आज हमारे समाज में फैली कुछ अफ़वाहों को आपके सम्मुख लाने का छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ, आशा करता हूँ आप समाज में बदलाव के लिए सकारात्मक रुख इख़्तियार करेंगे, जिससे किसी भी भाई को मानसिक अवसाद में जाने से बचाया जा सके......
क्या बिजली, सड़क, पानी और आर्थिक विकास के आंकड़े किसी देश के विकास का पैमाना तय कर सकते हैं? शायद नही क्योंकि इनके साथ हमारा मानसिक विकास होना भी जरूरी है, जिसमें शायद अभी हम पीछे हैं? हमारा समाज मानसिक रूप से आज भी विकसित नहीं हो पाया है।
मैं बात कर रहा हूं उस मानसिकता की जिसके कारण आज हमारे समाज में अधिकतर सुनाई पड़ने वाली उन बातों की जिससे लगभग हर कोरोना पॉजिटिव व्यक्ति को गुजरना पड़ा है। आज समाज मैं देखने सुनने को मिल रहा है कि कोरोना पॉजिटिव व्यक्ति के हमारा समाज हमारी सभ्यता व संस्कृति के ठीक विपरीत बर्ताव कर रहे हैं। क्या ये सब ठीक है, अल्मोड़ा जैसे शहर के हमारे मित्रों ने बताया कि वहाँ हालत बहुत बुरे हैं, समाज में भेदभाव का अत्यधिक बोलबाला देखने को मिल रहा है, यही हालत हमारे पहाड़ी अंचलो के भी सामने आ रहे हैं ।
बड़ा दुःख होता है जब हमारा समाज हमारे अपनो के साथ ही ऐसा दुश्मनों सा बर्ताव करने लगता है। मेरे एक मित्र ne बताया कि मेरे कोरोना पॉजिटिव होने के बाद मेरे घर ke आस पास के लोगों ने मेरे परिवार से इतनी अधिक दूरी बना ली कि बात करनी भी बंद कर दी, आना जाना, हालचाल पूछना तो बहुत दूर की बात है । वैसे मैं अपने गाँव घर पर हर किसी की दुःख- तकलीफ़, अच्छे-बुरे काम सब में समान तरीक़े से शामिल होता आया हूँ। आज मुझसे मेरे समाज की दूरी ने झकझोर दिया है, अन्दर तक मुझे हिला कर रख दिया है..... कब तक ख़ुद को संभल पाउँगा या कभी खुद को समझा भी पाउँगा या नही भगवान जाने।
वहीं एक दूसरा मामला मेरे सामने मेरे बगल के कमरें में रह रहे भाई ने प्रस्तुत किया, उसने बताया कि जो कल तक मुझे रोज़ फोन कर शाम की व्यवस्थाओं को लेकर बात करते थे, बिना मेरे पार्टी नही करते थे, जरा देर हो आने में तो मेरा इंतज़ार भी कर लिया करते थे। मेरे कोरोना पॉजिटिव आने कि खबर से मानो जैसे भूमिगत हो गए हो, किसी मेरा हाल पूछने तक की जेहमत नही उठाई। खुद को मेरा दोस्त कहने वाले सभी मेरे साथियों ने इस संकट के समय मेरा साथ छोड़ दिया है। उसकी इस पीड़ा का अंदाज़ा लगा पाना कितना मुश्किल है आप खुद ही सोच कर देखिएगा। आँखे बंद करोगे तो उस दर्द को भी महसूस कर सकोगे........
एक साथी ने अपनी आपबीती बताते हुए कहा कि मेरे 10+7+7 का आइसोलेशन पीरियड पूरा होने के बाद भी लोग मुझसे मुँह फेरते, रास्ता बदलते व भागते नजर आए। उनमें अधिकतर हमारे समाज का पढ़ालिखा तबका था। इस तरह की सामाजिक तिरस्कार की पीढ़ा का अंदाज़ा लगा पाना शायद मेरे लिए सम्भव नही है, ये सब सुन मैं बहुत दुःखी था और आज लिखते समय एक बार फिर मेरी आँखे भर आई।
वहीं कुछ समय पूर्व जो हमारे अपने भाई प्रवासी का तमगा लिए हमारे बीच आए और उन्होंने कई तरह की परेशानियों का सामना किया उसके बावजूद आज वो भी हमारे कोरोना पॉजिटिव भाई की पीड़ा समझने को तैंयार नही हैं। हमारे समाज में कहीं-कहीं सुनने में यहाँ तक आया कि प्रवासी भाई कहे कि हमारे तो बाल-बच्चे हैं, इनका क्या है, इनसे कौन कह रहा है घर से बाहर निकलो, अपने साथ गाँव को भी ले डूबेंगे साले.......
