“सरकार को एक बनिया की भावना से नहीं सोचना चाहिए। इसका शासन केवल दुकानदारी के सिद्धांतों पर नहीं चलना चाहिए। सबसे पहला उद्देश्य जो एक सरकार का होना चाहिए वह है, जनता की भलाई।”
"सारा जगत एक रंगमंच है तो समाज उसका दर्पण और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंग कर्मी।" प्रसिद्ध साहित्यकार और नाटककार विलियम शेक्सपियर ने यह वाक्य लिखते समय कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख सिद्ध होगा। जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर किया नहीं किया अपितु रंगमंच को जिया, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है।
जीवन निर्मल भाव से जीने के लिए है। मुखौटे लगाकर नहीं अपितु आदमी बनकर रहने के लिए है। जीवन के रंगमंच पर मुखौटे पहने किसी क्रांतिकारी प्रदर्शन से समस्त दर्शकों में से अगर कोई दर्शक गायब होगा तो यकीन मानिए तो वह होगा केवल मुखौटा विहीन कलाकार।
इतिहास गवाह है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृति सामुदायिक रही। सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊंच न नीच। हर तरफ से देखा जा सकने वाला, सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।
बस आज जरूरत है थोड़ी देर के लिए मुखौटा उतारकर आदमी बन जाने की। प्रदर्शन के पर्दे हटाइए और लौटिए सामुदायिक प्रवृति की ओर बिना मुखौटों के मंच पर। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएं। जीवन का रंगमंच आज हमसे यही मांग करता है।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान यह देखने में आया है कि मोदी सरकार की यह स्थायी कमजोरी बन गई है कि वह कोई भी बड़ा देशहितकारी कदम उठाने के पहले उससे सीधे प्रभावित होने वाले लोगों की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश नहीं करती।
अभी तक जो देखने को मिला है उसे देखकर तो लगता है कि अग्निपथ योजना के विरुद्ध चला आंदोलन पिछले सभी आंदोलन से भयंकर सिद्ध होगा। वही अब सारे देश में हो रहा है। पहले उत्तर भारत के कुछ शहरों में हुए प्रदर्शनों में नौजवानों ने थोड़ी-बहुत तोड़-फोड़ की थी लेकिन अब पिछले दो दिनों में हम जो दृश्य देख रहे हैं, वैसे भयानक दृश्य मेरी याद्दाश्त में पहले कभी नहीं देखे गए। दर्जनों रेलगाड़ियों, स्टेशनों और पेट्रोल पंपों में आग लगा दी गई, कई बाजार लूट लिये गए, कई कारों, बसों और अन्य वाहनों को जला दिया गया और घरों व सरकारी दफ्तरों को भी नहीं छोड़ा गया।
अभी तक पुलिस इन प्रदर्शनकारियों का मुकाबला बंदूकों से नहीं कर रही है लेकिन यही हिंसा विकराल होती गई तो पुलिस ही नहीं, सेना को भी बुलाना पड़ जाएगा। मुझे विश्वास है कि मोदी सरकार कोई बर्बर और हिंसक कदम नहीं उठाएगी। ऐसा कदम उठाते समय हो सकता है कि छात्रों और नौजवानों को भड़काने का दोष विपक्षी नेताओं के मत्थे मढ़ा जाए लेकिन नौजवानों का यह आंदोलन स्वतः स्फूर्त है। इसका कोई नेता नहीं है। यह किसी के उकसाने पर शुरू नहीं हुआ है। यह अलग बात है कि विरोधी दल अब इस आंदोलन का फायदा उठाने के लिए इसका डट कर समर्थन करने लगें, जैसा कि उन्होंने करना शुरू कर दिया है। इस आंदोलन से डर कर सरकार ने कई नई रियायतों की घोषणाएं जरूर की हैं और वे अच्छी हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का रवैया काफी रचनात्मक है और भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने तो यहां तक कह दिया है कि चार साल तक फौज में रहने वाले जवान को वे अपने दफ्तर में सबसे पहले मौका देंगे।
चार साल का फौजी अनुभव रखन वाले जवानों को कहीं भी उपयुक्त रोजगार मिलना ज्यादा आसान होगा। इसके अलावा इस अग्निपथ योजना का लक्ष्य भारतीय सेना को आधुनिक और शक्तिशाली बनाना है और पेंशन पर खर्च होने वाले पैसे को बचाकर उसे आधुनिक शास्त्रास्त्रों की खरीद में लगाना है। अमेरिका, इस्राइल तथा कई अन्य शक्तिशाली देशों में भी कमोबेश इसी प्रणाली को लागू किया जा रहा है लेकिन मोदी सरकार की यह स्थायी कमजोरी बन गई है कि वह कोई भी बड़ा देशहितकारी कदम उठाने के पहले उससे सीधे प्रभावित होने वाले लोगों की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश नहीं करती। जो गलती उसने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने, नोटबंदी करने और नागरिकता कानून लागू करते वक्त की, वही गलती उसने अग्निपथ पर चलने की कर दी!
