Friday, 13 October 2017

9 साल 5 माहीने बाद भी नहीं मिला जवाब, आरुषि-हेमराज का हत्यारा कौन ?

अदालत ने कहा कि आरुषि के मां-बाप के खिलाफ उनकी बेटी को कत्ल करने के कोई सुबूत नहीं हैं. इस फैसले से वे जेल से छूट जाएंगेलेकिन करीब साढ़े नौ साल तक जो उनके दिल पर गुजरी हैवो कैसे वापस होगा 
उस अज़ीयत को उनके अलावा दुनिया में कोई और महसूस नहीं कर सकता. वह दर्द सिर्फ उन्हीं का हिस्सा है.
कितना बेहूदा मीडिया ट्रायल उन मां-बाप के साथ हुआ जिनकी 14 साल की इकलौती बेटी कत्ल हो गई? क्या नहीं कहा गया उनके बारे मेंजैसे… ”बेटी जब घर में कत्ल हुई, उस वक्त मां-बाप वाइफ स्वॉपिंग पार्टी में थे…”, “बेटी बदचलन थी और वह अधेड़ उम्र के नौकर के साथ सोती थी.और  “बेटी के अपने स्कूल के लड़कों से रिलेशनशिप थे..शुरू में जब केस यूपी पुलिस इन्वेस्टिगेट कर रही थी तब यूपी के एक बहुत सीनियर अफसर ने मुझे आरुषि की चैट हिस्ट्री की एक हार्ड कॉपी दी. उन्होंने कहा कि लड़की देर रात तक चैटिंग करती थी और निंफोमेनिक थी. जाहिर है कि वह यूपी पुलिस की थ्यौरी मीडिया में प्लांट कराना चाहते थे. 
आरुषि मर्डर केस को जर्नलिज्म के स्कूलों में क्राइम रिपोर्टिंग की सबसे बेहूदा मिसाल की केस स्टडी के तौर पर पहचाना जाना चाहिए, ताकि भविष्य के पत्रकार वह गुनाह न करें.अदालत का फैसला आया है तो आरुषि की तस्वीरें एक बार फिर मीडिया में छाई हुई हैं. एक तस्वीर में आरुषि मम्मी-पापा के साथ सिंगापुर के जुरॉंग बर्ड पार्क में है. तीनों के हाथों पर रंग-बिरंगी चिड़िया बैठी हैं. उसे देखकर कहीं लगता है कि इन मां-बाप ने अपनी बच्ची को कत्ल कर दिया होगा? सीबीआई ने जब तलवार के घर के फोन की कॉल हिस्ट्री खंगाली तो उसमें आरुषि के कत्ल वाली रात करीब साढ़े नौ बजे बाप की एक फोन कॉल मिली जो उसने मुंबई में  ”इम्रेसिओंज़ ट्रेडर्सको आरुषि के लिए नया कैमरा मंगाने के लिए किया था. आरुषि की मौत के बाद जब उस कैमरे का कोरियर घर आया होगा तो सोचिए बाप के दिल पर क्या गुजरी होगी?गाजियाबाद की डासना जेल की ऊंची दीवारों के पीछे सारे वक्त बिल्कुल खाली ज़हन में क्या चलता होगा? हमारी पूर्व सहयोगी वर्तिका नंदा से डसना जेल में एक इंटरव्यू में नुपुर तलवार ने कहा कि.... 
 “बस ऐसे लगता है जैसे आंखों के सामने आरुषि की कोई फिल्म चल रही होहर लम्हा याद आता है, जब वो नन्ही सी पैदा हुई थीजब वो डग-मग, डग-मग कर चलती और गिर जाती थी..जब वो पहली बार यूनिफॉर्म पहन स्कूल गई और जब वह बिस्तर पर मरी पड़ी थीयादों के साथ दर्द का एक समंदर अंदर उमड़ता रहता है. जेल में किसी बच्ची को देखती हूं तो आरुषि लगती हैआरुषि का मतलब सुबह की किरण होता हैअब कभी उगता सूरज देखती हूं तो उसमें भी आरुषि नजर आती है.
अगर सीबीआई की दलील थोड़ी देर के लिए मान लें कि आरुषि को नौकर के साथ देखकर बाप ने गुस्से में नौकर को मारा, लेकिन बेटी मर गई..तो एक बार सोचिए कि जिस बाप से उसकी इकलौती बच्ची मारी गई हो वो गुनाह के किस एहसास के साथ जीता होगा. यह जो अपनी बेटी का कातिल होने का एहसास है यह किसी भी उम्र कैद और किसी भी सज़ाए मौत से ज़्यादा बड़ी सज़ा हैऔर सोचिए कि अगर वो बेगुनाह हों और दुनिया की हर नजर उन्हें बेटी का क़ातिल समझती होतो उनके दिल पर क्या गुजरती होगी..मेरे कहने से थोड़ा सा वक्त निकालिए, अपने दिल पर हाथ रखकर खुद को नुपुर और राजेश तलवार की जगह रखकर उस तकलीफ को महसूस करने की कोशिश कीजिए.
इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला आने के बाद, 9 साल 5 माह पुराना वह सवाल फिर खड़ा हो गया है कि आखिर किसने की आरुषि और हेमराज की हत्या? देश की सबसे बड़ी इस मर्डर मिस्ट्री को सुलझाने में नोएडा पुलिस के अलावा देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआइ भी फेल साबित हुई। इस केस में नोएडा पुलिस ने पहले तलवार दंपत्ती को आरोपी बनाया। फिर सीबीआइ ने उन्हें बरी कर दिया।
सीबीआइ के जांच अधिकारी बदले और फिर से परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर तलवार दंपत्ती को आरोपी बना दिया गया। अब इलाहाबाद हाइकोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल, आखिर किसने दिया देश की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री को अंजाम।

