Thursday, 6 June 2024

ये दुनिया बड़ी



जब कभी बचपन के दोस्त बरसों बाद मिले और बात करते-करते अचानक कह उठे तुम कितना बदल गए हो तो चौंकना लाजमी है। उसकी बात सुन मैंने ज़रा सा हँसकर कहा वज़न और बढ़ गया न मेरा। अब झुर्रियां भी पड़ने लगी हैं। उसने कहा नहीं-नहीं यह सब नहीं पर तुम वह नहीं हो जो पहले थे, बस मैं वह चीज़ पकड़ नहीं पा रहा..

कितनी दुनियावी बातें थीं जिन्हें सुनकर आँखें फैल जाती थीं। कितनी चुगलियां, शिकायतें थीं जिनमें रस मिलता था। रोज़मर्रा के काम, काम की परेशानियां, दुनिया को जीतने या उससे हार जाने का मलाल। अब कुछ नहीं हैरान करता, किसी जगह मन नहीं टिकता। लगता है यही तो जीवन है। अब प्रॉब्लम यह कि हम यह बातें न करें तो क्या बातें करें, मुझे इनमें रस नहीं मिलता। दोस्त के पास इसके सिवाय कोई बात ही नहीं। वह बरसों पहले जहाँ था वहीं रुका है, मैं वहाँ से जाने किधर भटक गया हूँ। अब कम बोलने का जी करता है, ख़ासकर शिकायतें, चुगलियां, ज़िन्दगी का रोना, रोज़मर्रा के काम, रुपये पैसे...इनपर एकदम चुप हो जाता हूँ।


"मैं बहुत-सी दुनिया देखना चाहता हूँ लेकिन उसके लिए किया जाने वाला दीवानापन मुझमें नहीं। मैं हद दर्जे का घुमक्कड़ भी नही। यूँ पलंग पर पड़े रहना और सिर्फ़ सोचना, ये काम बखूबी होता मुझसे। बस, ट्रेन पकड़कर सौ किलोमीटर दूर जाने में भी मेरी जान जाती। मैं खूब लिखना चाहता तो हूँ लेकिन कैसे और क्या? मेरे हाथों भाव फिसल जाते और अपने भी। कोई इंटेंस फीलींग को पकड़कर रखना चाहता हूँ, जैसे पुराने अलबम में पिन से टाँके गए फूल। लेकिन वो एहसास जब तक ठोस होता उसके बाहरी किनारे उधड़ने लगते।"

"किसी दिन दुनिया ऐसे ही खत्म हो जाती है। पर कहाँ खत्म होती है। सब तो अनवरत चलता ही रहता है। किसी के भीतर ऐसे हरहराता अवसाद का समन्दर कि कुछ भी अच्छा न लगे? सबका प्यार, हवा, धूप, पानी, कोई मीठी मुँह घुलती मिठाई, नींद का नशा, जगे का सुहाना स्वाद। कुछ भी नहीं? दिमाग़ में कौन सा केमिकल उड़ जाता है, कौन सा सर्किट री वायर हो जाता है। क्या है जो एक हँसते-खेलते जीते आदमी को मुर्दा कर देता है?

और हम दूर से देखते क्या सोचते हैं कि फ़िलहाल हम उस दायरे के बाहर हैं। ये त्रासदी हम पर नहीं घटी, इस बार हम बच लिये ? उस महफूज जगह में खड़े हम अपने बचने का जश्न मनाते हैं? जीवन कई बार तकलीफ़ों की बड़ी-सी गठरी लादे फिरना है और बहुत बार उसे छुपाए चलना है अपनी छाती में। मौत का वो पल जहाँ सब पार है।

जीवन जीना बहुत बहादुरी का काम है। पर मालूम नहीं बहादुरी क्या होती है। उस काले-घने अवसाद के साये में जीना क्या होता है। जो अवसाद नहीं जानते, उसकी काली छाया नहीं जानते, उसका राख, स्वाद जुबान पर महसूस नहीं किया कभी, वो क्या जानते हैं ऐसे होना क्या होता होगा। भारी भीगे कम्बल के भीतर दम घुटने की छटपटाहट, किसी खाई में गिरते जाने का भयावह अहसास और ये कि अब कुछ भी, किसी भी चीज़ से कोई राब्ता नहीं। जैसे मौत कोई खूंखार चीता हो जो घात लगाए बैठा हो, अचानक दबे पाँव दबोच ले? “दुनिया बड़ी ज़ालिम है, जीवन और भी। हम आँख-कान-नाक दबाए ऑब्लिवियन के संसार में माया जीते हैं।"

मुझे किसी को बदलने के बदले ख़ुद को बदल लेना, समेट लेना आसान लगा। इस दुनियादारी में फिट होने की कोशिशों में हलकान होने के बजाय अंतरतम की यात्रा बेहतर विकल्प है। दोस्त को कैसे बताऊं कि मैं वही होते हुए भी वही नहीं हूँ और मेरे इस होने में मेरा कोई हाथ नहीं।

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