यह सैन्य-पथ स्वयं सरकार का अग्निपथ बन गया है। अब वह भावी फौजियों के लिए कितनी ही रियायतें घोषित करती रहे, इस आंदोलन के रूकने के आसार दिखाई नहीं पड़ते। यह अत्यंत दुखद है कि जो नौजवान फौज में अपने लिए लंबी नौकरी चाहते हैं, उनके व्यवहार में आज हम घोर अनुशासनहीनता और अराजकता देख रहे हैं। क्या ये लोग फौज में भर्ती होकर भारत के लिए यश अर्जित कर सकेंगे? सच्चाई तो यह है कि हमारी सरकार और ये नौजवान, दोनों ही अपनी-अपनी मर्यादा का पालन नहीं कर रहे हैं।
♦️नौजवानों को इन सवालों का जवाब दे सरकार --
जैसा हम सभी जानते हैं कि भारतीय सेना में हर साल लगभग 50-60 हजार सैनिक सेवानिवृत होते है। वर्ष 2020 से ही सेना में भर्ती बंद है। रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा अग्निपथ योजना के संबंध में 20 जून, 2022 को जारी अधिसूचना से साफ़ है कि अग्निवीर को पहले चार अग्निवीर की तरह चार साल बिताने होंगे। उसके बाद सबको सेवानिवृत्त कर दिया जाएगा और उनके फिर से आवेदन करने पर उसमें से अधिकत्तम 25 फीसदी अग्निवीरों को सैनिक के रूप में 15 साल के लिए भर्ती की जाएगी। इसका मतलब है कि 2020 से सेना में भर्ती बंद होने के बाद 2026 के अंत या 2027 के प्रारंभ में यानी 7 साल बाद लगभग 12 हजार अग्निवीरों को नियमित सैनिक के पद पर भर्ती होने की संभावना है। जबकि इस अवधि तक लगभग 3 लाख नियमित सैनिक सेवानिवृत हो जाएंगे और ऐसा ही चला तो आनेवाले 15 सालों में नियमित सैनिकों की संख्या के मुकाबले अग्निवीरों की संख्यां ज्यादा होगी, जो काम तो सैनिक का करेंगे, मगर सरकार उन्हें सैनिक का दर्जा नहीं देगी। लेकिन हर अग्निवीर को एक सैनिक की तरह देश के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार रहना होगा, लेकिन सरकार उसे एक नियमित सैनिक की तरह मान्यता देकर उसके परिवार को आर्थिक सुरक्षा या सम्मान नहीं देगी। कुछ तय राशि के बदले सैनिक देश (राजा) के लिए अपना सब कुछ लुटा दे, यह एक मध्ययुगीन सोच है। इससे जहां एक तरफ सेना में भी अग्निवीर भर्ती के नाम बेरोजगार युवाओं के शोषण का दौर शुरू होगा, वहीं यह देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने वाला साबित होगा।
“सहसा विश्वास नहीं होता, जो सरकार इतने बड़े संसद भवन होने के बावजूद नया संसद भवन बनाने में हजारों करोड़ रुपए लगा दे और सेना के इतने हवाईजहाज प्रधानमंत्री की सेवा में उपलब्ध होने के बावजूद आठ-आठ हजार करोड़ की लागत वाले दो हवाईजहाज खरीद ले, वह बढ़ते पेंशन व वेतनादि व्यय के नाम पर देश के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने वाले शूरवीरों को सैनिक का दर्जा देने को तैयार ना हो। सबसे कमाल की बात तो यह है, सेना के शौर्य और बलिदान को अपने राजनीतिक लाभ के लिए भुनाने वाली और राष्ट्रवाद का दम भरते नहीं थकने वाली पार्टी की सरकार ने बड़ी आसानी से यह सब कर दिया।“
अग्निपथ योजना में जो दो बातें प्रमुख तौर पर कही जा रही हैं। पहली बात यह कि इस योजना से सेना युवा सैनिको से भर जाएगी और दूसरी बात यह कि इससे सैनिकों की पेंशन आदि पर खर्च होने वाले खर्च में भारी कमी आएगी। यह दोनों ही तर्क गलत और खतरनाक हैं।
♦️क्या कहती है अग्निवीर की नई अधिसूचना--
