Saturday, 26 February 2022

सोच लो मेरे साथ रह पाओगी क्या?

फर्क नहीं पड़ता
कि...... 
कौन मुझे पाने के लिए मरता है
फर्क इस बात से पड़ता है..... 
कि...... 
कौन मुझे खोने से डरता है..... ।।





मैं यूं ही रहना चाहता हूं 
खुद को बदल नहीं सकता
जैसी तुम चाहती हो उन आदतों में ढल नहीं सकता
मैं जैसा हूं वैसा अपनाओगी क्या ?

थोड़ा सा खफा हूं, थोड़ा सा उदास हूं
मैं खुद से ही आज थोड़ा सा निराश हूं
मुझे प्यार से समझाओगी क्या?

अंधेरों में जागता हूं उजालों से भागता हूं
क्यूं परेशान हूं नींदों से मैं खुद नहीं जानता हूं
अपने कंधे पर मुझे सुलाओगी क्या? 

साथ छूटा है मन मेरा रूठा है,
डर सा लगता है दिल मेरा टूटा है
जिंदगी भर का साथ निभाओगी क्या?

थोड़ा सा पागल हूं थोड़ा सा अनाड़ी हूं
इस शब्दों के खेल में नया नया खिलाड़ी हूं
सोच लो मेरे साथ रह पाओगी क्या?

जिस्म की चाह नहीं भूखा हूं प्यार का
सीने में छुपा है दर्द अपनों की मार का
मोहब्बत का निवाला खिलाओगी क्या?

आंखो से आंसू पल पल बह रहे हैं
दिल के जख्म है ये बहुत ज्यादा गहरे हैं 
इन जख्मों पे मरहम लगाओगी क्या?

किसी ने अपना बनाया है फिर सीने से लगाया है
पीठ पे वार किया दिल को जलाया है
उनकी तरह तुम भी दिल जलाओगी क्या?

दिमाग चलता नहीं दिल का ये कहना है
दो दिन नहीं मुझे उम्र भर साथ रहना है
तुम भी साथ छोड़कर चली जाओगी क्या?

तेरे अलावा ना किसी के ख्यालों में रहता हूं
चाहता हूं दिल से मगर कभी नहीं कहता हूं
तुम बताओ तुम कह पाओगी क्या ?.....

Friday, 25 February 2022

मेरी एक्स-प्राणेश्वरी, तुम्हारे प्रेम की सौगंध

-IV-


जिस रोज़ तुम जान जाते हो कि सब आगे बढ़ जाते हैं उस रोज़ तुम्हें दुख कम लगता है। मैं मानता हूं कि प्यार अमर है और अगर नहीं है, तो बराबर इंजेक्शन लगा अमर रखा जाना चाहिए। खाल में भूसा भरकर कमरे में लटका देने से जैसे शेर अमर हो जाता है, वैसे ही प्यार भी अमर रहता है। मेरा आप तीनों से प्यार बिलकुल नहीं मर सकता। आज भी आप लोग चाहें तो इस प्यार को अमर बनाये रखने के लिए कुछ कर सकती हैं।


कुंतला, मुझे तुम अपने बच्चों की ट्यूशन पर क्यों नहीं लगा लेती? तुम तीनों बच्चों के लिए हज़ार रुपये उस मास्टर को देती हो। मैं तुम्हारे बच्चे पढ़ा दूंगा, मुझे दिया करो वे रुपये। विश्वास दिलाता हूं कि मेरा प्रेम अब अपनी मजबूरियां समझता है और पवित्र रहेगा। प्राचीन काल में रानियां अपने पुराने प्रेमियों को राजा से कहकर अच्छी नौकरी दिला देती थीं, क्या तुम इतना नहीं कर सकतीं? सच कहता हूं कि एक शांत मास्टर की तरह घर आऊंगा। प्रेम की तीव्रता से अधिक ज़रूरी है कि हजार की आमदनी निरंतर बनी रहे। तुम चाहो तो मुझे यह सेवा सौंप दो। तुम्हारे प्रेम की सौगंध, मैं ईमानदारी और लगन से काम करूंगा। 

नलिनी, तुमसे क्या कहूं, शायद तुम मानोगी नहीं, मुझे भूल न गयी हो, ऩफरत न करती हो और प्रेम का ज़रा भी अंश, ज़रा भी स्मृति शेष हो तो मुझ पर एक कृपा कर दो। तुम्हारे पति मेरे बॉस के बहुत गहरे दोस्त हैं। तुम्हारे घर अक्सर मेरे बॉस आते हैं और तुम उनके घर जाती हो। (हमारी कम्पनी के कर्मचारियों में इसे लेकर बड़ी अ़फवाह भी है) क्या तुम मेरे बॉस से कहकर मेरा प्रमोशन नहीं करवा सकतीं? 

