Wednesday, 27 September 2023

जब शहर सो रहा था-



अहा बारिश और मैं, कभी झम झम के स्वर से आपकी नींद खुले, तो देखो जैसे बारिश पंचम स्वर में आलाप ले रही हो। घुप्प अंधेरे में बरसते मेघ जल को सुनना प्रेम के जादुई अक्षरों को सुनने से कम नहीं होता। बिन बादल बरसात के इन्ही दिनों में कोई मनोहरा मन को हर ले गई होगी।


बरसती बूंदों के संगीत, उसका स्पर्श, उसे महसूस करने के अपरिमित सुख का एकमात्र अधिकारी। दामिनी दमक रही घन माही, मेरे घर आंगन में लगा छितवन चमकने लगता है, उसकी पत्तियां फूल आई हैं। फूलना कितनी सुखद क्रिया है। प्रेम और मिलन की अभिव्यक्ति है फूलना। जीवन पुष्पित पल्लवित होने का नाम है, फूल जैसे हो जाने का नाम है। फूलने का आनंद ही देवत्व है। देव पर फूल चढ़ाते हुए शायद ही कोई इस भाव में हो कि देव से मिलन का आह्लाद कैसा होता है। भागदौड़ कर फूल फेंक दिया , लो जी हो गया मिलन, शुष्क मन से अर्पित फूल देव तक पहुंचने से पहले ही रुक्ष हो जाते होंगे। 

सिंदूरी बादलों को छूकर आती हवा में लाज की गंध बसी है। अनायास ही सितंबर की खुमारी मन को गुदगुदाने लगती है और बीते पलों के नाव पर बैठा देती हैं। कितनी शहद सी स्मृतियाँ मौसम के परों पर बैठी आस पास उड़ने लगती हैं। 
  
सिहराती नदी का वह किनारा दिखने लगता है जहाँ साँझ के कोमल पाँवों में कोई लाली लगा रहा होता है और शबनमी चाँद मुस्कान की तरह उभरता है, सितारों की कतार रोशन हो उठती है। ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने पारिजात के फूलों की छड़ी हवा में उछाल दी। त्यौहारों की उमंग का कोष धीरे धीरे बढ़ रहा होता है। 

शामें और उनकी सरगोशियाँ, लैंप पोस्ट से आती मद्धिम मुलायम सी रोशनी, यूँ  ही घूमते घामते बेवजह ही किसी चाय की टपरी पर कदम रुकते हैं। उबलती चाय रूमानियत का पर्याय बन जाती है। मौसम का स्वाद और गाढ़ा हो जाता है। एक कहानी का अक्स दिखता है जिसकी नायिका नीली साड़ी और पफ ब्लाउज पहने नायक के कंधे पर सर रख कर शाम का ढलना देख रही है, दोनो चुप हैं पर दोनो के हृदय-मध्यांतर भावयामि के गीतों से भरी एक  धारा बह रही है। 

सितम्बर मयूर सा है, त्योहार सा है, कुमकुम सा है, रास सा है, फूल सा है, सुगंध सा है, बंशी की धुन सा है। सितम्बर प्रेम सा है, सितंबर प्रेम है। 

समय कब गुजर जाता है पता नहीं चलता, मैं अपनी सारी सजगताएं खो देना चाहता हूं, बरसते पानी में बहा देना चाहता हूं, बहाकर ठीक वैसे खुश होना चाहता हूं जैसे बच्चे पानी में कागज की नाव बहाकर खुश होते हैं। अचानक बस की पों पों से फूल कुम्हला जाता है। साढ़े छह बजे हैं। सड़क पर स्कूल बस आई है, एक मां अपने बच्चे को बस में बैठा रही है, बड़बड़ाए जाती है, पन्नी लपेटे बच्चा भी कूं कां करता हुआ पीठ पर बैग लादे पानी से बचते हुए बस में बैठ रहा है। मैं केवल इतना सुन पाता हूं, बड़ा ही गंदा मौसम है। मन में फांस सा धंस जाता है।

मौसम के सौंदर्य बोध की ग्रंथियों को मार कर हम कौन सी शिक्षा व्यवस्था का निर्माण कर रहे हैं, बच्चों का बचपन खाता स्कूल जेल से भी बदतर कब हो गया कुछ पता नहीं चला, मां बाप की इतनी हिम्मत नही है कि कह दें, मत जा स्कूल चल आज कैरम खेलते हैं, बरसात को सेलिब्रेट करते हैं। उन्हें डर है कि एक दिन भी क्लास मिस होने से बच्चा गंवार हो जायेगा। 