फॉरेंसिक साक्ष्य जुटाने में लापरवाही के कारण नहीं आया सच सामने

दुनिया में किसी भी हत्याकांड का पर्दाफाश तीन साक्ष्य पर ही निर्भर करता है। प्रत्यक्ष, फॉरेंसिक या परिस्थितिजन्य साक्ष्य। आरुषि हत्याकांड में कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं था। आरुषि और हेमराज के शव मिलने के बाद नोएडा पुलिस के पास फॉरेंसिक साक्ष्य जुटाने का मौका था, जिसे उन्होंने गंवा दिया। नोएडा पुलिस ने थोड़ा खुद, थोड़ा मीडिया कर्मियों तथा बचा-खुचा साक्ष्य अन्य लोगों को मिटाने का मौका दे दिया। आरुषि हत्याकांड के पंद्रह दिन बाद सीबीआइ जांच करने आई। उसने फॉरेंसिक साक्ष्य जुटाया लेकिन तब तक बहुत कुछ धुल और घुल चुका था।
सर्विलांस के आगे फॉरेंसिक को नहीं दिया था तवज्जोदरअसल, 2008 तक नोएडा पुलिस पर पूरी तरह से सर्विलांस सिस्टम हावी हो चुका था। ज्यादातर केस सर्विलांस के सहारे सुलझ रहे थे। आरुषि हत्याकांड को भी नोएडा पुलिस सर्विलांस की मदद से खोल देने के गुमान में थी। उसने यही किया। डॉ. राजेश तलवार का मोबाइल सर्विलांस पर लेकर उन्हें गिरफ्तार भी किया, लेकिन दुनिया के सामने सच नहीं रख सकी। नोएडा पुलिस की उस समय बरती गई लापरवाही का नतीजा था कि सीबीआइ भी सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री का पर्दाफाश करने में फेल हुई।
नोएडा पुलिस ने यह फॉरेंसिक साक्ष्य जुटाने में दिखाई थी लापरवाही
आरुषि और हेमराज दोनों का शव मिलने के बाद सीन ऑफ क्राइम को सील नहीं किया गया।
  1. - सीन ऑफ क्राइम पर पुलिस अधिकारियों के साथ भारी संख्या में मीडिया व अन्य लोग थे मौजूद। कई सबूत हुए नष्ट।
  2. - सीन ऑफ क्राइम की विडियोग्राफी नहीं हुई।
  3. - सीन ऑफ क्राइम के पास पड़ी, एक-एक चीज की बारीकी से जांच नहीं हुई। न ही उनसे फिंगर प्रिंट लिए गए। छत पर मौजूद खून सने पंजे के निशान और फुट प्रिंट को नहीं लिया गया।
  4. - आरुषि के नाखून में चमड़े का अंश था, उसकी जांच नहीं कराई गई।
  5. - आरुषि के बिस्तर पर बाल पड़े थे, उसकी जांच भी नहीं हुई।
  6. - छत पर जगह-जगह पड़े खून के सैंपल नहीं लिए गए। सीबीआइ जबतक सैंपल लेती, उससे पहले बारिश हो गई थी, जिसमें वह धुल गए।
  7. - हेमराज के कमरे में शराब की बोतल पर मौजूद फिंगर प्रिंट को नहीं लिया गया।
  8. - तलवार दंपती समेत अन्य लोगों के फिंगर और फुट प्रिंट नहीं लिए गए थे।
  9. - तलवार दंपती के घटना के वक्त पहने कपड़े को जब्त नहीं किया गया।
  10. - खोजी कुत्ते का सहारा नहीं लिया गया था।
  11. तलवार दंपत्ती को आरोपी बनाने पर भी इन सवालों के नहीं मिले थे जवाब- हत्या पहले हेमराज की हुई या आरुषि की।
  12. - सीबीआई के अनुसार गोल्फ स्टिक के वार से आरुषि की हत्या हुई थी। फिर हेमराज को कैसे मारा गया। अगर ऐसा है तो आरुषि की गर्दन काटने की जरूरत क्यों पड़ी?
  13. - गर्दन काटने के लिए किस हथियार का इस्तेमाल हुआ?
  14. - हेमराज का फोन कहां गया?
  15. - आला कत्ल कहां गया?
  16. - 15 मई 2008 की रात हेमराज के मोबाइल पर निठारी के पीसीओ से फोन आया था। वह फोन किसने और क्यों किया था
आरुषि के नाना सेवानिवृत ग्रुप कैप्टन बीजी चिपनिस ने कहा हमें इलाहाबाद हाइकोर्ट से न्याय की उम्मीद थी। आरुषि हत्याकांड में उनकी बेटी डॉ. नुपुर तलवार और दामाद डॉ. राजेश तलवार को सीबीआइ ने आरोपी बनाया है। पहले उसी सीबीआइ ने दोनों को बरी किया था। इस केस में उनके परिवार के साथ बहुत गलत हुआ। पहले पोती की हत्या हो गई। फिर उसके ही माता-पिता को आरोपी बना दिया गया। हालांकि, अब भी हम चाहते हैं कि आरुषि का हत्यारा पकड़ा जाए।