तुम्हारा-मेरा प्यार है और अमर रहेगा। मेरी आर्थिक स्थिति अगर खराब भी रही तो भी मैं तुम्हें सदा याद करूंगा और तुम्हारे सुख की कामना करूंगा, पर यदि मुझे प्रमोशन मिल जाये, तुम्हारे स्नेह के कारण मिल जाये, तो सच मानो मैं तुम्हें सदैव दुआएं दूंगा। आठ साल से उसी पद पर सड़ रहा हूं, पर मेरी कोई स़िफारिश नहीं है। तुमसे सुंदर, तुमसे कोमल और तुमसे अधिक प्रभावशाली स़िफारिश मेरी कम्पनी के मालिक के लिए कोई और नहीं होगी। अपनी स्नेहमयी बांहों से मुझे उबारो नलिनी, तुम्हारा-मेरा प्यार अमर है।

और चंद्रा, तुम चाहो तो क्या नहीं कर सकतीं? तुम्हारी पहुंच विदेश विभाग तक है। मुझे कोई अच्छी-सी नौकरी दिला दो। मेरे साथ बिताये उन सुखद दिनों को यदि भूल नहीं गयीं, यदि तुम्हारा प्रेम झूठा नहीं था, तो मेरे लिए वहां दिल्ली में कोई काम खोज दो। तुम्हारे पति अपने दूतावास से बहुत-सा काम देते हैं, अनुवाद और लेखन आदि का, तुम मेरी लेखनी पर पागल रही हो, क्या तुम्हें खयाल नहीं आता कि तुम मेरी आज मदद कर सकती हो? मैं तुम्हें प्यार करता हूं, चंद्रा! तुम्हारी याद में रात-रात-भर सो नहीं पाता। यदि अनुवाद का काम मिल जाये तो रात को वही कर डाला करूं। चंद्रा, तुम मुझे भूली नहीं होगी।

प्रेम की पीड़ा गहरी होती है, पर गरीब की पीड़ा उससे भी गहरी होती है। तुम मेरी एक पीड़ा दूर नहीं कर सकीं, तुम मेरी दूसरी पीड़ा दूर कर सकती हो। मैंने कॉलेज के दिनों में प्रेम किया, पर अब एक बी.ए. पास क्लर्क की कतिपय महत्त्वाकांक्षाएं ही मुझमें शेष हैं कि मैं और मेरे बाल-बच्चे सुखी रहें।

“कहते हैं जैसे, हवा के एहसास को भूला नहीं जाता, समन्दर की लहरें उठकर -गिरकर समंदर में ही लौट आती हैं, मौसम कितने भी बदले लेकिन हर बार लौटते हैं। प्यार कितना भी दूर चला जाए, वह तब तक भीतर रहता है जब तक तुम हो। भले ही उसका रूप बदल जाए, उसकी याद धूमिल पड़ जाए लेकिन जो ज़िंदगी का हिस्सा हो उसे ज़िंदगी से अलग नहीं किया जा सकता, सिर्फ़ स्वीकारा जा सकता है। किसी को प्यार करने में तुम जितने साल बिताते हो ठीक उतनी सदियाँ तुम्हें उसे न याद करने में लगती है। किसी को भूलना नहीं होता लेकिन याद न करना भी अपने बस में कहाँ।"

तुम्हारे दरवाज़े पर अपनी पुरानी मुहब्बत गिरवी रख मैं यह पत्र लिख रहा हूं। 

सदैव तुम सबका ❣️

मेरी एक्स-प्राणेश्वरी, प्रेम को एक पीड़ा की तरह ग्रहण करने लगोगी !

III-

***********

दो समझदार व्यक्तियों के प्रेम से एक-दूसरे को अधिक स्वतंत्र रहने में मदद मिलती है। इसमें कोई राजनीति नहीं होती, कोई कूटनीति नहीं होती, एक-दूसरे पर हावी हो जाने का कोई प्रयास नहीं होता। जिससे तुम प्रेम करते हो, उसके ऊपर तुम आधिपत्य कैसे जमा सकते हो?
अपरिपक्व और गैर-समझदार लोग जब प्रेम में होते हैं तो वे एक-दूसरे की स्वतंत्रता को ध्वस्त कर देते हैं, गुलामी उत्पन्न करते हैं, कैद बना देते हैं। समझदार व्यक्ति प्रेम में एक-दूसरे को स्वतंत्र रहने में सहायक होते हैं। वे हर तरह से एक-दूसरे की गुलामी को समाप्त करने में एक-दूसरे की मदद करते हैं और जब स्वतंत्र रूप से प्रेम का प्रवाह होता है, तो इसमें सौंदर्य होता है। जब प्रेम का प्रवाह निर्भरता से होता है, तो इसमें कुरूपता होती है।

     