मुझे ख्याल आता है कि शायद सुपरसोनिक स्पीड से भागती हुई सभ्यता में ठहर कर बारिश को देखने बात अजीब हो सकती है या विकास की दौड़ में एक एक सेकंड का इस्तेमाल कर कर्मठ लोगों के मध्य बरसात की जल-तरंगो को सुनना कहीं असभ्यता की श्रेणी में तो नहीं आता। बारिश बदस्तूर जारी है, दामिनी दमक रही है, घनराज की दुंदुभी बज रही है, पन्नी में लिपटे लोग पानी में भाग रहे हैं, दरअसल पानी से भाग रहे हैं, दरअसल पूरी सभ्यता अब पानी से भाग रही है, या पानी के पीछे भाग रही है।

Sunday, 24 September 2023

एक दिन का विजेता -



नज़र से जो तजुर्बा हासिल हुआ है, वह कहता है कि आंखों की देखी आधी सच मानो और कानों की सुनी पर पूरा यक़ीन मत करो, क्योंकि अगर सिर्फ आंखे और कान ही तुमको सच के दर्शन करवाते, तो यूँ बहके बहके लोगों की भीड़ न होती। कुछ है, जो तुम्हे समझना है, बस यही दो लफ्ज़ उस चौखट पर बोलने है, कहने हैं और निकल जाना है उधर, जिधर नज़र को तराशना सिखाया जाता है।


यार मेरे, संडे आते-आते जीवन चाईनिज बैटरी सा हो जाता है। हम पांच/छह दिन बेतहाशा काम किए जाते हैं। इन पांच दिनों में कुछ लोगों से हम नाराज़ होते हैं, कुछ हमसे होते हैं। कोई हमें कुछ सुना जाता है और हम अनसुना कर जाते हैं। कितनी-कितनी अपेक्षाओं और उपेक्षाओं के बीच का जीवन जी रहे होते हैं हम। जीते जाते हैं बस इस आस में कि मेरे हिस्से में एक संडे तो है।

संडे को मन की गिरहें खुलनी शुरु होती है। सख्त और अनुशासित जीवन की पकड़ ढीली पड़नी शुरु होती है और हम ख़ुद भी उसे यूं ही छोड़ देते हैं। मन की गिरहें खुलनी शुरु होती है तो बातें शुरु होती है। हर वो बात जिसे पिछले छह दिनों तक हमने अनसुना किया, यूं कि जैसे मुझ पर किसी बात का कोई फर्क़ नहीं पड़ता। वो छोटी बातें जो दिमाग़ पर असर तो करती है लेकिन हम हावी होने देना नहीं चाहते। बातें, चाय, पोहे, बातें और तब तामझाम से अलग सीधे-साधे जीवनवाली चाय, वो चाय और उन दिनों ती चाय जिसके साथ एक वाक्य नत्थी हुआ करता-आज कौन चाय पिला रहा/रही है ?

किसी ने क्या खूब कहा है मेरे दोस्त मन का खुलना बहुत मुश्किल चीज़ है, सबके आगे नहीं खुलता। जिसके आगे खुल जाय तो समझिए कि शहर ने आपको अपना लिया है। मन खुला कि हम फैब इंडिया की कटलरी और तामझाम से एकदम टपरीवाली कांच की गिलास पर उतर आते हैं। एकदम मामूली, एकदम औसत, लेकिन मामूली और औसत होना आसान है क्या ? बिना मन के खुले ये संभव है क्या ? शहर में ये सबसे दुर्लभ बात है। आज मन खुला तो चाय की रंगत और पेश किए जाने का अंदाज़ भी बदल गया। शहर में रोज का जीवन आसान नहीं है, रोज हम एक युद्ध से गुज़रते हैं और परास्त होते हैं। बस ये है कि जिसके हिस्से संडे और मन को समझनेवाला कोई सामने बैठकर सुननेवाला हो तो वो समझिए एक दिन का विजेता है। हम सब टाइम और स्पेस से बँधे हैं। किसी एक में परिवर्तन दूसरे में भी बदलाव की वजह होती है। दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। 


लेकिन, समय का एक ऐसा भी रूप है जो घड़ी के हिसाब से नहीं चलता उसे समझना कहीं ज्यादा मुश्किल है। आप गौर से देखें, तो पाएँगे कि समय तो केवल बिखराव ही लेकर आता है- बेतरतीबी, अव्यवस्था लेकर आता है। इसी में सृजन के बीज भी होते हैं। इसी से आपकी पूरी स्थिति बदलने वाली होती है।

