो तो इश्क़ मुकम्मल होना ही है फिर चाहे वो मैसेंजर पर जन्मा डिजिटल इश्क़ ही क्यों ना हो।अब तो बस ये देखते जाना है कि डिजिटलाइज़ेशन की अंधाधुंध दौड़ में इश्क़ रफ़्तार बनाए रखने में कामयाब हो पाता है या लड़खड़ा जाएगा।इश्क़ करते रहिए साहब, दौर तो यूँ ही बदलते रहेंगे।❤️

Friday, 11 December 2020

आगे रहने की होड़ में प्यार छोड़, नफरत सीख ली...


आज पूरे विश्व के साथ-साथ भले ही हमारे देश के लोग अब तक की सबसे बड़ी तालाबंदी का सामना कर रहे हों और इसकी तकलीफें अपार हों, लेकिन भारत में कोरोना संक्रमण के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। कोरोना संक्रमण के मामले में भारत अब दुनिया भर में अपना एक विशेष स्थान बना रहा है। 
चौबीस मार्च को जब पूरे भारत को ताले में बंद करने की घोषणा की गई थी, उस समय भारत सबसे ज्यादा प्रभावित बीस देशों की सूची में शामिल नहीं था। कोरोना वायरस संक्रमण के आंकड़े लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। 
जाहिर है कि कोरोना संकट के बहाने बहुत सारे पुराने बदले भी चुकाए जा रहे हैं। दुश्मनी निकाली जा रही है। लेकिन, इन सबके बीच मेरी निगाह इकोनामिक्स टाइम्स में 27 अप्रैल को छपी एक खबर की तरफ जाती है। भारत हथियारों की खरीद करने वाले देशों की सूची में तीसरे नंबर पर पहुंच गया है। 


स्टाकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के हवाले से खबर बताती है कि भारत ने वर्ष 2019 में अपनी सैन्य संरचनाओं पर 71.1 बिलियन डॉलर रुपये का खर्च किया है। पिछले साल की तुलना में इसमें 6.8 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इसके साथ ही सैन्य खर्च के मामले में भारत तीसरे स्थान पर पहुंच गया है। पहले स्थान पर अमेरिका, दूसरे पर चीन है। जबकि, चौथे पर रूस और पांचवें पर सऊदी अरेबिया है। दुनिया भर में हथियारों या सैन्यसंरचनाओं पर कुल जितना पैसा खर्च होता है उसका 62 फीसदी खर्च केवल ये पांच देश ही कर देते हैं। 
अमेरिका वह देश है जो दुनिया में हथियारों पर सबसे ज्यादा पैसा खर्च करता है। संस्थान का अनुमान है कि दुनियाभर में सैन्य संरचना पर वर्ष 2019 में कुल 1917 अरब डॉलर का खर्च किया गया है। इसमें से 38 फीसदी रकम अकेले अमेरिका ने खर्च की है। जबकि, चीन ने 14 फीसदी रकम खर्च की है। 
भारत में पिछले तीस सालों में सैन्य संरचनाओं पर होने वाले खर्च में 259 फीसदी का इजाफा हुआ है। सिर्फ 2010 से 2019 के बीच ही इसमें 37 फीसदी का इजाफा हुआ है। 
हैरानी की बात देखिए कि ये सारा खर्च ये सारे देश सिर्फ अपनी रक्षा के नाम पर कर रहे हैं। वे रक्षा के नाम पर ज्यादा से ज्यादा घातक हथियारों को विकसित करते हैं। उनकी खरीद करते हैं। सभी के यहां विभाग का नाम रक्षा ही है। लेकिन, काम उनका धौंसपट्टी और आक्रमण है। जानते ही हैं कि अमेरिका का रक्षा विभाग जाने कितने देशों पर हमला कर चुका है। लेकिन, उसका नाम अभी तक नहीं बदला है। 

वहीं, अपने देश की स्थिति देखिए तो बीते तीस सालों में सैन्य संरचनाओं पर तेजी से खर्च बढ़ा है। ये वही तीस साल हैं जब सरकार ने अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाना शुरू किया। शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन से लेकर जनता की तमाम जरूरतों को निजी क्षेत्रों में ज्यादा से बेचा जाने लगा। उदारीकरण के नाम पर बर्बादीकरण हुआ। सरकार अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हट गई। वह टैक्स तो वसूलती है। लेकिन, सेवाएं नहीं देती। सेवाओं के लिए आपको अलग से रकम खर्च करनी होगी और उसे पूंजीपतियों से खरीदना होगा।  
तमाम निजी स्कूल-कॉलेज, अस्पताल, प्राइवेट ट्रांसपोर्ट से लेकर प्राइवेट सुरक्षा तक सभी इसी तीस साल की देन है। 
हम सभी अपने समाज से सुनते आए है अच्छी सेहत ही सबसे बड़ा धन है सोचिए, दुनिया के देशों ने यह पैसा हथियारों को जमा करने की बजाय अगर लोगों की सेहत सुधारने में लगाई होती तो क्या हुआ होता। 

क्या इस दुनिया से अलग दूसरे तरह की दुनिया संभव नहीं है !!!

Saturday, 28 November 2020

ज़िंदगी ऐसी ही बेसबब है!



अक्सर लोगों को कहते सुना है ज़िन्दगी इम्तिहान लेती है, हर पल, हर मोड़ पर, फिर कौन जाने ये दिन भी एक परीक्षा हों, कि देखें कौन पहले टूटता है। किसके अंदर की सजावट और तरतीब पहले तितर-बितर होती है। किसका ज़ेहन पहले कुंद होता है। क्या पता कि ये एक आज़माइश हो!

तब ईश्वर ने जिनको दुलार से पाला, जिनके मन का ही हरदम हुआ, वो इससे फ़ौरन हताश होंगे। हारकर पूछ बैठेंगे कि यह सब क्यूँ हो रहा है, जैसे कि ज़िंदगी एक आरामगाह थी, जिसमें मेज़ पर हमेशा उनकी पसंद के फूलों ने रहना था! 



पर ईश्वर के सौतेले इसमें देर तक टिकेंगे, शायद वो आख़िर तलक अडोल रहें!

वो जिनको बुरी ख़बरों ने पोसा, अकेलेपन ने अंगुली पकड़ चलना सिखाया, जिनकी बुद्धि ने उनमें निस्संगता भर दी। पतंग के काग़ज़ जैसे पारदर्शी जिनके लिए जीवन के सारे प्रतिमान हो गए। किंतु वो ऐसे नाशुक्रे हैं कि इस बढ़त पर छाती न फुलाएंगे, जीत का कोई दावा पेश ना करेंगे। 

जब सब पहले जैसा हो जाएगा और लोग अपनी पुरानी आदतों में लौट जाएंगे तो ज़रूर वो मन ही मन सोचेंगे कि ये फिर वही भूल दोहराते हैं, इन्होंने अभी सबक़ सीखा नहीं! कि यहाँ कोई संगी नहीं है, सब अकेले हैं। ये जलसा झूठ है, भरम है। इन बेपता दिनों ने जिस सच को उघाड़ दिया था, उसको अब गांठ बांधकर रखना। इस खोखलेपन को भूलना नहीं, ये ज़िंदगी ऐसी ही बेसबब है!

पर आदत के बतौर वो तब भी चुप रहेंगे, यह बात भी किसी से बांटेंगे नहीं! बस दौरे-जहाँ की फ़ितरत को देख मुँह ही मुँह मुस्काएंगे! खैर जैसी भी हो ज़िन्दगी उसे खुल के आज़ाद तरीक़े से बिन्दास जीयो, यही हाल-ए-ख़ुशी का नायाब तरीका है।

Wednesday, 18 November 2020

एक रोज मेरी मनोस्थिति -



फूल बेचने वाले लड़के को भला क्या मालूम था। उसने भूल से कह दिया- एक गुलाब ले लीजिए, भगवान आपकी जोड़ी सलामत रखेगा। वो लड़की सच में ही मेरे इतने क़रीब खड़ी थी कि किसी को भी वहम हो जाए, साथ में है।


असमंजस की स्थिति बन गई। मैं मुस्करा दिया। वो भी शायद झेंपकर मुस्कराई होगी। मैंने देखा तो नहीं, पर उसकी परछाई देखकर कल्पना बांधी। अपराह्न के चार बजे होंगे और धरती पर हम दोनों की लम्बी-सी परछाई गिर रही थी। परछाई में सच में ही जुड़े कंधों वाली इतनी क़ुरबत मालूम होती, जैसे हाथ थामे खड़े हों। मुझे लगा मैं अपनी परछाई से दोयम हो गया हूं। उससे हार गया हूं। मेरा हाड़-मांस का होना अकारथ था। मुझे एक बेआवाज़ अंधेरे के वृत्त में धरती पर गिर पड़ना था, एक युगल आकृति में- जैसे चित्रकार बनाते हैं तिमिरचित्र।

मैंने फूल ले लिया। मुझे उसकी कोई ज़रूरत नहीं थी, फिर भी रख लिया। किताब में सहेज लिया। फूल बेचने वाले को कहने का मन हुआ कि दोस्त, तुम्हें तो तुम्हारे फूल के दाम मिल गए, लेकिन तुम्हारी दुआ बेकार जाएगी। ना कोई जोड़ी है, ना किसी को सलामत रहना है। ये तो बस यों ही अफ़रातफ़री में जुड़ गया एक साथ है। यहां इतनी भीड़ है कि भ्रम होता है, अलग-अलग नहीं हैं।

वो दिल्ली थी। मैं वैशाली मेट्रो स्टेशन पर था। फूल को किताब में रखकर आगे बढ़ चला। वो भी साथ ही चली। हमने साथ में ही क़तार में लगकर टोकन लिया। साथ ही प्लेटफ़ॉर्म पर पहुंचे। साथ ही मेट्रो का इंतज़ार किया। साथ ही गाड़ी में घुसे। साथ-साथ बैठे।

मैंने मन ही मन सोचा- उम्रभर का नहीं, चंद मिनटों का तो साथ रहेगा। बीस रुपए का गुलाब था। अपने हिस्से की दुआ पूरी करके ही मुरझाना चाहता था। उस फूल की ये ख़ुदमुख़्तारी मुझे रुच गई, यों तो दुनिया में कुछ चीज़ें पूरे जीवन की पूंजी लगाकर ना मिलें, इतनी अमोल होती हैं।

मेट्रो चलती रही। एक-एक कर स्टेशन आते रहे। मुसाफ़िर उतरते-चढ़ते रहे। मैं हर स्टेशन पर सोचता, शायद यहीं तक का साथ हो, किंतु दरवाज़ा खुलकर बंद हो जाता और वो अपनी जगह पर बनी रहती। मैं ख़ुद को चंद और मिनटों की क़ुरबत की मुबारक़बाद देता। कौशाम्बी आया और गया। आनंद विहार आकर निकल गया। यमुना बैंक पर तो लगा, अब वो उतर जाएगी, लेकिन पर्स टटोलकर ही स्थिर हो गई। प्रगति मैदान पर भी नहीं उतरी।

मैंने कनखियों से देखा, उसके कान में मिट्‌ठू के पिंजरे के जैसा एक नन्हा-सा झुमका था, जो पूरे समय झूल रहा था, जैसे नीमबेहोशी में कोई हिंडोला लहराता हो। बालों की एक लट चेहरे पर चली आई थी। गाल पर बरसों पुरानी एक खरोंच का निशान था। बड़ी तीखी नाक। उसका फ़ोन बजा। मुस्कराकर वो बात करती रही। मैंने अब देखा, उसके एक क्रुकेड टुथ था। ऊपर की दंतपंक्ति में एक दांत अपनी जगह पर हलका-सा तिर्यक।

वो कौन थी, क्या पता। कहां से आई, कहां को उसे जाना था। ना जान, ना पहचान। लेकिन एक लापरवाह भूल से कही गई वो बात थी- भगवान आपकी जोड़ी सलामत रखेगा। वो बात भले झूठी हो, लेकिन सुंदर थी। उसकी कल्पना में रस था। मेरा-उसका उस एक झूठे आरोप का नाता बन गया था, जैसे कहने भर से ही कुछ जुड़ गया। जैसे कि कुछ भी कहना इस संसार में हवा का एक बगूला भर ना हो, कहने से उसका एक ठोस आकार बन जाता हो, नियति बंध जाती हो। गुलाब की कली बेचने के मक़सद से बोला गया वो एक ब्यौपारी झूठ ही तो था। किसी को अनजाने में भी ऐसी बातें नहीं कहना चाहिए, जो हमें वैसी माया में बिसरा दें।

मंडीहाउस स्टेशन आया। अब तो मुझे ही उतरना था। मैं ग्रीनपार्क जा रहा था, मंडीहाउस पर मेट्रो की लाइन बदलना होती थी। संयोग कि वह भी यहीं उतरी। किंतु उसे और आगे नहीं जाना था। उसकी मंज़िल मंडीहाउस ही थी। इतना भर ही संग-साथ था। कौन जाने, एनएसडी की स्टूडेंट हो। क्या पता, त्रिवेणी कैफ़े पर किसी के साथ चाय पीने का वादा हो। या शायद सांझढले घर ही जा रही हो। मंडीहाउस के बाहर ऑटो-रिक्शा वालों के इसरार की ज़िद में उसे खो जाना हो, दिल्ली की गलियों में कहीं गुम जाना हो। ऐसे विलीन हो जाना हो, जैसे भोर का सपना। फिर खोजे से ना मिलना हो।

मैं उसे दूर तक देखता रहा, जब तक कि आंख से ओझल ना हो गई। मैं उम्मीद कर रहा था कि वो शायद एक बार मुड़कर देखेगी, किंतु सच तो यही है कि लड़कियां अगर ऐसे वाक़यों पर पलटकर देखने लगें तो जीवन दु:ख से भर जाए उनका। मन का तो काम ही है तृष्णा करना और दु:ख देना। लेकिन जीवन को तो बांधकर चलना होता है।

उसकी पीठ सुदूर जाकर धुंधला गई। मैंने उससे मन ही मन कहा, ये आख़िरी है, ज़िंदगी में अब मिलना ना होगा। तुम्हें विदा। दुनिया बहुत बड़ी है, इसलिए नहीं कि यहां ख़ूब सारे नदी-पहाड़ हैं, बल्कि इसलिए कि उसमें दो के बीच अंतरिक्ष जितनी असम्भव दूरियां होती हैं। मैंने किताब खोली और फूल को देखा। ये तुम्हारा घर है- मैंने उससे कहा- पूरा जीवन अब तुम्हें इस किताब के भीतर रहना है।