इन बातों को सुन मुझे भी बड़ा धक्का सा लगा, मैं उन प्रवासी भाईयों को याद दिलाना चाहता हूँ कि ये वही आपके अपने लोग हैं जिन्होंने आपको उस वक्त स्वीकार किया है जब खतरा आज से कई गुना ज़्यादा था, साथ ही भय भी.... आज यदि हम हम इसकी चपेट में हैं तो कल आप भी हो सकते हैं तब का भी ख्याल कीजियेगा जनाब, समय का चक्र है बहुत जल्दी बदलता है।
इतिहास के अतीत में यदि हम देखे तो हमारे समाज ने आपसी मेलजोल व प्रेम से ही पूर्व की महामारियों व बीमारियों पर विजय हासिल की है। परन्तु आज हमारा समाज जहाँ सब कुछ छोड़ पश्चात सभ्यता की ओर बढ़ रहा है तो अंदाज़ा भी नही लगा सकते कि हमारी आने वाली पीढ़ी का समाज कैसा होगा। यह सोच कर ही मन कष्ट से भर उठता है क्या हमारी आने वाली पीढ़ी हर समय घरों पर ही कैद रहेगी, हमारे मेलों, धार्मिक आयोजनों, तीज त्योहारों का भला क्या दोष, जो आज उनसे हम सब दूरी बनाते जा रहे हैं, जिसे आने वाली पीढ़ी एक दिन भूल जाएगी। मुझे लगता है कि कहीं हमारी संस्कृति, सभ्यता के पश्चिमीकरण का जिम्मेदार मैं स्वयं तो नही ? जो हालत आज हमारे समाज की दिखाई दे रही है उसके आने वाले कल की कल्पना से ही मन घबराने लगता है।
क्या ऐसी घटनाएँ एक देश, जो विकास के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहता है, उस पर यह एक प्रश्नचिन्ह नहीं है?
आज भी हमारे समाज में अधिकतर लोगों को अपनी मर्ज़ी से जीने का अधिकार नहीं है। ऐसे माहौल को देखते हुए वो लोग घर से निकलने से पहले कई बार सोचते हैं। वो क्या कहेगा? वो क्या सोचेगा? कभी-कभी हमें लगता है कि हम किस समाज में जी रहे हैं! ऐसा समाज जो पूरी तरह से सड़-गल चुका है, जिसकी मानसिकता से बदबू आ रही है। ऐसी बदबू जिसका ज़हर धीरे-धीरे इंसानियत को खत्म कर रहा है।
आज हम दोहरी मानसिकता में जी रहे हैं, हम केवल अपने स्वार्थ, अपने हित के लिए ही बोलते हैं। दूसरे के साथ हुई घटना का हमारे जीवन पर कोई असर नहीं होता। दूसरे के दुख को हम महसूस करना नहीं चाहते हैं। शायद इसीलिए आज अधिकतर लोग अपने आस-पास कोरोना पॉज़िटिव व्यक्ति के घर से बाहर निकलने पर उससे भेदभाव की नज़रों se देख रहे हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि यदि कोई घटना घटती है तो समाज का कोई व्यक्ति उस पर नहीं बोलेगा। हर किसी के ज़हन में मदद करने से पहले एक ही सवाल होगा, ये तो दूसरे का मामला है, फिर मैं क्यूं बोलूं?
