बागेश्वर में निलेश्वर-भीलेश्वर वैसे ही हैं जैसे बॉलीवुड में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल। एक-दूसरे से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर बसे निलेश्वर-भीलेश्वर दो अलग-अलग पर्वत शिखर हैं लेकिन इनका नाम अक्सर एक साथ ही लिया जाता है। जहां एक तरफ भगवान शंकर विराजमान हैं और एक छोटी पर जगतजन्नी माँ चण्डिका विराजमान हैं। इन्ही के सामने त्रिर्वेणी नदियों (सरयू, गोमती व अदृष्य सरस्वती) का संगम है जहां से हिमालय दर्शन होते हैं। इन्ही पर्वतों के बाद बागेश्वर में गावों की शुरुआत होती है।
947 गांव मिलाकर बनाया गया एक शहर बागेश्वर। बागेश्वर काफी खूबसूरत शहर है लिहाजा इसे छोटी काशी के नाम से भी जाना जाता है। बागेश्वर फिर भी भारत की आधुनिक छांव का एक बड़ा हिस्सा समेटे हैं। मैं अपने बालपन में पहली बार जब बागेश्वर को एक शहर के आइने में देखने पंहुचा। हां मैं आज अपनी दृष्टि से बागेश्वर देखूं तो इसे मिनी काशी ही कहूंगा।
सुबह की शीतल बयार और सुनसान सड़क पर सन्नाटा पसरा। कितना जल्द ही यह शोरगुल से भर जायेगा। फिर बिन मंजिल ढूंढ़ते किसी टेंपो की तरह नहीं। इर्द गिर्द कई आवाजें घूमना शुरू हो जायेंगी। दुकानों के द्वार खुल जाएंगे। सब्जियां ठेलों पर चढ़ जाएंगी। फैशन के इस दौर में रंग बिरंगे साजो साज की चीजें भी बिकना शुरू हो जाएंगी और विशाल जनमानस शहर के मस्तिष्क में दिखेगा। बीते कुछ साल पहले मेरा मिनी स्विज़रलैंड भी जाना हुआ था। कौसानी बागेश्वर का नगीना है। उसके माथे पर चमकती बिंदी की तरह। वाह जैसे बागेश्वर की श्रृंगार घूंघट काढ़े कौसानी में विचरण कर रही हो। ऐसा ही कौसानी है।
लेकिन कौसानी सुमित्रा नंदन पंथ और महात्मा गांधी को आंखों में लिए बैठा है। कौसानी हिमालय शृंखला की लम्बी चौड़ी रेंज को लिए अपनी आंखों में बैठा है। बागेश्वर एक बहुत पुराना गुलदस्ता लिए हाथों में बैठा है। बागेश्वर शहर की भीड़ में कोई जोकर लिए राजकपूर खड़ा है। कोई सिगरेट जलाए कालिया का अमिताभ और कोई ढपली बजाकर लोगों को रिझाता किशोर कुमार। बागेश्वर अलग है बिल्कुल अलग। मेरी आंखों का बागेश्वर मुझे काशी में भी दिखेगा ये उस दिशा की ओर चलने पर ही अनुमान हो गया था।
कोहरा धीरे धीरे हटा। धुंध कमजोर हुई फिर एकदम भोर जो अंधेरे का चादर हटा रही थी उसकी नब्ज रुक गई। परत दर परत अब हीलियम और हाइड्रोजन के गुच्छे से निकली किरण धरा का आँगन चूमने आ रही थी। मैं बागेश्वर के उस दृश्य का चुम्बन कर रहा था, जो बागेश्वर के होंठों के भीतर था। धीरे धीरे जनसमूहों का संलयन होना शुरू हुआ। पान की ढाबली खुली, चूरन की दुकान भी। हाथों की मैल कई हाथों में लगना शुरू हुई, व्यापार का जमाव लोगों को इकट्ठा करने लगा और मैं भी अब धीरे धीरे अपना रुख अपनी मंज़िल की ओर करने लगा।
