Tuesday, 22 February 2022

एक्स-प्राणेश्वरी को पत्र



“बचपन से मेरी अम्मा मुझे एक ही चीज़ कहती आयीं हैं — बेटा जीत के आना। कोई बेस्ट ऑफ़ शेस्ट ऑफ़ लक नहीं, बस जीत के आना” इसी को आधार बना प्रेम में युवा संघर्षों के दास्तान की एक नई शृंखला आपके सम्मुख रख रहा हूँ, उम्मीद है आपको पसन्द आए….


देवियों, माताओं और बहनों,
अब मेरे पास मात्र यही सम्बोधन शेष बचे हैं जिनसे इस देश में एक पुराना प्रेमी अपनी अतीत की प्रेमिकाओं को पुकार सकता है। वे सब कोमल मीठे शब्द, जिनका उपयोग मैं प्रति मिनट दस की रफ़्तार से नदी-किनारों और पार्क की बेंचों पर तुम्हारे लिए करता था, तुम्हारे विवाह की शहनाइयों के साथ हवा हो गये। अब मैं तुम लोगों को एक भाषण देने वाले की दूरी से माता और बहन कहकर आवाज़ दे सकता हूँ। 

वक्त के गोरखनाथ ने मुझे भरथरी बना दिया और तुम्हें माता पिंगला। मैं अपनी राह लगा और तुम अपनी। आत्महत्या न तुमने की, न मैंने। मेरे सारे प्रेमपत्रों को चूल्हे में झोंक तुमने अपने पति के लिए चाय बनायी और मैंने पत्रों की इबारतें कहानियों में उपयोग कर पारिश्रमिक लूटा। 

‘साथ मरेंगे, साथ जियेंगे’ के वे वचन, जो हमने एक-दूसरे को दिये थे, किसी राजनीतिक पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र के किये गये वायदों की तरह ख़ुद हमने भुला दिये। वे तीर, जिनसे दिल बिंधे थे, वक़्त के सर्जन ने निहायत खूबसूरती से ऑपरेशन कर निकाल दिये और तुम्हारी आंखें, जो अपने ज़माने में तीरों का कारखाना रही थीं, अब शांत और बुझी हुई रहने लगीं, मानो उनका लाइसेंस छिन गया। मेरी आंखों पर अब मायनस पांच का चश्मा लग गया है, यानी अब मेरे-तेरे प्रेम के सभी खोके खाली हो गये, बांसुरिया बिक गयी और इश्क का झंडा, जो हमने वायदों की डोर से खींचकर ऊपर चढ़ाया था, पुत्र-जन्म के बिगुल के साथ नीचे उतार दिया गया। 

मेरी एक्स-प्राणेश्वरी, तुम मेरी ज़िंदगी में तब आयी थीं, जब मुझे ‘प्रेम’ शब्द समझने के लिए डिक्शनरी टटोलनी पड़ती थी। पत्र-लेखन मैं एक्सरसाइज़ के बतौर करता था। घर की देहरी पर बैठा मैं मुगल साम्राज्य के पतन के कारण रटता और तुम सामने नल पर घड़े भरतीं या रस्सियां कूदतीं। मानती हो कि मैंने अपनी प्रतिभा के बल पर तुम्हें आंखें मिलाना और लजाना सिखाया। दरवाज़े के पीछे छिप तुमने पहली बार कोमल निगाहों से बंदे को ही देखा था। ताश की गड्डी छीनने के बहाने मैंने तुम्हारा हाथ पहली बार पकड़ा और नोचने के लिए गाल पहली बार छुआ। उन दिनों तुम्हारे-मेरे बीच जो गुज़रा वह किसी घटिया फिल्म से कम नहीं था, पर फिर भी अपने-आपमें बॉक्स ऑफिस था। मेरी जान, मैंने ही तुम्हें आईने का मतलब समझाया, मेरी वजह से तुमने दो चोटियां कीं और रिबन बांधे। मैंने तुम्हें ज्योमेट्री सिखाते वक्त बताया था कि यदि दो त्रिभुजों की भुजाएं बराबर हों तो कोण भी बराबर रहते हैं और सिद्ध भी कर दिखाया था, पर वह गलत था। बाद में तुम्हारे पिताजी ने मुझे समझाया कि अगर दहेज बराबर हो तो कोण भी बराबर हो जाते हैं और भुजाएं भी बराबर हो जाती हैं। मैं अपने बिंदु पर परपेंडिक्यूलर खड़ा तुम्हें ताकता रहा और तुम आग के आसपास गोला बना चतुर्भुज हो गयीं। 

तुम चली गयीं तो बंदा कविता पर उतर आया। सोचता था छपेंगी तो तुम पढ़ोगी और पढ़ोगी तो रोओगी। पर ऐसा नहीं हुआ, वे सब सम्पादक के अभिवादन व खेद सहित लौट आयीं। उन दिनों हिंदी साहित्य छायावाद छोड़ चुका था और मायावाद में फंस चुका था। कौन पूछता मेरे विरह-गीतों को! खैर, बीत गयीं वे बातें। अब तो तुम्हारे उन सुर्ख गालों पर वक्त ने कितना पाउडर चढ़ा दिया! जिन होंठों के अचुंबित रहने का रिकार्ड बंदे ने पहली बार तोड़ा था, उन पर तुम्हारे पातिव्रत्य की आज ऐसी लिपस्टिक लगी है, जैसे मेरी कविता की कॉपी पर धूल की तहें। सुना है, अब तुम बहुत मोटाई गयी हो, तुम्हारी पीठ में दर्द रहने लगा है। आज जब अपने बच्चों को स्कूल और अपने पति को ऑफ़िस रवाना कर तुम सोफे पर लेटी यह पढ़ रही हो, मैं तुमसे पूछूं कि क्या तुम्हें याद है ओ ठेकेदारनी कि, कभी एक पुल बनाने का, दो किनारे जोड़ने का ठेका तुमने भी लिया था। कभी याद आये तो ‘रतन’ फिल्म के पुराने गानों का रिकार्ड सुन लिया करो, जिन्हें कभी तुम मुझे सुनाते हुए गाती थीं। 



क्रमशः-

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