राजा दशरथ को तो श्रवण कुमार के अंधे मां-बाप ने श्राप दिया था कि जिस तरह हम पुत्र शोक में मर रहे हैं, उसी तरह तुम भी पुत्र शोक में मरोगे.”…लेकिन राजेश और नुपुर तलवार को किसने श्राप दिया कि तुम बेटी की मौत के गम मेंबेटी के बदचलन होने की बदनामी के गम में और बेटी के कातिल होने के दाग के साथ जिंदा रहोगे...लेकिन वो जिंदगी मौत से भी बदतर होगी.


अमित शाह के बेटे जय शाह के बारे में जानें कुछ रोचक बातें !!

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के इकलौते बेटे हैं जय अमित शाह। वेबसाइट द वायर की स्टोरी के मुताबिक नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अमित शाह के बेटे का कारोबार कई गुना बढ़ गया है।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय ने इस खबर को 'झूठा, अपमानजनक और मानहानिपूर्ण' करार देते हुए आरोप को खारिज कर दिया। जय ने वेबसाइट के खिलाफ झूठी रिपोर्ट छापने का आरोप लगाते हुए उसपर 100 करोड़ की मानहानि का मुकदमा दायर किया है।

आइए जानते हैं जय शाह के बारे में कुछ सुनी-अनसुनी बातें...
  1. - जय ने निरमा इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूट से बीटेक की पढ़ाई की है। तीन साल पहले उन्होंने अपनी क्लासमेट रुशिता पटेल के साथ शादी की थी, जो अहमदाबाद के व्यापारी गुंटवंतभाई पटेल की बेटी हैं।
  2. - जय एक बेहतरीन बल्लेबाज थे और गुजरात के कोच जयेंद्र सहगल के नेतृत्व में ट्रेनिंग लेते हैं। मगर, जल्द ही वह अपने पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए शेयर बाजार में आ गए।
  3. - वह 2009 में गुजरात क्रिकेट एसोसिएशन (जीसीए) के एक कार्यकारी सदस्य बने और 2013 में जीसीए के संयुक्त सचिव चुने गए।
  4. - अपने पिता अमित शाह की तरह वह भी गहरी समझ के साथ शेयर बाजार में बने खिलाड़ी बन गए हैं।
  5. - अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद जय परिवार के सफल पीवीसी पाइप व्यापार में शामिल हो गए। अगस्त 2004 में, जय ने 'टेंपल एंटरप्राइज प्राइवेट लिमिटेड' नाम की फर्म बनाई, जो ट्रेडिंग की गतिविधि में शामिल थी।
  6. - जब उनके पिता अमित शाह फर्जी मुठभेड़ के मुकदमे की सुनवाई का सामना कर रहे थे, तो वह जय मुंबई में चले गए थे। सीबीआई ने जब अमित शाह को क्लीन चिट दी, उसके बाद वह परिवार के साथ अहमदाबाद लौटे।

भारत का पहला अखबार: हिकीज गैजेट

