Sunday, 4 August 2024

दोस्ती

दोस्ती, एक सलोना और सुहाना अहसास है, जो संसार के हर रिश्ते से अलग है। तमाम मौजूदा रिश्तों के जंजाल में यह मीठा रिश्ता एक ऐसा सत्य है जिसकी व्याख्या होना अभी भी बाकी है। व्याख्या का आकार बड़ा होता है। लेकिन गहराई के मामले में वह अनुभूति की बराबरी नहीं कर सकती। इसीलिए दोस्ती की कोई एक परिभाषा आजतक नहीं बन सकी। 


दोस्ती एक ऐसा आकाश है जिसमें प्यार का चंद्र मुस्कुराता है, रिश्तों की गर्माहट का सूर्य जगमगाता है और खुशियों के नटखट सितारे झिलमिलाते हैं। एक बेशकीमती पुस्तक है दोस्ती, जिसमें अंकित हर अक्षर, हीरे, मोती, नीलम, पन्ना, माणिक और पुखराज की तरह है, बहुमूल्य और तकदीर बदलने वाले। 
 
एक सुकोमल और गुलाबी रिश्ता है दोस्ती, छुई-मुई की नर्म पत्तियों-सा। अंगुली उठाने पर यह रिश्ता कुम्हला जाता है। इसलिए दोस्त बनाने से पहले अपने अन्तर्मन की चेतना पर विश्वास करना जरूरी है। 

ओशो ने क्या खूब कहा है “मैंने तुम्हें अपना मित्र कहा है, मैं वचन देता हूँ कि जब भी तुम्हें मेरी जरुरत होगी, मैं तुम्हारे पास आ जाऊँगा, बस मेरी जरूरत महसूस भर करो।”  

कमबख़्त ये उम्र तीस के बाद की बड़ी अजीब होती है !
ना बीस का जोश,
ना साठ की समझ,
ये हर तरह से गरीब होती है ।
ये उम्र तीस के बाद की बड़ी अजीब होती है !

सफेदी बालों से झांकने लगती है,
तेज दौड़े तो सांस हांफने लगती है !
टूटे ख्वाब, अधुरी ख्वाइशें,
सब मुँह तुम्हारा ताकने लगती है ।
खुशी इस बात की होती है
कि ये उम्र प्रायः सबको नसीब होती है ।
ये उम्र तीस के बाद की बड़ी अजीब होती है !

ना कोई हसीना 💃 मुस्कुरा के देखती है,
ना ही नजरों के तीर फेंकती है !
और आँखे लड़ भी जाये नसीब से
तो ये उम्र तुम्हें दायरे में रखती है ।
कदर नहीं थी जिसकी जवानी में,
वो पत्नी अब बड़ी करीब होती है ।🤣

ये उम्र तीस के बाद की बड़ी अजीब होती है !
वैसे, नजरिया बदलो तो
शुरू से, शुरुआत हो सकती है ।
आधी तो गुजर गयी,
आधी बेहतर गुजर सकती है ।
थोड़ा बालों को काला,
और दिल को हरा कर लो,
अधुरी ख्वाइशों से कोई समझौता कर लो !
जिन्दगी तो चलेगी अपनी रफ्तार से ही,
तुम बस अपनी रफ्तार काबू कर लो ।
फिर देखो ये कितनी खुशनसीब होती है,
ये उम्र तीस के बाद की बड़ी अजीब होती है !

आप सभी को मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!

सादर प्रणाम 🙏
@followers

Wednesday, 12 June 2024

पहाड़ का लड़का



उत्तराखंड, पहाड़ का लड़का दिल्ली में जाकर जवान होता है 
पहली बार क्लीवेज को नजदीक से देखता है

तपती धूप में लड़कियों के गुजरने से परफ्यूम की स्मेल 
से सीने को ठंडक मिल जाता है 

लड़की ही नहीं लड़को को देखकर भी रुक जाते हैं 
कुछ जिम जाने का प्लान करते हैं कुछ सिर्फ प्रोटीन खाते हैं




मेट्रो में टिकट स्कैन करके ट्रेन पकड़ कर खुश हो जाता है 
मोमो और कुलचे पर पॉकेट ढीली कर 
सिगरेट के धुएँ का छल्ला उड़ाता है 

भाई को भई और महिला मित्र को बंदी बोलना सीख जाता है 
दिल्ली मे पढ़ने गया लड़का 
आईटी सेक्टर में जॉब पकड़ लेता है 

कोई लेखक बन जाता है, या खुद को मान लेता है 
क्युकी साहित्य तो गांव गांव में है 
लेकिन दिल्ली में साहित्य का भी मेला लगता है 
जिसमे पहुंचती है सधी संवरी इंटेलेक्चुअल महिलाएं 
जिनसे निकलता आकर्षण और ग्लैमर इनको कलम 
पकड़ने पर विवश करता है 

फिर ये फेसबुक पर आते हैं, 
लिखते हैं 4- 5 वाक्य का छोटी-मोटी
कविता, या कई पैसे वाले तो पब्लिश भी करा लेते हैं 
ज्यादातर लिखते है ये महिलाओ के मूल पर
बनाते हैं कल्पनाएं धूल पर 
शर्ट छोड़ ढीली टीशर्ट अपना लेते हैं 
एक बैग, ब्लूटूथ और पानी का बॉटल साथ रखते हैं 
एक दिन इनको लौटना होता है अपना गांव 
ये आ तो जाते हैं 
लेकिन आखिरी सांस तक दिल्ली आंखों से बहकर रोता है 
उत्तराखंड, पहाड़ का लड़का दिल्ली में जाकर जवान होता है।

Thursday, 6 June 2024

ये दुनिया बड़ी



जब कभी बचपन के दोस्त बरसों बाद मिले और बात करते-करते अचानक कह उठे तुम कितना बदल गए हो तो चौंकना लाजमी है। उसकी बात सुन मैंने ज़रा सा हँसकर कहा वज़न और बढ़ गया न मेरा। अब झुर्रियां भी पड़ने लगी हैं। उसने कहा नहीं-नहीं यह सब नहीं पर तुम वह नहीं हो जो पहले थे, बस मैं वह चीज़ पकड़ नहीं पा रहा..