तुम्हारे दफ़्तर से अपना आवेदन हटा मैंने चंद्रा के दफ़्तर में लगा दिया। वहां भी मंजूर न होता तो कहीं और लगा देता। एक शहर में गुच्छा-गुच्छा सुंदर लड़कियां होती हैं। हर लड़की एक फार्मूले की ज़िंदगी जीती है, चुस्त कपड़े, कान में बाली, लटें, धीरे-धीरे चलना और उड़ती नज़र से देखना, घुटनों पर हाथ बांध बैठना, सब एक-सा है। सभी जगह लड़कियां एक ही फार्मूले पर चलती हैं, पर फिर भी लड़के उसे समझ नहीं पाते और हर एक को अलग देखते हैं। यही फार्मूले गालिब के ज़माने में भी चलते होंगे और कालिदास के भी. वास्तव में हम एक फार्मूले से उलझ जाते हैं और प्रेम की महामारी के शिकार होते हैं। 

चंद्रा रवींद्र-साहित्य पढ़े बैठी थी, अतः चार दिन में समझ गयी कि मैं उस पर निछावर हूं। मैंने सबसे पहले उसे मॉडर्न बनाया। अज्ञेय पढ़ाया, ‘गुनाहों का देवता’ की प्रति भेंट की, कृश्नचंदर की चाशनी चटायी, अमृता प्रीतम की कविताएं सुनायीं, बच्चन को कवि-सम्मेलन में बुलवाया, ‘तार सप्तक’ पर बहसें कीं और इलाहाबादी पत्रिकाओं की फाइल सौंपकर कहा- ‘चंद्रा रानी, छायावाद का चक्कर छोड़ और प्रयोगवाद में आ, क्या खयाल है मेरे विषय में। हिंदी का भविष्य मेरी जेब में है और तेरा वर्तमान मेरे हृदय में.’ 

नलिनीदेवी, जब आप टेबल-टेनिस खेलती थीं, ठीक उसी वक्त मैं लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर चंद्रा से बात करता रहता था और तुम देखती रहीं कि मैं एकाएक तुम्हारी साइकिल के पीछे साइकिल चलाना छोड़, चंद्रा के साथ-बस से जाने लगा। 

चंद्रा देवी, मेरे जीवन का अंतिम क्लासिक किस्म का प्रेम आपसे हुआ। मुझे माताओं, बहनों और देवियों को आवाज़ लगाते समय आज आपको भी जोड़ते हुए बड़ी पीड़ा हो रही है। मुझे लगता है कि तुम जैसी लड़की का जन्म स्मिार्फ़ प्रेम के लिए ही होता है, ऐसी लड़कियां प्रेम को एक पीड़ा की तरह ग्रहण करने की आदी होती हैं। जब भी मिली, शिकायत करती मिली। ‘देर से क्यों आये’, ‘आज मैंने यह साड़ी पहनी तुमने कुछ कहा भी नहीं’, ‘आज हम हिंदी क्लास से बाहर आ रही थीं तो देखा नहीं मेरी तऱफ और सीधे चले गये’ वगैरह।

हर क्षण मुझे परीक्षा में बैठना पड़ता था। प्रतिदिन मार्क्स मिलते थे और मैं फेल होता था, तुमने मुझसे बड़ा साहित्य रचवाया। मुझे लूटा और हिंदी साहित्य समृद्ध किया। अगर मैं तुमसे नहीं मिलता तो हिंदी का पिछला दशक कैसा सूना-सूना रहता! प्रतिदिन डाक आती, प्रतिदिन कार्ड डाले जाते। तुम्हारे घर का वह ऊपर का कमरा प्रेम और साहित्य, दोनों के इतिहास में महत्त्व रखता है। वहीं पर मैंने आंसू बहाये और तुमने दर्द की कविताएं लिखीं, वहीं दरवाज़े से टिककर नये साहित्य के गूढ़ प्रश्न सुलझाये और उंगलियां उलझायीं। वहीं पर हमने दुप्रवृत्तियों को कोसा और एक-दूसरे को चाहा, वहीं पर तुम ऊपर उठीं और मैं खिड़की से नीचे गिरा। 

तुम अपने चाचा की मदद से स्कॉलरशिप ले विदेश चल दीं और मैं सह-सम्पादक हो गया एक दैनिक अखबार में। पत्र तुम मुझे कम लिखने लगीं। फिर मुझे पता लगा कि दूतावास के एक कल्चरल अटैची से तुम अटैच हो गयीं और मैं इसी शहर में घूमता रहा।

माताओ और बहनो, प्रेम शब्द अब मेरे लिए एक मार्केट वेल्यू रखता है। मैं प्रेम पर लिखता हूं, जिसे लोग प्रेम से पढ़ते हैं और सम्पादक प्रेम से पारिश्रमिक देता है।यह सिक्का है, जिसकी साख है, इसे रोज़ चलाता हूं। आप देवियों के पावन सम्पर्क से जो प्राप्त हुआ, वह मैंने साहित्य को भेंट चढ़ा दिया। अब बार-बार उसी को दोहराता हूं। ताज़गी लाने के लिए लड़कियां घूर लेता हूं। दूसरों के साथ गुज़री घटनाओं को रस ले-लेकर पीता हूं। 