एक लोकतांत्रिक देश में इतने अधिकार होने के बाद भी किसी को यह अधिकार किसने दे दिया कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे पर अत्याचार कर सकता है? कोई व्यक्ति किसी दूसरे को अपने अनुरूप जीने पर कैसे विवश कर सकता है, शायद कहीं ना कहीं हम उस सभ्यता का हिस्सा होते जा रहे हैं जो हैवानियत पर भरोसा करती है। जिसमें व्यक्ति सिर्फ अपने लिए जीता है और अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए वह दूसरों के अधिकारों को अधिकार नहीं समझता।
आज मुझे समाज की ऐसी घटनाओं ने विवश कर दिया है, ये सोचने के लिए कि हम किस दिशा में जा रहे हैं? यदि समाज में अधिकार है तो सभी के लिए होने चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसमें समाज का प्रत्येक वर्ग एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करे। महिला और पुरूष के आधार पर भेद न हो। शायद फिर कहीं जाकर अधिकारों का असल मकसद पूर्ण होगा।आज हम शिक्षित होते हुए भी अनपढ़ बने बैठे हैं।
एक लड़की ने कहा कि “सर, हमारे साथ तो ऐसा नहीं होता और ना ही हमारे शहर में होता है, क़ोरोना संक्रमित होते ही रिश्तेदारों ने भी मुँह मोड़ लिया” इन शब्दों ने सीधा मेरे दिमाग पर प्रहार किया और मैं चुपचाप सोचता रहा की क्या यही सच है? वास्तव में किसी भी इंसान को किसी दूसरे इंसान की तकलीफ़, दुख दर्द का कोई एहसास नहीं होता। उसे लगता है कि शायद मैं सुरक्षित हूं और मेरे साथ ऐसी घटनाएँ कभी नहीं घट सकतीं। शायद हम सब भी यही सोचते हैं और इस तरह के गंभीर मुद्दों पर भी आवाज़ नहीं उठाते।
इस पर ये लाईन क्या खूब बैठती हैं—-
“जिसको जितनी ज़रूरत थी वो उतना ही मेरे साथ चला,
सुबह मैं काफ़िला लेकर चला था शाम को अकेला मिला।”
किसी को इतना भी न सताओ की वह किसी मानसिक अवसाद का शिकार बन बैठे। जिसका दुःखद परिणाम उसके परिवार को व बदनामी हमारे समाज को भुगतनी पड़े। हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है? क्या हमारी शिक्षा, हमारा, संविधान, कानून, न्याय, सब इतना कमजोर हो गया है कि हम अपने आस-पास की परिस्थितियों को समझ नहीं पाते, या उन परिस्थितियों को समझना नहीं चाहते और उन्हें अनदेखा कर देते हैं। अगर भविष्य में हमें अपनी युवा पीढ़ी को सभ्य और विकसित समाज का हिस्सा बनाना है, तो उनकी मानसिकता का बदलना बहुत ज़रूरी है। उनके लिए शिक्षा, समानता, न्याय आदि को उनके व्यवहार में लाना होगा, क्योंकि जब तक व्यवहारिक रूप से व्यक्ति शिक्षा का प्रयोग नहीं करेगा, वह ऐसे ही असभ्य समाज का हिस्सा रहेगा और अपने लिए ही जीने की कोशिश करेगा।हमें समाज के सोच पर काम करने की आवश्यकता है। मानसिकता बदल कर ही एक सभ्य समाज बनाया जा सकता है जिसके लिए वर्तमान शिक्षा प्रणाली को व्यवहारिक बनाने की आवश्यकता है।
यह बिलकुल सच है कि मानव मस्तिष्क खुद ही अनुशासन में रहने के लिए नहीं बने हैं। हमें कोई बाहरी शक्ति अनुशासन में रहने के लिए विवश करती है और जहां निगरानी में कमी हो, छूट हो, वहां धीरे-धीरे उच्छृखंलता पसर जाती है। हाल ही में लिस्बन में राजनीतिक मनोवैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय सोसायटी के वार्षिक अधिवेशन में बोलते हुए नामचीन प्रोफेसर शॉन रोजेनबर्ग ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि लोकतांत्रिक संस्थाओं का हृस हो रहा है और लोकतंत्र इस दिशा में बढ़ रहा है कि वह धीरे-धीरे समाप्त हो जाए। अब सोचो आपको यह सब सच होता हुआ नजर आयेगा...........