कितनी दुनियावी बातें थीं जिन्हें सुनकर आँखें फैल जाती थीं। कितनी चुगलियां, शिकायतें थीं जिनमें रस मिलता था। रोज़मर्रा के काम, काम की परेशानियां, दुनिया को जीतने या उससे हार जाने का मलाल। अब कुछ नहीं हैरान करता, किसी जगह मन नहीं टिकता। लगता है यही तो जीवन है। अब प्रॉब्लम यह कि हम यह बातें न करें तो क्या बातें करें, मुझे इनमें रस नहीं मिलता। दोस्त के पास इसके सिवाय कोई बात ही नहीं। वह बरसों पहले जहाँ था वहीं रुका है, मैं वहाँ से जाने किधर भटक गया हूँ। अब कम बोलने का जी करता है, ख़ासकर शिकायतें, चुगलियां, ज़िन्दगी का रोना, रोज़मर्रा के काम, रुपये पैसे...इनपर एकदम चुप हो जाता हूँ।


"मैं बहुत-सी दुनिया देखना चाहता हूँ लेकिन उसके लिए किया जाने वाला दीवानापन मुझमें नहीं। मैं हद दर्जे का घुमक्कड़ भी नही। यूँ पलंग पर पड़े रहना और सिर्फ़ सोचना, ये काम बखूबी होता मुझसे। बस, ट्रेन पकड़कर सौ किलोमीटर दूर जाने में भी मेरी जान जाती। मैं खूब लिखना चाहता तो हूँ लेकिन कैसे और क्या? मेरे हाथों भाव फिसल जाते और अपने भी। कोई इंटेंस फीलींग को पकड़कर रखना चाहता हूँ, जैसे पुराने अलबम में पिन से टाँके गए फूल। लेकिन वो एहसास जब तक ठोस होता उसके बाहरी किनारे उधड़ने लगते।"

"किसी दिन दुनिया ऐसे ही खत्म हो जाती है। पर कहाँ खत्म होती है। सब तो अनवरत चलता ही रहता है। किसी के भीतर ऐसे हरहराता अवसाद का समन्दर कि कुछ भी अच्छा न लगे? सबका प्यार, हवा, धूप, पानी, कोई मीठी मुँह घुलती मिठाई, नींद का नशा, जगे का सुहाना स्वाद। कुछ भी नहीं? दिमाग़ में कौन सा केमिकल उड़ जाता है, कौन सा सर्किट री वायर हो जाता है। क्या है जो एक हँसते-खेलते जीते आदमी को मुर्दा कर देता है?

और हम दूर से देखते क्या सोचते हैं कि फ़िलहाल हम उस दायरे के बाहर हैं। ये त्रासदी हम पर नहीं घटी, इस बार हम बच लिये ? उस महफूज जगह में खड़े हम अपने बचने का जश्न मनाते हैं? जीवन कई बार तकलीफ़ों की बड़ी-सी गठरी लादे फिरना है और बहुत बार उसे छुपाए चलना है अपनी छाती में। मौत का वो पल जहाँ सब पार है।

जीवन जीना बहुत बहादुरी का काम है। पर मालूम नहीं बहादुरी क्या होती है। उस काले-घने अवसाद के साये में जीना क्या होता है। जो अवसाद नहीं जानते, उसकी काली छाया नहीं जानते, उसका राख, स्वाद जुबान पर महसूस नहीं किया कभी, वो क्या जानते हैं ऐसे होना क्या होता होगा। भारी भीगे कम्बल के भीतर दम घुटने की छटपटाहट, किसी खाई में गिरते जाने का भयावह अहसास और ये कि अब कुछ भी, किसी भी चीज़ से कोई राब्ता नहीं। जैसे मौत कोई खूंखार चीता हो जो घात लगाए बैठा हो, अचानक दबे पाँव दबोच ले? “दुनिया बड़ी ज़ालिम है, जीवन और भी। हम आँख-कान-नाक दबाए ऑब्लिवियन के संसार में माया जीते हैं।"

मुझे किसी को बदलने के बदले ख़ुद को बदल लेना, समेट लेना आसान लगा। इस दुनियादारी में फिट होने की कोशिशों में हलकान होने के बजाय अंतरतम की यात्रा बेहतर विकल्प है। दोस्त को कैसे बताऊं कि मैं वही होते हुए भी वही नहीं हूँ और मेरे इस होने में मेरा कोई हाथ नहीं।

Monday, 3 June 2024

स.. समय



समय तेज होता है जब हम जल्दी कर रहे होते हैं।
और जब हम इंतजार कर रहे होते हैं तो बहुत धीमा लगता है।




जब हम खुश होते हैं तो समय कम होता है।
लेकिन यह बहुत लंबा लगता है जब हम अकेले होते हैं।

सफलता का आनंद लेते समय समय शानदार होता है।
एक असफल क्षण में समय व्यर्थ महसूस हुआ।

बहुत प्यार भरे दिलों में समय मधुर है।
लेकिन कड़वा है वह समय जो टूटे हुए दिल के पास है।

किसी स्वस्थ व्यक्ति के लिए समय कितना अच्छा है।
जबकि किसी के लिए जो बीमारी में है वह घातक है।

बस एक हवा की तरह, समय बीत जाता है।
यह हमें नीचे रख सकता है या हमें ऊंचा उठा सकता है।

फर्क नहीं पड़ता कि जिंदगी ने हमें कैसा भी समय दिया है।
हम जीते हैं, हम सीखेंगे और महसूस करेंगे कि वह समय कितना सार्थक था।

Monday, 13 May 2024

शब्द और सोच

शब्दों और सोच का ही अहम किरदार होता है। कभी हम समझ नहीं पाते हैं और कभी समझा नहीं पाते हैं। कुछ इस तरह से तुम मेरे साथ रहना, मैं तुम्हे लिखकर खुश रहूं और तुम पढ़कर हमेशा मुस्कुराते रहना।




"मैं तुम्हें अथाह प्रेम करती हूँ, मगर तुम मुझे हमेशा कष्ट ही देते हो। मैं जब भी तुम्हारे गले लगती हूँ, तुम मेरा बदन जला देते हो।" रोटी ने तवे से शिकायत की।

तवे ने आह भरते हुए कहा "काश! तुम मुझे दोषी मानने की बजाय सच्चाई जानने का प्रयास करती। सच तो यह है कि मैं उस वक़्त तक तुम पर कोई आँच नहीं आने देता जब तक कि मैं पूरी तरह जल नहीं जाता। तुम तक जो तपिश आती है वह मेरे जलने की होती है, मगर तुम इस ढंग से कभी सोच ही नहीं सकी। सोच का यही अंतर दुःख का कारण है।"

रोमांटिक होना छिछोरा होना नहीं होता। इंसान वही रोमांटिक हो सकता है जिसमें एहसास को समझने की कुव्वत हो। जिसमें जज़्बात हों, आरज़ू हों, भावनाएं हों, ज़िंदादिली हो, जो प्रेम को जीना जानता हो, जो देना जानता हो, जो बेइंतहा एहसासों से भरा हो, जिसमें आकाश जैसी विशालता हो, जिसमें फूलों की कोमलता ही नहीं उनकी सुगन्ध भी हो, जिसका वजूद बहुत नन्ही नन्ही चीज़ों से जुड़ा हो, जो शुक्र करना जानता हो, जो अलसाई हवा को भी तेज़ और सुवासित करना जानता हो, जो सूखे गुलाबों को भी महक से सराबोर करना जानता हो, जो मुस्कुराहटों में छिपे दर्द पहचान ले, जो फीके रंगों में चमक भर दे, जो भीड़ में भी हमें पहचान ले।