सहसा मुझे ममता कालिया की कहानी दूसरा देवदास की याद हो आई। उसमें भी ऐसा ही होता है। हर की पौड़ी पर एक तरुण एक पुजारी से कलावा बंधवा रहा होता है कि एक लड़की पास आकर खड़ी हो जाती है। पुजारी उससे संकल्प पढ़वाने को कहता है। लड़की कहती है- नहीं, हम कल आरती की बेला आएंगे। हम शब्द सुनकर पुजारी को भ्रम होता है कि वो लड़के के साथ है। सुखी रहो, फूलो-फलो का आशीष दे बैठता है। लड़का लड़की झेंप जाते हैं। उनके असमंजस की इस वर्णमाला को मैं कहानी पढ़ते समय निजी अनुभव से तुरंत पहचान गया था।

कहानी में फिर ऐसा होता है कि बाद उसके लड़के को कुछ और होश नहीं रहता। वो उस फूलो-फलो के आशीष से तादात्म्य बना लेता है। अगले दिन फिर उसी लड़की की टोह में उसे ढूंढता फिरता है, जिसने कल आरती की बेला आने का वचन दिया था। वो उसे फिर मनसा देवी की झूलागाड़ी में मिल ही जाती है।

वो कहानी पढ़ते समय मैं अपने को त्रासदी के लिए तैयार कर रहा था। मैं जानता था कि कहानी के अंत में लड़की उस लड़के से हमेशा के लिए खो जाएगी। ऐसा ही तो कहानियों में होता है। किंतु उस कहानी में ऐसा हुआ नहीं। दोनों आख़िर मिल ही गए। लेखिका ने उसको दूसरा देवदास इसलिए नहीं कहा था, क्योंकि वो दुर्भागा था। बल्कि इसलिए कहा था कि लड़की का नाम पारो था।

मुझे निराशा हुई। मुझे लगा, जैसे लेखिका की कहानी का नायक मेरी कहानी के नायक से जीत गया था। उसने दूसरी बार उस लड़की को खोज लिया था। मैंने इस शिक़ायत को चुपचाप अपने मन में रख लिया। कहानी के नायक का नाम सम्भव था। मेरी कहानी की तरह सबकुछ उसके लिए इतना असम्भव नहीं था।

Sunday, 8 November 2020

कुछ चिट्ठीयाँ लिखनी है तुम्हें...

नमस्कार 🙏🏻

अगर आप साथ हैं तो चलो कुछ नया सा करते हैं मगर पुरानी चीजों को साथ लेकर। मुझे कुछ चिट्ठियाँ लिखनी हैं तुम्हें! तुम्हारे उस पते पर जहाँ तुम अभी तक शिफ़्ट ही नही हुए! वो सब बातें लिखनी हैं जो होती हैं तुम्हारे बग़ैर तुम्हारे बारे में! तुमसे जुड़ी हुई।

चिट्ठियाँ जिसमें तुम होगे, तुम्हारा अक़्स होगा और होंगे सारे लम्हे। चिट्ठियों में जान होती है। वो जो काग़ज़ होता है न, स्पर्श सा होता है और वो स्याही! तुम्हारी महक हो जैसे। तुम्हारे उलझे हुए बालों सी मेरी गंदी सी राईटिंग(जिसके कारण आजतक सेकेंड डिविज़न ही पास हुआ हूँ!) मैं लिखे अल्फ़ाज़ जिसमें होंगी भावनाएँ। पूर्ण विराम होगा तुम्हारा गले लग जाना और कॉमा होगा तुम्हारे माथे को चूम लेना। तो जितनी बार पूर्ण विराम और कॉमा आए तो तुम में उपस्थिति महसूस कर लेना! 


तुमको चिट्ठियाँ इस लिए भी भेजनी है क्यूँकि मेरे पास तुम्हारे लिए कभी कोई कारण नही होता है। जैसे साँसे लेना अनवरत या पलकों का झपकना बेवजह। वैसे ही तुम्हारी याद आना और और तुम्हारी कही गयी बातों को ज़हन में लेके मुसकाने पे मेरा कोई ज़ोर नही है। 

हालाँकि तुमसे कोई उम्मीद नही है अब मुझको क्यूँकि उस उम्मीद के फ़ेज़ से बहुत आगे निकल आया हूँ मैं। मालूम है तुमसे उम्मीद करना वैसा ही है जैसा चाँद को पतंग के माँझे से पकड़ के खींच लेना। ख़ैर...

सुनो, बहुत सी चिट्ठियाँ लिखनी है। क्यूँकि तुमको बताना है वो सब जो कभी हुआ ही नही और जो सोचा था कि कभी होगा। आइये एक नये दौर में आज स्थापना दिवस के मौक़े पर उन सभी शहीदों को नमन करते हुए आन्दोलनकारियों को प्रणाम कर मेरे उत्तराखंड के दर्द को अपने शब्दों के माध्यम से चिट्ठी के रूप में आप भेजिए जरुर सांझा करेंगे, आपका दर्द, आपकी सोच, आपके विचार। चिट्ठियाँ सच्ची होती हैं। तुम्हारी मुर्दी आँखो जितनी सच्ची। जिसमें मुझे सारा जहाँ दिखता है अब। सिवाए अपने चेहरे के........



उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ
कुछ चिट्ठीयाँ लिखनी है तुम्हें...
#बेरोज़गार_उत्तराखंडी®️✍🏻

Sunday, 4 October 2020

बस और नही, अब रण होगा !!

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धृतराष्ट्र नहीं, 
अब हम सबको भीमसेन बनना होगा,
हर इक दुर्योधन की जंघा पर भीषण प्रहार करना होगा। 

इतिहास तुम्हें न क्षमा करेगा,
जो तुम सभा में मौन रहे,
हर द्रौपदी की लाज की, रक्षा का ज़िम्मा अब लेना होगा।


हर आंख जिसमें हो हवस भरी, 
वह न फिर कुछ देख सके,
बन के वीर अर्जुन अब तुमको गांडीव भी धरना होगा।

घात लगा कर, हर मोड़ पे, इंतज़ार में कौरव दल...
न परवाह कर, अभिमन्यु बनहर चक्रव्यूह तोड़ना होगा।

कब तक समाज की बहू बेटियां डर-डर कर हर सांस भरें,
खुद को ही अवतरित करके, चिर अभयदान देना होगा।

कलयुग के इस कुरुक्षेत्र में हो तुम किसके साथ खड़े,
अन्याय सहो या बदला लो, यह निर्णय अब करना होगा। 

न गीता का उपदेश, न ही खुद भगवान तेरा रथ खीचेंगे,
इस युग में अपने रक्त से ही नव महाग्रंथ रचना होगा।

#HathrasHorrorShocksIndia

Saturday, 3 October 2020

नारी अत्याचार को चरित्रार्थ करती…. पुष्यमित्र उपाध्याय की कविता


नारी अत्याचार को चरित्रार्थ करती….
            पुष्यमित्र उपाध्याय की कविता

सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयंगे |

छोडो मेहँदी खडक संभालो
खुद ही अपना चीर बचा लो
द्यूत बिछाये बैठे शकुनि,
मस्तक सब बिक जायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयेंगे|

कब तक आस लगाओगी तुम,
बिक़े हुए अखबारों से,
कैसी रक्षा मांग रही हो
दुशासन दरबारों से|

स्वयं जो लज्जा हीन पड़े हैं
वे क्या लाज बचायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आयंगे|

कल तक केवल अँधा राजा,
अब गूंगा बहरा भी है
होठ सी दिए हैं जनता के,
कानों पर पहरा भी है|

तुम ही कहो ये अश्रु तुम्हारे,
किसको क्या समझायेंगे?
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयंगे|

                       -पुष्यमित्र उपाध्याय

Sunday, 27 September 2020

(दास्तान-ए-कोरोना - VI) पुरानी काट की क़िलेबंदी का नया अनुभव दे रहा कोरोना



''हरेक चीज़ है अपनी जगह ठिकाने पे, 
कई दिनों से शिक़ायत नहीं ज़माने से!' 
दु:ख वैसा ही गर्वीला होता है, वह वैसे ही अपने लिए हाशिये बांधता है, कहता है पहले तुम चंगे हो जाओ, तब मैं अडोल मन से अपना दु:ख मनाऊं। 



कोरोना चूंकि नया वायरस है, इसलिए इसका सामना करने के मनुष्य के अभी तक के तमाम तरीक़े रक्षात्मक रहे हैं। उसके पास केवल प्लान-ए है और वह डिफ़ेंसिव प्लान है। प्लान-बी है ही नहीं। उसकी खोज की जा रही है। किंतु अभी के लिए मनुष्य ने एक साधारण-से तर्क का इस्तेमाल किया है, और वो यह है कि जब तक हममें इस विषाणु का संक्रमण नहीं होगा, हम सुरक्षित रहेंगे।
शुरू में उन्होंने कहा, हाथ धोइये और चेहरे को नहीं छुइये। एक-दूसरे से दूरी बनाकर रखिये। फिर जब मालूम हुआ कि इससे काम नहीं चलेगा तो तालाबंदी की नीति अपनाई गई। ना हम बाहर निकलेंगे, ना यह विषाणु हमें ग्रसेगा। 
एक लतीफ़ा चला कि कोरोना बहुत घमंडी है। वह अपने से आपके घर नहीं आएगा। आप स्वयं जाकर भेंट करेंगे तभी वह हाथ मिलाने बढ़ेगा। जब प्लान-बी न हो तो गरदन नीची करके प्लान-ए पर राज़ी होना पड़ता है। जब आक्रमण की गुंजाइश न हो तो क़िलेबंदी से काम चलाना पड़ता है। पुराने वक़्तों में लम्बे-लम्बे लॉकडाउन होते थे। दुश्मन की फ़ौजें बाहर सीमा पर डेरा डाले होती थीं और नगरवासी क़िले के परकोटे में समा जाते थे। महीनों तक यह स्थिति बनी रहती थी। पहले किसकी रसद चुकती है, पहले किसका धैर्य जवाब देता है, इसी पर सब कुछ निर्भर करता था। यह कहना बिलकुल भी अनुचित नही होगा, आधुनिक मनुष्य के लिए यह लॉकडाउन पुरानी काट की क़िलेबंदी का नया अनुभव था। 


किंतु रक्षात्मक होने पर इतना ज़ोर है कि परिप्रेक्ष्य हमारे सामने धुंधला गए हैं। हम कह रहे हैं, हम इनफ़ेक्टेड ही नहीं होंगे तो कुछ नहीं होगा। इसमें हम यह पूछना भूल रहे हैं कि अगर हम इनफ़ेक्टेड हो गए, तब भी क्या होगा? एक वर्ल्डोमीटर्स डॉट इनफ़ो करके वेबसाइट है, जो कोरोना वायरस के रीयल टाइम अपडेट्स देती है। कोरोना के आंकड़ों का वर्गीकरण दो तरह से किया जाता है- क्लोज़्ड केसेस और एक्टिव केसेस। क्लोज़्ड केसेस यानी मृतकों और रिकवर्ड लोगों के आंकड़े।

इसके क्या कारण हो सकते हैं? खुली दुनिया से सम्पर्क, जो विकसित देशों में ज़्यादा रहता है? या वहां की जीवनशैली सम्बंधी चुनौतियां? प्रदूषण, धूम्रपान, मधुमेह, मोटापा- जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को दुर्बल बनाकर हमें विषाणु के समक्ष निष्कवच कर देते हैं। तो क्या कोरोना वायरस पश्चिमी जीवनशैली में निहित बुराइयों पर एक निर्णायक टिप्पणी है? क्या यह जंक-फ़ूड, शुगर ड्रिंक्स, फ़ैक्टरी फ़ॉर्मिंग, मीट इंडस्ट्री के अंत की घोषणा कर रहा है? क्या इससे सभ्यतागत परिवर्तन होंगे? क्या अब इसके बाद सादा जीवनशैली, शाकाहार, शारीरिक श्रम-प्रधान दैनन्दिनी, प्राकृतिक उपचार, योग-व्यायाम-उपवास आदि का महत्व बढ़ने जा रहा है? 

बागेश्वर जिला प्रशासन, शासन स्तर या सामाजिक स्तर पर अभी क्या बदलाव किए जाने चाहिए इस सम्बंध में आप लोगों ने अपने सुझाव मुझे प्रेषित करे, जो बेहद रोचक रहा। आंखिर कोरोना पॉजिटिव व्यक्ति व उसके परिवार की हिम्मत की कैसे बढ़ाया जा सके। साथ ही किसी को टूटने से या किसी का घर,परिवार,दुनिया बर्बाद होने कैसे हम बचा सकते हैं। क्यूँकि यह कोरोना नामक बीमारी हमारे समाज में मानसिक रूप से लोगों को अधिक बिमार कर रही है। दूसरी महामारियों की तरह कोरोना भी पहले से बंटे हुए समाजों को और बांटेगा। ग़रीबी और अमीरी की खाई और चौड़ी होगी। ‘ग़रीब’ शब्द के बहुत गहरे और प्रभावी राजनीतिक मायने सामने आएंगे। दलितों के मुद्दे महत्वपूर्ण तो रहेंगे, लेकिन मुमकिन है कि बहुत हद तक वे ‘ग़रीब’ और ‘ग़रीबी’ में जज़्ब होकर रह जाएं।

इसके कारण भारतीय समाज में इंसान और इंसान के रूप में सोशल डिस्टेंसिंग की सामाजिक आदत पैदा हो सकती है। बहुत मुमकिन है कि यह आपदा जाति और जाति के बीच छूआछूत को कम कर आदमी और आदमी के बीच सामाजिक दूरी को लंबे समय के लिए आदत में बदल दे।

कोरोना संक्रमित होने पर जहां आज हमारा समाज अपनी ही एक महत्वपूर्ण कड़ी का साथ छोड़ देता है, यह गलत है। समाज को पूर्व की महामारियों से सबक लेते हुए एक साथ आगे बढ़ना चाहिए। मेरे कुछ महत्वपूर्ण सुझाव जो मैं आपसे सांझा कर रहा हूँ उस पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें—

🔹सर्वप्रथम समाज में व्याप्त कोरोना के भय को कम करने के लिए जिला प्रशासन ने जन-जागरूकता अभियान निरन्तर चलाना चाहिए। जिससे लोगों का भ्रम दूर किया जा सके। 

🔹 जिला प्रशासन एक कोविड कॉल सेण्टर संचालित कर संक्रमित व्यक्ति को एक ही बार फोन कर विस्तृत विवरण लेना चाहिए। न कि अलग-अलग करके एक दर्जन से अधिक फोन। जिससे मानसिक अवसाद की स्थिति पैदा हो सकती है। 