और आप हैं कि सब कुछ फिक्स चाहते हैं जीवन में, कोई भी परिवर्तन आपको सहज स्वीकार नहीं होती जबकि स्थिरता समय का स्वभाव ही नहीं है, बदलाव और बिखराव ही सत्य है। आपको उसके साथ सामंजस्य बिठाना होगा, अनिश्चितता को स्वीकार करना होगा। यही राह है और यही मंजिल भी। इसे समझ जाएँगे तो बहुत से मनोविकारों या कल्पनाओं से बच कर वर्तमान क्षण का लुत्फ़ ले पाएँगे।

"उम्र के साथ इतवारों की तलब जल्दी-जल्दी लगने लगी है। सोचता हूं हाक़िम को एक चिट्ठी लिखूं, कि हफ्ते में दो इतवार का एलान कर दें, तलब बुरी चीज है।”

Saturday, 23 September 2023

मेले, आशा के पंख



किसी ने सच ही कहा है बिना फूलों के शहद मधुमक्खी नही, एक लालच से ओतप्रोत व्यापारी अत्यधिक धन कमाने की आशा के साथ बनाता है। आशा एक पंख वाली चीज है जो आत्मा में बसती है और बिना शब्दों के धुन गाती है और कभी रुकती नहीं है। ठीक वैसे ही मेले और मेले में पनपने वाली कहानियाँ भी है।


बागेश्वर की गर्म धूप और डंगोली मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रम देखती सुनहरे सूट वाली वो लड़की। गुलाबी दुपट्टा जिससे चेहरे को धूप से बचाया गया और एक म्याऊं म्याऊं वाला बड़ा सा चश्मा।


मैं पहुंचे, उन्होंने देखा और इशारे से पास बुला कर बगल बैठा लिया। हम दोनों के कुर्ते सुनहरे थे। उन्होंने अपना संगीत प्रेम ज़ाहिर किया और हम कौतिक का एक वृहद् गोल चक्कर लेकर चाय पीने निकल पड़े। हमने देखी मेले में गजब की भीड़ पर उस भीड़ में मानो हम अकेले हों। ऐसे टहल रहे हों जैसे कोई नवाब अपनी रियासत के किसी बगीचे में अपनी महारानी की बाहों में बाहं डाले सैर पर निकला हो।


उन्होंने खूब बातें की। हम देखते रहे। हम सुनते रहे। सब मानो 5D में चल रहा था। जब उन्हें देखते तो कुछ सुनाई न देता, जब उन्हें सुनते तो कुछ दिखाई न देता। जिंदगी की तमाम उलझनों में स्वादिष्ट चाय सा है ख़्वाब तुम्हारा।


साथ होना पास होने से ज्यादा जरूरी होता है। वो चलीं गयीं। सब चले जाते हैं। जाते हुए उनको देर तक देखते रहे। ओझल होने तक। पलट कर दूसरी तरफ देखा तो उनकी खुशबू आ रही थी। कंधे के पास नाक रखी तो उनकी महक छूट गयी थी।

मुस्कुराहट कभी ऐसे भी सिकुड़ती है जैसे किसी पंक्षी के पर थकने के बाद। आंखें खुली हुई भी निस्तेज हो जाती हैं। कभी बसंत में ही चेहरा फीका पड़ जाता है। जीवन में कई दिन बड़े मशरूफ होते हैं। कई स्मृतियां यहीं किसी रंग से भीगे हुए पात्र में विलुप्त हो गए सिक्के की तरह गुम हो जाती हैं, फिर एकाएक यूं आकर सामने बैठती हों जैसे दरवाजे पर कोई फकीर जिसकी आंखों में सदियों का सन्यास है।

ऐसे ही कुछ स्मृतियां आंखों के सामने तैरने सी लगीं। जीवन के बाइस्कोप की रील पीछे घूमने लगी। हृदय में एक जोरदार धक्का सा लगा। जीवन के सारे दिन बादलों संग उमड़ आसमान में मंडराने लगे। एक कहानी जिसे मेले की इस भीड़ में शायद कोई महसूस कर पा रहा हो। प्रेम में हमेशा कुछ न कुछ छूट ही जाता है न? यहां मैं का सम्बोधन एक किरदार से है जिसे में बड़ी देर से देख रहा था। समझने की कोशिश कर रहा था। वैसे मेले के भी अपने रंग, अपनी कहानियाँ व अपने किरदार होते हैं।

