Monday, 21 September 2020

(दास्तान-ए-कोरोना-II) कोरोना की कैद के वो पहले दस दिन




सुबह सात बजे दरवाजे पर हो रही खट ... खट ... से आंख खुली तो दरवाज़ा खोलकर देखा एक व्यक्ति प्लेट में बहुत सारे डिस्पोज़ल के ग्लास में काड़ा लिए बाहर से खड़ा है। हम दोनो को उसने बारी-बारी काड़ा पकड़ाया और चलता बना। फिर वापस बैठ हम दोनो ने कमरें में बातें करते हुए जैसे-तैसे काड़ा पिया। जिसका स्वाद बेहद कसैला लग रहा था । सच कहूँ तो मैंने अपने जीवन में आज पहली बार ही इसका स्वाद लिया था। यहीं आकर पिया ये काड़ा।


अब आपका परिचय कराता हूँ अपने कोविड-19 अस्पताल के रूम पाटनर से, डाँ निर्मल बसेड़ा जी वर्तमान में महिला एवं वाल विकास अधिकारी बागेश्वर के पद पर तैनात हैं। बेहद मिलनसार, मोटिवेशनल व्यक्तित्व के व्यक्ति हैं। वैसे उम्र में ज़्यादा अन्तर न होने की वजह से हम दोनो में काफ़ी अच्छी पटी, वैसे बसेड़ा जी बताते हैं कि जब से लॉकडाउन लगा तब से लेकर अब तक मास्क भी नियमित पहनते थे, शोसल दूरी का भी पालन करते व करवाते थे, हाथों को भी समय-समय पर सेनेटाइज करते रहते थे। अपनी किसी ट्रेनिंग के सम्बंध में इन्हें जिले से बाहर जाना था तो कोविड की जांच करनी आवश्यक थी, जांच करायी तो पॉज़िटिव पाए गए और ट्रेनिंग के बजाय सीधे कोविड अस्पताल।  हम दोनो ने अपने सबसे मुस्किल दौर का समय एक साथ बिताया है जो हमेशा यादगार रहेगा। 


काड़ा खतम कर हम दोनो ने बारी-बारी स्नान वग़ैरह किया तब तक समय 8:30 हो गया था।  फिर एक बार दरवाज़े पर आहट हुई खट ... खट ... खट .. खट ...

दरवाज़ा खोला तो देखा वही सुबह काड़ा वाला व्यक्ति वैसे इसका नाम अजप सिंह है, जिसे हम अजब दा कहकर पुकारने लगे थे। काफ़ी हंसमुख व ख़ुशमिज़ाज स्वभाव का व्यक्ति है, कोरोना संक्रमित की सेवा में तत्पर, इनकी बातें सुनकर मैं कहूँगा कि लोगों को इस मुश्किल समय में ढ़ाढस बधाने में माहिर, सलाम करता हूँ आपकी कार्यक्षमता व सोच को...



प्लेन पराठे, आलू मटर की सब्ज़ी व अचार का नाश्ता कर बैठे ही थे की जरा देर में फिर दरवाज़े पर कोई तेज डरावनी सी आहट हुई खट खट .... खट खट ... खट खट 

दरवाज़ा खोला तो पाया सामने डाक्टर साहिबा हैं उन्होंने हमारा हाल पूछा, शरीर का ताप लिया, आक्सीजन लेवल मापा और ठीक है कहकर आगे को चल दी, फिर कमरें का दरवाज़ा बंद कर हम भी बैठ गए।  मन में ख्याल आया अब क्या करें, क्यूँकि कमरे की चार दीवारें और हम दो लोग। खैर फिर मेरे मित्रों व अन्य परिचित लोगों के फोन आने प्रारम्भ हो गए, जीवकों जब पता लगता गया वैसे-वैसे फोन पर कुशलक्षेप जानने को फोन आने लगे कब 1:30 बजा पता ही नही चला, फिर एक बार दरवाज़े पर आहट हुई खट... खट ... खट .... खट ...