शादी नही है, बच्चे नही हैं. दफ़्तर नही जाता हूं और नही आता हूं। कुछ बाल यहां-वहां सफेद हो रहे हैं, अतः अब डिमॉरलाइज़ भी होने लगा हूं। प्रेमकांड करने का मूड जा रहा है। समाज में प्रतिष्ठा बढ़ गयी है, उसके गिरने का भय है। आज महिलाओं की सभा में रामायण पर बोलने का निमंत्रण है और वहां मैं आदर्श प्रेम की व्याख्या करूंगा। उन्हें प्रभावित करूंगा और वे मेरा सम्मान करेंगी। 

एक तुष्टि होगी उससे, कुंतला जब पानी भरते हुए मुझे देखती थी या चंद्रा जब कॉपी पर बच्चन की एकाध पंक्ति लिख देती थी, मुझे मीठा संतोष होता था। तब मैं प्रेमी था और आज प्रेम का अधूरा विशेषज्ञ, जो मार्गदर्शन देता है।

कई बार अनुभव करता हूं, मेरा ईमान कहता है कि अपनी लिखी प्रेम-कथाओं के पारिश्रमिक का अंश मुझे आप लोगों को भेजना चाहिए, पर नहीं भेजता। आपसे प्रेम कर जो लाभ मुझे मिला वह यही है।

स्वतंत्रता हर स्त्री-पुरूष की आंतरिक और मूलभूत इच्छा होती है, पूर्ण स्वतंत्रता और इसी स्वतंत्रता में प्रेम के फूल खिलते हैं!




क्रमशः—

Wednesday, 23 February 2022

हे एक्स-प्राणेश्वरी, याद है वो दिन, जब पहली बार तुमने मेरे साथ चाय पी।



सत्य का यह साथ आसान नहीं है। किसी सच्चे इंसान से दोस्ती हमेशा शहद सी मीठी भी नहीं होगी। सत्य की अपनी कीमत होती है जिसे चुकाए बिना सत्य की राह पर आगे नहीं बढ़ा जा सकता।

कहते हैं, कि अंधा अंधेरे से दोस्ती कर सकता है, क्योंकि अंधेरा आँखे चाहिए ऐसी माँग नहीं करता। लेकिन अंधा प्रकाश से दोस्ती नहीं कर सकता है, क्योंकि प्रकाश से दोस्ती के लिए पहले तो आँखे चाहिए। अंधा अमावस की रात के साथ तल्लीन तो हो सकता है, मगर पूर्णिमा की रात के साथ बेचैन हो जाएगा। पूर्णिमा की रात उसे उसके अंधेपन की याद दिलाएगी; अमावस की रात अंधेपन को भुलाएगी, याद नहीं दिलाएगी। 


प्रेम की पथरीली पटरी पर और फिर नलिनी तुम आयी। प्रथम वर्ष कला में जमा हुई छब्बीस लड़कियों में तुम अलग ही नज़र आती थीं। सारी क्लास तुम पर मरती थी और चूंकि मैं छात्र-सभा के लिए कक्षा का प्रतिनिधि चुना गया था, अतः मैं प्रतिनिधि रूप से तुम पर मरता था। कॉलेज के लम्बे आम के वृक्षों वाले रास्ते पर तुम्हारे पीछे पीछे चलाना, कक्षा में ऐसे कोण पर बैठना, जहां से तुम्हारा प्रोफाइल आंखों को भाये, ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रोफेसर से उल्टे-सीधे प्रश्न करना, बस-स्टॉप पर तुम्हारी राह देखना, किताब मांगना आदि सब नुस्खे आज़माकर मैंने तुम्हें बता दिया कि मैं प्रेम के लिए इस वक्त बिल्कुल अधीर हूं।

बड़ी मुश्किलों से तुमने मुझे देख मुस्कराना मंजूर किया और ऐतिहासिक था वह दिन, जब पहली बार तुमने मेरे साथ चाय पी। तुम वे सब हथकंडे जानती थीं, जिनसे लड़के लट्टू की तरह चक्कर खाते हैं और मैं कहानी-उपन्यासों में पढ़े सारे दांव-पेच तुम पर फिट करने की सोचता था। तुम अधिक व्यावहारिक थीं, मैं इसलिए प्रेम करता था कि मुझे एक जीवन-साथी को खुद तलाश करना बड़ा ज़रूरी लगता था और तुम मुझे यों उलझाये थीं कि कोई आशिक बना रहे तो बुरा क्या है! तुम तो सदैव अपने सौंदर्य का प्रदर्शन किया करती थीं, मेरे प्रेम को एक सर्टीफिकेट की तरह कमरे में टांगकर खुश थीं।