अग्निवीर की भरती के लिए जो नई अधिसूचना जारी की गई है, उसके बिंदु 2 (बी) (चार) एवं (पांच) में यह साफ़ है कि अग्निवीर को सेना की किसी भी ड्यूटी और किसी भी रेजिमेंट में भेजा सकता है। वहीं बिंदु 2 (सी) (एक) कहता है कि सभी अग्निवीर चार साल बाद ड्यूटी से निकाल दिए जाएंगे। बिंदु क्रमांक 2 (डी) (एक) के अनुसार, जो अग्निवीर एक सैनिक के रूप में 15 साल के लिए पोस्टिंग चाहते हैं, उन्हें नए सिरे से आवेदन देना होगा और नए सिरे से मेडिकल और शारीरिक जांच आदि में उत्तीर्ण होना होगा। चार साल के अग्निवीर के रूप में उनके प्रदर्शन के अंक भी इस दौरान देखे जाएंगे। इससे साफ़ है, अग्निवीर के दिमाग में एक चिंता हमेशा रहेगी कि अगर चार साल के दौरान उसमें कोई अस्थायी अपंगता आई और वह मेडिकल जांच पास नहीं कर पाया या आवेदन के ठीक पहले किसी कारणवश उसका अंग भंग हो गया तो उसके 15 साल के लिए सैनिक बनकर एक सैनिक तरह सारे अधिकार पाने और देश की सेवा करने के रास्ते हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे। इन सब चिंताओं के बीच वह देश की सीमाओं की रक्षा कैसे करेगा?
बात सिर्फ यहीं नहीं रुकती। इन अग्निवीरों द्वारा ड्यूटी के दौरान एक सैनिक की तरह अपना सब कुछ न्यौछावर कर मौत को गले लगाने या स्थायी अपंगता होने पर भी इन्हें एक सैनिक की तरह मान्यता या पेंशन आदि राशि नहीं मिलेगी। इस बारे में अधिसूचना के बिंदु क्रमांक 15 से 17 तक में सारी बातें बताई गई हैं। मसलन, बिंदु क्रमांक 15 में बताया है कि उन्हें ड्यूटी के दौरान मृत्यु के बावजूद भी एक सैनिक की तरह पेंशन आदि कुछ नहीं मिलेगा। इसमें अग्निवीर की मृत्यु को एक्स, वाई और जेड श्रेणी में रखा गया है। इसमें से एक्स श्रेणी का मतलब स्वभाविक मौत और वाई श्रेणी ट्रेनिंग के दौरान किसी दुर्घटनावश मौत और जेड श्रेणी ड्यूटी पर युद्ध में दुश्मन के हाथों मारे जाने या शांति कार्य में ड्यूटी पर हिंसा होने के कारण मौत है। तीनों ही श्रेणियों में मात्र 48 लाख रुपए की बीमा राशि मिलेगी। वहीं वाई और जेड श्रेणियों में 44 लाख रुपए अतिरिक्त मुआवजा राशि दी जाएगी। बस और कुछ नहीं! अपंगता के मामले में 20 से 49 प्रतिशत अपंगता को 50 प्रतिशत अपंगता मानकर 15 लाख का मुआवजा मिलेगा। 50 प्रतिशत से 75 प्रतिशत अपंगता को 75 प्रतिशत अपंगता मानकर 25 लाख का मुआवजा मिलेगा, और 76 प्रतिशत से 100 प्रतिशत अपंगता को 100 प्रतिशत अपंगता मानकर 44 लाख का मुआवजा मिलेगा। उपरोक्त राशि के अलावा अग्निवीर या उसके परिवार को कोई पेंशन, उनके बच्चों या परिवार के अन्य सदस्यों को नौकरी में प्राथमिकता आदि कुछ नहीं मिलेगा।
मगर सरकार जिसे सैनिक का दर्जा देती है, उसके लिए यह सब मापदंड अलग है। उसे और उसके परिवार को अशक्त पेंशन, अशक्त ग्रेचुटी, अपंगता पेंशन वॉर इंजुरी पेंशन, परिवार के सदस्य को आश्रित पेंशन, सेना में नौकरी में वरीयता आदि लाभ दिये जाते हैं। इतना ही नहीं, सेवानिवृत होने के 10 साल के अंतराल में अगर सैनिक को कोई ऐसी शारीरिक अपंगता दिखाई दे या उसकी अपंगता में बढ़ोतरी हो, जो उसे सेना में सेवा के दौरान किसी कारण से आई चोट के कारण हो तो उसके मद्देनजर सैनिक की बढ़ी हुई पेंशन नई सिरे से तय की जाती है। इससे यह भी साबित होता है कि नियमित सैनिकों को सेवानिवृति के 10 साल तक कोई पुरानी चोट से अपंगता आ सकती है या अपंगता में बढ़ोतरी हो सकती है। और ऐसे समय में एक सैनिक को सरकार उचित सहायता देती है। अगर किसी अग्निवीर के साथ ऐसा हुआ तो वो क्या करेगा? कहां जाएगा?