♦️अनावश्यक टिप्पणी वाले टिप्पणीकारों के लिए नोट— जिस दिन बनूँगा इतिहास बनूँगा एक रात का किस्सा नही बनना चाहता मैं, जो भी करूँगा सबसे हट कर करूँगा औरों की तरह भीड़ का हिस्सा नही बनना चाहता मैं।

जय माँ कोटभ्रामरी 🙏🏻

Thursday, 14 September 2023

दिलों में धड़कती हिंदी-



अब हम तो जन्म से ही हिंदी माध्यम वाले लड़के हैं।लेकिन आजकल वाले बच्चे दुनिया में आने से पहले ही इंग्लिश मीडियम टाइप हो जाते हैं। हमारे और उनके बचपन में ही बहुत अंतर है। जहाँ हमें किसी रिश्तेदार के आने पर कहा जाता कि बेटा चाचा जी से "जय जय" करो ! और हम बेझिझक सलाम ठोक देते थे।
पर आजकल की मम्मियाँ कहतीं हैं बेटा अंकल को फ़्लाइंग किस दो !! और आसानी से बच्चा फ़्लाइंग किस के साथ बोनस में आँख भी मारता है। अब बच्चे तो मिटटी के कच्चे घड़े हैं वे वही सीखेंगे जो सिखाया जाएगा।


खैर इनके बाद आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो ,आज का इंसान भले ही अंग्रेज हो गया हो लेकिन गाली आज भी हिंदी में देता है। आज कोई अंग्रेजी बोले तो उसे हिंदी में समझाना पड़ता है। बरहाल हिंदी का हमारे जीवन में उतना ही महत्व है जितना कि psychology में P का है।

हिंदी है हम, वतन है हिंदुस्तां हमारा' लेकिन आज लगभग सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी में प्रश्न पूछना एक परंपरा सी है, जिससे हिंदी पूर्ण तय: उपेक्षित रही है। 

कोई भी भाषा राष्ट्र की धड़कती हुई जिंदगियों का स्पंदन है। भाषा संस्कृति की वाहक भी होती है। हमारी अपनी हिंदी भी कुछ ऐसी ही है, जिसमें जिंदगी के अनोखे रंग बयां होते रहते हैं। विपरीत परिस्थितियों में हिंदी ने देश में अपने पैर जमाए। मुगल काल में हिंदी का विकास तेजी से हुआ तब भक्ति आंदोलन ने हिंदी को जन-जन से जोड़ा था। अंग्रेजी राज में भी स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्य भाषा होने के चलते हिंदी का विकास हुआ।

अमीर खुसरो की पहेलियों, मुकरियों से होते हुए कबीर के दोहों, तुलसीदास की चौपाइयों से होती हुई हिन्दी आधुनिक युग तक पहुंची। यहीं पर हिंदी आम- बोलचाल से लेकर अखबार, टीवी, रेडियो, सिनेमा, विज्ञापन समेत कई विधाओं को व्यक्त करने का माध्यम बनी। स्मार्टफोन से लेकर मेट्रो शहरों तक हिंदी का आज धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। 1826 में हिंदी का पहला अखबार उदंत मार्तंड आया। 1950 में हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला।

आज हम 'हिंदी दिवस' मना रहे हैं जिसकी शुरुआत 14 सितम्बर 1953 को हुई थी। हम आज तक हिंदी को जनभाषा, राजकाज की भाषा एवं कानून की भाषा नहीं बना सके। यह एक ज्वलंत प्रश्न है। सोचिए जरा - भारत एक है, संविधान एक है, लोकसभा एक है, सेना एक है, मुद्रा एक है, राष्ट्रीय ध्वज एक है तब क्या इसी तरह समूचे देश में हिंदी को भी एक राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मान नहीं मिलना चाहिए?

 भारत और अन्य देशों में 70 करोड से अधिक लोग हिंदी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं और यह विश्व की सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली तीसरी भाषा है। भारत के अलावा कई अन्य देश ऐसे हैं, जहां लोग हिंदी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। इन देशों में नेपाल, मॉरीशस, फिजी, पाकिस्तान, सिंगापुर, त्रिनिदाद एंड टोबैगो,बांग्लादेश शामिल हैं।