जब दुःख और कड़वी बातें दोनों ही सहन कर सको। तब समझ लीजिए के आप जीवन जीना सीख गए। उम्र का मोड चाहे कोई भी हो, बस धड़कनों में नशा ज़िंदगी जीने का होना चाहिए।

सुनो ए नौ जवान लड़कियों, घर से भाग मत जाना




वो आंखे जो सपनो के राजकुमार का ख्वाब देखती है, वो आंखें अक्सर यह भूल जाती हैं कि एक नए परिवार की जिम्मेवारी, एक बिल्कुल अलग माहौल भी उसी सपनों के राजकुमार से जुड़ा है और जब उनका वास्ता इन सबसे पड़ता है तो उन्हें बहुत सी शिकायतें होने लगती है। 


रिलेशनशिप क्या है? रिलेशनशिप का मतलब एक bf या gf वाला रिलेशनशिप ही नही होता। एक ऐसा रिलेशन, जिसमे दो लोग सिर्फ भावनाओं से एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। इक ऐसा रिश्ता जिस पर कोई सामाजिक मोहर या नाम नही होता मगर समाज के हर दिखावटी रिश्ते से बढ़कर फर्ज निभाया जाता है। एक ऐसा बंधन जिसमे आप एक दूसरे से जुड़े भी रहते है और आपकी आज़ादी पर भी किसी तरह की कोई पाबंदी नही रहती। वो एहसास जो आपको कभी तनहा नही रहने देता। 
ज़रूरी नही की कोई आपके साथ चल रहा है तभी साथ है।

अरे...

ज़रूरी तो ये है कि किसी की मौजूदगी आपको कभी अकेला महसूस ना होने दे। आपकी हँसी में जिसकी खुशी शामिल हो और आपके दर्द की नमी उसकी पलकों पर ठहर जाये। इक ऐसा रिलेशन जिसमे वादे नही होते, कसमें नही खायी जाती, बस एक एहसास जो दो लोगो को आपस में जोड़े रखता है। रिलेशन शिप का अंत ज़रूरी नही की शादी हो या हमेशा के लिए बिछड़ जाना या फिर तमाम उम्र का पछतावा। 

नही...

ये पछतावा नहीं,एक मीठी याद की तरह होता है। निश्चल निष्पाप पाक बंधन। जिसमे कोई सीमाएं नही है कोई रोक टोक नही है। सुगंधित इत्र की तरह महकने वाला एक रिश्ता जो हमारी आत्मा तक को अमरत्व सा प्रदान करता है। उम्र भर निभाया जाने वाला एक सुखद अहसास एक भरोसा, कि चाहे मेरे साथ कोई हो ना हो वो हमेशा होगा, एक विश्वास। जो आपको कभी कमज़ोर नही पड़ने देता। 

सुनो ए नौ जवान लड़कियों
पढ़ी लिखी सुंदर और समझदार लड़कियों
मत आओ बाहरी लड़कों की बातो के झांसों में
ये करेंगे तुमसे दिलों-जान की बातें
ये कहेंगे तुम्हे देंगे सुंदर जिंदगी जीने का मौका
और छीन लेंगे तुमसे जीने का भी मौका
ये तो इसी फिरात में रहते हैं
घर से भाग जाओ तुम कपड़े और जेवरात लेकर 
ताकि बना सके तुम्हे बलि का बकरा
और खुद खा सके बिरयानी तड़का
जागो ए नौ जवान लड़कियों 
खुद पर ना हावी होने दो इन उदंड लडको को 
क्यों ऐतबार करना है इनकी बातो पर 
जो मोबाइल पर करते है गुमराह करने की बाते 
फेस बुक ओर इंस्ट्राग्राम चलाकर करते है 
दिल फेक और आशिकी की बाते 
ये क्या होंगे तेरे अपने 
जो तेरे मां बाप और सगे संबंधी के भी नही लगते अपने 
ये क्या बंधेंगे तेरे प्यार के बंधन में
जो बांधना नही चाहते हैं शादी के बंधन में
जागो ए नौ जवान लड़कियों
पढ़ी लिखी और समझदार लड़कियों
मत धकेलो खुद को इन बदमाशो के जांजलो में
जो करते है तुम को अधनंगा
फिर खेलते है तुम्हारी भावनाओं से 
और जब मन भर जाता इनका 
तब टुकड़े करके फेक देते हड्डियों को नाले में
इतनी हिम्मत आयी इनको कहां से 
अगर न देती कोई लड़कियां इनका साथ
अगर वो होती अपने मां बाप के साथ 
प्रेम पूर्वक और मां बाप तथा समाज के सहयोग से 
अगर कोई लड़की ब्याह रचाए
और तब करे कोई लड़का ऐसी घटना 
तो समझ लेना उसी समय उस लड़के की होगी दुर्घटना 
सुनो ए नौ जवान लड़कियों
पढ़ी लिखी सुंदर और समझदार लड़कियों 
खुद को हो तुम्हारे जीवन पर नाज
और मरने के बाद भी तुम्हारे इज्जत पर आंच न हो 
और मां बाप की तुम शान कहलाओ। 

आप फ्रस्ट्रेशन का शिकार तब होते हैं जब आप मन ही मन जानते हैं कि आप अपनी क्षमता का पूरा पूरा उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। इसके उलट मुझे एक और बात लगती है कि आप फ्रस्ट्रेशन का शिकार तब भी होते हैं, जब आप अपनी योग्यता का पूरा पूरा इस्तेमाल एक ग़लत जगह कर रहे होते हैं। 

लेकिन आपके पास कोई और विकल्प नहीं होता। संबंध, नौकरी, पड़ोस हर वो चीज़ जो आपके आसपास है, उसमें जकड़ने की जबरदस्त क्षमता होती है। 

कबीर तो कह गए 'हीरा वहाँ न खोलिए, जहाँ कुंजड़ों की हाट'। पोटली में हीरा बांधे बांधे भी थकान होने लगती है, उसके बारे में क्या? अधिकांश टैलेंटेड व्यक्ति एक अभिशाप के साथ जीवन काटते हैं, उनके हुनर को आजीवन जौहरी न मिल पाने का। 

जे एस मिल कह गए हैं एक संतुष्ट शूकर की अपेक्षा एक असंतुष्ट मानव का जीवन श्रेष्ठतर है। बस यही उक्ति संतोष है!

इन सभी बातों में हमारा कोई भी सपना टूटा नही है बल्कि हमारे अपने ही सपने अधूरे भी थे औऱ अपरिपक्व भी थे, हमारी अपनी ही तैयारियां अधूरी थी इसलिए हमारी अपनी कोशिशें भी अधूरी थी। पर अफसोस इतनी छोटी सी बात समझने के लिए हमें एक ज़िन्दगी भी कम पड़ जाती है।

Saturday, 2 March 2024

"कैसे हो?"


