कहते हैं बड़ा नाजुक होता है हमारा मन, जो शब्दो से टूट जाता है और शब्द होते है जादूगर जिनसे मन को जोड़ा जाता है। इन्ही शब्दों में कभी मिठास भी होती है तो कभी कड़वाहट भी, तो कहीं जीवन तो कही जहर भी।
मेरे आस पास हर वक्त कुछ न कुछ चल रहा होता है जैसे कोई सिनेमा या ड्रामा। यूँ तो अनेक ऐसे प्रसंग हैं इस रंगभूमि में किंतु कुछ ऐसे हैं जिन्हें शेयर करने की इच्छा रोक नहीं पाता। आज महिलाओं को लेकर दो क़िस्से आपको साझा करने जा रहा हूँ, उम्मीद है आप गौर फ़रमायेंगे। एक है नई नवेली दुल्हन जब ससुराल पहुँचती है उसकी “पहली अनबन” और दूसरी मुझे मेरे एक दोस्त ने भेजी है औरत कि अपने घर में “सबसे पसंदीदा जगह” कौन सी होती होगी? किसी को दिल पर लगे तो माफ करना दोस्त 🙏🏻
पहली—
पहली बार अनबन हुई थी तब मन कच्चा था दुल्हन का, बच्ची की तरह बिलख कर रोई थी। सास ने बेटे को कुछ नहीं कहा, बहू से कहा- मेरे घर के चार कोने हैं, तेरे घर का कोई कोना नहीं, जो जोर-जोर से रोएँ, जितना चाहे रो सकती है, लेकिन घर की बात बाहर पता नहीं चलनी चाहिए।
“उस औरत ने राई की तरह पल्ले से बाँधी थी बात बाहर की नजर तो नहीं लगी, हाँ खुद घुन लगे गेहूँ सी खोखली होती रही।”
कितनी बार पति ने गले पर हाथ कसकर कहा या तो जहर खा ले या घर छोड़ दे। उससे इतना भी ना कहा गया कि कैसे छोड़ दूं घर। इस घर से प्यार है मुझे, एक-एक चीज बड़े चाव से सजायी है। परदों, पंखों, सोफों पर कभी धूल तक नहीं बैठने दी। चोखट से आखरी कोने तक रोज पोछा लगाती हूँ झुक कर, खपकर, कमर दर्द में भी, घर मेरा नहीं पर मैं तो घर की हूँ बस चुप्पी मारे पडी रही।
कितनी ही हिदायतें मिलती रही रोज औरतों को घर बसाना सीख ले, दूध की मलाई उतार घी की बचत हो सकती है, मजदूरों की चाय मीठी ज्यादा, दूध कम डाला कर, पंखा चलता छोड़ दिया, बिजली का बिल आता है। बचत करना सीख ले, बासी बची हुई रोटी खाया कर, अनाज पैसे में आता है सब्जियां बासी कर देती है, बाजार से आती हैं। कभी कमाकर लाकर देख तुम्हारे भले के लिए ही कहती हूँ।
“पता नहीं क्यों दुनिया भ्रम में है कि घर पैसों से बसते हैं मुझे तो लगता रहा घर सिर्फ औरतों की चुप्पियों से बसते हैं।”
दूसरी—
दोस्त आपने कभी सोचा है? कि एक औरत कि अपने घर में सबसे पसंदीदा जगह कौन सी होती होगी? शायद ध्यान नहीं गया होगा इस तरफ़ कभी आपका। कभी पल भर के लिए ये सोचिये तो ज़रा, ये वही जगह है जहाँ उसकी उम्र निकलती है लगभग। उस घर की रसोई। जी हाँ बिल्कुल ठीक समझे आप। उस घर की रसोई जहाँ वो आधे से ज्यादा वक्त गुजारती है। औरत के लिए वो रसोई सिर्फ मकान का एक हिस्सा नहीं होता। वो रसोई तो असल में उसकी सच्ची सखी होती है उसके लिए। एक ऐसी सखी जिसके साथ वो अपने जीवन के सारे राज़ साझा करती है हर रोज।
उस रसोई में खुद के सारे रंग बिखेर कर रखती है वो। अपनी खुशी, अपना दुःख, अपने आंसू, अपना गुस्सा, अपना असीम प्रेम और ना झेली जा सकने वाली बेसुरी आवाज भी, जिसमें वो गुनगुनाया करती है कुछ नगमे जो पसन्द है उसे हमेशा से।
इन सारे रंगों को सबकी नज़र से बचाकर रखने में मदद करती है उसकी वो सखी। जैसे उसकी मुस्कुराहट को खाने की खुशबू में बदल देती है, उसकी चहक को चाय की मिठास में घोल देती है, छुपा लेती है उसके आँसू जल्दी से प्याज के कसैले रस में। दबा देती है उसका गुस्सा मसाले के डब्बों में सबकी नज़र से बचाकर। आनंद देती है उसे इस बात का कि भले आवाज़ बेसुरी सही मग़र फ़िर भी किसी सुप्रसिद्ध गायिका से कम नहीं वो किसी तरह से ये यकीन दिलाती है उसकी सखी उसे और ये सिलसिला चलता रहता है यूँ ही हर रोज़, आजीवन। इसलिए यकीन मानिये एक औरत की सबसे अज़ीज़ जगह घर में रसोई ही होती है उसकी सच्ची संगी उसकी सखी।
अपना क्या? अपने को तो बस शब्द बुनने है, कहानियाँ गड़नी है। इस पर मुझे एक प्रसंग अनायास ही याद आता है...
धर्म हमारी रक्षा और कल्याण के लिए है। अगर वह हमारी आत्मा को शांति और देह को सुख प्रदान नहीं करता, तो मैं उसे पुराने कोट की भाँति उतार फेंकना पसंद करूँगा। जो धर्म हमारी आत्मा का बंधन हो जाए। उससे जितना जल्द हम अपना गला छुड़ा लें, उतना ही अच्छा।
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