 'हिंदी है हम, वतन है हिंदुस्तां हमारा' लेकिन आज देश में दो देश जी रहे हैं। एक पुराना भारत जिसे आज का शिक्षित वर्ग रूढ़िवादी मानता है। दूसरा भारत 'शिक्षित वर्ग- अंग्रेजीदां' है, जो न देश को जानता है, न परंपराओं के पीछे छिपे तत्वों को ही समझना चाहता है। मुगल आए तो उन्होंने 'भरत के भारत' को 'हिंदुस्तान' बना दिया। अंग्रेज आए तो यह 'इंडिया' बन गया। अंग्रेज चले गए तो 'इंडिया डैट इज भारत' बन गया, जो अंग्रेजियत है आज भी बची हुई है‌। इसे देखकर लगता है कि यह 'इंडिया डैट बाज भारत' न हो जाए।

लगता है आज देश में अंग्रेजों का राज (अंग्रेजी मानसिकता और संस्कृति का) स्थापित होने लगा है। भारतीय संस्कृति एवं हिंदी आज भी अंग्रेजीदां के साथ बंधी  है। इस बंधन को खोलना होगा, क्योंकि आज अंग्रेजियत हावी होती जा रही है। भारतीयता के साथ 'हिंदी की जड़' को 'अंग्रेजी कुल्हाड़ी' से काटा जा रहा है। क्या इसी का नाम 'अमृत महोत्सव' है।

आधुनिकता की ओर तेजी से अंग्रसर कुछ भारतीय ही आज भले ही अंग्रेजी बोलने में अपनी आन-बान-शान समझते हो, किंतु सच यही है कि 'हिंदी' ऐसी भाषा है जो प्रत्येक भारतवासी को वैश्विक स्तर पर मान-सम्मान दिलाती है। सही मायनों में हिन्दी विश्व की प्राचीन समृद्ध एवं सरल भाषा है।

भारत की राजभाषा हिंदी जो न केवल भारत में बल्कि अब दुनिया के अनेक देशों में बोली जाती है, पढ़ाई जाती है। भले ही दुनिया में अंग्रेजी भाषा का सिक्का चलता हो लेकिन हिंदी अब अंग्रेजी भाषा से ज्यादा पीछे नहीं है। उसका सम्मान कीजिए। हिंदी में बोलिए। हिंदी में पत्र व्यवहार कीजिए। तभी सार्थक होगा आज का 'हिंदी दिवस'।

♦️हिंदी का नाम "हिंदी" कैसे पड़ा?
आप सभी हिंदी दिवस के इतिहास के बारे में तो जानते ही हैं, लेकिन क्या आप यह जानते हैं आखिर हिंदी भाषा का नाम हिंदी कैसे पड़ा। अगर नहीं, तो चलिए आपको इसके बारे में बात करते हैं। शायद भी आप जानते होंगे कि असल में हिंदी नाम खुद किसी दूसरी भाषा से लिया गया है। फारसी शब्द ‘हिंद’ से लिए गए हिंदी नाम का मतलबसिंधु नदी की भूमि होता है। 11वीं शताब्दी की शुरुआत में फारसी बोलने वाले लोगों ने सिंधु नदी के किनारे बोली जाने वाली भाषा को ‘हिंदी’ का नाम दिया था।

♦️क्यों 14 सितंबर को ही मनाते हैं हिंदी दिवस?
14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाने की एक नहीं,बल्कि दो वजह है। दरअसल, यह वही दिन है, जब साल 1949 में लंबी चर्चा के बाद देवनागरी लिपि में हिंदी को देश की आधिकारिक भाषा घोषित किया गया था। इसके लिए 14 तारीख का चुनाव खुद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। वहीं, इस दिन को मनाने के पीछे एक और खास वजह है, तो एक मशहूर हिंदी कवि से जुड़ी हुई है। इसी दिन महान हिंदी कवि राजेंद्र सिंह की जयंती भी होती है। भारतीय विद्वान, हिंदी-प्रतिष्ठित, संस्कृतिविद और एक इतिहासकार होने के साथ ही उन्होंने हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने में अहम भूमिका निभाई थी।

जैसा कि आप जानते हैं, आज हिंदी देश की आधी से ज्यादा आबादी की आम जुबान है। सिनेमा, टीवी ने इसे बाजार व्यवसाय की एक कामयाब भूमिका में ढाला है। रोजगार की व्यापक दुनिया खुली है। फिर भी हिंदी हमारी जीवन शैली का जरूरी हिस्सा बनती नहीं दिख रही। आखिर क्यों? कौन सी ऐसी हिचक है जो आड़े आ रही है?