आज के दौर में मीडिया की क्या भूमिका होनी चाहिएक्या मीडिया अपनी जिम्मेदारियों को सही तरह से निभा रहा है,क्या वह वाकई निष्पक्ष है
सवाल कई हैं। भारत को आजाद हुए 70 साल का वक्त हो चुका है। इस दौरान भारत का मीडिया तमाम मुश्किलों को झेलते हुए लोगों तक देश-दुनिया की बड़ी खबरें पहुंचाता रहा। उसने कई उतार-चढ़ाव भी देखेकई ऐसे मौके आए जब उसकी ईमानदारी पर सवाल उठेलेकिन हर परिस्थिति में उसने देश के सामने सही तस्वीर पेश करने का प्रयास किया।

 29 जनवरी, 1780 को भारत के पहले अखबार का प्रकाशन शुरू हुआ था। इस अखबार की नींव रखने वाला शख्स भारतीय नहींबल्कि एक आयरिशमैन था – जेम्स अगस्ट्न हिक्की। 29 जनवरी को हिक्की डे’ भी कहा जाता है। देश का यह पहला अखबार अगस्ट्न हिक्की ने कोलकाता से निकालाजिसका नाम बंगाल गजट’ था और इसे अंग्रेजी में निकाला गया। इसे बंगाल गजट’ के अलावा द कलकत्ता जनरल ऐडवरटाइजर’ औरहिक्कीज गजट’ के नाम से भी जाना जाता है।
यह चार पृष्ठों का अखबार हुआ करता था और सप्ताह में एक बार प्रकाशित होता था। हिक्की भारत के पहले पत्रकार थे जिन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के लिये ब्रिटिश सरकार से संघर्ष किया।
हिक्की ने बिना डरे अखबार के जरिए भ्रष्टाचार और ब्रिटिश शासन की आलोचना की। हिक्की को अपने इस दुस्साहस का अंजाम भारत छोड़ने के फरमान के तौर पर भुगतना पड़ा था।
ब्रिटिश शासन की आलोचना करने के कारण बंगाल गजट’ को जब्त कर लिया गया था। 23 मार्च1782 को अखबार का प्रकाशन बंद हो गया। इस तरह भारत में मुद्रित पत्रकारिता शुरू करने का श्रेय हिक्की को ही जाता है।
हिक्की के योगदान को भूलना नामुमकिन है। तत्कालीन ब्रिटिश शासन के खिलाफ कलम उठाना किसी क्रांतिकारी कदम से कतई कम नहीं था। स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए अंग्रेजी हुकूमत से टकराने वाले हिक्की ने जर्नलिज्म को एक अलग दिशा और दशा दी। इसके लिए उन्होंने अंग्रेजी शासन से भी टकराने से गुरेज नहीं किया।
एक वरिष्ठ पत्रकार के मुताबिकप्रारंभिक दौर में उनकी पत्रकारिता पर कहीं न कहीं  येलो जर्नलिज्म की छाप रही। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मीडिया को सरकार के चंगुल से छुड़ाने के लिए वह कदम समय की मांग थी। इसी वजह से मीडिया लोकतंत्र का चौथा मजबूत खंभा बन पाया। 

किसका ज़हर किसे डसेगा संघ या भाजपा ?