अपनी सहेलियों को शान से बताती थीं कि हम पर भी लोग कुर्बान हैं। मेरी उम्मीदवारी ने तुम्हारे अहं की तुष्टि की, इसलिए जब मैं रात-भर जागकर तुम्हारे लिए नोट्स बनाता था, तुम कोई पिक्चर देखती रहती थीं। तुम अपने पिताजी के पैसों से साड़ियां खरीदतीं और मैं अपने पिताजी के पैसों से तुम्हारे लिए किताबें। हर बार तुमने बिल मुझसे चुकवाया और इतमीनान से घूमती रहीं।

मैं प्रेम करने आया था, तुमने मुझे नौकरी करना सिखा दिया। उसी लगन से पढ़ता तो फर्स्ट क्लास लाता और कहीं बड़ी नौकरी मिल जाती। जल्दी ही मैं समझ गया कि आदर्श प्रेमी का जो चित्र तुम्हारे दिमाग में है वह आदर्श नौकर के चित्र से कम नहीं है। 

मैं भाग खड़ा हुआ, बिना वजह तुमसे नाराज़ हो लिया, मैंने ठीक किया ना। कहीं तुमसे शादी हो जाती तो मेरा हाल भी वही होता जो आज आपके प्रोफेसर पति महोदय का है। दिन-भर ट्यूशनें करता है, रात को जागकर नोट्स लिखता है, विश्वविद्यालयों के ‘हेड ऑफ दि डिर्पामेंट्स’ की खुशामद करता है कि कापियां जांचने को मिल जायें और अपनी किताब कोर्स में लगाने को दौड़-धूप करता है। यह नकेल जो तुमने उसको डाली है तुम मुझे डालतीं और मुझे कहीं का नहीं रखतीं। मैं आज तुम्हारे पति होने की कल्पना से कांप उठता हूं, यद्यपि पहले मैं समझता था कि तुम मिल जाओ तो सुखों की लॉटरी खुल जाये। तुमने उस क्रिकेट-खिलाड़ी को भी खूब बुद्धू बनाया। वह तुम्हारे प्रेम के पिच पर रन करता रहा और एक दिन तुम उसका भी स्टंप उखाड़कर चल दीं। 

मेरी निहायत अस्थायी प्रेमिका, तुमने कुछ ही दिनों में मुझे बता दिया कि शेरो-शायरी का प्रेम से कोई सम्बंध नहीं। यह एक व्यवस्था है और न हो सके, तो निराशा की कोई वजह नहीं। इंसान को कोशिश नहीं छोड़नी चाहिए। वास्तविक प्रेम जीवन में एक बार ही नहीं, बार-बार तथा हर बार होता है। इसे आप ठीक वैसा ही समझें जैसे एक दफ्तर में नौकरी न मिले तो उम्मीदवार हताश नहीं होता, वह दूसरी जगह एप्लाई कर देता है, प्रेम में भी अक्सर यही हाल नजर आता है।





क्रमशः—

Tuesday, 22 February 2022

एक्स-प्राणेश्वरी को पत्र



“बचपन से मेरी अम्मा मुझे एक ही चीज़ कहती आयीं हैं — बेटा जीत के आना। कोई बेस्ट ऑफ़ शेस्ट ऑफ़ लक नहीं, बस जीत के आना” इसी को आधार बना प्रेम में युवा संघर्षों के दास्तान की एक नई शृंखला आपके सम्मुख रख रहा हूँ, उम्मीद है आपको पसन्द आए….


देवियों, माताओं और बहनों,
अब मेरे पास मात्र यही सम्बोधन शेष बचे हैं जिनसे इस देश में एक पुराना प्रेमी अपनी अतीत की प्रेमिकाओं को पुकार सकता है। वे सब कोमल मीठे शब्द, जिनका उपयोग मैं प्रति मिनट दस की रफ़्तार से नदी-किनारों और पार्क की बेंचों पर तुम्हारे लिए करता था, तुम्हारे विवाह की शहनाइयों के साथ हवा हो गये। अब मैं तुम लोगों को एक भाषण देने वाले की दूरी से माता और बहन कहकर आवाज़ दे सकता हूँ। 

वक्त के गोरखनाथ ने मुझे भरथरी बना दिया और तुम्हें माता पिंगला। मैं अपनी राह लगा और तुम अपनी। आत्महत्या न तुमने की, न मैंने। मेरे सारे प्रेमपत्रों को चूल्हे में झोंक तुमने अपने पति के लिए चाय बनायी और मैंने पत्रों की इबारतें कहानियों में उपयोग कर पारिश्रमिक लूटा। 