🔹संक्रमित के परिवार से जहां समाज दूरी बना रहा है वह भी किसी अवसाद से कम नही है। शासन प्रशासन को इस ओर ध्यान देते हुए जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है। तांकी वह परिवार इस दुःख की घड़ी में स्वयं को अकेला व लज्जावान न समझ बैठे। 

🔹ग्राम-प्रहरी, प्रधान, आशा, आगनवाड़ी के माध्यम से सरकार व प्रशासन उस परिवार की निगरानी भी सुनिश्चित करे । तांकी उस परिवार को समाज द्वारा अनावश्यक तौर पर फैलाए गए भ्रम से बचाया जा सके।

🔹कई जगहों पर सामाजिक बहिष्कार जैसी चीजें सामने आ रही है ऐसे समाज के उपद्रवी तत्वों पर पुलिस प्रशासन द्वारा दण्डात्मक कार्यवाही भी अतिआवश्यक है। 

🔹लोगों को एक दूसरे का सहारा बन अपने समाज के सभी वर्ग के सभी सदस्यों को बचाने के लिए समान प्रयत्न करने होंगे। 

🔹समाज में हमसभी को आगे बढ़कर संक्रमित व्यक्ति या उस परिवार की हिम्मत बढ़ाने में सहयोग करना होगा। तभी वह इस कोरोना की लड़ाई को जीत सकता है। यदि उसके दिमाग ने अपने समाज की बहिष्कृत रवैए को सच मान धारणा बना ली तो दुनिया की कोई शक्ति उसे नही बचा सकती है। 

🔹हमारे समाज व हम सब को मिलकर सोचना होगा कि हमें किस दिशा की ओर आगे बढ़ना है। हम पश्चिमी सभ्यता की तरह ही पश्चिमी संस्कृति की ओर तो नही बड़ रहे है। 

🔹 कोरोना महामारी पश्चिमी संस्कृति की तरह ही कहीं हमारे भारतीय समाज की संयुक्त परिवार व सामाजिक जीवन की अवधारणा को पूरी तरह से समाप्त न कर दे।आने वाले समय में हमें  व हमारी सरकारों को इस ओर भी सोचने व निर्णय लेने की आवश्यकता है। 

🔹 आइसोलेशन पर रहने वाले व्यक्ति से समय- समय पर वार्तालाप होना आवश्यक है, उसे इस संकट से उबारने के लिए। समाज में अधिकतर देखने में आ रहा है कि संक्रमित होने के बाद उसके दोस्त भी उससे दूरी बना ले रहे हैं जो बहुत ही ग़लत है। यदि हम किसी की तकलीफ़ में सहारा नही बन सके तो हम उसके दोस्त कहलाने के लायक नही हैं। ठीक वैसे ही जब हम अपने ही समाज के एक व्यक्ति को बचाने  के लिए आगे नही बाड़ सकते हैं तो हमें सामाजिक कहलाने का कोई अधिकार नही। 

🔹 आइसोलेशन में रह रहे व्यक्ति के लिए मोटिवेशनल साहित्य या लेक्चर की व्यवस्था होनी आवश्यक है। क्यूँकि उस वक्त व्यक्ति कुछ सोच-समझ वाली स्थिति में नही खुद को रख पा रहा है। 

🔹कोरोना के साथ ही साथ मानसिक तनाव से संक्रमित व्यक्ति को बाहर निकालने के लिए यदि जिला प्रशासन सहमति प्रदान करता हैं तो मैं व मेरे जैसे अन्य साथी जो कोरोना पर विजय पाकर वापस अपने घर पहुँच चुके हैं एक टीम बनाकर संक्रमित लोगों को मोटिवेट कर मानसिक अवसाद से बचाने में अपनी निशुल्क सहभागिता करना चाहता हूँ। 

🔹अपने समाज के लिए इस विकट घड़ी में हमारे साथ हमारे जंप्रतिनिधियों को भी आगे आकर लोगों का सहारा बनने की ज़रूरत है। परन्तु हमारे बागेश्वर शहर का दुर्भाग्य है ऐसा कोई जनप्रतिनिधि नही। जिसने एक बार भी अपने क्षेत्र के कोरोना संक्रमित की फोन में कुशलक्षेप पूछी हो और उसके परिवार को ढाढ़स बधाया हो। 


♦️ वैसे मुझे यह कहते हुए कोई डर या झिझक नही है कि मेरे ग्राम प्रधान के अलावा मेरे क्षेत्र के किसी भी जनप्रतिनिधि का इन सत्रह दिनों में कोई कॉल या संदेश मुझे प्राप्त नही हुआ, जो क्षेत्र के प्रति मेरे जंप्रतिनिधियों की गम्भीरता को दर्शाता है। प्राप्त जानकारी के अनुसार बागेश्वर जनपद में लगभग सभी क्षेत्रों का यही हाल है। वैसे भी हम पहाड़ियों के लिए एक फ़्लू ही तो है कोरोना कुछ और नही। जीवन आनन्द के लिए है इसे डर में व्यतीत करने से बेहतर है उस मुसीबत के समय में भी अपने हिस्से की खुशी ढूड़ ली जाए। हर हाल में खुश रहना ही जीवन है। 



“कोई इलज़ाम उठाओ कोई साज़िश तो बुनो
कोई अफ़साना सुनाओ जरा कुछ तो बोलो
कौन मिस्सार हुआ उस की कहानी कह दो 
सर उठाओ कि जमाने को भी कुछ हासिल हो 
हम सरे-ए-दार खुद आ बैठे हैं इल्ज़ाम गढ़ो 
तेग को धार दो खंजर को रवानी दो जरा 
वरना खामोशी के असबाब बताओ तो जरा !!”




नोट- जिन्हें वाक़ई यह पागलपन लगता है, वे यहाँ बहस करके वक्त ज़ाया न करें। जो सहमत हैं, उनका स्वागत है। आगे का रास्ता सुझायें। घर में चुप बैठकर सत्य का जाप करने से कुछ नहीं होगा। सत्य को शक्तिमान बनाने के लिए दैनिक प्रभात फेरियों की ज़रूरत है।

धन्यवाद!!

Friday, 25 September 2020

(दास्तान-ए-कोरोना - V) कोरोना से विजय पाने में आपकी इच्छाशक्ति ही आपका इलाज है, घर वापसी बढ़ाती है हमारा मनोबल


अगली सुबह वही पिछले दिनो की तरह ही काड़े की आवाज़ के साथ मेरी सुबह हुई। आज घर जाने की खुशी में समय से पहले ही हम नहा- धोकर तैंयार बैठे थे। कुछ समय बाद फिर अजब दा नाश्ता ले आए। फिर हम दोनो ने इस कोरोना इलाज के दौरान आज आँखिरी सुबह का नाश्ता साथ किया, एक दूसरे को घर वापसी की बधाई दी, भविष्य में मिलते रहने की बात कहते हुए अपना-अपना सामान समेटने लगे। क्यूँकि आज मेरा व मेरे रूम पाटनर डॉ निर्मल बसेड़ा होम आइसोलेशन भी यहीं पर रहते हुए समाप्त होने वाला था।  खुशी इतनी थी कि शब्दों में बयां करना नामुमकिन है। 

फिर मैं एक बार ड्यूटी में तैनात डाक्टर साहब के सामने पहुँचा, कि हम कब तक अपने घर रवाना हो सकते हैं यह जानने। फिर उन्होंने मुझे कुछ पेपर दिए उसे भरने को कहा, हम दोनो ने वह वापस जाकर डाक्टर साहब को दिए तो वह बोले हमारे पास तो अभी कोई वाहन उपलब्ध नही है आप अपनी गाड़ी मंगाइये और जा सकते हैं। फिर मैंने पूछा वैसे आप हमें कौन सी गाड़ी में वापस घर भेजने वाले थे, इस पर उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया जिसकी सवारी कर आप यहाँ तक पधारे हैं, मुझे हंसी छूट गई और जरा ज़ोर से बोला नही उसमें नही जाना है अब। फिर वापस हम कमरें में आ गए तब तक 10:30 का समय हो गया था सूरज भी चढ़ आया था। आज गर्मी भी काफ़ी लग रही थी। 

फिर मैंने बड़े भाई साहब को फोन कर गाड़ी भेजने को कहा तो तुरन्त ही गाड़ी पहुँच गई। फिर हम दोनो कमरें की लाईट, पंखे वग़ैरह बंद कर बाहर निकले डाक्टर साहब को धन्यवाद कहते हुए सीड़ियों की तरफ़ बड़े तो अजब दा आ रहे थे उन्हें धन्यवाद कह नमस्कार करते हुए आगे बड़े। नीचे गेट पर पहुँचे तो वहाँ मौजूद गार्ड ने कहा कि अपने-अपने नाम के आगे हस्थाक्षर कर दीजिए। काफ़ी देखने के बाद पता लगा मेरा नाम ही वहाँ पर दर्ज नही है। ये काफ़ी चौकने वाला विषय था मेरे लिए, क्यूँकि जहां मैं अपने जीवन के अतिमहत्वपूर्ण 17दिन बिता आया उसके गेट पर दर्ज होने वाली विवर्णीका में मेरा नाम ही दर्ज नही है। खैर इन सब बातों को नजरअन्दाज़ करते हुए मैं फिर आगे बड़ा बाहर गेट पर गाड़ी इंतज़ार कर रही थी। अपना सामान गाड़ी में रख पहले खुले आसमान के नीचे, खुली हवा में बाहे फैलाते हुए अपनी आज़ादी को गले लगाया और ऊपर आसमान की तरफ देख ईश्वर का शुक्रिया अदा किया। फिर हम दोनो गाड़ी की पिछली सीट पर बैठ गए। कुछ आगे आकर  बसेड़ा जी के स्टॉप पर उन्हें अल्विदा कहते हुए फिर गाड़ी में बैठ गया। फिर गाड़ी धीरे-धीरे आगे बड़ चली, बाज़ार में काफ़ी चहल-पहल भी नज़र आ रही थी। आज बहुत दिनो के बाद बाहर निकला हूँ तो शहर बड़ा अच्छा सा लग रहा था। बीस मिनट के सफर में कई तरह के ख़याल मन में आ रहे थे। दिमाग में लोगों व उनकी बातों को लेकर उथल-पुथल चल रही थी।
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि घर वापसी ने मेरा खुद मनोबल बढ़ाया होगा। इलाज के दौरान जब भी खाली वक्त या यूँ कहें बोर सा होता था तो अपनी पसंदीदा कोई भी मोटिवेशनल वीडियो फुटेज देखना पसंद करता था। 

आज मुझ जैसे मेरे जनपद के सैकड़ों लोग एक फाइटर हैं और खुद को प्रेरित करने के लिए मेरा यह टाइम पास का जरिया एक अच्छा विकल्प था, ऐसा मुझे लगता है। पर इससे जुड़ा एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है, जो कहता है कि अपनी जीवन की खेली गई पुरानी पारियों को लेकर जरूरत से ज्यादा संजीदा नहीं होना चाहिए। हमें हर वक्त यह नहीं सोचना चाहिए कि क्या हम दोबारा उसी तरह की ज़िन्दगी कब जी पाएंगे। इस मनोवैज्ञानिक सोच के पीछे तर्क बहुत सीधा है। इस तरह लगातार अपनी पिछली ज़िन्दगी को देखकर हम खुद पर एक ऐसा मानसिक दबाव बना लेंगे जो आने वाले दिनों में हमें परेशान कर सकता है या मानसिक बीमार कर सकता है, जिसे आधुनिक भाषा में हम डिप्रेशन कहते हैं। 
मन में ख्याल आ रहे थे कि अब मुझे भी उन छोटी-मोटी चुनौतियों का सामना करना है, जिसके लिए दिमागी तौर पर बेहद मजबूत होने की काफी जरूरत है। 
फिर मैंने इन ख़्यालों से बचने व खुद को समझाते समझाने के लिए अपनी आँखें बन्द कर एक गहरी साँस ली और सोचा ऐसे में मेरी प्राथमिकता सिर्फ इतनी होनी चाहिए कि सबसे पहले एक सेहतमंद इंसान बनें। एक रोग मुक्त व्यक्ति की तरह सामान्य जिंदगी में वापस लौटें और कोरोना की बीमारी व उसके इलाज की इस 17दिवसीय लंबी प्रक्रिया ने मेरे शरीर व दिमाग पर जो नकारात्मक असर डाले हैं, उससे अपने शरीर को पूरी तरह निजात दिलाकर आगे बढ़ने का प्रयत्न करुं।

अंग्रेजी में एक कहावत कही जाती है कि “देयर इज नो प्लेस लाइक होम” मैं उसी होम में वापस आ गया हूँ। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि घर वापसी ने मेरा मनोबल बढ़ाया होगा।


घर जाने के रास्ते में गाड़ी रुकने पर मेरी तंद्रा टूटी। फिर चालक को मुझे छोड़ने के लिए धन्यवाद कह विदा कर मैं आगे अपने घर की तरफ़ बढ़ गया। रास्ते में गाँव की ही एक ताई जी  व उनकी बहू जो रिस्ते में मेरी भाभी लगती हैं मिले, वो खेत से आकर रास्ते की छाँव में बैठे आराम कर रहे थे। पास जाते-जाते मेरे दिमाग ने मुझसे कई सवाल कर डाले, मुझे वो दोस्तों की बातें भी याद आ रही थी। खैर जैसे ही मैं उनके पास पहुँचा तो उन्होंने मेरा हालचाल पूछा, मैंने कहा सब ठीक है। कोई परेशानी नही थी बस रिपोर्ट पॉज़िटिव आ गई थी । तो ताई जी बोले जो भी है ठीक होकरघर आ गया अच्छी बात है, इस कोरोना ने तो बेटा सबको डराकर रख दिया है। उनकी बातें सुन मन को तसल्ली हुई। 

फिर उनसे विदा लेकर में आगे बढ़ा तो घर के आँगन में पहुँचा तो देखा मेरी माँ खिड़की से बाहर को झांक मेरा इंतज़ार कर रही है। 
माँ बाहर आ गई, 
मेरा हाल पूछा तो मैंने बताया सब ठीक है कोई परेशानी नही..
माँ ने कहा ठीक है बेटा 
तेरे लिए नाश्ता क्या बनाऊँ, तूने खाया नही होगा अभी कुछ 
मैंने कहा मैं नाश्ता करआया हूँ तो माँ चुप हो गई 
पर इससब में उसकी आंखों में भरा पानी मैं देख सकता था
फिर मैंने स्थिति को सम्भालते हुए अपने कमरे की चाबी देने को कहा, तो पता लगा खुला ही है 
मैंने कपड़े बदले 
फिर तब तक माँ मेरी पसंदीदा चाय बना लाई 
मैंने चाई ली, जो मैं आज काफ़ी दिनों बाद अपनी माँ के हाथों से बनी तरसता रहा 
अभी भी मैं माँ से उचित दूरी बनाकर खड़ा था और माँ कमरें  बाहर दरवाज़े पर 
फिर माँ ने पूछा, अभी भी तुझे अलग ही रहना है क्या? लोगों में भी नही जाना होगा 
मैंने चाय की चुस्की लेते हुए हाँ में अपना सर हिलाया 
माँ  ने कहा लोगों से सुना तू हल्द्वानी था बल, तूने बताया नही मुझे बहुत चिन्ता हो रही थी 
मैंने माँ को समझाते हुए कहा कि मैं बागेश्वर ही था इतने पूरे 17 दिनों तक आपको फोन पर हर रोज बता तो रहा था, वैसे माँ को लगता है ये अपनी कोई परेशानी मुझे बताता नही है, जो सच भी है, क्यूँकि मैं माँ को दुःखी नही देख पाता हूँ।
माँ बोली मैंने ठीक से सुना नही फोन पर और हंस दी।
फिर माँ चली गई अन्दर को, मैं भी कमरें में आराम करने लगा। 
दोपहर को माँ ने दाल चावल बनाया तो मुझे मेरे कमरें में ही अलग दिया, शाम को भी यही सब अगले तीन दिनों तक एहतियातन चलता रहा।
क्यूँकि माँ का स्वास्थ्य अक्सर ख़राब रहता है तो मैं इस बीमारी से उन्हें बचाना चाहता हूँ। क्यूँकि .......