बीजेपी को कौन ठीक करेगा ? ये कुछ ऐसा ही है जैसे पीसा की झुकती मीनार को कौन सीधा कर देगा। यह टिप्पणी संघ के ही एक बुजुर्ग स्वयंसेवक की है, जो उन्होंने और किसी से नहीं बल्कि जम्मू में सरसंघचालक से कही । इसका जबाब भी सरसंघचालक की तरफ से तुरंत आया कि संघ सांस्कृतिक संगठन है, उसे राजनीतिक से क्या लेना देना। इस पर एक दूसरे स्वयंसेवक ने सवाल उठाया कि राजनीति करने वाले भी अगर स्वयंसेवक है और वह भटक गये हैं तो उन्हें कौन ठीक करेगा। इसपर सरसंघचालक का जबाब आया कि भटकाव की एक उम्र होती है, एक उम्र के बाद भटकाव नहीं निजी स्वार्थ होते हैं। उन्हे दुरस्त करने के लिये किसी भी स्वयंसेवक को पहले अपने आप से जूझना पड़ता है। यह शुद्दीकरण है।

जाहिर है यह संवाद लंबा भी चला होगा । लेकिन यह संवाद संघ के संस्थापक और पहले सरसंघचालक हेडगेवार की तरह का है । जब हेडगेवार ने हिन्दू राष्ट्र का सवाल काशी की एक सभा में उठाया तो वक्ताओ में से सवाल उछला कि कौन मूर्ख कहता है कि यह हिन्दू राष्ट्र है । इसपर हेडगेवार ने न सिर्फ हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को सामने रखा बल्कि हिन्दुओ को लेकर ही उस सवाल का भी जबाब दिया, जिसमें कहा गया कि चार हिन्दू भी कभी एक रास्ते नहीं चलते। जब तक शवयात्रा में शामिल न हों।

लेकिन यही सवाल बदले हुये रुप में संघ के सामने 92 साल बाद भी भाजपा को लेकर खड़ा हो गया है। संघ के भीतर भाजपा को लेकर चार हिन्दुओ की कथानुसार सवाल उठने लगे हैं कि सत्ता के मारे भाजपा के चार नेता भी एक दिशा में नहीं चल रहे । और अगर सत्ता होती तो सभी एक दिशा में चल पड़ते । सवाल जबाब के इस सिलसिले में अपने ही राजनीतिक संगठन और अपने ही स्वयंसेवकों को लेकर सरसंघचालक मोहनराव भागवत को भी आठ दशक पुराने उन तर्को को ही सामने रखना पड़ रहा है, जिसको कभी हेडगेवार ने सामने रखा था । भाजपा की उथल-पुथल ने संघ को अंदर से किस तरह हिला दिया है, इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि नागपुर के हेडगेवार भवन के परिसर में स्वयंसेवकों की सबसे बड़ी टोली जो हर सुबह शाम मिलती है, उसमें बीते रविवार इस बात को लेकर चर्चा शुरु हो गयी कि भाजपा की समूची कार्यप्रणाली सिर्फ राजनीतिक सत्ता की जोड़-तोड़ में ठीक उसी तरह चल रही है जैसे कांग्रेस में चला करती है। इसलिये भाजपा के स्वयंसेवक भी संघ से ज्यादा कांग्रेस से प्रभावित हैं। यानी कांग्रेसीकरण की दिशा को भाजपा ने आत्मसात कर लिया है ।

असल में चर्चा इतनी भर ही होती तो भी ठीक है । कुछ पुराने स्वयंसेवको ने भाजपा की त्रासदी का इलाज हेडग्वार की सीख से जोड़ा । चर्चा में बकायदा हेडगेवार के उस प्रकरण को सुनाया गया जो उन्होंने कांग्रेस छोडकर आरएसएस बनाने की दिशा में कदम बढ़ाये । स्वयंसेवकों को जो किस्सा वहां सुनाया गया उसके मुताबिक,