‘साथ मरेंगे, साथ जियेंगे’ के वे वचन, जो हमने एक-दूसरे को दिये थे, किसी राजनीतिक पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र के किये गये वायदों की तरह ख़ुद हमने भुला दिये। वे तीर, जिनसे दिल बिंधे थे, वक़्त के सर्जन ने निहायत खूबसूरती से ऑपरेशन कर निकाल दिये और तुम्हारी आंखें, जो अपने ज़माने में तीरों का कारखाना रही थीं, अब शांत और बुझी हुई रहने लगीं, मानो उनका लाइसेंस छिन गया। मेरी आंखों पर अब मायनस पांच का चश्मा लग गया है, यानी अब मेरे-तेरे प्रेम के सभी खोके खाली हो गये, बांसुरिया बिक गयी और इश्क का झंडा, जो हमने वायदों की डोर से खींचकर ऊपर चढ़ाया था, पुत्र-जन्म के बिगुल के साथ नीचे उतार दिया गया। 

मेरी एक्स-प्राणेश्वरी, तुम मेरी ज़िंदगी में तब आयी थीं, जब मुझे ‘प्रेम’ शब्द समझने के लिए डिक्शनरी टटोलनी पड़ती थी। पत्र-लेखन मैं एक्सरसाइज़ के बतौर करता था। घर की देहरी पर बैठा मैं मुगल साम्राज्य के पतन के कारण रटता और तुम सामने नल पर घड़े भरतीं या रस्सियां कूदतीं। मानती हो कि मैंने अपनी प्रतिभा के बल पर तुम्हें आंखें मिलाना और लजाना सिखाया। दरवाज़े के पीछे छिप तुमने पहली बार कोमल निगाहों से बंदे को ही देखा था। ताश की गड्डी छीनने के बहाने मैंने तुम्हारा हाथ पहली बार पकड़ा और नोचने के लिए गाल पहली बार छुआ। उन दिनों तुम्हारे-मेरे बीच जो गुज़रा वह किसी घटिया फिल्म से कम नहीं था, पर फिर भी अपने-आपमें बॉक्स ऑफिस था। मेरी जान, मैंने ही तुम्हें आईने का मतलब समझाया, मेरी वजह से तुमने दो चोटियां कीं और रिबन बांधे। मैंने तुम्हें ज्योमेट्री सिखाते वक्त बताया था कि यदि दो त्रिभुजों की भुजाएं बराबर हों तो कोण भी बराबर रहते हैं और सिद्ध भी कर दिखाया था, पर वह गलत था। बाद में तुम्हारे पिताजी ने मुझे समझाया कि अगर दहेज बराबर हो तो कोण भी बराबर हो जाते हैं और भुजाएं भी बराबर हो जाती हैं। मैं अपने बिंदु पर परपेंडिक्यूलर खड़ा तुम्हें ताकता रहा और तुम आग के आसपास गोला बना चतुर्भुज हो गयीं। 

तुम चली गयीं तो बंदा कविता पर उतर आया। सोचता था छपेंगी तो तुम पढ़ोगी और पढ़ोगी तो रोओगी। पर ऐसा नहीं हुआ, वे सब सम्पादक के अभिवादन व खेद सहित लौट आयीं। उन दिनों हिंदी साहित्य छायावाद छोड़ चुका था और मायावाद में फंस चुका था। कौन पूछता मेरे विरह-गीतों को! खैर, बीत गयीं वे बातें। अब तो तुम्हारे उन सुर्ख गालों पर वक्त ने कितना पाउडर चढ़ा दिया! जिन होंठों के अचुंबित रहने का रिकार्ड बंदे ने पहली बार तोड़ा था, उन पर तुम्हारे पातिव्रत्य की आज ऐसी लिपस्टिक लगी है, जैसे मेरी कविता की कॉपी पर धूल की तहें। सुना है, अब तुम बहुत मोटाई गयी हो, तुम्हारी पीठ में दर्द रहने लगा है। आज जब अपने बच्चों को स्कूल और अपने पति को ऑफ़िस रवाना कर तुम सोफे पर लेटी यह पढ़ रही हो, मैं तुमसे पूछूं कि क्या तुम्हें याद है ओ ठेकेदारनी कि, कभी एक पुल बनाने का, दो किनारे जोड़ने का ठेका तुमने भी लिया था। कभी याद आये तो ‘रतन’ फिल्म के पुराने गानों का रिकार्ड सुन लिया करो, जिन्हें कभी तुम मुझे सुनाते हुए गाती थीं। 



क्रमशः-

Sunday, 20 February 2022

मोबाइल फोन की तरह मन भी अलग-अलग मोड पर सैट होता है..