दोस्त तुम्हारे सन्देशों का इंतजार रहता है, यूँ जैसे कोई कुम्हार के चाक पर चलती हुई कच्ची मिट्टी को कुम्हार की थाप का इंतजार, जिससे वो ले सके कोई सार्थक आकार। जबकि कच्ची मिट्टी जानती है, आकार लेने के बाद उसे अलाव में तपना भी है। 

पपीहे का इंतजार मुझे नहीं पता कैसा होता है ? पर जिस तरह पीहर (अपनी माँ के घर) जाती हुई औरत को बस में किसी गांव के पहचाने हुए चेहरे का इंतजार रहता है। ठीक वैसा ही तुम्हारे जवाब का इंतजार रहता है।

जब हर बात की शुरुआत पे तुम पूछते हो “कैसे हो?”
मैं लिखता हूँ "ठीक हूँ"
पर ये लिखते हुए, अफ़सोस चबा जाती हैं मेरी ऊंगलियां, के तुमने ये मुझसे कभी पहले फ़ुरसत में पूछा होता
क्योंकि मुझे सारे काम छोड़ कर कोसों दूर से लौटना पड़ता है अपने पास, तुम्हें ये बताने के लिए की मैं असल में कैसा हूँ।


फिर तुम कहते हो "सब बढ़िया ना?"
मैं लिखता हूँ "हाँ, सब बढ़िया है",
और मुक़्त महसूस करने के लिए इंतज़ार करने लगता हूँ, तुम्हारी औपचारिकताओं के ख़त्म होने का।

तुम कहते हो "कोई परेशानी तो नहीं है ना तुम्हें, सच-सच बताना"
तुम्हारे सवालों की दस्तक मेरे अंतर्मन पर धड़धड़ाने लगती है, एक पल के लिये मैं सहम सा जाता हूँ, और बीनने लगता हूँ टुकड़े अपने हाल के।

"सच" शब्द बहुत सताता है मुझको, मैं आज तक नही समझ पाया कि कब कौन से ‘सच’ को सच में बताना होता है कौन से ‘सच’ को झुठलाना होता है।

फिर मैं सोचने लग जाता हूँ अपने हर उस अधूरेपन को, अपनी हर उस कसक को जिसे ढो कर मैं जी रहा हूँ और अगले ही क्षण अपनी वास्तविकता में वापस आ कर सधे हाथों से लिख देता हूँ, "हां, कोई परेशानी नहीं, सब ठीक-ठाक।"

प्रेम से लगायी गई अपनी आकांक्षाओं के पर काटता हूँ और दिल को समझाता हूँ की, ये सिलसिला भी क्या कम है? इसी को जी ले प्रेम समझ कर।

दिल को सीखा-पढ़ा कर प्रार्थना करता हूँ की, 
कि तुम पूछते रहो हमेशा "कैसे हो?"
और मैं कहता रहूं हमेशा "ठीक हूँ"।

समझदार बनाने की कसमें खाए बैठी है, ना जाने ज़िन्दगी किन इरादों को लिए बैठी है। फिसलती जा रही है अनवरत रेत सी, फिर भी दिल-ए-नादाँ को कुर्बान,ख्वाहिशों पर किए बैठी है।

Wednesday, 21 February 2024

पहली अनबन और सबसे पसंदीदा जगह



कहते हैं बड़ा नाजुक होता है हमारा मन, जो शब्दो से टूट जाता है और शब्द होते है जादूगर जिनसे मन को जोड़ा जाता है। इन्ही शब्दों में कभी मिठास भी होती है तो कभी कड़वाहट भी, तो कहीं जीवन तो कही जहर भी। 


मेरे आस पास हर वक्त कुछ न कुछ चल रहा होता है जैसे कोई सिनेमा या ड्रामा। यूँ तो अनेक ऐसे प्रसंग हैं इस रंगभूमि में किंतु कुछ ऐसे हैं जिन्हें शेयर करने की इच्छा रोक नहीं पाता। आज महिलाओं को लेकर दो क़िस्से आपको साझा करने जा रहा हूँ, उम्मीद है आप गौर फ़रमायेंगे। एक है नई नवेली दुल्हन जब ससुराल पहुँचती है उसकी “पहली अनबन” और दूसरी मुझे मेरे एक दोस्त ने भेजी है औरत कि अपने घर में “सबसे पसंदीदा जगह” कौन सी होती होगी? किसी को दिल पर लगे तो माफ करना दोस्त 🙏🏻

पहली—

पहली बार अनबन हुई थी तब मन कच्चा था दुल्हन का, बच्ची की तरह बिलख कर रोई थी। सास ने बेटे को कुछ नहीं कहा, बहू से कहा- मेरे घर के चार कोने हैं, तेरे घर का कोई कोना नहीं, जो जोर-जोर से रोएँ, जितना चाहे रो सकती है, लेकिन घर की बात बाहर पता नहीं चलनी चाहिए।

“उस औरत ने राई की तरह पल्ले से बाँधी थी बात बाहर की नजर तो नहीं लगी, हाँ खुद घुन लगे गेहूँ सी खोखली होती रही।”

कितनी बार पति ने गले पर हाथ कसकर कहा या तो जहर खा ले या घर छोड़ दे। उससे इतना भी ना कहा गया कि कैसे छोड़ दूं घर। इस घर से प्यार है मुझे, एक-एक चीज बड़े चाव से सजायी है। परदों, पंखों, सोफों पर कभी धूल तक नहीं बैठने दी। चोखट से आखरी कोने तक रोज पोछा लगाती हूँ झुक कर, खपकर, कमर दर्द में भी, घर मेरा नहीं पर मैं तो घर की हूँ बस चुप्पी मारे पडी रही। 


कितनी ही हिदायतें मिलती रही रोज औरतों को घर बसाना सीख ले, दूध की मलाई उतार घी की बचत हो सकती है, मजदूरों की चाय मीठी ज्यादा, दूध कम डाला कर, पंखा चलता छोड़ दिया, बिजली का बिल आता है। बचत करना सीख ले, बासी बची हुई रोटी खाया कर, अनाज पैसे में आता है सब्जियां बासी कर देती है, बाजार से आती हैं। कभी कमाकर लाकर देख तुम्हारे भले के लिए ही कहती हूँ।

“पता नहीं क्यों दुनिया भ्रम में है कि घर पैसों से बसते हैं मुझे तो लगता रहा घर सिर्फ औरतों की चुप्पियों से बसते हैं।”

दूसरी—

दोस्त आपने कभी सोचा है? कि एक औरत कि अपने घर में सबसे पसंदीदा जगह कौन सी होती होगी? शायद ध्यान नहीं गया होगा इस तरफ़ कभी आपका। कभी पल भर के लिए ये सोचिये तो ज़रा, ये वही जगह है जहाँ उसकी उम्र निकलती है लगभग। उस घर की रसोई। जी हाँ बिल्कुल ठीक समझे आप। उस घर की रसोई जहाँ वो आधे से ज्यादा वक्त गुजारती है। औरत के लिए वो रसोई सिर्फ मकान का एक हिस्सा नहीं होता। वो रसोई तो असल में उसकी सच्ची सखी होती है उसके लिए। एक ऐसी सखी जिसके साथ वो अपने जीवन के सारे राज़ साझा करती है हर रोज।