" कलकत्ता से मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉक्टर हेडगेवार तीन हजार रुपये की नौकरी छोड़ कर नागपुर आ गये । जहा वह कांग्रेस में भर्ती हो गये। 1920 में नागपुर में काग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, डा हेडगेवार उसकी व्यवस्था में लगे स्वयंसेवी दल के प्रमुख थे । दिन रात परिश्रम करके उन्होने अधिवेशन को सफल बनाया । नागपुर के युवकों की ओर से पूर्ण स्वतंत्रता प्रप्ति तक अविराम संघर्ष करते रहने का प्रस्ताव भी उन्होंने अधिवेशन में रखवाया । 1921 के असहयोग आंदोलन में वे एक साल के लिये जेल भी गये । वहां उन्होंने देखा कि अपने भाषणो में बड़े-बड़े आदर्शो की बात करने वाले कांग्रेसी नेता जेल में एक गुड के टुकड़ों के लिये कैसे लड़ते हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण,अनुशासनहीनता और निजी स्वार्थपरता जैसी कांग्रेस-चरित्र की विशेषताओ को देखकर उनका मन इस ओर से खट्टा हो गया । इसके बाद ही उन्होंने सोचा ही बिना हिन्दू संगठन के भारत का उत्थान संभव नहीं है, क्योकि हिन्दू समाज ही देश का एकमेव समाज है। इसी के बाद 1925 में विजयी दशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की स्थापना की।"

हेगडेवार की इस कथा के बाद स्वयसेवक इस सवाल से जूझते है कि भाजपा की वजह से क्या संघ को लेकर हेडगेवार की सोच मर जायेगी । चर्चा आगे बढ़ती है तो भाजपा से बेहतर संघ के स्वयंसेवकों को वही काग्रेस भी नजर आने लगती है, जिसके खिलाफ कभी हेडगेवार कडे हुये थे । अनुशासन को लेकर कांग्रेस और भाजपा की तुलना । फिर निजी स्वार्थ को लेकर भाजपा नेताओं पर अंगुली उठाते हुये गिनती कम पड़ना । और फिर सत्ता के लिये गठबंधन की राजनीति को मुस्लिम तुष्टीकरण से कहीं ज्यादा खतरनाक ठहराते हुये यह सवाल करना कि संघ को कहां तक भाजपा को फिर से मथने के लिये जुटना चाहिये।
संघ के स्वयसेवको के भाजपा को लेकर यह सवाल सिर्फ नागपुर तक सीमित हो ऐसा भी नहीं है । यह सवाल राजकोट में भी मौजूद हैं और असम में भी । लेकिन संघ के लिये बड़ा सवाल यही से शुरु होता है । क्योंकि इस दौर में संघ अगर भाजपा को देखकर कोई टीका-टिप्पणी ना करे तो संघ की मौजूदगी का एहसास संघ में ही नहीं होता । इसलिये महत्वपूर्ण यह नहीं है कि सरसंघचालक भाजपा से जुडे हर सवाल का जबाब जहां जाते हैं, वहां पत्रकारों को देखकर या कहे कैमरो को देखकर देने लगते हैं। बल्कि पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन भी इसी तरह की प्रतिक्रिया देने लगे हैं । जैसा वह सरसंघचालक रहते हुये किया करते थे और सबसे अलोकप्रिय होते चले गये। स्थिति संघ के लिये इससे आगे बिगड़ रही है । पिछले दस वर्षो में वाजपेयी की अगुवायी में संघ के स्वयंसेवकों ने पांच साल देश जरुर चलाया। लेकिन इसी दौर में संघ अपनी जमीन पर ही परायी होती गयी और उसकी खुद की जमीन भी भाजपा की सत्ता महत्ता को बनाये रकने पर आ टिकी है। भाजपा के संकट ने संघ के सामने 92 साल में पहली बार ऐसी चुनौती रखी है, जहां से खुद का शुद्दीकरण पहले करना है। संघ का कोई संगठन पिछले दस वर्षो में सरोकार से नहीं जुटा। यानी जिस संगठन का जिस क्षेत्र में जो काम है, उसकी विसंगतियो से जूझते हुये हिन्दू समाज की व्यापकता को एकजुट करने की जो सोच हेडगेवार और गोलवरकर से होते हुये देवरस और रज्जू भैया तक फैली, उस पर भाजपा के उफान के दौर में कुछ इस तरह ब्रेक लगी कि संघ भी पिछडता चला गया ।