मैंने कोरोना का रोना देखा है!
और उम्मीदों का खोना देखा है!!
लाचार मजदूरों को रोते देखा है!
गिरते पड़ते चलते और सोते देखा है!
पिता को सूनी आंखों से तड़पते देखा है!!
तो मां की गोद में बच्चे को मरते देखा है!
गरीबों का खुलेआम रोष देखा है!!
तो मध्यमवर्ग का मौन आक्रोश देखा है!
गरीबों को अस्पतालों में लुटते देखा है! !
तो निर्दोषों को बेवजह पिटते देखा है!
अल्लाह भगवान की दुकानों का बंद भी होना देखा है!
तो रोना रोती सरकारों का अंत भी होना देखा है!!
आंखिर में खुद कोरोना का दंश भी झेला है।  

जब मैं कुछ दिनो के बाद लोगों के बीच गया तो सबने मुझे वही पुराना प्यार व स्नेह दिया, किसी ने कोई भेदभाव मेरे साथ नही दिखाया। वही ये कहते भी मुझे लोग मिले की अब तो यह सबको ही होना है, किसी को पहले तो किसी को बाद में, बचना किसी ने नही है। 
मुझे अपने गाँव, समाज में यह सब देख बड़ा अच्छा लगा, जैसा अभी तक मैंने दूसरे जगहों से लोगों के अनुभव आपके साथ सांझा किए थे मेरे साथ इसका ठीक उल्टा हो रहा था। मैं सोचने लगा कि कितना नकारात्मक विचार आया था मेरे मन में पर हमारा समाज बेहद जागरूक समाज है। 

कोरोना से लड़कर आज मैं पहले की तरह सामान्य हूँ, अपनो के साथ और अपनो के बीच हूँ, किसी को किसी तरह की कोई परेशानी मुझसे नही है, न ही मुझे किसी से कोई परेशानी है। मुझे गर्व महसूस होता है कि मैं एक अच्छें गाँव, एक अच्छे समाज, अच्छे पड़ोस के बीच रहता हूँ, जो समाज में फैली भ्रान्तियों को दरकिनार करते हुए सभ्य समाज की परिकल्पना को पूर्ण करते हैं। 


♦️ एक समय मेरे सामने ऐसा भी आया कि मैं घर वापसी की छोड़ चुका था उम्मीद...
पहले मौसम बदलने के चलते कभी-कभी वायरल के कारण मेरी तबितय खराब जरूरी हो जाती थी, वो आज भी होती ही है। लेकिन मुझे इस बात का कतई अंदाजा नहीं था कि मैं कोरोना पॉजिटिव भी हो सकता हूँ। कोरोना जांच की आई पॉजिटिव रिपोर्ट ने मेरे पैरों तले जमीन खिसका दी थी। पॉजिटिव निकला तो एकपल को लगा कि अब सबकुछ खत्म हो गया। पर मैंने हिम्मत नहीं हारी। डॉक्टरों की मेहनत के अलावा ईश्वर की कृपा मुझ पर रही, जिसके चलते अपने परिवार के पास सही सलामत लौट पाया। हमारे परिवार से बड़ी मुसीबत टली है। आज मैं सही सलामत आपके सामने हूँ। इससे बढ़कर मेरे लिए खुशी की बात क्या हो सकती है।इतनी बड़ी बीमारी से बचकर आये हैं तो स्वाभाविक है हमारे समाज में फैली तरह-तरह की भ्रान्तियों के चलते सभी लोग कुछ डरे जरूर हैं, लेकिन जल्द ही सब सामान्य हो जाएगा। सकारात्मक सोच रखिए सफलता जरुर मिलेगी। 

आप लोगों से मेरा निवेदन है की आप भी अपने समाज व आस पास जागरूकता फैलाएँ, लोगों में भ्रम की स्थिति न बनने दें। यह स्वयं के लिए ही नुक़सानदेय है। आप सभी अपना व अपनो का ध्या रखें .....।





नोट— आप सभी ने अभी तक का पूरा घटनाक्रम पढ़ा व समझा, साथ ही मुझे अपने विचार सांझा करने के लिए सराहा भी। मैं आप सभी का दिल से धन्यवाद करते हुए आभार व्यक्त करता हूँ। अब आप जिला प्रशासन, शासन स्तर या सामाजिक स्तर पर अभी क्या बदलाव किए जाने चाहिए इस सम्बंध में अपने सुझाव मुझे प्रेषित करे तांकी रविवार को अगले फ़ाइनल अंक में उन्हें भी सम्मिलित कर सकूं।आंखिर कोरोना पॉजिटिव व्यक्ति व उसके परिवार की हिम्मत की कैसे बढ़ाया जा सके। साथ ही किसी को टूटने से या किसी का घर,परिवार,दुनिया बर्बाद होने कैसे हम बचा सकते हैं। क्यूँकि अब तक तो आप समझ ही गए होंगे यह कोरोना नामक बीमारी हमारे समाज में मानसिक रूप से लोगों को अधिक बिमार कर रही है।  





क्रमशः जारी —— ❣

Wednesday, 23 September 2020

(दास्तान-ए-कोरोना - IV) हर हाल में अपने मन को ख़ुश रखिए, ख़ुश रहेंगे !! मेरा कोरोना सेलिब्रेशन




सूरज उगने में थोड़ा वक्त था। मेरी उदास आंखें गुजरती रात के आसमान पर टिकी थी। तारों से भरा आसमान चुपचाप धरती पर फैला हुआ। उनके बीच क्या बातचीत चल रही थी? हमें नहीं पता। इसके कुछ ही समय बाद भोर की किरणे शान्ति भंग कर फिर वही शोर शराबें के साथ आगे बढ़ने लगेंगी।  

मैं अपने अंदर की टूटन को महसूस कर पा रहा था। फिर सोचा कि दूर रह रहें एकतरफ़ा प्रेम तुम्हारे भीतर सिर्फ़ एक इंसान को जीवित रखता है सिर्फ उसे जो तुम हो। जो तुम्हारा व्यक्तित्व है। कौन जाने ये दिन एक परीक्षा हों, कि देखें कौन पहले टूटता है। किसके अंदर की सजावट और तरतीब पहले तितर-बितर होती है। किसका ज़ेहन पहले कुंद होता है। क्या पता कि ये एक आज़माइश हो! इन्ही ख़्यालों में था की अनायास ही हंसी छूट पड़ी... छोड़ ना यार जो होगा देखा जायेगा, अब कोरोना पॉजिटिव हो ही रखे है तो क्यू न इन आइसोलेशन के दिनों को सेलिब्रेट किया जाए और जी भर जिया जाए......

दस दिन पूरे होने से पहले मैंने डाक्टर साहब से पूछा कि हमारा दोबारा कोविड टेस्ट कब होगा? तो उन्होंने सरकार की नई गाईडलाईन का हवाला देते हुए बताया कि अब एसिमटोमेंट्रिक  व्यक्ति को यदि एक हफ्ते में कोई लक्षण नही आते है तो उसे निगेटिव मान लिया जाता है फिर भी एहतियातन आपको 17 दिन आइसोलेशन में रखा जाता है। मेरे पास कोई जवाब नही था सो मैं चुप हो गया और खुद को कैसे समझाऊँ ये सोचने लगा। मन में कई तरह के विचार भी आ रहे थे अब तो मशीन पर भी शक होने लगा था। लगने लगा कि मैं कोरोना पॉजिटिव हुआ भी था या एवें ही.......,.,,,,,,,

आज दस दिन पूरे हो चुके थे रोज की दिनचर्या के बाद सुबह का नाश्ता किया, डाक्टर ने वही सब रूटीन चैक किया तो सब कुछ पहले की तरह ही सामान्य था, तो बोले आप एकदम फिट हैं अब कोई दिक्कत नही। आज आपके दस दिन पूरे हो गए हैं आपको आज यहाँ से सिफ्ट किया जाना है। आपके पास यदि घर पर यही सारी व्यवस्थाएँ अलग से हैं तो आप अपने प्रधान से लिखवाकर मगा लें, तब आप सात दिन होम आइसोलेशन पर रहेंगे। जिसका मैंने नही में प्रत्युत्तर दिया तो बोले तब तो आपको अन्य किसी होटल में भेजा जायेगा, कुछ देर बाद आप तैयार रहें। फिर यही सब प्रक्रिया मेरे कोविड रूम पाटनर के साथ भी हुई उनके द्वारा भी होटल में सिफ्ट होने की बात कही, फिर डाक्टर साहब आगे अन्य कमरें के दरवाज़े की ओर बढ़ चले ....

इतनी देर में अजब दा आज मेरी पसंदीदा चाय लेकर कमरें में बोलते हुए अंदर की तरफ आए “सर आज तो आप जा रहे हैं” हम दोनो ने नही तो कहकर जवाब दिया तो बोले आप अब स्वस्थ हैं आपको ये दूसरे होटल भेजेंगे फिर आप घर जायेंगे वहाँ सात दिन बिताकर। इन्ही कुछ बातों के बाद वह अपने अन्य काम निपटाने को चल दिए। 

उसके जाने के बाद हम दोनो अन्य होटल को लेकर बात करने लगे तो मालूम पड़ा कि सब जगह फ़ुल हैं, वैसे भी अब शहर के अधिग्रहित होटलों को कोविड अस्पताल में परिवर्तित कर दिया गया है। फिर सोचा यदि हमको अगले सात दिन यहीं रोक दिया जाए तो क्या परेशानी है इस पर प्रभारी महोदय से बात कराई तो उन्होंने हामी भर दी। कि आप अगले सात दिन यहीं रुक सकते हैं। फिर लगा जैसे कोई जंग जीत ली हो हमने, क्योंकि मन में होटलों की कई परेशानियों को लेकर जो सवाल उछलकूद कर रहे थे वो अब शान्त हो गए थे। फिर एक घण्टे के बाद कमरें में जवाब आया कि आप तैयार हैं गाड़ी आने वाली है आपको सिफ्ट किया जायेगा। मेरी चिंताएँ फिर बड़ गई, फिर दुबारा मैंने इधर-उधर फोन घुमाया तब फिर से एक बार प्रभारी महोदय को फोन कराया और यहाँ ड्यूटी पर मौजूद डाक्टर से बात करने को कहा। परेशानी तो बढ़ गई लगा कि अब जाना ही पड़ेगा, पता नही कहाँ भेजेंगे, कैसी व्यवस्था होगी, कमरें का क्या हाल होगा। वैसे मैंने अब तक सम्भावित दो होटलों में बात तो कर ली थी कि जरा ठीक से साफ कमरें दिलवाने को लेकर तो दोनो ने अपनी सहमति जताई। 

फिर मेरे पास फोन आया कि डाक्टर को बता दिया है एक बार जाकर पूछ लें, उसके बाद भी कोई परेशानी है तो बताना। मैं कमरें से बाहर निकल पास ही बने डाक्टर के केबिन के बाहर खड़ा होकर कुछ बोलता उससे पहले ही सामने से आवाज़ आई कि आप यहीं रुकेंगे, कमरें में जाइए, परन्तु यदि मरीज़ ज़्यादा बढ़े तो आपको सिफ्ट करना ही पड़ेगा, मैंने हाँ में जवाब दिया और वापस कमरें में पहुँच राहत भरी साँस ली। तब तक दोपहर के भोजन का समय हो गया था, खाना आया और हम दोनो ने आराम से खाना खाया, फिर अजब दा को बताया कि अब हम यहीं रुकेंगे अगले सात दिन भी, उसने कहा ठीक है इसमें मुझे क्या दिक्कत। फिर कुछ देर आराम किया, क्यूँकि ये जो अभी का समय बीता वो काफ़ी तनाव पूर्ण था। 

शाम के चार बजे काड़े की आवाज़ को लेकर दरवाज़े पर होने वाली आहट से नीद खुली तो मन में सुबह का ख्याल आया कि अब अगले सात दिन फुल इंजोय किया जाय कोरोना... 
आप को बता दूँ अभी तक हमारे पत्रकार साथी घर जा चुके थे वो यहाँ दस दिन ही रहे बांकी के सात दिन घर पर रहने की बात उन्होंने बताई। वैसे जब तक वो थे रोज़ सुबह शाम उनके द्वारा भी हमें काड़ा बनाकर पिलाया जाता रहता था। वो अपने लिए काड़ा कमरें में खुद ही बनाते थे। जैसे हम एसिमट्रोमेट्रिक थे वैसे ही वो भी थे और अक्सर कहा करते थे “एक छींक तो आ जाती कोरोना के नाम पर, न बुखार है ना ही कोई अन्य लक्षण। ख़ाली बकवास है सब कुछ” हम भी उनकी इस बात पर सहमति जताते हुए हंस पड़ते।  