बाक़ी सबके लिए आज हिंदी दिवस है जो मेरे लिये रोज होता है और आज ये ख़ास सिर्फ इसलिए है क्योंकि चौदह सितम्बर प्रतियोगी परीक्षाओं में पूंछा जाने वाला एक महत्वपूर्ण प्रश्न भी है ! बकाया आज के दिन एक सेल्यूट गूगल इंडिक कीबोर्ड को भी जिसकी बजह से ये मन की बातें आप सब तक पहुँच पाती है। इस हिंदी कीबोर्ड पर, हम आप के विचार जब उँगलियों के रूप में थिरकते हैं तो हर रोज हिन्दी दिवस हो जाता है।
पढ़ने के लिये शुक्रिया... 

आप सभी हिंदी प्रेमियों को हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।

Sunday, 10 September 2023

प्रेम …. (One sided Love)




आज एक फ़ोन आया - हैलो हैंडसम! कैसे हो? क्या कर रहे हो इन दिनों?

आवाज़ जानी पहचानी सी थी फिर मैंने ट्रू कॉलर पर सर्च किया तो ये वही थी जिसके होने का मुझे अंदाज़ा था। 


मैंने भी जवाब दिया - “राजकुमार नाम है मेरा ! मैं आजकल इत्मिनान से दूसरों को ठीक करने का काम करता हूँ। अपनी सुनाइए आज अचानक सात साल बाद कैसे ?” 

दूसरी तरफ़ से जवाब आया - “इतना सख़्त लहज़ा ? वो भी अपने दोस्त के साथ ? एक शायर का दूसरे से ये बर्ताव ठीक नहीं महाराज।” 

मुझे हंसी आ गयी और जान बूझकर उस हँसी को व्यंग्यात्मक रूप देने से भी परहेज़ नहीं किया मैंने। 

और कह ही दिया - “ यूँ पैसे देकर ग़ज़ल ख़रीदने से कोई शायर नहीं बनता ये सोहबत आप पैसे वालों को मुबारक ! मैं मेरे क़िस्से कहानियों से खुश हूँ। रही बात लहज़े की तो वो तो ज़माना जैसा है वैसा तो बनना पड़ता ही है!”

दूसरी तरफ़ से जवाब आया -“ देखो ! ये शब्दों में तो तुमसे मैं जीत नहीं पाऊँगी इसलिए सीधे सीधे पूछ रही हूँ। आज भी सिंगल हो क्या ? मैं चाहती थी कि जो मेरे साथ हुआ वो सबके साथ हो पर तुमने तो मना ही कर दिया था तो मुझे बुरा लगा और हमारी दोस्ती भी ख़त्म कर ली मैंने ! उसके लिए माफ़ी “

मुझे तो जैसे मालूम ही था ये होना है -“ दोस्ती? हम दोस्त कब बने। सिर्फ़ एक मुलाक़ात हुई उसमे भी हमारी कोई बात नहीं हुई 2 दिन तुमने msg किए और फिर तुम्हारे प्रपोजल का सुनकर बात ख़त्म ! आज भी शायद ऐसा ही हो!”

दूसरी तरफ़ से जवाब आया -“ तुम्हारे लहजे में ग़ुरूर बढ़ गया है ये फेम का ग़ुरूर नहीं है। ज़रूर कोई है तुम्हारी ज़िंदगी में ! तुम जानते हो नहीं तो कोई आदमी नज़र मिलाकर ना नहीं कह सकता।“

मैं खो चुका था ये बात सुनकर इन दस दिनों में ये तीसरी बार मैं सुन रहा था कि मेरी बातों में किसी के साथ का ग़ुरूर झलक रहा है। 

मैंने भी बोल ही दिया -“ हाँ है कोई। मैं पसंद करता हूँ उसे पर वो नहीं! “ 

दूसरी तरफ़ से जवाब आया -“ वाह ! एक तरफ़ा में इतना ग़ुरूर ! अगर वो हाँ कर दे किसी दिन तो फिर तो तुम दुनिया से बाक़ी हसीनाओं को ही ख़त्म कर दोगे? “ 

मैंने भी कह ही दिया -“ हो सकता है फिर तो पहला नंबर तुम्हारा ही हो! दुनिया का तो पता नहीं पर हमारी ये आख़िरी बात है अब दोबारा 7 साल इंतज़ार मत करना!” 

दूसरी तरफ़ से जवाब आया -“ महाराज ! ये मौसमी बुख़ार है ! तीन महीने से पहले उतर जाएगा! फिर भी तो किसी रिश्ते को हाँ कहोगे ही ! हम दोस्त क्या बुरें है फिर?” 

चलो फिर, करते हैं इंतज़ार ! जब बुख़ार उतरेगा तो आपको ज़रूर याद करेंगे। आज ब्लॉक लिस्ट में एक नाम और जुड़ गया ..