उस रसोई में खुद के सारे रंग बिखेर कर रखती है वो। अपनी खुशी, अपना दुःख, अपने आंसू, अपना गुस्सा, अपना असीम प्रेम और ना झेली जा सकने वाली बेसुरी आवाज भी, जिसमें वो गुनगुनाया करती है कुछ नगमे जो पसन्द है उसे हमेशा से।

इन सारे रंगों को सबकी नज़र से बचाकर रखने में मदद करती है उसकी वो सखी। जैसे उसकी मुस्कुराहट को खाने की खुशबू में बदल देती है, उसकी चहक को चाय की मिठास में घोल देती है, छुपा लेती है उसके आँसू जल्दी से प्याज के कसैले रस में। दबा देती है उसका गुस्सा मसाले के डब्बों में सबकी नज़र से बचाकर। आनंद देती है उसे इस बात का कि भले आवाज़ बेसुरी सही मग़र फ़िर भी किसी सुप्रसिद्ध गायिका से कम नहीं वो किसी तरह से ये यकीन दिलाती है उसकी सखी उसे और ये सिलसिला चलता रहता है यूँ ही हर रोज़, आजीवन। इसलिए यकीन मानिये एक औरत की सबसे अज़ीज़ जगह घर में रसोई ही होती है उसकी सच्ची संगी उसकी सखी।

अपना क्या? अपने को तो बस शब्द बुनने है, कहानियाँ गड़नी है। इस पर मुझे एक प्रसंग अनायास ही याद आता है... 

धर्म हमारी रक्षा और कल्याण के लिए है। अगर वह हमारी आत्मा को शांति और देह को सुख प्रदान नहीं करता, तो मैं उसे पुराने कोट की भाँति उतार फेंकना पसंद करूँगा। जो धर्म हमारी आत्मा का बंधन हो जाए। उससे जितना जल्द हम अपना गला छुड़ा लें, उतना ही अच्छा।

Monday, 12 February 2024

तोहफा



धुँध की एक महक होती है ये महक मुझे उस जहान में पहुंचा देती है जहां मैं इतना संतुष्ट होता हूं कि मेरी कोई इच्छा ही नहीं रह जाती। ठंड का मौसम मुझे बेहद पसंद है। इतना कि अगर सौदा करना हो तो मैं गर्मियों के तीन दिन दे कर सर्दी का एक दिन अपने पास रख लूं।


कोहरे से घिरे आसमान में दूर कहीं लाल रौशनी चमक रही होती है। वो रौशनी मेरी उम्मीदों का सूरज है। वो सूरज जो सबके लिए नहीं सिर्फ मेरे लिए चमकता है। ओस की बूंदें जब मेरे जिस्म पर पड़ती हैं तो लगता है जैसे मेरी आत्मा तक आनंद में भीग रही हो। मैं ठिठुरता हूं, सर्दी से मेरा बुरा हाल होता है, टोपी पहनना मुझे सजा लगती है लेकिन फिर भी मैं इस ठंड से मोहब्बत करता हूं। मोहब्बत ऐसी ही तो होती है। लाख खामियों के बाद भी जिसे पाने की ज़िद हो उसी से तो सच्ची मोहब्बत है। 

कभी कभी सोचता हूं कि कितना खुदगर्ज़ हूं मैं अपनी खुशी के लिए उन लोगों की परवाह नहीं करता जो हर साल सर्दी की वजह से मर जाते हैं लेकिन फिर मैं सोचता हूं आज के दौर में मरने के लिए सर्दी का इंतज़ार करता ही कौन है ? गर्मी मार रही है, भूख मार रही है, महामारी मार रही है, चिंताएं मार रही हैं, इंसान हर तरफ से तो मर ही रहा है फिर अगर मैंने जीने के लिए सर्दियों का सहारा ले लिया तो क्या ही बुरा किया। 

इन्हीं सर्दियों की किसी खूबसूरत शाम में मैं किसी खूबसूरत के साथ निकलना चाहता हूं सैर पर। हालांकि उसे सर्दियाँ बर्दाश्त नहीं होतीं हो मगर फिर भी मैं जाना चाहता हूं। मुझे यकीन है ये सर्दियाँ मेरी मोहब्बत की लाज रखेंगी। इसकी खूबसूरती इतनी ज़्यादा होगी कि वो कुछ देर के लिए भूल ही जाएगी कि उसे सर्दियाँ बर्दाश्त नहीं होतीं। मुझे भी तो हरी चाय (ग्रीनटी) बर्दाश्त नहीं होती लेकिन जब उसके साथ होता हूं तो सब बर्दाश्त हो जाता है ।   


इस मोहब्बत के बदले सर्दियाँ मुझे बस यही तोहफा दे दें कि हर साल इन सर्दियों में कम से कम एक शाम उसके साथ बिता सकूं। वो मेरे लिए सर्दियों को बर्दाश्त कर ले और मैं उसके लिए बिना घबराए एक कप हरी चाय पी सकूं। 

ज़्यादा मांगने पर ना मिलने की वजह दिखा देती है किस्मत लेकिन मैंने बहुत कम मांग है इसके लिए कोई बहाना नहीं चलेगा। उसे साथ सर्दियों की एक शाम और हरी चाय, इतना ही तो।

Monday, 5 February 2024

बागेश्वर की जलेबी



बागेश्वर में निलेश्वर-भीलेश्वर वैसे ही हैं जैसे बॉलीवुड में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल। एक-दूसरे से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर बसे निलेश्वर-भीलेश्वर दो अलग-अलग पर्वत शिखर हैं लेकिन इनका नाम अक्सर एक साथ ही लिया जाता है। जहां एक तरफ भगवान शंकर विराजमान हैं और एक छोटी पर जगतजन्नी माँ चण्डिका विराजमान हैं। इन्ही के सामने त्रिर्वेणी नदियों (सरयू, गोमती व अदृष्य सरस्वती) का संगम है जहां से हिमालय दर्शन होते हैं। इन्ही पर्वतों के बाद बागेश्वर में गावों की शुरुआत होती है। 

947 गांव मिलाकर बनाया गया एक शहर बागेश्वर। बागेश्वर काफी खूबसूरत शहर है लिहाजा इसे छोटी काशी के नाम से भी जाना जाता है। बागेश्वर फिर भी भारत की आधुनिक छांव का एक बड़ा हिस्सा समेटे हैं। मैं अपने बालपन में पहली बार जब बागेश्वर को एक शहर के आइने में देखने पंहुचा। हां मैं आज अपनी दृष्टि से बागेश्वर देखूं तो इसे मिनी काशी ही कहूंगा।