फिर हम दोनो ने ही अगले सात दिन यहाँ एक बार और साथ बिताने थे, ठीक तो पहले से ही थे परन्तु दिमाग से कोरोना बाहर निकालने को हमने कोरोना सेलिब्रेशन का मन बनाया। अब हम हर रोज कभी टिकिया, कभी समोसे, कभी चांट, कभी जूस, कभी मैगी कुछ न कुछ शाम के नाश्ते के रूप में बागेश्वर के प्रतिष्ठित “करनस व करन स्वीट्स” से मंगाते रहते थे। सब कुछ सामान्य था तो ये भी अब हमारी कोविड दिनचर्या का एक हिस्सा बन चुका था। फिर हमने रात के खाने में भी बाहर से पनीर, चिकन मंगाया। यही हमारा अगले सात दिनो का हाल रहा।  यह सब इसलिए भी जरुरी था कि अभी तक हमको सादा भोजन ही खिलाया जा रहा था तो सोचा अभी तो हम लोग डाक्टर की निगरानी में ही है बाहर का खाना भी ट्राई किया जाए कही कोई परेशानी तो नही पैदा होगी बाद में। खैर कोई दिक्कत नही हुई सब कुछ सामान्य चलता रहा। 


एक दिन रात्रि भोजन में एक मित्र द्वारा घर के मशालों में तैयार चिकन हम दोनो के लिए भेजा जो बेहद लज़ीज़ था, वैसे चिकन की तारीफ़ कर उन्हें धन्यवाद तो उसी वक्त कह दिया था, परन्तु बात का ज़िक्र करते हुए एक बार फिर मुँह में स्वाद याद आ गया, एक बार पुनः दिल से शुक्रिया आपका मित्र !!
हम दोनो कोरोना का जश्न मनाते मनाते भूल गए कि हम बिमार भी है कोरोना के। पता ही नही लगा कब सात दिन बीत गए। रोज दर्जनों साथियों से फोन पर वार्ता होती रहती थी, कभी किसी ने अकेलापन महसूस ही नही होने दिया, जिसका मैं आजन्म आभारी रहूँगा। अब बाहर से भी मित्र लोग कहने लगे थे कि अब घर भी आ जाओ, बहुत हुआ कोरोना, बहुत मौज कर ली तुमने। 


फिर वो दिन भी नज़दीक आ ही गया जिसका हमें बेसब्री से इंतज़ार था। उस दिन देर रात तक नीद ही नई आई अगले दिन की आज़ादी के बारे में सोच-सोच कर। मन मेरी पसंदीदा लाईन सोचने पर मजबूर कर रहा था दिमाग को....

“शाम है ग़म के समन्दर में उतरने दो इसे,
कल ये सूरज नया हो जाएगा धीरज धरो !
मैं फिर वापस आऊँगा, तुम 
धीरज धरो, धरो धीरज !!”

फिर पता नही कब मैं अपनी कोरोना की कैद से कल को होने वाली आज़ादी के हंसी सपनो के आग़ोश में समा गया।

नोट ♦️— मैं उन सभी लोगों से निवेदन करना चाहता हूँ जो अभी आइसोलेशन में हैं और मेरी इस कहानी को पढ़ कर बाहर की चीजें खाने का मन बना रहे हैं इससे पहले एक बार चिकित्सक से परामर्श आवश्यक है। अन्यथा आपको कोई गम्भीर परेशानी का सामना भी करना पड़ सकता है। जिसके ज़िम्मेदार आप स्वयं होंगे, धन्यवाद !!




क्रमशः जारी —— ❣

Tuesday, 22 September 2020

(दास्तान-ए-कोरोना-III) आंखिर हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है? कहीं हमारी संस्कृति, सभ्यता के पश्चिमीकरण का जिम्मेदार मैं स्वयं तो नही ?



आज हमारे समाज में फैली कुछ अफ़वाहों को आपके सम्मुख लाने का छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ, आशा करता हूँ आप समाज में बदलाव के लिए सकारात्मक रुख इख़्तियार करेंगे, जिससे किसी भी भाई को मानसिक अवसाद में जाने से बचाया जा सके...... 


क्या बिजली, सड़क, पानी और आर्थिक विकास के आंकड़े किसी देश के विकास का पैमाना तय कर सकते हैं? शायद नही क्योंकि इनके साथ हमारा मानसिक विकास होना भी जरूरी है, जिसमें शायद अभी हम पीछे हैं? हमारा समाज मानसिक रूप से आज भी विकसित नहीं हो पाया है।
मैं बात कर रहा हूं उस मानसिकता की जिसके कारण आज हमारे समाज में अधिकतर सुनाई पड़ने वाली उन बातों की जिससे लगभग हर कोरोना पॉजिटिव व्यक्ति को गुजरना पड़ा है। आज समाज मैं देखने सुनने को मिल रहा है कि कोरोना पॉजिटिव व्यक्ति के हमारा समाज हमारी सभ्यता व संस्कृति के ठीक विपरीत बर्ताव कर रहे हैं। क्या ये सब ठीक है, अल्मोड़ा जैसे शहर के हमारे मित्रों ने बताया कि वहाँ हालत बहुत बुरे हैं, समाज में भेदभाव का अत्यधिक बोलबाला देखने को मिल रहा है, यही हालत हमारे पहाड़ी अंचलो के भी सामने आ रहे हैं । 

बड़ा दुःख होता है जब हमारा समाज हमारे अपनो के साथ ही ऐसा दुश्मनों सा बर्ताव करने लगता है। मेरे एक मित्र ne बताया कि मेरे कोरोना पॉजिटिव होने के बाद मेरे घर ke आस पास के लोगों ने मेरे परिवार से इतनी अधिक दूरी बना ली कि बात करनी भी बंद कर दी, आना जाना, हालचाल पूछना तो बहुत दूर की बात है । वैसे मैं अपने गाँव घर पर हर किसी की दुःख- तकलीफ़, अच्छे-बुरे काम सब में समान तरीक़े से शामिल होता आया हूँ। आज मुझसे मेरे समाज की दूरी ने झकझोर दिया है, अन्दर तक मुझे हिला कर रख दिया है..... कब तक ख़ुद को संभल पाउँगा या कभी खुद को समझा भी पाउँगा या नही भगवान जाने।

वहीं एक दूसरा मामला मेरे सामने मेरे बगल के कमरें में रह रहे भाई ने प्रस्तुत किया, उसने बताया कि जो कल तक मुझे रोज़ फोन कर शाम की व्यवस्थाओं को लेकर बात करते थे, बिना मेरे पार्टी नही करते थे, जरा देर हो आने में तो मेरा इंतज़ार भी कर लिया करते थे। मेरे कोरोना पॉजिटिव आने कि खबर से मानो जैसे भूमिगत हो गए हो, किसी  मेरा हाल पूछने तक की जेहमत नही उठाई। खुद को मेरा दोस्त कहने वाले सभी मेरे साथियों ने इस संकट के समय मेरा साथ छोड़ दिया है। उसकी इस पीड़ा का अंदाज़ा लगा पाना कितना मुश्किल है आप खुद ही सोच कर देखिएगा। आँखे बंद करोगे तो उस दर्द को भी महसूस कर सकोगे........

एक साथी ने अपनी आपबीती बताते हुए कहा कि मेरे 10+7+7 का आइसोलेशन पीरियड पूरा होने के बाद भी लोग मुझसे मुँह फेरते, रास्ता बदलते  व भागते नजर आए। उनमें अधिकतर हमारे समाज का पढ़ालिखा तबका था। इस तरह की सामाजिक तिरस्कार की पीढ़ा का अंदाज़ा लगा पाना शायद मेरे लिए सम्भव नही है, ये सब सुन मैं बहुत दुःखी था और आज लिखते समय एक बार फिर मेरी आँखे भर आई।


वहीं कुछ समय पूर्व जो हमारे अपने भाई प्रवासी का तमगा लिए हमारे बीच आए और उन्होंने कई तरह की परेशानियों का सामना किया उसके बावजूद आज वो भी हमारे कोरोना पॉजिटिव भाई की पीड़ा समझने को तैंयार नही हैं। हमारे समाज में कहीं-कहीं सुनने में यहाँ तक आया कि प्रवासी भाई कहे कि हमारे तो बाल-बच्चे हैं, इनका क्या है, इनसे कौन कह रहा है घर से बाहर निकलो, अपने साथ गाँव को भी ले डूबेंगे साले.......
इन बातों को सुन मुझे भी बड़ा धक्का सा लगा, मैं उन प्रवासी भाईयों को याद दिलाना चाहता हूँ कि ये वही आपके अपने लोग हैं जिन्होंने आपको उस वक्त स्वीकार किया है जब खतरा आज से कई गुना ज़्यादा था, साथ ही भय भी.... आज यदि हम हम इसकी चपेट में हैं तो कल आप भी हो सकते हैं तब का भी ख्याल कीजियेगा जनाब, समय का चक्र है बहुत जल्दी बदलता है। 

इतिहास के अतीत में यदि हम देखे तो हमारे समाज ने आपसी मेलजोल व प्रेम से ही पूर्व की महामारियों व बीमारियों पर विजय हासिल की है। परन्तु आज हमारा समाज जहाँ सब कुछ छोड़ पश्चात सभ्यता की ओर बढ़ रहा है तो अंदाज़ा भी नही लगा सकते कि हमारी आने वाली पीढ़ी का समाज कैसा होगा। यह सोच कर ही मन कष्ट से भर उठता है क्या हमारी आने वाली पीढ़ी हर समय घरों पर ही कैद रहेगी, हमारे मेलों, धार्मिक आयोजनों, तीज त्योहारों का भला क्या दोष, जो आज उनसे हम सब दूरी बनाते जा रहे हैं, जिसे आने वाली पीढ़ी एक दिन भूल जाएगी। मुझे लगता है कि कहीं हमारी संस्कृति, सभ्यता के पश्चिमीकरण का जिम्मेदार मैं स्वयं तो नही ? जो हालत आज हमारे समाज की दिखाई दे रही है उसके आने वाले कल की कल्पना से ही मन घबराने लगता है।

क्या ऐसी घटनाएँ एक देश, जो विकास के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहता है, उस पर यह एक प्रश्नचिन्ह नहीं है?

आज भी हमारे समाज में अधिकतर लोगों को अपनी मर्ज़ी से जीने का अधिकार नहीं है। ऐसे माहौल को देखते हुए वो लोग घर से निकलने से पहले कई बार सोचते हैं। वो क्या कहेगा? वो क्या सोचेगा? कभी-कभी हमें लगता है कि हम किस समाज में जी रहे हैं! ऐसा समाज जो पूरी तरह से सड़-गल चुका है, जिसकी मानसिकता से बदबू आ रही है। ऐसी बदबू जिसका ज़हर धीरे-धीरे इंसानियत को  खत्म कर रहा है।
आज हम दोहरी मानसिकता में जी रहे हैं, हम केवल अपने स्वार्थ, अपने हित के लिए ही बोलते हैं। दूसरे के साथ हुई घटना का हमारे जीवन पर कोई असर नहीं होता। दूसरे के दुख को हम महसूस करना नहीं चाहते हैं। शायद इसीलिए आज अधिकतर लोग अपने आस-पास कोरोना पॉज़िटिव व्यक्ति के घर से बाहर निकलने पर उससे भेदभाव की नज़रों se देख रहे हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि यदि कोई घटना घटती है तो समाज का कोई व्यक्ति उस पर नहीं बोलेगा। हर किसी के ज़हन में मदद करने से पहले एक ही सवाल होगा, ये तो दूसरे का मामला है, फिर मैं क्यूं बोलूं?  
एक लोकतांत्रिक देश में इतने अधिकार होने के बाद भी किसी को यह अधिकार किसने दे दिया कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे पर अत्याचार कर सकता है? कोई व्यक्ति किसी दूसरे को अपने अनुरूप जीने पर कैसे विवश कर सकता है, शायद कहीं ना कहीं हम उस सभ्यता का हिस्सा होते जा रहे हैं जो हैवानियत पर भरोसा करती है। जिसमें व्यक्ति सिर्फ अपने लिए जीता है और अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए वह दूसरों के अधिकारों को अधिकार नहीं समझता।

आज मुझे समाज की ऐसी घटनाओं ने विवश कर दिया है, ये सोचने के लिए कि हम किस दिशा में जा रहे हैं? यदि समाज में अधिकार है तो सभी के लिए होने चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसमें समाज का प्रत्येक वर्ग एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करे। महिला और पुरूष के आधार पर भेद न हो। शायद फिर कहीं जाकर अधिकारों का असल मकसद पूर्ण होगा।आज हम शिक्षित होते हुए भी अनपढ़ बने बैठे हैं।

एक लड़की ने कहा कि “सर, हमारे साथ तो ऐसा नहीं होता और ना ही हमारे शहर में होता है, क़ोरोना संक्रमित होते ही रिश्तेदारों ने भी मुँह मोड़ लिया” इन शब्दों ने सीधा मेरे दिमाग पर प्रहार किया और मैं चुपचाप सोचता रहा की क्या यही सच है? वास्तव में किसी भी इंसान को किसी दूसरे इंसान की तकलीफ़, दुख दर्द का कोई एहसास नहीं होता। उसे लगता है कि शायद मैं सुरक्षित हूं और मेरे साथ ऐसी घटनाएँ कभी नहीं घट सकतीं। शायद हम सब भी यही सोचते हैं और इस तरह के गंभीर मुद्दों पर भी आवाज़ नहीं उठाते।



इस पर ये लाईन क्या खूब बैठती हैं—-

“जिसको जितनी ज़रूरत थी वो उतना ही मेरे साथ चला,
सुबह मैं काफ़िला लेकर चला था शाम को अकेला मिला।”

किसी को इतना भी न सताओ की वह किसी मानसिक अवसाद का शिकार बन बैठे। जिसका दुःखद परिणाम उसके परिवार को व बदनामी हमारे समाज को भुगतनी पड़े। हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है? क्या हमारी शिक्षा, हमारा, संविधान, कानून, न्याय, सब इतना कमजोर हो गया है कि हम अपने आस-पास की परिस्थितियों को समझ नहीं पाते, या उन परिस्थितियों को समझना नहीं चाहते और उन्हें अनदेखा कर देते हैं। अगर भविष्य में हमें अपनी युवा पीढ़ी को सभ्य और विकसित समाज का हिस्सा बनाना है, तो उनकी मानसिकता का बदलना बहुत ज़रूरी है। उनके लिए शिक्षा, समानता, न्याय आदि को उनके व्यवहार में लाना होगा, क्योंकि जब तक व्यवहारिक रूप से व्यक्ति शिक्षा का प्रयोग नहीं करेगा, वह ऐसे ही असभ्य समाज का हिस्सा रहेगा और अपने लिए ही जीने की कोशिश करेगा।हमें समाज के सोच पर काम करने की आवश्यकता है। मानसिकता बदल कर ही एक सभ्य समाज बनाया जा सकता है जिसके लिए वर्तमान शिक्षा प्रणाली को व्यवहारिक बनाने की आवश्यकता है।    

यह बिलकुल सच है कि मानव मस्तिष्क खुद ही अनुशासन में रहने के लिए नहीं बने हैं। हमें कोई बाहरी शक्ति अनुशासन में रहने के लिए विवश करती है और जहां निगरानी में कमी हो, छूट हो, वहां धीरे-धीरे उच्छृखंलता पसर जाती है। हाल ही में लिस्बन में राजनीतिक मनोवैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय सोसायटी के वार्षिक अधिवेशन में बोलते हुए नामचीन प्रोफेसर शॉन रोजेनबर्ग ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि लोकतांत्रिक संस्थाओं का हृस हो रहा है और लोकतंत्र इस दिशा में बढ़ रहा है कि वह धीरे-धीरे समाप्त हो जाए। अब सोचो आपको यह सब सच होता हुआ नजर आयेगा...........