सवाल यह नहीं है कि जनसंघ और फिर भाजपा को संघ ने एक ठोस जमीन दी, इसीलिये उसे राजनीतिक सफलता मिली । महत्वपूर्ण है कि लोहिया से लेकर जेपी भी इस तथ्य को समझते रहे कि संघ के तमाम संगठन, जो अलग अलग क्षेत्रो में काम कर रहे हैं, अगर उन्हे साथ जोड़ा जाये तो राजनीतिक सफलता के लिये एक बडे समाजिक कार्य पर जाया होने वाले वक्त को बचाया जा सकता है। वनवासी कल्य़ाण आश्रम, भारतीय किसान संघ, विघा भारती, भारत विकास परिषद, संस्कार भारती, सेवा भारती, प्रज्ञा भारती, लधु उघोग भारती, सहकार भारती, विज्ञान भारती, ग्राहक पंचायत से लेकर हिन्दू जागरण मंच और विश्वहिन्दू परिषद जैसे दो दर्जन से ज्यादा संगठन संघ की छतरी तले देश के तीस करोड़ लोगो के बीच अगर काम रहे हैं तो उसका लाभ किसी भी राजनीतिक दल को मिल सकता है। इसका लाभ 1967 में गैर कांग्रेसवाद के नारे लगाते लोहिया ने भी उठाया और 1977 में जेपी ने जनता पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में भी उठाया । और यहां यह भी कहा जा सकता है कि 1990 में अयोध्या आंदोलन की अगुवायी करते लालकृष्ण आडवाणी उस मानसिकता के बीच नायक भी बनते चले गये जो चाहे अयोध्या आंदोलन का आडवाणी तरीका पंसद ना करता हो लेकिन संघ के तौर तरीके सो अलग अलग संगठनो के जरीये जुड़ा था।

1999 में वाजपेयी की जीत के पीछे महज कारगिल जीत का भावनात्मक प्रचार नहीं था, बल्कि सुदूर गांवो में भी संघ की शाखा इस बात का एहसास करा रही थी कि भाजपा कहीं अलग है । या कहे कांग्रेस से अलग राजनीतिक दल है, जो सरोकार को समझता है । लेकिन इसका एहसास कियी को नहीं था कि भाजपा की सत्ता संघ के लिये धीमे जहर का काम करेगी । यह ज़हर संघ के भीतर बीते दस साल में किस तरह फैलता चला गया इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 1998 के बाद से सिवाय विश्व हिन्दू परिषद के किसी संघठन की सदस्य सख्या में इजाफा नहीं हुआ। उतना ही नहीं जिन संगठनो ने जो भी मुद्दे उठाये, उन सभी मुद्दों का आंकलन राजनीतिक तौर पर भाजपा के घेरे में पहले हुआ, उसके बाद संघ के सरोकार का सवाल उठा।

आदिवासी, मजदूर, किसान , शिक्षा व्यवस्था, स्वदेशी यानी कोई भी मुद्दा भाजपा के लिये घाटे का है या मुनाफे का, इसकी जांच परख पहले हुई । फिर सत्ता में भाजपा के साथ खड़े राजनीतिक दलों की भी अपनी अपनी राजनीतिक जरुरत थी, तो भाजपा की राजनीतिक प्रयोगसाला में आने के बाद किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, हिन्दू जागरण मंच सभी कुंद कर दिये गये। क्योंकि इनके मुद्दे सरकार को परेशानी में डाल सकते थे। और जो लकीर आर्थिक सुधार के भाजपा के दौर में भी खींची, उसको इतनी महत्ता दी गयी कि उस वक्त सरसंघचालक सुदर्शन ने अपने से बुजुर्ग और ज्यादा मान्यताप्राप्त दंतोपंत ठेंगडी को भी खामोश करा दिया।