♦️सेना युवा कैसे होगी? --
अगर हम सेना भर्ती के 2019 के नोटिफिकेशन पर नजर डालें तो हमें समझ में आएगा कि सेना में भर्ती की उम्र सीमा पहले भी 17-1/2 से 21 वर्ष थी और अभी 2022 के नोटिफिकेशन में भी उम्र सीमा वही है (सिर्फ इस साल दो साल की छूट दी गई है)। अगर भर्ती की उम्र वही है तो फिर सेना युवा सैनिकों से कैसे भर जाएगी? इसका जवाब है, अग्निवीर को सिर्फ 6 माह की ट्रेनिंग दी जाएगी और 18 से साढ़े इक्कीस साल का युवा अग्निवीर सैनिक के नाम पर मोर्चे पर भेजा जाएगा। जहां तक एक स्थायी सैनिक का सवाल है, उस मामले में सेना युवा की बजाए वृद्ध होगी। पहले 17.5 से 21 साल के युवा को सेना में भर्ती होने के बाद 15 साल के लिए स्थायी सैनिक बनने का मौका मिलता था। यानी वह 32.5 से लेकर 36 साल तक एक सैनिक के रूप में काम करता। लेकिन, अब उसे पहले अग्निवीर बनना होगा और उसके बाद ही वह 21.5 से लेकर 25 साल का होने के बाद ही सैनिक के पद के लिए आवेदन देने के लायक होगा। मतलब अग्निवीर से निकला सैनिक लगभग 37 से लेकर 40 साल की उम्र तक एक सैनिक के रूप में काम करेगा।
यह सही है कि युवा अग्निवीर में जोश तो होगा, मगर अनुभव और समझ की भारी कमी होगी। मेरे एक सैनिक मित्र ने मुझे कहा कि ट्रेनिंग के दौरान हम वहीं गोली चलाते हैं, जहां हमें कहा जाता है। अगर हम अपने मन से एक भी गोली चला दें, तो हमें कड़ी सजा मिलती है। हम हर काम आदेश पर करते हैं। इसलिए मोर्चे पर आने के बाद जगह और परिस्थिति की समझ बनने और अपने मन से फैसला लेने की हिम्मत और समझ आने में काफी समय लगता है। यूनिट में घुलने-मिलने में भी समय लगता है। यह अग्निवीर तो ऐसी रेजिमेंट व्यवस्था में भेजे जाएंगे, जो क्षेत्र के आधार पर बनी हैं और नाम, नमक और निशान की परंपरा में गुंथी हैं। इस रेजिमेंट व्यवस्था में एक युवा अग्निवीर, जिसका अस्तित्व एक अस्थायी सैनिक का है, वो कैसे सहज महसूस करेगा?