इधर हम जो बीमार और कुछ न कर पाने की सी हालत में हैं, और कुछ न कर सकें या नहीं उसे (कुदरत) को हैरानी से सांस रोककर ऐसा करते देख सकते हैं।

सत्ता के वे सारे अंग जिनका कभी गरीबों के दुख-तकलीफ से कुछ लेना-देना नहीं रहा बल्कि जिन्होंने उनके जख्मों पर हमेशा ही नमक छिड़कने का काम किया है, अब उनके बचाव में लगे हैं कि गरीबों में अगर बीमारी फैली तो अमीरों के लिए यह बड़ा खतरा होगा। अभी तक इस बीमारी से बचाव के लिए कोई सुरक्षा दीवार नहीं है, लेकिन जल्दी ही कोई न कोई बन ही जाएगी, जो बेशक किसी वैक्सीन की शक्ल में होगी और हमेशा की तरह इस पर सबसे पहला कब्जा उन्हीं का होगा जिनके हाथों में ताकत है और वही खेल एक बार फिर शुरू हो जाएगा– जो जितना अमीर होगा उसके जिंदा रहने की गुंजाइश भी उतनी ही ज्यादा होगी।

मेरे लिए यह अबूझ पहेली है कि सत्ता के ये सारे अंग, जिनके लिए विकास और सभ्यता का अर्थ हमेशा विध्वंस रहा है भला कैसे वायरस द्वारा बरपी तबाही को रोकने के लिए आज दिन-रात एक किए हुए हैं। विध्वंस का विचार परमाणु, रासायनिक और जैविक हथियारों का अंबार खड़ा करते समय भी उनके दिमागों में रहा है। इस विचार को वे तब भी गले लगाते रहे हैं जब वे तमाम देशों पर आर्थिक बंदिशें लागू कर उनकी जनता तक जीवन-रक्षक दवाओं की पहुंच रोकते रहे हैं। 


यह विचार उन पर तब भी हावी रहा है जब वे लगातार इस ग्रह को नष्ट करने का काम इतनी तेजी से करते रहे हैं कि कोविड-19 द्वारा दुनिया भर में की जाने वाली बर्बादी तो बच्चों का खेल नज़र आयेगी। (हालांकि सच यह है कि वह बर्बादी पहले ही हो चुकी है, बस टेलीविजन पर उसे दिखाया नहीं गया)

महामारी फैलना कोई नई बात नहीं है, पर डिजिटल युग में ऐसा पहली बार हुआ है। हम राष्ट्रीय स्तर के तानाशाहों हितों को अंतरराष्ट्रीय स्तर के आपदा से पैसे बनाने वालों और डेटा इकठ्ठा करने वालों को साथ आता देख रहे हैं। हमारे देश  में यह काम और भी तेजी से हो रहा है। फेसबुक ने भारत के सबसे बड़े फोन नेटवर्क वाली कंपनी जियो से एक करार किया है, जहां ये इसके 40 करोड़ वॉट्सऐप यूजर्स बेस को साझा करेगा।

मोदी जी की सिफारिश पर निगरानी/स्वास्थ्य संबंधी ऐप आरोग्य सेतु को अब तक छह करोड़ से ज्यादा लोग डाउनलोड कर चुके हैं। सरकारी कर्मचारियों के लिए इस ऐप को डाउनलोड करना अनिवार्य कर दिया गया है। परन्तु यह ऐप न सरकारी कर्मचारी को सतर्क करता नजर आया, न ही मुझ जैसे गैर सरकारी कर्मचारी को, इसलिए सबसे पहले मैंने यही ऐप अपने मोबाईल फोन से डिलीट किया। 

अगर कोरोना से पहले हम बिना सोचे-समझे निगरानी (सर्विलांस) की ओर बढ़ रहे थे, तो अब डर के चलते भागकर इस सुपर सर्विलांस के शिकंजे में पहुंच रहे हैं- जहां हमसे अपना सब कुछ- हमारी निजता, हमारी गरिमा हमारी आजादी- सब देने को कहा जाए और खुद को नियंत्रित होने की स्वीकार्यता भी, आज लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी अगर हम तेजी से आगे नहीं बढ़े, तो निश्चित है कि हम हमेशा के लिए कैद हो जाएंगे। 
हम इस कोरोना इंजन को हमेशा के लिए कैसे बंद करें? यही हमारा अगला काम है। वर्ना सभ्यता के पश्चिमीकरण को अपनाने की होड़ में कही हम खुद को न भुला बैठे। जिसका जिम्मेदार मैं स्वयं...



क्रमशः जारी —— ❣

Monday, 21 September 2020

(दास्तान-ए-कोरोना-II) कोरोना की कैद के वो पहले दस दिन




सुबह सात बजे दरवाजे पर हो रही खट ... खट ... से आंख खुली तो दरवाज़ा खोलकर देखा एक व्यक्ति प्लेट में बहुत सारे डिस्पोज़ल के ग्लास में काड़ा लिए बाहर से खड़ा है। हम दोनो को उसने बारी-बारी काड़ा पकड़ाया और चलता बना। फिर वापस बैठ हम दोनो ने कमरें में बातें करते हुए जैसे-तैसे काड़ा पिया। जिसका स्वाद बेहद कसैला लग रहा था । सच कहूँ तो मैंने अपने जीवन में आज पहली बार ही इसका स्वाद लिया था। यहीं आकर पिया ये काड़ा।


अब आपका परिचय कराता हूँ अपने कोविड-19 अस्पताल के रूम पाटनर से, डाँ निर्मल बसेड़ा जी वर्तमान में महिला एवं वाल विकास अधिकारी बागेश्वर के पद पर तैनात हैं। बेहद मिलनसार, मोटिवेशनल व्यक्तित्व के व्यक्ति हैं। वैसे उम्र में ज़्यादा अन्तर न होने की वजह से हम दोनो में काफ़ी अच्छी पटी, वैसे बसेड़ा जी बताते हैं कि जब से लॉकडाउन लगा तब से लेकर अब तक मास्क भी नियमित पहनते थे, शोसल दूरी का भी पालन करते व करवाते थे, हाथों को भी समय-समय पर सेनेटाइज करते रहते थे। अपनी किसी ट्रेनिंग के सम्बंध में इन्हें जिले से बाहर जाना था तो कोविड की जांच करनी आवश्यक थी, जांच करायी तो पॉज़िटिव पाए गए और ट्रेनिंग के बजाय सीधे कोविड अस्पताल।  हम दोनो ने अपने सबसे मुस्किल दौर का समय एक साथ बिताया है जो हमेशा यादगार रहेगा। 


काड़ा खतम कर हम दोनो ने बारी-बारी स्नान वग़ैरह किया तब तक समय 8:30 हो गया था।  फिर एक बार दरवाज़े पर आहट हुई खट ... खट ... खट .. खट ...

दरवाज़ा खोला तो देखा वही सुबह काड़ा वाला व्यक्ति वैसे इसका नाम अजप सिंह है, जिसे हम अजब दा कहकर पुकारने लगे थे। काफ़ी हंसमुख व ख़ुशमिज़ाज स्वभाव का व्यक्ति है, कोरोना संक्रमित की सेवा में तत्पर, इनकी बातें सुनकर मैं कहूँगा कि लोगों को इस मुश्किल समय में ढ़ाढस बधाने में माहिर, सलाम करता हूँ आपकी कार्यक्षमता व सोच को...



प्लेन पराठे, आलू मटर की सब्ज़ी व अचार का नाश्ता कर बैठे ही थे की जरा देर में फिर दरवाज़े पर कोई तेज डरावनी सी आहट हुई खट खट .... खट खट ... खट खट 

दरवाज़ा खोला तो पाया सामने डाक्टर साहिबा हैं उन्होंने हमारा हाल पूछा, शरीर का ताप लिया, आक्सीजन लेवल मापा और ठीक है कहकर आगे को चल दी, फिर कमरें का दरवाज़ा बंद कर हम भी बैठ गए।  मन में ख्याल आया अब क्या करें, क्यूँकि कमरे की चार दीवारें और हम दो लोग। खैर फिर मेरे मित्रों व अन्य परिचित लोगों के फोन आने प्रारम्भ हो गए, जीवकों जब पता लगता गया वैसे-वैसे फोन पर कुशलक्षेप जानने को फोन आने लगे कब 1:30 बजा पता ही नही चला, फिर एक बार दरवाज़े पर आहट हुई खट... खट ... खट .... खट ...


दरवाज़ा खोला तो अजब दा थे दिन का भोजन लिए, दोनो लोगों ने अपनी - अपनी प्लेट ली और खाने बैठ गए। खाना काफ़ी अच्छा था, खाना निपटा ही था कि फिर फोन की घंटी बज उठी, फिर वही सब चलता रहा, फिर एक बार दरवाज़े पर आहट हुई, 
खट ... खट ... खट ... खट .... 

फिर एक बार अजब दा हाज़िर थे काड़ा लेकर और अब शाम के चार बज चुके थे। पता ही नही लगा कब समय निकल गया, एक पल के लिए भी अकेलापन महसूस नही हुआ। फिर काड़ा पिया तो शरीर गर्मी से मानो जैसे पिघलने लगा हो। कुछ भय सा लगा हम दोनो बे इस बारे में एक दूसरे से बात की और फिर काड़ा पीने का असर सोच बात को टाल दिया। फिर कमरें पर ही यही कोई बीस, पचास चक्कर इधर-उधर लगाए, फोन पर बात करते रहे, समय कटता रहा। फिर एक बार दरवाज़े पर आहट हुई खट... खट... खट.... खट...


समय देखा तो शाम के आठ बज चुके थे, सोचा अजब दा ही होंगे, देखा तो हमारा अंदाज़ा बिलकुल सही निकला, रात का भोजन लिए हमारी सेवा में तैयार थे। फिर हमने खाना खाया, एक जग गरम पानी की मांग की, सबको खाने के बाद दुंगा कहकर गए अजब दा अब पानी लेकर फिर से दरवाज़े पर थे। 

पानी दिया, शुभ रात्रि कह अजब दा बोले अब कल सुबह मिलते हैं, अभी जरा देर में डाक्टर साहब आयेंगे, फिर आप लोग भी आराम से सो जाना कहकर चल दिए।


फिर कुछ देर बाद यही कोई 9 बजे डाक्टर साहब ने दरवाज़े पर दस्तक दी, फिर हमारा रूटीन चैक कर, ठीक है कह आगे बढ़चले।
हमने भी दरवाज़ा बंद किया और वापस अपनी चारपाई में बैठ बातें करने लगे। 
फिर वही फोन की घंटी बजी रात 11 बजे तक यही चलता रहा। फिर आंखों में नीद का भारीपन भी महसूस होने लगा, फोन स्विच ऑफ़ कर एक दूसरे को गुड नाइट कह सोने की कोशिश करने लगे, पता नही कब आंख लगी और सुबह दरवाज़े पर हो रही आहट से ही नींद खुली, अब हमें अंदाज़ा था की बाहर इस वक्त कौन होगा। अगले दो दिन यही नियमित चलता रहा। मानो लग ही नही रहा हो कि हम एक कमरें में कैद हैं। 


समय का पहिया चलता रहा अब कुछ फोन कम होने लगे समय ज़्यादा लगने लगा क्या करें सी स्थिति बनने लगी। फिर कुछ किताबों के पन्ने पलटे, कुछ ऑनलाइन साहित्य पढ़ा। कमरें में लगी टीवी का भी समय-समय पर भरपूर आनन्द लिया। 
यही हमारी नियमित दिनचर्या चल रही थी। वैसे आपको बताना चाहूँगा कि हम अपना समय काटने के लिए कमरें में नियमित झाड़ू लगाते थे। जिससे हमें कमरें के अंदर एक सकारात्मकता का आभास होता था। कहते हैं ना रोगी को रोग से लड़ने के लिए साफ़ वातावरण का होना अति आवश्यक है। वही सब माहौल तैयार करने की हम दोनो हर सम्भव कोशिश करते रहते थे। जितना भी कर पाए उसमें खुशी बहुत थी। 

वैसे एक बात में आपको बताना चाहता हूँ कि संस्थागत आइसोलेशन या आइसोलेशन में लोगों का कहना था कि खाना अच्छा नही था। कुछ शिकायतें मेरे पास भी पहुंची, वैसे मैं कभी भी खाने की बुराई नही करता हूँ, यहाँ पर सभी को हर दिन अलग-अलग तरह  खाना खिलाया जा रहा था। नाश्ते में कभी बटर टोस्ट, प्लेन पराठे, आलू के पराठे, पोहा, मड़वे का ढ़ोसा, रोटी-शब्जी, दूध इत्यादि, दिन के खाने में दाल, चावल, रोटी, शब्जी, अचार, भट्ट के डुबके -भात, कड़ी चावल, राजमा चावल, वेज पुलाव इत्यादि, ऐसे ही रात के खाने में भी हर रोज़ अलग-अलग शब्जी के साथ रोटी, दाल, चावल दिया जाता था। मुझे लगा ही नही कि मैं घर से बाहर हूँ। साफ सफाई का पूरा ध्यान रखते हुए अच्छा प्रबन्ध किया गया था। 



यही हमारी दिनचर्या बनी रही दस दिन तक, इस बीच दो बार मेरे शरीर का ताप भी बढ़ा, चिंताए बढ़ने लगी। सबसे कहता रहा ठीक हूँ पर अन्दर ही अन्दर डर भी बहुत था। डाक्टर ने पैरासीटमॉल दिन में तीन डोज़ खाने को कहा। डर लगने लगा, कई तरह के ख्याल डराने लगे, कुछ समझ नही आ रहा था। किसको कहें वो भी समझ से परे था। इस बीच कई बार टूटन महसूस की, फिर खुद को सम्भालने की कोसिस की। कमरें में एक दूसरे ने ख़ूब हिम्मत बढ़ाई सब की, अग़ल-बगल के लोगों से भी कहते रहते थे की चिंता मत करो, आराम करो, सब ठीक होगा। कहते हैं ना खुद के मन को खुद ही समझाना पड़ता है, वही हम दोनो ने किया।  

एक दो दिन बाद फिर शरीर का ताप सामान्य हो चला थोड़ा सुकून मिला, अब चिन्ता की कोई बात नही थी क्यूँकि अब एक हफ़्ते से ज्यादा समय बीत गया था। ज्यूँ-ज्यूँ दिन बीत रहे थे तो मन में ख़ुशी हो रही थी कि जल्द में भी यहाँ से घर जाऊँगा, माँ से मिलूँगा, दोस्तों से मिलूँगा, कोरोना के बारे में बात करुंगा वग़ैरह-वग़ैरह। वैसे ये भाव हर कोई नही समझ सकता है, आज से पहले मैं भी नही समझता था, ऐसी बातें यदि कोई करे तो मज़ाक़ में टाल जाया करता था। 

वैसे इस बीच कोई ऐसा दिन नही था जब मैंने माँ से बात नही की, हर रोज माँ कहती अपना ख्याल रखना, ठीक से अपना इलाज कराना, फिर उसका गला भर आता ! बस महसूस कर पाता हूँ, मैं ठीक है आप भी अपना ख्याल रखना के अलावा कुछ कह नही पाता था। वैसे मेरी माँ को सुनाई जरा कम पड़ता है तो वह अपनी बात बोलने के बाद फोन पर सामने वाले की बातें ठीक से सुन नही पाती हैं तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं, उस वक्त क्या एक बेटे के मन में चल रहा होगा.......  

