आज दुनिया में कोरोना ने एक साथ तीन बड़े बदलाव की नींव डाल दी है। जहाँ इस महामारी से पूरी दुनिया के समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीति अब पहले जैसे नहीं रह जाएंगे। ऐसा नहीं कि ये बदलाव बीमारी पर काबू पाने तक ही रहेंगे। भविष्य में भी थोड़े-बहुत सुधारों के साथ ये दिखेंगे। जब दुनिया और उसकी सियासत बदलेगी, तो भारतीय राजनीति भला कैसे बची रह सकती है। बहुत मुमकिन है कि कोविड-19 से पैदा लोगों का डर और डर की राजनीति केंद्र में आएं।
अभी नेताओं के नारों में बिजली, सड़क, पानी, फ़्लाइओवर और विकास की बातें होती हैं। अब आगे हो सकता है ये मास्क, वेंटिलेटर, दवाओं और दूसरे मेडिकल इक्विपमेंट के इर्द-गिर्द घूमने लगें। भारतीय राजनीति के दो सबसे अहम शब्द ‘विकास’ और ‘जाति’ को कोरोना काल में ‘वायरस’ और ‘जैविक देह’ रिप्लेस कर दें, ऐसा अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
♦️पैमाने बदल जाएंगे —
अगर हमारी राजनीति में ‘विकास’ का आगे ज़िक्र भी आएगा, तो उसके इर्द-गिर्द मौजूदा वक़्त और भविष्य के वायरल अटैक से बचने की तैयारी और नाकामी की बातें ज़्यादा होगी। आने वाले दिनों में आम आदमी की सेहत की चिंता हमारे राजनीतिक विमर्श का सबसे ज़रूरी सवाल बनकर उभरेगी। इस सवाल के ज़रिए यह पूछा जाएगा कि ग़रीब-गुरबा और दबाए-सताए गए लोगों की जगह क्या है और क्या होनी चाहिए। इन सवालों के जवाब ही भारत में लोकतांत्रिक विमर्श की दशा और दिशा तय करेंगे।
इस विमर्श में नेताओं की योग्यता के पैमाने बदल जाएंगे। आने वाले चुनावों में देखा जाएगा या यूँ कहें देखा जायेगा कि किस राजनीतिक दल, नेता और मुख्यमंत्री ने कोरोना संकट का सामना प्रभावी ढंग से किया। किसने महामारी के फैलने की रफ़्तार को मजबूती से थामा। किसने इस आपदा का सामना करने के लिए अपने राज्य के मेडिकल इंफ़्रास्ट्रक्चर में तेज़ी से जरूरी बदलाव किए। इन पैमानों के आधार पर ही हमारी राजनीति और हमारे नेताओं की लोकप्रियता तय होगी। जनता किसके पक्ष में एकजुट होगी, इसके लिए भी कसौटी बदलेगी। सवाल उठेगा कि महामारी के दौरान किसने ग़रीब तबके की समस्याओं को संज़ीदगी से लिया। किसने उन तक सरकारी या दूसरे ज़रिए से मदद पहुंचाई। किसने इन भयानक दिनों में ग़रीब और मजबूर लोगों को ध्यान में रखकर नीतियां बनाईं। यह भी देखा जाएगा कि सबसे तेज़ पहल किसने की और कौन पीछे रह गया।
♦️समाज और बंटेगा —
दूसरी महामारियों की तरह कोरोना भी पहले से बंटे हुए हमारे समाजों को और बांटेगा। ग़रीबी और अमीरी की खाई और चौड़ी होगी। ‘ग़रीब’ शब्द के बहुत गहरे और प्रभावी राजनीतिक मायने सामने आएंगे। दलितों के मुद्दे महत्वपूर्ण तो रहेंगे, लेकिन मुमकिन है कि बहुत हद तक वे ‘ग़रीब’ और ‘ग़रीबी’ में जज़्ब होकर रह जाएं।
इसके साथ ही नई सामाजिक पहचान उभरेगी। पुरानी पहचान नई सूरत अख़्तियार कर सकती है। राजनीतिक विमर्श में ‘प्रवासी मज़दूर’ की एक नई कैटिगरी उभर सकती है। महामारी और इससे आया डर भारतीय समाज में माइग्रेशन की सहज प्रक्रिया को नुकसान पहुंचाएगा। प्रवासी मज़दूरों के मुद्दे राजनीति में महत्वपूर्ण होकर उभरेंगे।
♦️प्रवासी तय करेंगे देश व प्रदेश की राजनीति में मुद्दे —
2011 की जनगणना के आंकड़े देखें तो 34 करोड़ से अधिक प्रवासी, उनके घर-परिवार, रिश्तेदार, सब मिलकर भारतीय समाज में एक प्रभावी वोट बैंक के रूप में चुनावी राजनीति में उभर सकते हैं। हिंदी क्षेत्र, ख़ासतौर पर उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के अलावा उत्तराखंड की राजनीति में इन प्रवासी मज़दूरों के सवाल चुनावी लिहाज से अहम हो सकते हैं। इन राज्यों से बड़ी संख्या में प्रवासी महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली और हरियाणा जाते हैं। यह जनसंख्या अपने परिवार, नाते-रिश्तेदारों के साथ मिलकर लोकतांत्रिक दबाव बनाने वाले एक बड़े समूह के रूप में उभर सकती है।
कोरोना के दिनों में भी प्रवासी की दशा, उनकी घर वापसी, उनके दुर्दिन और उन्हें सहयोग करने की राजनीतिक रणनीतियां बताती हैं कि आने वाली चुनावी जंग में ‘प्रवासी’ एक प्रभावी सामाजिक और राजनीतिक पहचान बनकर उभरेंगे। जिसे राजनीतिक सलाहकार भी अहम मानते हैं। फ़र्श से अर्श तक की राजनीतिक उठापटक में प्रवासियों का महत्वपूर्ण योगदान होने की संभावनाओं से इनकार नही किया जा सकता है।
♦️अब हमारी आदत में शामिल होगी ‘दूरी’ —
दुनिया के कई अर्थशास्त्री कोरोना के बाद भयावह आर्थिक मंदी और ग़रीबी की एक नई महामारी की आहट साफ़-साफ़ सुन रहे हैं। ऐसे में भारत की सियासत में संगठित और असंगठित मज़दूरों का सवाल भी अहम होने वाला है। इसमें एक फ़र्क़ आ सकता है कि नए संदर्भ में राजनीतिक दल अपनी लेबर यूनियन की बजाय सीधे ही मज़दूरों को संगठित करेंगे।
ऐसा इसलिए होगा क्योंकि मज़दूर संगठन अब पहले की तरह प्रभावी नहीं रहे। यह साफ़ महसूस हो रहा है कि मज़दूरों का सवाल भारतीय राजनीति के कुछ मूल सवालों में से एक होकर उभर सकता है।
इसी तरह राजनीति का डॉक्टरीकरण और डॉक्टरी का राजनीतिकरण भी देखने को मिल सकता है। हममें से कई लोग ख़ुद को जातीय पहचान से थोड़ा अलग कर एक ‘जैविक देह’ के रूप में देखने लगेंगे।
इसके कारण भारतीय समाज में इंसान और इंसान के रूप में सोशल डिस्टेंसिंग की सामाजिक आदत पैदा हो सकती है। बहुत मुमकिन है कि यह आपदा जाति और जाति के बीच छूआछूत को कम कर आदमी और आदमी के बीच सामाजिक दूरी को लंबे समय के लिए आदत में बदल दे।
✍🏻®️
No comments:
Post a Comment