ग़रीबों के लिए भगवान—



किसी ने क्या खूब फ़रमाया है साहब, इस जहां में रोता वही है जिसने सच्चे रिश्ते को महसूस किया हो, वरना मतलब का रिश्ता रखने वालों की आंखों में न शर्म होती है और न पानी।


कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो अमीर लोग कांवड़ नहीं ढोते हैं। अमीर लोग बाबाओं की भीड़ में नहीं बैठते हैं। अमीर लोग किसी धार्मिक स्थल पर पैदल नहीं जाते हैं। अमीर लोग मंदिरों की लाईनों में नहीं दिखते हैं। अमीर लोग नेताओ की रैलियों में नहीं होते हैं। अमीर लोग किसी जुलूस, प्रदर्शन में भी नहीं मिलते हैं। हर भीड़ का हिस्सा केवल गरीब होता है।

क्योंकि उसे आसानी से भ्रमित किया जा सकता है। उसके जानने, समझने के स्रोत बहुत नाजुक होते हैं। उससे नाजुक उसकी भावना होती है क्योंकि वह भावना स्थाई नहीं होती।

कुछ अपवादों को छोड़ कर देखा जाय तो अमीर कभी भी गरीब को अपने बराबर नहीं देखना चाहता इसलिए अपनी शिक्षा, ज्ञान और सही दिशा में किये गए मेहनत और प्रयासों की बात को वह सार्वजनिक नहीं करता, वह इस उपलब्धि को ईश्वर का चमत्कार बताता है। गरीब उसे सच मानने लगता है और उसे पाने के लिए हद से गुजरने लगता है।

शायद भारत मे गरीबी का मुख्य कारण अशिक्षा, अंधविश्वास, संसाधनों की कमी और लोगों को भ्रमित होना ही है।

“मैं वह नहीं हूँ साहब जो दिखता हूँ, मैं वह हूँ जो लिखता हूँ”

रीढ़ लचीली और चमड़ी मोटी—


प्रजातंत्र सिर्फ सरकारी व्यवस्था में आवश्यक नहीं है, रिश्तो में भी आवश्यक है। जब तक कोई रिश्ता प्रजातांत्रिक नहीं होता, तब तक प्रेमिल नहीं हो सकता। शब्दों के बीज से विचारों के वृक्ष बनते हैं, मैं सचेत रहता हूं कि जब इनसे फूल झरें, तो सहेजे जाएं किताबों के बीच में।


शब्दों की चुभन, तमाम उम्र चुभती है। कितना भी मुस्कुरा दो, मगर दिल में वही बात दुखती है। एक राजनीतिक जीवनी में लिखा था- “वह एक आदर्श राजनीतिज्ञ की परिभाषा को चरितार्थ करते हैं। उनकी रीढ़ लचीली और चमड़ी मोटी है।”

यह कटाक्ष की तरह नहीं, बल्कि प्रशंसा की तरह लिखा था। जैसे पियानो-वादक की उंगली लंबी, बल्लेबाज़ की बाहें मजबूत, घड़ीसाज की आँखें बारीक, तबलावादक की हथेली सख़्त, चोर के कदम हल्के, हलवाई की नाक तेज, फेरीवाले की आवाज ऊँची होनी बेहतर है; उसी तरह राजनीतिज्ञ में ये दो गुण अवश्य हों। 

एक बेहतरीन वृत्तचित्र जैसी फ़िल्म है जिसमें एक व्यक्ति की नौकरी लगती है। उसको दिल्ली के केंद्रीय इलाके जहाँ तमाम सांसद रहते हैं, वहाँ से बंदर भगाने होते हैं। उसके प्रशिक्षण में उसे बंदर से संवाद करना सिखाते हैं। बंदर की तरह आवाज़ निकाल कर। वह दिन-रात रियाज़ करता है मगर बंदर की आवाज़ नहीं निकलती। हर महीने उसका वेतन काट लिया जाता है। 

आखिर वह एक तरकीब निकालता है। वह एक लंगूर का भेष धारण कर लेता है। वह बंदरों के बीच लंगूर बन कर उनको भगाता है।

नज़र से जो तजुर्बा हासिल हुआ है, वह कहता है कि आंखों की देखी आधी सच मानो और कानों की सुनी पर पूरा यक़ीन मत करो। क्योंकि अगर सिर्फ आंखे और कान ही तुमको सच के दर्शन करवाते, तो यूँ बहके बहके लोगों की भीड़ न होती। कुछ है, जो तुम्हे समझना है, बस यही दो लफ्ज़ उस चौखट पर बोलने है, कहने हैं और निकल जाना है उधर, जिधर नज़र को तराशना सिखाया जाता है....