कई सारी पुरानी इमारतों से दो तल्ली से तीन तल्ली इमारतों को देखते देखते। एक सुगंध प्राणों तक जा पहुंची। चाशनी में लिप्त मेरे दृष्टि की यह उस समय की पहली दुकान थी। सुबह की मिठास बागेश्वर के मंगल (स्वर्गीय श्री मंगल सिंह परिहार जी) की जलेबी ने ताजा कर दी। वैसे जलेबी अमीनाबाद की बहुत मशहूर है, पर मेरे शहर बागेश्वर की जलेबी भी उससे मुझे कभी कमतर नही जान पड़ी। बागेश्वर की स्मृति को इस दुकान ने ताजा कर दिया। हम तीनों को देवभूमि उत्तराखंड ने ताजा कर दिया। तजुर्मन करीब पचास साल से भी ज्यादा पुराने इस मकान के नीचे ठीक चौराहे से थोड़ा पहले चाशनी में भीगी यह दुकान। एक सौ वाट का बल्ब और स्टोव की भारी आवाज जैसे उन्नीस सौ चौंतीस में लाहौर से लुधियाना रवाना हो रही भाप वाली रेलगाड़ी की तरह की आवाज कानों में पड़ रही हो और उस पीले प्रकाश में कढ़ाही में उबलती चाशनी। जिससे निकलने वाली भाप को दादा बार बार बड़े से झांझर से देखते। मुख में राम का नाम और साठ से भी ऊपर की उम्र में बहुत ही तीव्र स्फूर्ति प्रेरित कर उठी। माथे पर गोल चंदन और वह मकान मध्यकाल में घसीट ले गया।
लगा अभी आंखों से अपने गाँव को देख लूंगा। वही जहां अठरा सौ सत्तावन से लेकर आज तक आजादी के न जाने कितने नारे गूंजे होंगे। जहां से कुली बेगार प्रथा का अंत हुआ था। दादा की दुकान यहां थोड़ा अलग थी। दादा भगवान शंकर के भक्त थे सो दीवारों पर भगवान शंकर जी की तस्वीरें। जिनमें से हनुमान जी भी विराज मान और सभी देवी देवताओं के सम्मुख दीप प्रज्वलित होता हुआ। धूप की खुशबू से वाष्पित कोना कोना।
दादा से बातचीत शुरू करने का जी बनाया। दादा बहुत खुशी से मुझे इतिहास बताने लगे। भगवान शंकर का भक्त होने पर उन्होंने मुझे बताया शिव ही हैं जिन्होंने हमें संभाल रखा है। बागेश्वर शिव धाम है, सब उन्हीं की महिमा माया है। बताने लगे कि जब वे अपने गांव से यहां आए थे तब बागेश्वर जंगल था। कोई बहुत ज़्यादा दुकान नहीं थी, सिवाय दस-बारह के।आज हजारों दुकानें हैं। कौसानी के बारे में कहा कि मिनी स्विज़रलैंड है वहां जाना विदेश की धरती के दर्शन जैसा है। मैंने भी कहा दादा मैं जब लेखक बनूँगा तब आपकी जलेबी और दुकान पर कुछ लिखूंगा। दादा खुश हो गए भगवान शंकर से मेरे लिए दुआएं करने लगे। बेटा जलेबी तैयार कर लीं। उस वक्त दही और जलेबी ने मेरी आत्मा तृप्त कर दीं। मेरे साथ बागेश्वर तृप्त हुआ। दादा से आशीर्वाद लिया। फिर कभी मुलाकात करने की कह अपना झोला उठाया। पृथ्वी के चक्कर में अब बागेश्वर धीरे धीरे पूर्वार्द्ध जा रहा था और मैं उत्तरार्ध आगे की ओर बढ़ चला।
यूं तो वहां से आज भी ज्यादा दूर नहीं आया था। लेकिन पीछे शायद सल्तनत छोड़ आया था। आज जब भी उस दुकान के पास से गुजरता हूँ तो मुझे वो मेरी पहली दही जलेबी और दादा की बातें याद आती हैं। अब न दादा रहे न ही वो जलेबी। गजब का दौर हुआ करता था जब दूर गाँव के लोग मिठाई के नाम पर मंगल की जलेबी ले कर त्योहार मनाया करते थे। उत्तरायणी में जलेबी लेने की तब लाईन लगा करती थी। वैसे हमारे पहाड़ों में एक रिवाज है जब भी हम कौतिक (मेला) जाते हैं तो वहां से लौटते वक्त घर में मौजूद सभी के लिए कुछ न कुछ कौतकी बान लेकर ज़ाया करते हैं। जलेबी से जुड़ी मेरी यादें अक्सर मुझे अतीत के उस मोड़ पर ले पहुँचती हैं जहां पहुंचने की बात मैंने तब कही थी, पर पहुंच अब तलक भी नही पाया हूँ। खैर मुझ जैसे घुमक्कड़ी का भी कोई एक ठौर होता है यह सोंच कर छनी हुई धूप और भून रहे आकाश संग मैं फिर एक बार हर बार की तरह उस जलेबी की मेरी पहली दुकान से आगे बढ़ चलता हूँ।
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