इधर हम जो बीमार और कुछ न कर पाने की सी हालत में हैं, और कुछ न कर सकें या नहीं उसे (कुदरत) को हैरानी से सांस रोककर ऐसा करते देख सकते हैं।
सत्ता के वे सारे अंग जिनका कभी गरीबों के दुख-तकलीफ से कुछ लेना-देना नहीं रहा बल्कि जिन्होंने उनके जख्मों पर हमेशा ही नमक छिड़कने का काम किया है, अब उनके बचाव में लगे हैं कि गरीबों में अगर बीमारी फैली तो अमीरों के लिए यह बड़ा खतरा होगा। अभी तक इस बीमारी से बचाव के लिए कोई सुरक्षा दीवार नहीं है, लेकिन जल्दी ही कोई न कोई बन ही जाएगी, जो बेशक किसी वैक्सीन की शक्ल में होगी और हमेशा की तरह इस पर सबसे पहला कब्जा उन्हीं का होगा जिनके हाथों में ताकत है और वही खेल एक बार फिर शुरू हो जाएगा– जो जितना अमीर होगा उसके जिंदा रहने की गुंजाइश भी उतनी ही ज्यादा होगी।
मेरे लिए यह अबूझ पहेली है कि सत्ता के ये सारे अंग, जिनके लिए विकास और सभ्यता का अर्थ हमेशा विध्वंस रहा है भला कैसे वायरस द्वारा बरपी तबाही को रोकने के लिए आज दिन-रात एक किए हुए हैं। विध्वंस का विचार परमाणु, रासायनिक और जैविक हथियारों का अंबार खड़ा करते समय भी उनके दिमागों में रहा है। इस विचार को वे तब भी गले लगाते रहे हैं जब वे तमाम देशों पर आर्थिक बंदिशें लागू कर उनकी जनता तक जीवन-रक्षक दवाओं की पहुंच रोकते रहे हैं।
यह विचार उन पर तब भी हावी रहा है जब वे लगातार इस ग्रह को नष्ट करने का काम इतनी तेजी से करते रहे हैं कि कोविड-19 द्वारा दुनिया भर में की जाने वाली बर्बादी तो बच्चों का खेल नज़र आयेगी। (हालांकि सच यह है कि वह बर्बादी पहले ही हो चुकी है, बस टेलीविजन पर उसे दिखाया नहीं गया)
महामारी फैलना कोई नई बात नहीं है, पर डिजिटल युग में ऐसा पहली बार हुआ है। हम राष्ट्रीय स्तर के तानाशाहों हितों को अंतरराष्ट्रीय स्तर के आपदा से पैसे बनाने वालों और डेटा इकठ्ठा करने वालों को साथ आता देख रहे हैं। हमारे देश में यह काम और भी तेजी से हो रहा है। फेसबुक ने भारत के सबसे बड़े फोन नेटवर्क वाली कंपनी जियो से एक करार किया है, जहां ये इसके 40 करोड़ वॉट्सऐप यूजर्स बेस को साझा करेगा।
मोदी जी की सिफारिश पर निगरानी/स्वास्थ्य संबंधी ऐप आरोग्य सेतु को अब तक छह करोड़ से ज्यादा लोग डाउनलोड कर चुके हैं। सरकारी कर्मचारियों के लिए इस ऐप को डाउनलोड करना अनिवार्य कर दिया गया है। परन्तु यह ऐप न सरकारी कर्मचारी को सतर्क करता नजर आया, न ही मुझ जैसे गैर सरकारी कर्मचारी को, इसलिए सबसे पहले मैंने यही ऐप अपने मोबाईल फोन से डिलीट किया।
अगर कोरोना से पहले हम बिना सोचे-समझे निगरानी (सर्विलांस) की ओर बढ़ रहे थे, तो अब डर के चलते भागकर इस सुपर सर्विलांस के शिकंजे में पहुंच रहे हैं- जहां हमसे अपना सब कुछ- हमारी निजता, हमारी गरिमा हमारी आजादी- सब देने को कहा जाए और खुद को नियंत्रित होने की स्वीकार्यता भी, आज लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी अगर हम तेजी से आगे नहीं बढ़े, तो निश्चित है कि हम हमेशा के लिए कैद हो जाएंगे।
हम इस कोरोना इंजन को हमेशा के लिए कैसे बंद करें? यही हमारा अगला काम है। वर्ना सभ्यता के पश्चिमीकरण को अपनाने की होड़ में कही हम खुद को न भुला बैठे। जिसका जिम्मेदार मैं स्वयं...
क्रमशः जारी —— ❣
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