नया सवाल इसलिये गहरा है क्योंकि भाजपा के पास सत्ता है नहीं। और संघ के संगठनों की सामाजिक पहल भी भाजपा सरीखी ही हो चुकी है। यानी संघ का कोई संगठन अपने ही मुद्दे को लेकर कोई आंदोलन तो दूर मुद्दों पर सहमति बनाकर अपने क्षेत्र में ही किसी प्रकार का दबाब बना नहीं सकता है। स्थिति कितनी बदतर हो चली है, यह पिछले हफ्ते संघ के संगठनो की पहल से ही समझ लें। संघ के संगठनों ने पिछले हफ्ते जो काम किये, उसमें पर्यावरण को लेकर भोपाल में गोष्ठी है। जिसमें पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन ने कहा कि पश्चिमी देशो के सिद्दांत से ही पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है । हिन्दु मंच ने दिल्ली में आतंकवाद मुक्त पखवाड़ा मनाया, सेवा भारती ने उदयपुर में 695 मरीजो को शिविरो में जांचा । विश्वहिन्दू परिषद ने तमिलनाडु में कोडईकनाल के घने जंगलो में 207 वन बंधुओ की स्वधर्म वापसी करायी । नारी रक्षा मंच ने संस्कार को लेकर इंदौर में एक सम्मेलन किया। लखनऊ में स्व अधीश कुमार स्मृति व्याख्यानमाला हुई । आदित्य वाहिनी ने उड़ीसा में सनातन धर्म को बनाया। दुर्गा वाहिनी ने भारत तिब्बत सीमा पर सैनिको को रक्षा सूत्र बांधे। कह सकते हैं कमोवेश हर संगठन की कुछ ऐसी ही पहल बीते हफ्ते रही या कहें भाजपा के राजनीतिक हितो को साधने वाले संघ के तौर तरीको ने तमाम संगठनो को इसी तरह की सामाजिक कार्यो में लगा दिया। जहां सिवाय संबंघ बनाने और सामाजिक समरसता का भाव समाज में फैलाते हुये भरे पेट के साथ आराम तलबी के अलावे कुछ नहीं बचा।

संघ की जब यह हालात अपने संगठनो को लेकर है तब सवाल पैदा होता है कि उससे भाजपा को क्या राजनीतिक फायदा हो सकता है और भाजपा संघ को महत्ता क्यो दे। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि संघ के इन्ही संगठनों को जिलाये बगैर भाजपा का भी राजनीतिक भला नहीं हो सकता है क्योकि राजनीति चाहे सरोकार से नहीं सौदेबाजी से चलती है, लेकिन भाजपा के नेताओं को सौदेबाजी के टेबल तक पहुचने के लिये संघ का सरोकार चाहिये ही। नया सवाल है कि इन संगठनों में सरोकार की जान कैसे फूंकी जाये । खासकर जब संगठन से बड़े मुद्दे हो चले हैं और मुद्दो को लेकर कोई राजनीति इस देश में बची नहीं है। यानी एक तरफ जिन मुद्दो के आसरे हेडगेवार हिन्दु राष्ट्र का सपना संजोये थे, वही मुद्दे कही ज्यादा व्यापक हो कर राजनीति और संगठन को ही खत्म कर रहे हैं। तब संकट यह है कि इन मुद्दो को किस तरह उठाया जाये, जिससे संघ की पुरानी हैसियत भी लौटे और भाजपा भी महसूस करे कि उसका राजनातिक लाभ संघ के बगैर हो नहीं सकता । क्योंकि नये तरीके की राजनीति और सरोकार गुजरात की तर्ज पर उठ रहे हैं, जो आतंक की लकीर तले विकास और सत्ता को इस तरह रखता है। राजनीति सिमटती है और विकास से जुड़े मुद्दे धर्म का लेप चढ़ा लेते हैं। इन सब के बीच गठबंधन की सोच सर्व धर्म सम्माव की धज्जिया उड़ाती है और नरेन्द्र मोदी सरीखी मानसिकता संघ से भी बड़ी हो जाती है और सत्ता की सौदेबाजी भी मोदी के आगे छोटी होने लगती है।

इन नयी परिस्थितियो में अगर दिखायी देने वाला संकट विचारधारा के घेरे में संघ और भाजपा दोनों एक दूसरे के सामने खड़े हुये हैं । तो संघ परिवार की नयी बैचेनी एक-दूसरे के अंतर्विरोध को ठिकाने लगाकर खुद को खड़े करने की पैदा हो चली है। इसमें मुश्किल यह हो गयी है कि भाजपा के भीतर अगर आडवाणी को चुनौती देने के लिये एक अदना सा कार्यकर्त्ता भी खुद को सक्षम मान रहा है तो संघ में एक अदना सा स्वयंसेवक सरसंघचालक से बेहतर समाधान की बात कहने लगा है । यानी सत्ता की लड़ाई में सत्ताधारी ही महत्वहीन बन गये हैं।

पखवाड़ा मनाने की संघ की परम्परा आज देश झेल रहा है, तो अन्दाजा लगाया जा सकता है कि कौन किसे डस रहा है .....