सुबह की शीतल बयार और सुनसान सड़क पर सन्नाटा पसरा। कितना जल्द ही यह शोरगुल से भर जायेगा। फिर बिन मंजिल ढूंढ़ते किसी टेंपो की तरह नहीं। इर्द गिर्द कई आवाजें घूमना शुरू हो जायेंगी। दुकानों के द्वार खुल जाएंगे। सब्जियां ठेलों पर चढ़ जाएंगी। फैशन के इस दौर में रंग बिरंगे साजो साज की चीजें भी बिकना शुरू हो जाएंगी और विशाल जनमानस शहर के मस्तिष्क में दिखेगा। बीते कुछ साल पहले मेरा मिनी स्विज़रलैंड भी जाना हुआ था। कौसानी बागेश्वर का नगीना है। उसके माथे पर चमकती बिंदी की तरह। वाह जैसे बागेश्वर की श्रृंगार घूंघट काढ़े कौसानी में विचरण कर रही हो। ऐसा ही कौसानी है।

लेकिन कौसानी सुमित्रा नंदन पंथ और महात्मा गांधी को आंखों में लिए बैठा है। कौसानी हिमालय शृंखला की लम्बी चौड़ी रेंज को लिए अपनी आंखों में बैठा है। बागेश्वर एक बहुत पुराना गुलदस्ता लिए हाथों में बैठा है। बागेश्वर शहर की भीड़ में कोई जोकर लिए राजकपूर खड़ा है। कोई सिगरेट जलाए कालिया का अमिताभ और कोई ढपली बजाकर लोगों को रिझाता किशोर कुमार। बागेश्वर अलग है बिल्कुल अलग। मेरी आंखों का बागेश्वर मुझे काशी में भी दिखेगा ये उस दिशा की ओर चलने पर ही अनुमान हो गया था।

कोहरा धीरे धीरे हटा। धुंध कमजोर हुई फिर एकदम भोर जो अंधेरे का चादर हटा रही थी उसकी नब्ज रुक गई। परत दर परत अब हीलियम और हाइड्रोजन के गुच्छे से निकली किरण धरा का आँगन चूमने आ रही थी। मैं बागेश्वर के उस दृश्य का चुम्बन कर रहा था, जो बागेश्वर के होंठों के भीतर था। धीरे धीरे जनसमूहों का संलयन होना शुरू हुआ। पान की ढाबली खुली, चूरन की दुकान भी। हाथों की मैल कई हाथों में लगना शुरू हुई, व्यापार का जमाव लोगों को इकट्ठा करने लगा और मैं भी अब धीरे धीरे अपना रुख अपनी मंज़िल की ओर करने लगा।

कई सारी पुरानी इमारतों से दो तल्ली से तीन तल्ली इमारतों को देखते देखते। एक सुगंध प्राणों तक जा पहुंची। चाशनी में लिप्त मेरे दृष्टि की यह उस समय की पहली दुकान थी। सुबह की मिठास बागेश्वर के मंगल (स्वर्गीय श्री मंगल सिंह परिहार जी) की जलेबी ने ताजा कर दी। वैसे जलेबी अमीनाबाद की बहुत मशहूर है, पर मेरे शहर बागेश्वर की जलेबी भी उससे मुझे कभी कमतर नही जान पड़ी। बागेश्वर की स्मृति को इस दुकान ने ताजा कर दिया। हम तीनों को देवभूमि उत्तराखंड ने ताजा कर दिया। तजुर्मन करीब पचास साल से भी ज्यादा पुराने इस मकान के नीचे ठीक चौराहे से थोड़ा पहले चाशनी में भीगी यह दुकान। एक सौ वाट का बल्ब और स्टोव की भारी आवाज जैसे उन्नीस सौ चौंतीस में लाहौर से लुधियाना रवाना हो रही भाप वाली रेलगाड़ी की तरह की आवाज कानों में पड़ रही हो और उस पीले प्रकाश में कढ़ाही में उबलती चाशनी। जिससे निकलने वाली भाप को दादा बार बार बड़े से झांझर से देखते। मुख में राम का नाम और साठ से भी ऊपर की उम्र में बहुत ही तीव्र स्फूर्ति प्रेरित कर उठी। माथे पर गोल चंदन और वह मकान मध्यकाल में घसीट ले गया।


लगा अभी आंखों से अपने गाँव को देख लूंगा। वही जहां अठरा सौ सत्तावन से लेकर आज तक आजादी के न जाने कितने नारे गूंजे होंगे। जहां से कुली बेगार प्रथा का अंत हुआ था। दादा की दुकान यहां थोड़ा अलग थी। दादा भगवान शंकर के भक्त थे सो दीवारों पर भगवान शंकर जी की तस्वीरें। जिनमें से हनुमान जी भी विराज मान और सभी देवी देवताओं के सम्मुख दीप प्रज्वलित होता हुआ। धूप की खुशबू से वाष्पित कोना कोना।

दादा से बातचीत शुरू करने का जी बनाया। दादा बहुत खुशी से मुझे इतिहास बताने लगे। भगवान शंकर का भक्त होने पर उन्होंने मुझे बताया शिव ही हैं जिन्होंने हमें संभाल रखा है। बागेश्वर शिव धाम है, सब उन्हीं की महिमा माया है। बताने लगे कि जब वे अपने गांव से यहां आए थे तब बागेश्वर जंगल था। कोई बहुत ज़्यादा दुकान नहीं थी, सिवाय दस-बारह के।आज हजारों दुकानें हैं। कौसानी के बारे में कहा कि मिनी स्विज़रलैंड है वहां जाना विदेश की धरती के दर्शन जैसा है। मैंने भी कहा दादा मैं जब लेखक बनूँगा तब आपकी जलेबी और दुकान पर कुछ लिखूंगा। दादा खुश हो गए भगवान शंकर से मेरे लिए दुआएं करने लगे। बेटा जलेबी तैयार कर लीं। उस वक्त दही और जलेबी ने मेरी आत्मा तृप्त कर दीं। मेरे साथ बागेश्वर तृप्त हुआ। दादा से आशीर्वाद लिया। फिर कभी मुलाकात करने की कह अपना झोला उठाया। पृथ्वी के चक्कर में अब बागेश्वर धीरे धीरे पूर्वार्द्ध जा रहा था और मैं उत्तरार्ध आगे की ओर बढ़ चला। 

