प्रकृति को महसूस करें, तब प्रेम ही प्रार्थना हो जाएगी। आज भाई एड. दिग्विजय सिंह जनौटी जी द्वारा सूर्योदय का जो खूबसूरत दृश्य दिखाया है, उसे देखकर अत्यन्त प्रसन्नता है। उसी को देखते हुए प्रकृति के चित्रण व मानव मन की कुछ पंक्तियाँ ….
"सुबह जब आखिरी तारे डूबते हों तब हाथ जोड़ कर उन तारों के पास बैठ जाएँ और उन तारों को डूबते हुए, मिस्ट्री में खोते हुए देखते रहें। और आपके भीतर कुछ डूबेगा, आपके भीतर भी कुछ गहरा होगा।
सुबह से उगते सूरज को देखते रहें। कुछ न करें, सिर्फ देखते रहें। उगने दें। उधर सूरज उगेगा, इधर भीतर भी कुछ उगेगा। खुले आकाश के नीचे लेट जाएँ और सिर्फ आकाश को देखते रहें, तो विस्तार का अनुभव होगा।
कितना विराट है सब, आदमी कितना छोटा है! फूल को खिलते हुए देखें, चिटक हुए, उसके पास बैठ जाएँ, उसके रंग और उसकी सुगंध को फैलते देखें।
एक पक्षी के गीत के पास कभी रुक जाएँ, कभी किसी वृक्ष को गले लगा कर उसके पास बैठ जाएँ और आदमी के बनाए मंदिर-मस्जिद जहाँ नहीं पहुँचा सकेंगे, वहाँ परमात्मा का बनाया हुआ रेत का कण भी पहुँचा सकता है। वही है मंदिर, वही है मस्जिद।"
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