इसलिए अग्निवीर का सवाल सिर्फ युवाओं के रोजगार से जुड़ा नहीं है। हम एक देश के रूप में देश के लिए सब कुछ न्यौच्छावर करनेवाले युवाओं के शोषण की मंजूरी कैसे दे सकते हैं? अपने आपको शोषित और भविष्य के प्रति असुरक्षित महसूस करने वाले युवा देश की रक्षा कैसे करेंगे? जरुरी है कि इस योजना को अविलंब रोका जाए और इस पर व्यापक बहस की जाय।
सनद रहे कि थल सेना का कथन है – कोई भी सैनिक या अफसर अपर्याप्त ट्रेनिंग के चलते युद्ध में घायल ना हो या अपनी जिन्दगी से हाथ ना धोए। यह भारतीय सेना के प्रशिक्षण का सार है। जबकि 6 माह के आधे-अधूरे रूप से प्रशिक्षित अग्निवीर को मोर्चे पर भेजकर सेना अपने इस उद्देश्य भटक जाएगी।
♦️अग्निपथ के पीछे क्या है मोदी सरकार की मंशा?--
आर्थिक मंदी का दौर है और हर तरफ बेरोज़गारी का बोलबाला है। पिछले कई वर्ष से सेना या सुरक्षा बलों में नियमित भर्तियां नहीं हुई हैं। कोविड काल तो चलो एक आकस्मिक दिक़्क़त हुई लेकिन सैन्य बलों में भर्तियां इससे पहले से ही तक़रीबन बंद पड़ी हैं। ऐसे में इतनी नौकरियों की घोषणा के विरोध की उम्मीद किसी को नहीं रही होगी, भले ही यह तदर्थ, या अस्थायी ही क्यों न हों। सरकार और सेना ने अग्निपथ के पक्ष में तमाम तरह की दलीलें भी दी हैं। योजना के तमाम फायदे गिनाए हैं। लेकिन सवाल यह भी है कि सरकार को ऐसा करने की ज़रूरत क्यों पड़ी?
वर्ष 2016 के बाद से लगातार बिगड़ रहे देश के आर्थिक हालात भी इसका एक कारण हैं। नोटबंदी के बाद से असंगठित क्षेत्र बदहाल है, कृषि लगातार घाटे का सौदा बना हुआ है और निजी क्षेत्र में भी नौकरियों के अवसर 1991 से 2010 के बीच जैसे नहीं रह गए हैं। सरकार से पहली चूक निजी क्षेत्र पर दांव लगाने की ही हुई है। पिछले आठ साल में निजी क्षेत्र को तमाम तरह की आर्थिक सुविधा, पैकेज और टैक्स छूट दी गईं। सरकार को उम्मीद थी कि निजी कंपनियां जितना फले-फूलेंगी उतना आर्थिक संकट कम होगा और उतनी ही बेरोज़गारी घटेगी। लेकिन निजी क्षेत्र ने सरकार को लगातार धोखा दिय़ा। तमाम कंपनी टैक्स लाभ लेकर और लोन माफ कराकर बंद हुईं और कई उद्योगपति पैसे के साथ देश छोड़ गए।
अब हालात सरकार के क़ाबू से बाहर हैं। जिस तरह विदेशी क़र्ज़ लगातार बढ़ रहा है, और अर्थतंत्र की सांसें डूब रही हैं, ऐसे में सरकारी ख़र्च में कटौती और नौकरियों की संख्या में कमी के अलावा सरकार के पास कोई चारा नहीं है। सेना में तदर्थ भर्ती सिर्फ एक बानगी है। अभी दूसरे विभागों और पुलिस बलों में भी यही दोहराया जाना है। ऐसे में अग्निपथ से शुरु हुई आंदोलन की आग अभी दूसरी भर्तियों के दौरान भी फैलने का ख़तरा है।
कुछ लोग अग्निपथ योजना को यह कहते हुए बेहतर बता रहे हैं कि कुछेक देशों में पहले से ऐसी योजना चल रही है। मेरा मानना है कि हर देश के लोगों की मानसिकता अलग-अलग होती है, जो वहां के मौसम, भोगौलिक स्थिति, आर्थिक स्थिति, राजनीतिक स्थिति, ऐतिहासिक स्थिति और धार्मिक स्थिति आदि पर निर्भर है। इसलिए इस योजना को दूसरे देशों को देखकर लागू न किया जाए। भारत कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक और गोवा से लेकर आसाम तक फैला है। सरकार को यह बात समझनी चाहिए।
मेरे हिसाब से सबसे बड़ी चुनौती तब सामने आएगी जब 75 फीसदी अग्निवीरों को जब निकाला जाएगा तो वे किसी भी सूरत में चुप नहीं बैठेंगे और जब उन्हें ढंग का रोजगार नहीं मिलेगा तो हो सकता है कि वे बड़ा बवाल खड़ा कर दें, जिसका असर स्थायी सैनिकों पर भी पड़ेगा। इसका असर देश की आंतरिक सुरक्षा पर भी पड़ेगा। वजह यह कि यदि बड़ी संख्या में नौजवानों को बीच मझधार में छोड़ दिया जाएगा तो वे अलगाववादी ताकतें उन्हें फांसने का षडयंत्र रच सकती हैं।