दरवाज़ा खोला तो अजब दा थे दिन का भोजन लिए, दोनो लोगों ने अपनी - अपनी प्लेट ली और खाने बैठ गए। खाना काफ़ी अच्छा था, खाना निपटा ही था कि फिर फोन की घंटी बज उठी, फिर वही सब चलता रहा, फिर एक बार दरवाज़े पर आहट हुई, 
खट ... खट ... खट ... खट .... 

फिर एक बार अजब दा हाज़िर थे काड़ा लेकर और अब शाम के चार बज चुके थे। पता ही नही लगा कब समय निकल गया, एक पल के लिए भी अकेलापन महसूस नही हुआ। फिर काड़ा पिया तो शरीर गर्मी से मानो जैसे पिघलने लगा हो। कुछ भय सा लगा हम दोनो बे इस बारे में एक दूसरे से बात की और फिर काड़ा पीने का असर सोच बात को टाल दिया। फिर कमरें पर ही यही कोई बीस, पचास चक्कर इधर-उधर लगाए, फोन पर बात करते रहे, समय कटता रहा। फिर एक बार दरवाज़े पर आहट हुई खट... खट... खट.... खट...


समय देखा तो शाम के आठ बज चुके थे, सोचा अजब दा ही होंगे, देखा तो हमारा अंदाज़ा बिलकुल सही निकला, रात का भोजन लिए हमारी सेवा में तैयार थे। फिर हमने खाना खाया, एक जग गरम पानी की मांग की, सबको खाने के बाद दुंगा कहकर गए अजब दा अब पानी लेकर फिर से दरवाज़े पर थे। 

पानी दिया, शुभ रात्रि कह अजब दा बोले अब कल सुबह मिलते हैं, अभी जरा देर में डाक्टर साहब आयेंगे, फिर आप लोग भी आराम से सो जाना कहकर चल दिए।


फिर कुछ देर बाद यही कोई 9 बजे डाक्टर साहब ने दरवाज़े पर दस्तक दी, फिर हमारा रूटीन चैक कर, ठीक है कह आगे बढ़चले।
हमने भी दरवाज़ा बंद किया और वापस अपनी चारपाई में बैठ बातें करने लगे। 
फिर वही फोन की घंटी बजी रात 11 बजे तक यही चलता रहा। फिर आंखों में नीद का भारीपन भी महसूस होने लगा, फोन स्विच ऑफ़ कर एक दूसरे को गुड नाइट कह सोने की कोशिश करने लगे, पता नही कब आंख लगी और सुबह दरवाज़े पर हो रही आहट से ही नींद खुली, अब हमें अंदाज़ा था की बाहर इस वक्त कौन होगा। अगले दो दिन यही नियमित चलता रहा। मानो लग ही नही रहा हो कि हम एक कमरें में कैद हैं। 


समय का पहिया चलता रहा अब कुछ फोन कम होने लगे समय ज़्यादा लगने लगा क्या करें सी स्थिति बनने लगी। फिर कुछ किताबों के पन्ने पलटे, कुछ ऑनलाइन साहित्य पढ़ा। कमरें में लगी टीवी का भी समय-समय पर भरपूर आनन्द लिया। 
यही हमारी नियमित दिनचर्या चल रही थी। वैसे आपको बताना चाहूँगा कि हम अपना समय काटने के लिए कमरें में नियमित झाड़ू लगाते थे। जिससे हमें कमरें के अंदर एक सकारात्मकता का आभास होता था। कहते हैं ना रोगी को रोग से लड़ने के लिए साफ़ वातावरण का होना अति आवश्यक है। वही सब माहौल तैयार करने की हम दोनो हर सम्भव कोशिश करते रहते थे। जितना भी कर पाए उसमें खुशी बहुत थी। 

वैसे एक बात में आपको बताना चाहता हूँ कि संस्थागत आइसोलेशन या आइसोलेशन में लोगों का कहना था कि खाना अच्छा नही था। कुछ शिकायतें मेरे पास भी पहुंची, वैसे मैं कभी भी खाने की बुराई नही करता हूँ, यहाँ पर सभी को हर दिन अलग-अलग तरह  खाना खिलाया जा रहा था। नाश्ते में कभी बटर टोस्ट, प्लेन पराठे, आलू के पराठे, पोहा, मड़वे का ढ़ोसा, रोटी-शब्जी, दूध इत्यादि, दिन के खाने में दाल, चावल, रोटी, शब्जी, अचार, भट्ट के डुबके -भात, कड़ी चावल, राजमा चावल, वेज पुलाव इत्यादि, ऐसे ही रात के खाने में भी हर रोज़ अलग-अलग शब्जी के साथ रोटी, दाल, चावल दिया जाता था। मुझे लगा ही नही कि मैं घर से बाहर हूँ। साफ सफाई का पूरा ध्यान रखते हुए अच्छा प्रबन्ध किया गया था। 