यूं तो वहां से आज भी ज्यादा दूर नहीं आया था। लेकिन पीछे शायद सल्तनत छोड़ आया था। आज जब भी उस दुकान के पास से गुजरता हूँ तो मुझे वो मेरी पहली दही जलेबी और दादा की बातें याद आती हैं। अब न दादा रहे न ही वो जलेबी। गजब का दौर हुआ करता था जब दूर गाँव के लोग मिठाई के नाम पर मंगल की जलेबी ले कर त्योहार मनाया करते थे। उत्तरायणी में जलेबी लेने की तब लाईन लगा करती थी। वैसे हमारे पहाड़ों में एक रिवाज है जब भी हम कौतिक (मेला) जाते हैं तो वहां से लौटते वक्त घर में मौजूद सभी के लिए कुछ न कुछ कौतकी बान लेकर ज़ाया करते हैं। जलेबी से जुड़ी मेरी यादें अक्सर मुझे अतीत के उस मोड़ पर ले पहुँचती हैं जहां पहुंचने की बात मैंने तब कही थी, पर पहुंच अब तलक भी नही पाया हूँ। खैर मुझ जैसे घुमक्कड़ी का भी कोई एक ठौर होता है यह सोंच कर छनी हुई धूप और भून रहे आकाश संग मैं फिर एक बार हर बार की तरह उस जलेबी की मेरी पहली दुकान से आगे बढ़ चलता हूँ।

Wednesday, 17 January 2024

नदी का किनारा और उस पर बहता मन

नदी का किनारा और उस पर बहता मन 
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क्या हम उन चीज़ों को खो सकते हैं, जो महत्वपूर्ण हैं? मुझे लगता है कभी नहीं। महत्वपूर्ण चीजें हमेशा बनी रहती हैं। हम खोते केवल उन चीज़ों को हैं जो हमें लगता था कि महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वास्तव में बेकार थी, जैसे कि नकली ताकत जिसका इस्तेमाल हम प्यार की ऊर्जा पर काबू करने के लिए करते हैं।


क्यों, ओह, वह मुझसे बात क्यों नहीं करेगी? वह परेशान लग रही है। यह क्या हो सकता है? मैंने क्या कहा? मैंने क्या किया? मुझे किसी से पूछना चाहिए, लेकिन किससे? मैं अपना सिर खुजा रहा हूं, याद करने की कोशिश कर रहा हूं,

या शायद भूलने की बीमारी और आत्मसमर्पण का दिखावा करें? एक ऐसी घटना थी जिसने शायद उसे परेशान कर दिया होगा। मैंने सच्चा होने की कोशिश की, लेकिन मैं बेहतर कर सकता था। यही सब तो होता है जब हमारा दिमाग उधेड़बुन करता है। 

नदी किनारे बैठने से जैसे जमीन से रिश्ता टूट जाता है। घण्टों चुप बैठने के बाद सोचूँ कि इतनी देर क्या सोचा तो समझ नही आता। खुले आसमां के नीचे मन उड़ता-उड़ता गुजरे वक्त में पहुँच जाता है। मेरे कितने प्रिय लोगों के साथ कितना कुछ अप्रिय गुजर गया। कैसे बताऊँ कि उन संग क्या हुआ ? 

मेरे कितने अपने लोग इस दुनिया से हमेशा के लिए चले गए फिर भी मैं अपने मोबाइल से बरसों बाद भी, अब जब उनके मोबाइल नम्बर सर्विस में नही है, उनके नम्बर डिलीट नही कर पाया। कांटेक्ट लिस्ट में बेमतलब हो चुका उनका नाम उनके भौतिक अस्तित्व की खुरचन के रूप में मेरे पास है। 

मेरा मन गुजर चुके लोगों के लिए कम, उनके पीछे अकेले छूटे लोगों के लिए ज्यादा रोता है। किसी को अपना जीवन आधार बना लेना, उसके लिए दिन-रात व्याकुल रहना, अपनी हर खुशी में उसे ऐसे ढूँढना जैसे अंधेरे कमरे की दीवार में कोई स्वीच बोर्ड टटोले। 

कल्पना करिए उस कमरे में स्वीच बोर्ड ही ना हो। प्रेम साथ है तो रौशनी है। मगर बिछड़ जाए तो ? पीछे छूटे लोग जिनका जीने का सलीका हमेशा के लिए बदल गया के प्रति विकलता अधिक महसूस होती है। उनके लिए अब होली बदरंग हो गई, दिवाली मद्धम हो गई, पूरी दुनिया मरघट सी वीरान हो गयी। हर जश्न बेमतलब, हर कामयाबी बेमानी हो गई। स्मृतियों के प्रवाह में नदी किनारे बैठे उम्र का पानी उल्टी दिशा में बहने लगा । नदियाँ हजार परतों में छिपाकर रखा खालीपन बाहर ले आती है। एक ख्वाहिश है कि बागेश्वर का सरयू घाट (बगड़) हो और मैं लहरों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलूं और हाथ में मेरे भोले बाबा जी हाथ हो। हकीकत मे गर नही हो सकता तो ख्वाबों में ही एक मुलाकात हो। बहता पानी भीतर जाने क्या अवरुद्ध करता है ? नदी के पास कौन सी आदिम भाषा है जो वो हर बार अंतस को पुकार लेती है ? 

“घट गया क्या क़ुबूल करने में, 
मैं भी अव्वल हूँ भूल करने में।
जी भी कर सकते थे पर लगे हैं हम, 
ज़िंदगी को फ़ज़ूल करने में॥”

Tuesday, 16 January 2024

राम यत्र-तत्र, सर्वत्र हैं..


भारत में सबके अपने-अपने राम है। गांधी के राम अलग हैं, लोहिया के राम अलग, बाल्मीकि और तुलसी के राम में भी फर्क है। कबीर ने राम को जाना, तुलसी ने माना, निराला ने बखाना। राम एक है, पर राम के बारे में द्दष्टि सबकी अलग है। त्रेता युग के श्रीराम त्याग, शुचिता, मर्यादा, संबंधों और इन संबंधों से ऊपर मानवीय आदर्शों की वे प्रतिमूर्ति है, जिनका दृष्टांत आधुनिक युग में भी अनुकरण करने के लिए दिया जाता है। 


ऐसे ही अतीत की एक घटना अक्सर मुझे याद आती है। जितना मैं राम को पढ़ पाया उस आधार पर, राम रावण युद्ध अनवरत जारी था। एक दिन युद्ध भूमि में राम का रण कौशल क्षीण हो रहा था। वो जो भी बाण चलाते वह अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाता। भगवान राम को लगा कि अब पराजित हो जाऊंगा। 

तब भगवान राम युद्ध भूमि में दिव्य दृष्टि से देखे की वास्तव में आज क्या कारण है कि आज युद्ध में मेरा प्रभाव क्षीण हो रहा है। तो उन्होंने देखा कि ओह आज तो साक्षात मां दुर्गा (शक्ति) रावण के रथ पर आरूढ़ है। तब राम किसी भी तरह युद्ध की आचार संहिता अर्थात् सूर्यास्त तक इंतजार किए।

 युद्ध से लौटकर जब उस दिन राम रात्रि विश्राम के समय अपने सेना नायकों के साथ शिला पट्टा पर बैठे थे तो पहली बार उनके नेत्र से आंसू गिरे। इस घटना से आहत होकर जामवंत ने पूछा प्रभु क्या बात है आज आपके नेत्र से आँसू? इस पर राम ने मात्र इतना ही बोला कि अब ये युद्ध मैं जीत नहीं पाऊंगा।