शहर का मौसम धीरे-धीरे बदलने लगा है। ये फरवरी के दिन हैं लेकिन आसमान में बादल छाए हैं। उसने उसकी ओर देखा और बोली –“जब से तुम गए हो शहर ने तुम्हारी पसन्द का मौसम ओढ़ लिया है।”

वह उसे देख मुस्कुराता रहा फिर बोला –

“कहा था न मेरे न होने पर भी मैं रहूँगा।”

उसने मुड़कर देखा उसके आसपास कोई भी नहीं था सिर्फ़ वही थी।
दूर तक धरती पर बारिश की बूँदे छिटक आयीं थी। यह प्रेम का महीना है प्रकृति ने अपने होने और प्रेम के अहसास को हर ओर दर्ज़ कर दिया है।
पेड़ों पर नई कोंपलें उगने लगी हैं। उसने धरती से जाना लोग बदल जाते हैं, प्रकृति भी समय के साथ बदल जाती है लेकिन प्यार और उससे जुड़े एहसास मन के किसी कोने में गहरे और तरल हो जाते हैं। प्रेम के एक बिंदु पर प्रेम नहीं रहता वह किसी की उपस्थिति और अनुपस्थिति की समझ बन जाता है। मैं तुम्हें, तुम भी मुझे समझने की कोशिश करना।

      

मोबाइल फोन की तरह मन भी अलग-अलग परिस्थिति में अलग-अलग मोड पर सैट होता है। सम्भवतः मनोविज्ञान में इसी को मूड कहा जाता हो। कभी हम बहुत ख़ुश होते हैं, मतलब हम हैप्पी मोड में हैं। ऐसे ही सैड मोड, कन्फ्यूज़्ड मोड और एंग्री मोड भी हम सबके भीतर ऑन-ऑफ होते रहते हैं। यह सहज मानवीय स्वभाव भी है। लेकिन कुछ लोग पूरा जीवन एक ही मोड में बिता देते हैं। इनके सॉफ्टवेयर में बाक़ी किसी मोड पर जाने की वायरिंग ही नहीं होती। आप किसी भी परिस्थिति का वायर छू दो, वह उनके फिक्स मोड को ही पॉवर सप्लाई करेगा।


जिंदगी का असली आनन्द किसी को अपने मुताबिक बदलने की जद्दोजहद में नही बल्कि उन रास्तों को खोजने में है जिन रास्तों पर दो लोग अपनी विभिन्नताओं के बावजूद, एक दूसरे का हाथ पकड़कर चल सके और इस सफर को और ज्यादा खुशनुमा बना सकें…….

Friday, 18 February 2022

प्रेम ही प्रार्थना


प्रकृति को महसूस करें, तब प्रेम ही प्रार्थना हो जाएगी। आज भाई एड. दिग्विजय सिंह जनौटी जी द्वारा सूर्योदय का जो खूबसूरत दृश्य दिखाया है, उसे देखकर अत्यन्त प्रसन्नता है। उसी को देखते हुए प्रकृति के चित्रण व मानव मन की कुछ पंक्तियाँ ….

"सुबह जब आखिरी तारे डूबते हों तब हाथ जोड़ कर उन तारों के पास बैठ जाएँ और उन तारों को डूबते हुए, मिस्ट्री में खोते हुए देखते रहें। और आपके भीतर कुछ डूबेगा, आपके भीतर भी कुछ गहरा होगा।


सुबह से उगते सूरज को देखते रहें। कुछ न करें, सिर्फ देखते रहें। उगने दें। उधर सूरज उगेगा, इधर भीतर भी कुछ उगेगा। खुले आकाश के नीचे लेट जाएँ और सिर्फ आकाश को देखते रहें, तो विस्तार का अनुभव होगा।

कितना विराट है सब, आदमी कितना छोटा है! फूल को खिलते हुए देखें, चिटक हुए, उसके पास बैठ जाएँ, उसके रंग और उसकी सुगंध को फैलते देखें। 

एक पक्षी के गीत के पास कभी रुक जाएँ, कभी किसी वृक्ष को गले लगा कर उसके पास बैठ जाएँ और आदमी के बनाए मंदिर-मस्जिद जहाँ नहीं पहुँचा सकेंगे, वहाँ परमात्मा का बनाया हुआ रेत का कण भी पहुँचा सकता है। वही है मंदिर, वही है मस्जिद।"

Wednesday, 16 February 2022

प्रेमिका को करीब से और लेखक को दूर से देखना चाहिए।


सपने तो देखे होंगे न? कोई लिमिट है सपनों की? कोई ओर-छोर? दरसल ये सपने ही तो होते हैं जिनको देख के हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है! 
अनवरत! बचपन में न हमें क्रिक्केटर बन्ने का बड़ा शौक़ था, सचिन जैसा! आज भी दिल सचिन ही है हमारा! पर वो क्या है के 90s की जेनेरेशन में हिंदुस्तान का हर देसी लौंडा दिन में सचिन और रात में गोविन्दा ही बनता था! 
वो सचिन का स्ट्रेट ड्राइव हो, पुल हुक या प्लेस हो, दिल तो वहीं थमता था! मम्मी आज भी झोंके में कभी कभी पूछ ही लेती हैं के "सचिन ने कितना बनाया?" ख़ैर बचपन जैसे जैसे बीतता गया सपने भी बदलते गए! 