यही हमारी दिनचर्या बनी रही दस दिन तक, इस बीच दो बार मेरे शरीर का ताप भी बढ़ा, चिंताए बढ़ने लगी। सबसे कहता रहा ठीक हूँ पर अन्दर ही अन्दर डर भी बहुत था। डाक्टर ने पैरासीटमॉल दिन में तीन डोज़ खाने को कहा। डर लगने लगा, कई तरह के ख्याल डराने लगे, कुछ समझ नही आ रहा था। किसको कहें वो भी समझ से परे था। इस बीच कई बार टूटन महसूस की, फिर खुद को सम्भालने की कोसिस की। कमरें में एक दूसरे ने ख़ूब हिम्मत बढ़ाई सब की, अग़ल-बगल के लोगों से भी कहते रहते थे की चिंता मत करो, आराम करो, सब ठीक होगा। कहते हैं ना खुद के मन को खुद ही समझाना पड़ता है, वही हम दोनो ने किया।  

एक दो दिन बाद फिर शरीर का ताप सामान्य हो चला थोड़ा सुकून मिला, अब चिन्ता की कोई बात नही थी क्यूँकि अब एक हफ़्ते से ज्यादा समय बीत गया था। ज्यूँ-ज्यूँ दिन बीत रहे थे तो मन में ख़ुशी हो रही थी कि जल्द में भी यहाँ से घर जाऊँगा, माँ से मिलूँगा, दोस्तों से मिलूँगा, कोरोना के बारे में बात करुंगा वग़ैरह-वग़ैरह। वैसे ये भाव हर कोई नही समझ सकता है, आज से पहले मैं भी नही समझता था, ऐसी बातें यदि कोई करे तो मज़ाक़ में टाल जाया करता था। 

वैसे इस बीच कोई ऐसा दिन नही था जब मैंने माँ से बात नही की, हर रोज माँ कहती अपना ख्याल रखना, ठीक से अपना इलाज कराना, फिर उसका गला भर आता ! बस महसूस कर पाता हूँ, मैं ठीक है आप भी अपना ख्याल रखना के अलावा कुछ कह नही पाता था। वैसे मेरी माँ को सुनाई जरा कम पड़ता है तो वह अपनी बात बोलने के बाद फोन पर सामने वाले की बातें ठीक से सुन नही पाती हैं तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं, उस वक्त क्या एक बेटे के मन में चल रहा होगा.......  

बस यूँ ही बेहतर कल के इंतज़ार में दिन बीतते रहे और हम दस पूरे होने का इंतज़ार करने लगे !! 

नौ दिन पूरे होने पर दसवाँ दिन हमको किसी पहाड़ से कम नही लग रहा था, जैसे- तैसे घड़ी में देख-देख समय बिता रहे थे पर ये आज कुछ ज्यादा ही लम्बा लग रहा था। 

सोच रहा था ————
वक़्त की वापसी नही होती,
घड़ी की सुइंया घुमा देने से।
तो.....
मैं ऐसा क्या गुनाह करू कि,
अपनों की कैद में वापस चला जाऊ !!

खैर जैसे-तैसे दिन बीता रात हुई, सुबह के हंसी इंतज़ार में खोयें जाने कब आँख लग गई पता ही नही चला.......




क्रमशः जारी —— ❣

3 comments:

  1. Nice.. definitely it was a tough time time bt u knw its life jab tak cheezain face nhi krnge tab tak aage nhi padh payenge....happy to see you back healthy..tc

    ReplyDelete
  2. Nice.. definitely it was a tough time bt u knw its life jab tak cheezain face nhi krnge tab tak aage nhi badh payenge....happy to see you back healthy..tc

    ReplyDelete