भगवान राम ने कहा कि जब पूरी सृष्टि जानती है कि मैं सत्य की रक्षा के लिए युद्धरत हूँ तो फिर शक्ति को मेरे साथ होना चाहिए। आज दुर्गा अन्यायी के साथ है। “जिधर अन्याय शक्ति उधर” यही मेरे आत्मीय कष्ट का कारण है। भगवान राम ने देवी की स्तुति की और उन्हें अंततः त्याग और समर्पण से अपने पक्ष में कर लिया।

कालांतर में यह कहानी फिर से दोहराई जा रही है इस बार भी रावण के साथ शक्ति है। रावण ने भगवान राम से कहा कि मैं तुम्हे बंद कर दूंगा। राम घबरा गए है कि मैं तो हर मनुष्य में हूं, यह मुझे दीवारों के बीच बंद करने की साजिश रच रहा है। 

भगवान राम फिर से उदास है फिर से आंखें बह रही हैं। युद्ध में राम एक बार फिर पराजित होते दिख रहे हैं लेकिन यकीन मानिए भगवान राम ही अंततः जीतेंगे रावण शक्तिहीन होगा।

जय श्री राम 🙏🏻

घुघुती

सदियों से हमारे कुमाऊं क्षेत्र में एक विशेष तरीके से मनाया जाने वाला उत्सव जो मौसम के बदलाव और प्रवासी पक्षियों की वापसी का संकेत देता है। इसे काले कौवा (काले कौवे) या घुघुती (एक अन्य स्थानीय पक्षी का नाम) का त्योहार कहा जाता है। लोग आटे, गन्ने की चीनी और घी से डीप-फ्राइड व्यंजन बनाते हैं। मीठे आटे को अनार, ड्रम, ढाल और तलवार के आकार में बनाया जाता है। एक बार जब वे पक जाते हैं, तो आकृतियों को हार बनाने के लिए पिरोया जाता है जिसे घुघुती (पक्षी का समान नाम) कहा जाता है, जिसके बीच-बीच में एक नारंगी (छोटा संतरा) भी पिरोया होता है। बच्चे सुबह उठकर इन्हें पहनते हैं। 


बच्चे बाहर जाते हैं और कौवों को ज़मीन पर लौटने का निमंत्रण देते हैं— 
“काले काले, भूल बाटे अइले!" 
(काले, काले, अब घर आओ!) 

बच्चे पक्षियों को अपने हार से भोजन देते हैं और बदले में आशीर्वाद मांगते हैं। पक्षियों को प्रसाद चढ़ाने के बाद, बच्चों को दिन भर उनके हार पहनने को मिलते हैं और वे जब चाहें तब भोजन खाते हैं। मजाल है इस दिन कौवा लाख बुलाने पर भी आ जाये। तब से हमारे यहां एक कहावत प्रसिद्ध है, “घुघुतियक जै काव कस अकड़ रो”। पर आज पक्षियों का वह निमंत्रण तुरन्त बिन बुलाए मेहमान बंदर स्वीकार कर बच्चों को डरा उनकी माला ही लपक ले रहे हैं। 

मीठे आटे से यह पकवान जिसे 'घुघुत' नाम दिया गया है। सदियों से चली आ रही परम्परा के अनुरूप आज भी इसकी माला बनाकर बच्चे मकर संक्रांति के दिन अपने गले में डालकर कौवे को बुलाते हैं और कहते हैं -
 
'काले कौवा काले घुघुति माला खा ले'।
'लै कौवा भात में कै दे सुनक थात'।
'लै कौवा लगड़ में कै दे भैबनों दगड़'।
'लै कौवा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़'।
'लै कौवा क्वे मेंकै दे भली भली ज्वे'।

पारम्परिक पर्वों का अद्भुत अनुभव लेने एक बार आप भी देवभूमि अवश्य आइए। यहां के स्नान, ध्यान, ज्ञान व पकवान आपको अभिभूत कर देंगे। यहां कि समृद्ध संस्कृति व विरासत आपको अभिभूत कर देगी। 

#HapppyGhughuti2024 
#uttarayani #makarsankranti2024

Friday, 5 January 2024

मैं अभी सतह पर हूँ



तुम कहते हो के पढ़ लेते हो चेहरा मेरा, कितना हसीन झूठ है, मग़र कहते रहो। जैसे तुम्हें भ्रम है वैसे मुझे भी हमेशा भ्रम रहा है कि मैं चेहरे पढ़ लेता हूँ। लोगों की आँखों में देख कर उनके एहसास जान लेता हूँ, उनके दुखों को टटोल कर पता कर लेता हूँ कि अभी पके हैं या नहीं। 


लेकिन यह भ्रम टूट रहा है, मैं अभी सतह पर हूँ। लोगों के चेहरों पर कई परतें हैं। पहले एक हँसी का मुखौटा है, फिर एक मेकअप की तह है, मेकअप के नीचे उसका फाउंडेशन है जो झूठ को पकड़ कर रखता है। फाउंडेशन के नीचे त्वचा है, त्वचा के नीचे मौसम भरे हुए हैं - झूमता हुआ सावन है, सिसकता हुआ पतझड़ है, गीली सी बारिशें हैं और इन मौसमों से गुज़रते हुए रिश्ते हैं, उम्मीदें हैं, अपेक्षायें हैं, तोड़े हुए वायदे हैं। इन सबके बीच जहाँ तहाँ सुख और दुःख के फिंगर प्रिंट्स हैं, ये प्रमाण एक दूसरे से उलझे हुए हैं, गुँथे हुए हैं। इनको अलग करना मेरे उँगलियों के बस की बात नहीं है। 

मैं इन सब परतों के नीचे जाकर सच्चाई तलाश करूँ तो शायद ख़ुद दब जाऊँगा एहसासों के मलबे में। मैंने तय किया है कि मैं अब सतह की लकीरों को छूकर बस अपने मन की बात कह दूँगा। बस इतना कह दूँगा कि हम सब मुखौटे हैं, कह दूँगा कि जो तुम्हारे साथ हुआ है वह किसी और के साथ भी हुआ है, कह दूँगा कि सब सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे, कह दूँगा कि जीवन यूँ ही चलता रहेगा। और जो यह सब नहीं कह पाया तो लिखूँगा कविताएँ जो सोख ली जाएँगी इन सारी परतों में और मेरे नहीं होने के बाद भी साथ चलेगी इन चेहरों के, चेहरे जो कह नहीं पाते सच्चाई, चेहरे जो बुतों में जान नहीं डालते। चेहरे जो मुझसे कुछ ख़ास अलग नहीं हैं। इस जहां में दोस्त रोता वही है जिसने सच्चे रिश्ते को महसूस किया हो, वरना मतलब का रिश्ता रखने वालों की आंखों में न शर्म होती है और न पानी।