मुमकिन तो नहीं है हर सपने को पूरा करना पर आसान ये भी नहीं के इश्क़ में शेखचिल्ली हो जाना! हर सपने के पीछे भागेंगे तो ज़िंदगी ही सपना हो जाएगी! और मज़ा? मज़ा तो तब है जब सपना टूटता जाए और हर बार मुस्कुरा के बोलें "सपने और वादे टूटने के लिए ही बनें हैं!"

आज बहुत लम्बे समय के बाद आप लोगों के बीच सपनों व वादों वाली एक कहानी के साथ हूँ। मेरे तो लगी, आपके दिल को लगी या नही जरुर बताइयेगा। 


आज पुरानी वाली मोहतरमा के बियाह की तीसरी साल गिरह है और यक़ीन मानिए वो आज भी उतनी ही खूबसूरत हैं जितनी 9 साल पहले थीं!  कुछ दिन पहिले फ़ोन आया था! विदेश में रह रहीं हैं पर बदली नहीं! शो ऑफ़ वाली आदत अभी तक गयी नहीं! बातों बातों में बता हीं दीं के iPhone 7 ली हैं! अचानक पूछ बैठीं कि….

"शादी कब कर रहे हो?" 
"कर लेंगे!" 
"कोई पसंद किए हो या अरेंज मैरिज?"
"पसंद तो है एक!"
"फ़ोटू भेजो!" 
"रुको भेजते हैं!"

फ़ोटू देख के बोली…

"बहुत ख़ूबसूरत है यार!"
"हाँ!"
"सही है! वो तैयार है?"
"लगता तो है पर जबतक हो न जाए का कहें?"
"और दोनो के घर वाले?"
"वो सब हो जाएगा! वो सब छोड़ो बताओ भाई साहेब कैसे है?"
"बढ़िया! यार अपने आस पास ज़मीन देखो लखनऊ में! हमको वहीं मकान बनवाना है!"
"भक्क्क! पहले पड़ोसन थी तो इतना काण्ड हुआ! अब नही बनाएँगे तुमको पड़ोसन! शादी के बाद एक्स्ट्रा मैरिटल अफ़ेयर नही चलाना तुम्हारे साथ!"
(और दोनो ठहाके लगा के हसने लगे!)

उनकी शादी को तीन साल हो गया पर शायद ये दूसरी बार था जब हमारी बातें हुई! बड्डे पे मैसेज आता जाता रहता था! प्रेम 6 साल ख़ूब निभाया दोनो ने! अब ख़ुद के किरदार को निभा रहे! मेरी धड़कने नही बढ़ीं उसका कॉल देख के न ही उसकी साँसे बढ़ी मेरी आवाज़ सुन के! वक़्त सब सही कर देता है! हमारा दिल अब धड़कता है किसी और बिन्दी-झूमके वाली के लिए और उनका उनके हबी के लिए! अब वो अपना प्रेम निभा रही और हम हमारा! 

पर शो ऑफ़ वाली आदत गयी नही उसकी! बियाह मुबारक हो पड़ोसन! मुसकियाती रहना! अच्छी लगती हो! 

फोन की बातों ने कुरेद दी यादों की दास्तान, मानो जैसे भूसे के ढेर में एक चिंगारी सी लग गई और आग की लपटों से धधक उठा पूरा वन उपवन। उसी के चंद यादगार लम्हों की दास्तान शब्दों में…


तेरे जाने के बाद आयेंगे मुझे बीती नींदों के सपने जो देखे गए थे साथ में एक मुश्त। मैं अपने आप को ढूंढने की कोशिश में खंगालता रहूंगा वो सारे खत जिन्हें लिखा गया था ये मान कर कि मैं जिंदा रहूंगा इस दुनिया के आखिरी काल तक। मगर तुम्हारे जाने की जल्दीबाजी और मेरे न रोकने के हठ के बीच छूट गई हैं कुछ चीजें। एक पर्स जिसे सोते वक्त तुम अपने तकिए के करीब रखती थी। एक चश्मा जो तुमसे खो जाता था अक्सर। एक जोड़ी सफेद जूते जिनमें एक भी दाग नहीं। ऊपर कमरें के रैक पर मिला एक शक्करपारे का डिब्बा, जिसके शक्करपारे आज भी उतने ही करारे और मीठे हैं। बालकनी पर टंगा छूट गया है एक गुलदान जिसे उतरने का मन नहीं करता। अलमारी में लटके हुए हैं तुम्हारे वो कपड़े जिन्हें तुम सिर्फ देखा करती थी। ये सब यहां रह गया है। किसी दिन रविवार को काम से थोड़ी फुर्सत लो और चली आओ। किसी हरे पार्क की जमीन पे बैठ कर चांद को देखेंगे और हिसाब पूरा करेंगे।

♦️ कथाकार ने नाम बताने से मना किया है! सरम आती है! ❣️