बस यूँ ही बेहतर कल के इंतज़ार में दिन बीतते रहे और हम दस पूरे होने का इंतज़ार करने लगे !! 

नौ दिन पूरे होने पर दसवाँ दिन हमको किसी पहाड़ से कम नही लग रहा था, जैसे- तैसे घड़ी में देख-देख समय बिता रहे थे पर ये आज कुछ ज्यादा ही लम्बा लग रहा था। 

सोच रहा था ————
वक़्त की वापसी नही होती,
घड़ी की सुइंया घुमा देने से।
तो.....
मैं ऐसा क्या गुनाह करू कि,
अपनों की कैद में वापस चला जाऊ !!

खैर जैसे-तैसे दिन बीता रात हुई, सुबह के हंसी इंतज़ार में खोयें जाने कब आँख लग गई पता ही नही चला.......




क्रमशः जारी —— ❣

Sunday, 20 September 2020

(दास्तान-ए-कोरोना) यूँ ही मन किया और कोरोना जांच करा ली!


आप सभी साथियों को नमस्कार,
इस दुष्कर कोरोना काल में किसी हिचक का कोई मतलब नहीं है। रोज़ नये-नये अनुभव हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि हज़ार किताबों से जो न सीखा, वह इन कुछ महीनों ने सिखा दिया। एक वायरस ने जैसे सरे बाज़ार नंगा कर दिया है। नहीं, शरम-वरम की बात नहीं है, बात एक हक़ीक़त को पहचानने की है।

नहीं समझे। चलिये कोशिश करता हूँ।

बहुत से मेरे साथियों के आग्रह व हमारे समाज में कोरोना के नाम पर फैली भ्रांतियों को शोसल मीडिया के माध्यम से आपके सम्मुख रखने की एक छोटी सी कोशिश करने जा रहा हूँ आशा है आपको अवश्य पसंद आयेगी। इसे आप मेरी आपबीती भी कह सकते है और इसे कोरोना पॉजिटिव होने पर सबक के रूप में भी अपना सकते हैं। कोशिश करूँगा समाज का हर पहलू आपके सामने लाने की, जो मुझसे इत्तेफाक नही रखते वो मेरी इन पोस्टों से दूरी बनाकर चलें तो बेहतर होगा।



31 अगस्त सोमवार का दिन था, मौसम काफ़ी सुहावना लग रहा था, सब कुछ पहले की तरह सामान्य व शान्त था। सुबह-सुबह मेरे एक मित्र का फ़ोन आया, पहले एक दूसरे का हाल समाचार जाना फिर वर्तमान हालात व समाज पर कुछ बातें हुई, फिर जाकर उन्होंने बोला भाई वो पत्रकार साहब भी शायद कोरोना संक्रमित हो गए हैं ऐसी खबर सुनने में आ रही है, आपको मालूम है? क्या वो सच में कोरोना पॉजिटिव हैं? कुछ दिन पहले तो मुलाक़ात हुई थी ऐसा कुछ लगा तो नही। इस पर मैंने कहा चलो मालूम करता हूँ, अभी मुझे नही पता मैं पिछले दो दिनो से घर पर ही था। 
मैंने अपने पत्रकार मित्र को फोन लगाया उनसे बात की तो पता लगा वो सही में कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं और दो दिन से आइसोलेशन पर हैं। फिर थोड़े स्वास्थ्य को लेकर बात हुई तो उन्होंने बताया कि सब कुछ सामान्य है, कोई परेशानी नही है, बस कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव है। उनसे अपना ख़्याल रखना कह कर फोन काटा। फिर अपने पहले मित्र को फोन लगाया और खबर की सत्यता पर बात की, तो थोड़ा अफ़सोस जता कर एक दूसरे से सतर्क रहने व अपने को सुरक्षित रखने की बात कही, क्यूँकि दोनो के घर पर ही बूढ़ी माँ है जो अक्सर किसी न किसी तकलीफ़ के चलते अस्वस्थ अधिक रहती हैं। इस पर बात कर ही रहे थे कि सामने से आवाज़ आई कि भाईसाहब आप भी उनके सम्पर्क में रहते ही हैं एक बार एहतियात के तौर पर टेस्ट करा लेना। मैं थोड़ा चौका फिर ठीक है कहकर मैंने फोन काटा।  
पर मेरे दिमाग में अब भी वही शब्द घूम रहे थे। फिर मैंने खुद को समझाते हुए गहरी साँस ली और बात को टालते हुए आगे बढ़ा अपने अन्य कामों पर लग गया। 
मैंने हर रोज की तरह नाश्ता किया, तैयार हुआ और घर से निकल पड़ा। बाज़ार पहुँचा तो मेरे मन में ख्याल आया कि आज सबसे पहले जांच ही क्यों न कराई जाए। तो मैं बिना किसी साथी से मिले या यूँ कहे किसी से नज़दीकी सम्पर्क में आए बगैर जिला अस्पताल पहुँचा, जहां पर बहुत भीड़ थी। थोड़ा इंतज़ार करने के लिए मैं बाहर की किनारे पर खड़ा हो गया, तब तक मेरे एक और पत्रकार मित्र नरेन्द्र मुझे वहाँ पर मिलें। हैलो हाई हुई, अस्पताल आने का प्रयोजन पूछा ...
तो मैंने बताया खुद कि कोरोना जांच करनी है। फिर मैंने काउण्टर पर जाकर अपने नाम से पर्चा कटाया। उसे लेकर आगे बढ़ा, तब नरेन्द्र भाई भी मेरे साथ हो लिए तो हम दोनो बातें करते हिये आगे टेस्ट खिड़की पर जा पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही एक बार नरेन्द्र भाई ने बोला परिहार जी मत कराओ यार टेस्ट आपको कोई दिक्कत नही है। अगर गलती से पॉजिटिव आ गई रिपोर्ट तो बीस इक्कीस दिन कैद में रहना पड़ेगा, मैंने कोई बात नही देखी जायेगी कहकर कदम आगे बढ़ाया और जाँच को पर्चा आगे दिया। तब नरेन्द्र भाई ने कहा आप कराओ फिर मैं चलता हूँ, फिर वो चला गया ....
मैंने अपना नाम पता मोबाईल नम्बर सब नोट कराया, फिर उसके मेरा ट्रूनेट सैम्पल लिया। मैंने पूछा जांच रिपोर्ट कब मिलेगी। इस पर उसने बताया कि आजकल लोड ज़्यादा है तो कल दिन तक आपकी रिपोर्ट आ पाएगी। फिर जिज्ञासावस मैंने पूछा कि मुझे कैसे पता लगेगा की रिपोर्ट क्या आई है, इस पर पहले से परिचित होने के चलते उनमें से एक भाई ने मुस्कुराते हुए कहा कि पॉजिटिव आओगे तो खुद स्वास्थ्य विभाग से फोन आ जायेगा नही आया तो आप समझ जाना की रिपोर्ट पॉजिटिव नही है। फिर में वापस बाहर आ गया, फिर मैंने उचित दूरी के साथ ही एक दो लोगों से बात की फिर अपने कुछएक काम निपटाने को चला गया। तब तक दोपहर के 12:30 का समय हो गया था। अपने एक दो साथियों  साथ बात करके फिर हमने टेस्ट को लेकर बात की। जिस पर मुझे वहाँ मौजूद लोगों की बात सुनकर महसूस हुआ कि उनमें इस बात की लेकर डर है, फिर मैंने सबसे कहा कि आपको घबराने की जरुरत नही है मैं उचित दूरी का पालन करते हुए आपसे बात कर रहा हूँ, इस पर भी उनकी मनोस्थिति का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता था कि वो मुझसे असहज थे। फिर मैंने घर वापसी का निर्णय लिया और अपने घर पहुँच गया। घर पहुँचकर मैंने सबसे पहले डिटोल के पानी से स्नान किया और खुद की अपने कमरे में आइसोलेट कर लिया। खाना भी कमरें के बाहर ही रखने को बोला तो माँ को चिन्ता हुई तो उसने पूछा क्या हुआ, तो बताया। 

उस पर माँ ने कुमाऊँनी में बोला .. जस को नी कून उस कूँ, लैं खांण खा! आब तदुके रै गो बकाई।
माँ अंदर को गई मैंने खाना लिया अपने कमरे में चला गया, फिर रात को भी यही खाना खा कर सो गया। 

फिर 1 सितम्बर दूसरे दिन उठा अपने कमरें में ही रहा, दिन भर वेब सीरिज़ देखता रहा। शाम तक कोई फोन नही आया तो मुझे लगा शायद सब कुछ सामान्य होगा तभी, मैं सोच ही रहा था कि चलो अब घूमने तो जाऊँगा, बहुत हुआ कमरे में कैद। 

तभी मोबाईल की घंटी बजी देखा तो एलआईयू विभाग से हमारे मित्र श्री मनोज पाण्डे जी का फोन था, जैसे ही फोन रिसीव किया तो उन्होंने पूछा आपने कोरोना जांच के लिए सैम्पल दिया था। 
मैंने हाँ कहकर जवाब दिया। 

तो बोले आप की रिपोर्ट पॉजिटिव हैं। 
आपको अभी स्वास्थ्य विभाग फोन करेगा। 
फिर उन्होंने पूछा आप कहीं बाहर गए थे? आपके सम्पर्क में कौन-कौन लोग थे पिछले तीन चार दिनो से वग़ैरह-वग़ैरह ? 
मैंने उन्हें उनके सवालों  जवाब दिया।

तब तक एलआईयू प्रभारी श्री अनिल नयाल जी का फोन आया, उन्होंने बताया कि लिस्ट आई थी नम्बर मिलाया तो आपका नाम दिखा तो सोचा बात की जाए, उन्होंने बताया कि आप लो रिस्क में है, कोई दिक्कत वाली बात नही है। आराम से 10 दिन वहाँ रहकर स्वास्थ्य लाभ लो, बांकी हम फ़ोन पर बात करते रहेंगे।
मैंने कहा ओके ठीक है और फोन काट दिया।  
फिर मैंने माँजी को बताया कि मेरी रिपोर्ट पॉजिटिव आई है मुझे 10-15 दिनो के लिए वहीं किसी जगह पर रहना होगा।
माँ थोड़ा परेशान हो गई, उसकी परेशानी आँखो में नजर आने लगी। माँ को समझाया मुझे कोई परेशानी नही है, कुछ नही होगा, बस कुछ दिन अलग रहना है।  
फिर मुझे लगातार एक के बाद एक फोन आने लगे 
कभी जिला स्वास्थ्य विभाग, कभी सीएमओ कार्यालय, कभी ट्रामा सेण्टर, कभी पुलिस कंट्रोल रूम, एम्बुलेंस चालक का ....

सभी को जवाब देते-देते परेशान हो उठा, लगा क्या कोई अपराध कर दिया मैंने कोरोना जांच कराकर... फोन.... फोन... फोन.......