Sunday, 3 September 2023

मेरे 'मैं' और तुम्हारे 'मैं'



मैं ने देखी, मैं की माया।
मैं को खोकर, मैं ही पाया।।

हम संतों के पास मार्गदर्शन के लिए नहीं जाते, हम चमत्कारों के लिए जाते हैं। हम इतने आलसी हैं कि किसी भी मार्ग पर चले बिना ही मंज़िल तक पहुँचना चाहते हैं। ईश्वर के प्रति प्रेम को हॄदय में रखने की बजाय, अलमारी में बने मंदिर में रखना चाहते हैं, जहाँ सुबह शाम ढोक देकर अपने मनचले मन को तसल्ली दी जा सके।
मार्ग में आने वाली बाधाएं और तप सहन किए बिना मन में मंज़िल के ख़्याली पुलाव पकाए जा सकते हैं लेकिन मंज़िल तक नहीं पहुँचा जा सकता। चमत्कार भी उसके साथ ही होता है, जो पिया मिलन के लिए रोता है।

कहते हैं कि तुम जिसके भी व्यक्तित्व पर अधिकार चाहोगे, उसे अपने जैसा ही बना लोगे। इसका विपरीत भी उतना ही सच है यानि हम जिसे भी अपने ऊपर अधिकार देंगे, हम उसके जैसे ही बन जाएँगे।


अधिकार में प्रभुत्व की इच्छा छुपी है। जहाँ भी दो (द्वैत) होंगे वहाँ अधिकार का यह युद्ध चलता रहेगा और इस युद्ध से अशांति उपजती रहेगी। बहुत से लोगों को कहते सुना होगा, "या तो तुम मेरे जैसे हो जाओ या फिर  मैं तुम्हारे जैसा बन जाऊँ!" यह वाक्य मन की अशांति (द्वैत) को समाप्त कर के एक सहज जीवन जीने की कामना में बोला जाता है, एक ऐसा सुरक्षित जीवन जीने की कामना में बोला जाता है जहाँ अपना सबकुछ (व्यक्तित्व) खोने के बाद भी लगता हो कि सबकुछ मिल गया है। लेकिन यह सिर्फ़ एक कामना ही है।

सहज जीवन मात्र सत्य के प्रकाश के साथ ही जिया जा सकता है। सत्य का प्रकाश यानि प्रेम के साथ, यानि एक स्वस्थ मन के साथ। सत्य तुम्हें अपने जैसा बनाने का प्रयास नहीं करता, यह काम तो झूठ का है क्योंकि वह स्वयं के समाप्त होने से घबराता है।

अगर किसी ने तुम्हें अपने मन में जगह दी है तो तुम्हारी ज़िम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है कि तुम उसका मन गंदा न करो। अगर आपने किसी को अपने मन में जगह दी है तो यह देखना भी आपकी ज़िम्मेदारी है कि उसके आने से आपके मन में किन चीजों का आगमन हुआ है क्योंकि फिर उस ओर ही तुम्हारा गमन होगा।

जिस मन की आंखों से हम हर चीज़ को देखते हैं, उन आंखों पर एक ऐसा चश्मा लगा है जिसमें समय के साथ अनगिनत दरारें आ गई हैं। इन दरारों के पीछे से जो भी देखा जाएगा, वो चीज़ दरअसल वह नहीं होगी जो हमारी मन की आंखों ने देखी, भले से ही उसमें अनगिनत रंग नज़र आएं, भले से ही उसके अनगिनत स्वरूप नज़र आएं। असली स्वरूप तो तब ही दिखेगा जब हम अपना यह चश्मा उतार देंगे।

इसीलिए ऐसा नहीं है कि हमने यदि प्रेम को नहीं जाना तो सिर्फ़ प्रेम को ही नहीं जाना, प्रेम को न जान पाना किसी भी चीज़ के असली स्वरूप को न जान पाना है, फिर हमने कुछ भी नहीं जाना।

मेरे 'मैं' (मन) और तुम्हारे 'मैं' (मन) में बस उतना ही अंतर है
जितना सोने के कंगन और सोने के हार में है,दोनों एक ही तत्व (सोने) से बने हैं।

किसी ने क्या खूब फ़रमाया है, जवानी में कामवासना सताती है और बुढ़ापे में पत्रकार सताते हैं, जनाब ज़िंदगी कुछ यूँ ही बिताते (गँवाते) हैं।