फिर एम्बुलेंस चालक का एक बार फोन आया कहाँ पर आना है, लोकेशन की जानकारी के बाद उसने कहा में 10 मिनट में यहाँ से निकालूँगा आप तैंयार रहे।  
तब तक मैंने एक छोटे बैग में दो टीशर्ट, एक निक्कर वग़ैरह ज़रूरी समान रख लिया। जिस पर जल्दी-जल्दी में कमरे से कुछ किताबें भी बैग में रख लिए। फिर मैंने फोन किया आप कहाँ पर पहुँचे हैं तो उसने कहा आप पक्की सड़क की तरफ आइये मैं निकल पड़ा हूँ। फिर एक बार माँ को मुस्कुरा कर समझाया कि मुझे कुछ नही हुआ है, बस ज़रा कुछ दिन अलग वही रहना पड़ेगा, कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई है बस और कुछ नही। जैसे- तैसे माँ को ढ़ाढस बधाया और घर से चल दिया। 

जरा आगे जाने के बाद रास्ते में लोग पूछते रहे अभी बैग लेकर जो कहाँ को.....
मैंने कहा कोरोना पॉजिटिव हो गया हूँ जा रहा हूँ ...
कोई विश्वास करने को तैयार ही नही...
मैं आगे चलता रहा और यही जवाब सबको देता रहा।

तभी मेरे मित्र उत्तराखंड पुलिस के जवान श्री रवीन्द्र बोरा जी की फोन आया कि राजू भाई आप भी..... 
मैंने हाँ कहकर जवाब दिया।
फिर थोड़ी बहुत बातें हुई ...
उन्होंने कहा कि आप एक बेडसीट, एक ओढ़ने वाला और एक जोड़ी चप्पल जरुर ले कर जाना।
मैंने कहा अब तो मैं घर से निकल आया हूँ देखते हैं वहाँ पहुँचकर क्या तालमेल बनता है। उन्होंने बताया कि आपकी गाड़ी भी आ गई है।
मैंने ओके फिर बात करते हैं कहकर फोन काटा।  

कुछ देर बाद कोरोना की सवारी आई ...
मैं बैठा...
सीधे कोविड अस्पताल(ट्रामा सेण्टर) में आकर एम्बुलेंस रुकी। 
मैं बाहर उतरा फिर रामा सेण्टर के अन्दर गया और अपना पूरा व्यौरा दर्ज कराया। वहाँ पर मेरे से पहले दो भाई और बैठे हुए थे जिनकी भी रिपोर्ट कोरोना पॉजिटिव पायी गई थी। फिर हमें वहाँ कुछ देर बैठकर, दवाइयाँ देकर वापस एम्बुलेंस में बैठने को कहा गया। 


अब हम तीन लोग एक साथ गाड़ी में बैठे और होटल नरेंद्रा पैलेस पहुँचे। जहाँ उन दोनो को एक कमरें में भेजा गया। मुझे एक अलग कमरें में भेजा गया जहां पर पहले से ही एक व्यक्ति मौजूद होने की बात कही गई। जो अभी जरा देर पहले ही आए हैं।
मैं बिना कुछ सोचे चला गया, 
कमरे में पहुंचा, अपना बैग वहाँ रखी कुर्सी पर रखा। 
सामने मौजूद शख़्स से हैलो हाई हुई .....
और पंखे की हवा में बैठ गया
फिर एक दूसरे के बारे में बातें हुई, कुछ अपनी बात कही कुछ उनकी बात सुनी...
तब तक कमरें का दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ हुई तो देखा काड़ा लिए एक व्यक्ति खड़ा था।
हम दोनो ने काड़ा लिया और वापस अपनी बातों पर लग गये।
जान पहचान की बातें हुई, अब हम दोनो को यहाँ अगले दस दिन साथ बिताने हैं, यानी कि आप हमें कोविड रूम मेड कहकर भी सम्बोधित कर सकते हैं।  
इतने में दरवाज़े पर फिर से दस्तक हुई,
देखा तो सामने मेरे पत्रकार मित्र श्री दीपक पाठक जी खड़े थे, 
उन्होंने हमारा यहाँ आने पर स्वागत किया, मैंने भी धन्यवाद कहकर मुस्कुरा दिया.... फिर वो अपने कमरे में चल दिए जो हमारे ठीक सामने था ।
तब तक रात के 8 बज चुके थे...
खाना आया ..
डिस्पोज़ल प्लेट में खाना खाया...
खाना खाकर एक बड़ी सी थैली कमरें में दी गई कि आप जो भी खायेंगे उसका कूड़ा सब इसमें जमा रखना है। मैंने हाँ में अपना सिर हिलाया.....
खाना खाकर बैठे थे 9 बजे डाक्टर की विज़िट हुई तो दरवाज़े पर फिर से आहट हुई, खट.... खट ...
दरवाज़ा खोला तो सामने पीपीई किट पहने डाक्टर साहब खड़े थे, उन्होंने हमारे शरीर का ताप व आक्सीजन लेवल नापा..
ठीक है, ठीक है, सब ठीक है आगे बढ़ते हुए बोले 
कमरे में मास्क नही लगाना है, जब कोई आता है तभी मास्क लगाना है।
उसके बाद हमने कमरे का दरवाज़ा बंद किया और बिस्तर पर लेट गए।  

तभी मैंने फ़ेसबुक में अपने कोरोना संक्रमित होने की सूचना सांझा की। कुछ फोन भी लिए, काफ़ी साथियों के लगातार फोन आ रहे थे। मन में चिंताए थी कुछ का फोन रिसीव किया कुछ का नही कर पाया। फोन की बैटरी ने भी तब तक साथ छोड़ दिया था। 


जरा देर बाद लाईट बंद कर हम दोनो ने एक दूसरे को शुभ रात्रि कहा और सोने का प्रयास करने लगे।  

कोरोना पॉजिटिव मिलने से मेरी क्या किसी की भी चिंता स्वभाविक थी। कई तरह के नकारात्मक विचार मन में आ रहे थे इसी उधेड़बुन में कब आँख लग गई पता ही नही चला। 

क्रमशः—— ❣️

Thursday, 27 August 2020

लगता है वायरस बदल देगा नेताजी के बोल- बच्चन


आज दुनिया में कोरोना ने एक साथ तीन बड़े बदलाव की नींव डाल दी है। जहाँ इस महामारी से पूरी दुनिया के समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीति अब पहले जैसे नहीं रह जाएंगे। ऐसा नहीं कि ये बदलाव बीमारी पर काबू पाने तक ही रहेंगे। भविष्य में भी थोड़े-बहुत सुधारों के साथ ये दिखेंगे। जब दुनिया और उसकी सियासत बदलेगी, तो भारतीय राजनीति भला कैसे बची रह सकती है। बहुत मुमकिन है कि कोविड-19 से पैदा लोगों का डर और डर की राजनीति केंद्र में आएं।

अभी नेताओं के नारों में बिजली, सड़क, पानी, फ़्लाइओवर और विकास की बातें होती हैं। अब आगे हो सकता है ये मास्क, वेंटिलेटर, दवाओं और दूसरे मेडिकल इक्विपमेंट के इर्द-गिर्द घूमने लगें। भारतीय राजनीति के दो सबसे अहम शब्द ‘विकास’ और ‘जाति’ को कोरोना काल में ‘वायरस’ और ‘जैविक देह’ रिप्लेस कर दें, ऐसा अंदाज़ा लगाया जा सकता है। 

♦️पैमाने बदल जाएंगे — 
अगर हमारी राजनीति में ‘विकास’ का आगे ज़िक्र भी आएगा, तो उसके इर्द-गिर्द मौजूदा वक़्त और भविष्य के वायरल अटैक से बचने की तैयारी और नाकामी की बातें ज़्यादा होगी। आने वाले दिनों में आम आदमी की सेहत की चिंता हमारे राजनीतिक विमर्श का सबसे ज़रूरी सवाल बनकर उभरेगी। इस सवाल के ज़रिए यह पूछा जाएगा कि ग़रीब-गुरबा और दबाए-सताए गए लोगों की जगह क्या है और क्या होनी चाहिए। इन सवालों के जवाब ही भारत में लोकतांत्रिक विमर्श की दशा और दिशा तय करेंगे। 

इस विमर्श में नेताओं की योग्यता के पैमाने बदल जाएंगे। आने वाले चुनावों में देखा जाएगा या यूँ कहें देखा जायेगा कि किस राजनीतिक दल, नेता और मुख्यमंत्री ने कोरोना संकट का सामना प्रभावी ढंग से किया। किसने महामारी के फैलने की रफ़्तार को मजबूती से थामा। किसने इस आपदा का सामना करने के लिए अपने राज्य के मेडिकल इंफ़्रास्ट्रक्चर में तेज़ी से जरूरी बदलाव किए। इन पैमानों के आधार पर ही हमारी राजनीति और हमारे नेताओं की लोकप्रियता तय होगी। जनता किसके पक्ष में एकजुट होगी, इसके लिए भी कसौटी बदलेगी। सवाल उठेगा कि महामारी के दौरान किसने ग़रीब तबके की समस्याओं को संज़ीदगी से लिया। किसने उन तक सरकारी या दूसरे ज़रिए से मदद पहुंचाई। किसने इन भयानक दिनों में ग़रीब और मजबूर लोगों को ध्यान में रखकर नीतियां बनाईं। यह भी देखा जाएगा कि सबसे तेज़ पहल किसने की और कौन पीछे रह गया।

♦️समाज और बंटेगा —
दूसरी महामारियों की तरह कोरोना भी पहले से बंटे हुए हमारे समाजों को और बांटेगा। ग़रीबी और अमीरी की खाई और चौड़ी होगी। ‘ग़रीब’ शब्द के बहुत गहरे और प्रभावी राजनीतिक मायने सामने आएंगे। दलितों के मुद्दे महत्वपूर्ण तो रहेंगे, लेकिन मुमकिन है कि बहुत हद तक वे ‘ग़रीब’ और ‘ग़रीबी’ में जज़्ब होकर रह जाएं। 

इसके साथ ही नई सामाजिक पहचान उभरेगी। पुरानी पहचान नई सूरत अख़्तियार कर सकती है। राजनीतिक विमर्श में ‘प्रवासी मज़दूर’ की एक नई कैटिगरी उभर सकती है। महामारी और इससे आया डर भारतीय समाज में माइग्रेशन की सहज प्रक्रिया को नुकसान पहुंचाएगा। प्रवासी मज़दूरों के मुद्दे राजनीति में महत्वपूर्ण होकर उभरेंगे।

♦️प्रवासी तय करेंगे देश व प्रदेश की राजनीति में मुद्दे —
2011 की जनगणना के आंकड़े देखें तो 34 करोड़ से अधिक प्रवासी, उनके घर-परिवार, रिश्तेदार, सब मिलकर भारतीय समाज में एक प्रभावी वोट बैंक के रूप में चुनावी राजनीति में उभर सकते हैं। हिंदी क्षेत्र, ख़ासतौर पर उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के अलावा उत्तराखंड की राजनीति में इन प्रवासी मज़दूरों के सवाल चुनावी लिहाज से अहम हो सकते हैं। इन राज्यों से बड़ी संख्या में प्रवासी महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली और हरियाणा जाते हैं। यह जनसंख्या अपने परिवार, नाते-रिश्तेदारों के साथ मिलकर लोकतांत्रिक दबाव बनाने वाले एक बड़े समूह के रूप में उभर सकती है। 

कोरोना के दिनों में भी प्रवासी की दशा, उनकी घर वापसी, उनके दुर्दिन और उन्हें सहयोग करने की राजनीतिक रणनीतियां बताती हैं कि आने वाली चुनावी जंग में ‘प्रवासी’ एक प्रभावी सामाजिक और राजनीतिक पहचान बनकर उभरेंगे। जिसे राजनीतिक सलाहकार भी अहम मानते हैं। फ़र्श से अर्श तक की राजनीतिक उठापटक में प्रवासियों का महत्वपूर्ण योगदान होने की संभावनाओं से इनकार नही किया जा सकता है। 

♦️अब हमारी आदत में शामिल होगी ‘दूरी’ —
दुनिया के कई अर्थशास्त्री कोरोना के बाद भयावह आर्थिक मंदी और ग़रीबी की एक नई महामारी की आहट साफ़-साफ़ सुन रहे हैं। ऐसे में भारत की सियासत में संगठित और असंगठित मज़दूरों का सवाल भी अहम होने वाला है। इसमें एक फ़र्क़ आ सकता है कि नए संदर्भ में राजनीतिक दल अपनी लेबर यूनियन की बजाय सीधे ही मज़दूरों को संगठित करेंगे। 

ऐसा इसलिए होगा क्योंकि मज़दूर संगठन अब पहले की तरह प्रभावी नहीं रहे। यह साफ़ महसूस हो रहा है कि मज़दूरों का सवाल भारतीय राजनीति के कुछ मूल सवालों में से एक होकर उभर सकता है।

इसी तरह राजनीति का डॉक्टरीकरण और डॉक्टरी का राजनीतिकरण भी देखने को मिल सकता है। हममें से कई लोग ख़ुद को जातीय पहचान से थोड़ा अलग कर एक ‘जैविक देह’ के रूप में देखने लगेंगे। 

इसके कारण भारतीय समाज में इंसान और इंसान के रूप में सोशल डिस्टेंसिंग की सामाजिक आदत पैदा हो सकती है। बहुत मुमकिन है कि यह आपदा जाति और जाति के बीच छूआछूत को कम कर आदमी और आदमी के बीच सामाजिक दूरी को लंबे समय के लिए आदत में बदल दे।
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Friday, 14 August 2020

क्या आप जानते हैं शिव जी का वास कहलाने वाले कैलाश मानसरोवर को चीन के कब्जे से किसने छीना था?


आज़ादी के बाद चीन ने “कैलाश पर्वत व कैलाश मानसरोवर” और अरुणाचल प्रदेश के बड़े भूभाग पर जब कब्ज़ा कर लिया तो देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी UNO पहुंचे की चीन ने ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा कर लिया है, हमारी ज़मीन हमें वापस दिलाई जाए।
इस पर चीन ने जवाब दिया कि हमने भारत की ज़मीन पर कब्ज़ा नहीं किया है बल्कि अपना वो हिस्सा वापस लिया है जो हमसे भारत के एक शहंशाह ने 1680 में चीन से छीन कर ले गया था। यह जवाब UNO में आज भी ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में मौजूद है।

जानते हैं चीन ने किस शहंशाह का नाम लिया था ?
“औरंगज़ेब” का…


दरअसल चीन ने पहले भी इस हिस्से पर कब्ज़ा किया था, जिस पर औरंगज़ेब ने उस वक़्त चीन के चिंग राजवंश के राजा “शुंजी प्रथम” को ख़त लिख कर गुज़ारिश की थी कि कैलाश मानसरोवर हिंदुस्तान का हिस्सा है और हमारे हिन्दू भाईयों की आस्था का केन्द्र है, लिहाज़ा इसे छोड़ दें।

लेकिन जब डेढ़ महीने तक किंग “शुंजी प्रथम” की तरफ से कोई जवाब नहीं आया तो औरंगजेब ने चीन पर चढ़ाई कर दी जिसमें औरंगजेब ने साथ लिया कुमाऊँ के राजा “बाज बहादुर चंद” का और सेना लेकर कुमाऊँ के रास्ते ही मात्र डेढ़ दिन में “कैलाश मानसरोवर” लड़ कर वापस छीन लिया…
ये वही औरंगज़ेब है जिसे की कट्टर इस्लामिक बादशाह और “हिन्दूकुश” कहा जाता है, सिर्फ उसी ने हिम्मत दिखाई और चीन पर सर्जिकल स्ट्राइक कर दी थी..


इतिहास के इस हिस्से की प्रमाणिकता को चेक करना हो तो आज़ादी के वक़्त के UNO के हलफनामे देख सकते हैं जो आज भी संसद में भी सुरक्षित हैं।
 
और आप ये किताबें भी पड़ सकते हैं..
हिस्ट्री ऑफ उत्तरांचल :- ओ सी हांडा
द ट्रेजेड़ी ऑफ तिब्बत :– मन मोहन शर्मा
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