दरअसल, इस पूरे मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीन कृषि क़ानून लाकर जिस प्रकार से किसानों का फ़ायदा करना चाहते थे, ठीक वैसे ही इस अग्निपथ योजना से फ़ौज का फ़ायदा करना चाहते हैं। जबकि हम सभी जानते हैं कि उन तीन कृषि क़ानूनों से किसान को क्या नुक़सान हो सकता था। ऐसे ही इस अग्निपथ योजना से नुक़सान होगा। तीन कृषि क़ानून लाकर सरकार एमएसपी से भागने की सोच रही थी और इस अग्निपथ योजना से सरकार पेंशन व वेतनादि का ख़र्च बचाने की सोच रही है। हमें चौधरी छोटूराम को याद करना चाहिए, जिन्होंने कहा था कि “सरकार को एक बनिया की भावना से नहीं सोचना चाहिए। इसका शासन केवल दुकानदारी के सिद्धांतों पर नहीं चलना चाहिए। सबसे पहला उद्देश्य जो एक सरकार का होना चाहिए वह है, जनता की भलाई।” जबकि भाजपा जबसे सत्ता में आयी है, तभी से वह देश चलाने के बजाय व्यापार अधिक कर रही है।
सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि अग्निपथ योजना पर अधिकतर सेवानिवृत्त फ़ौज अधिकारी ख़ामोश हैं और जो अभी सेवारत हैं, सरकार की प्रशंसा करने में लगे हुए हैं। यह बड़े दुःख की बात है। जब इस प्रकार फ़ौज भी किसी नेता की अनावश्यक चमचागिरी में लग जाती है तो समझ लेना चाहिए कि देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा उत्पन्न हो चुका है। यह समय है कि सरकार चेते और नौजवानों के भविष्य के साथ न खेले।
♦️अग्निवीर और शिक्षा--
अग्निपथ योजना का ध्यान से अध्ययन करने पर यह साफ़ हो जाता है कि वह कतई राष्ट्रहित में नहीं है। यह योजना वर्ण धर्म का आधुनिक स्वरुप है। इसका लक्ष्य शूद्र/ओबीसी/एसटी/एससी विद्यार्थियों को साढ़े सत्रह साल की अल्प आयु में स्कूल से बाहर कर देना है। ग्रामीण कृषि और शिल्पकार समुदायों के अधिकांश बच्चे इस उम्र तक मुश्किल से दसवीं कक्षा पास कर पाते हैं। यह योजना उन्हें स्कूल ड्रॉपआउट बना देगी। चार साल तक अग्निवीर के रूप में काम करने के बाद वे बेरोजगार हो जाएंगे। वे फिर से स्कूल में दाखिला लेने से रहे। क्या यह योजना नयी शिक्षा नीति का भाग है? चार साल तक सेना में काम करने के बाद अग्निवीर अपने गांव लौटकर आखिर करेंगे क्या?
अग्निपथ योजना के अंतर्गत सेना में सबसे निचले पद (रंगरूट अथवा सिपाही) पर भर्ती की जाएगी। जाहिर है कि संपन्न वर्ग और द्विज जातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया, कायस्थ और खत्री) के लड़के अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ कर अग्निवीर नहीं बनेंगे। वे एनडीए में प्रवेश लेकर कमीशंड अधिकारी बनने का प्रयास करेंगे। एससी, एसटी और ओबीसी में भी केवल गरीब वर्ग के लोग अपने बच्चों को इस योजना के अंतर्गत सेना में भर्ती होने देंगे।
दरअसल, अग्निपथ योजना संघ की शाखाओं का ही एक स्वरुप है। सरकार श्रमजीवी वर्गों/जातियों के साक्षर युवकों को चार साल में नाममात्र का वेतन देकर योद्धा बना देगी। उसके बाद, वे अपनी शैक्षणिक योग्यता बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं करेंगे। वे कहा जाएंगे? क्या करेंगे?
सरकार के दिमाग में उनके लिए तीन प्रकार की नौकरियां हैं। पहली, अडाणी और अंबानी मार्का निजी उद्योग समूह उन्हें मामूली तनख्वाह पर सुरक्षाकर्मी के रूप में भर्ती कर लेंगे। शायद तब उन्हें ‘औद्योगिक अग्निवीर’ कहा जाएगा। आनंद महिंद्रा ने तो अभी से यह संकेत दिया है की वे अग्निवीरों को इस श्रेणी के काम देंगे। बढ़ते निजीकरण के इस दौर में निजी कंपनियों को श्रमजीवी वर्ग को काबू में रखने के लिए निजी अग्निवीर चाहिए होंगे। आरएसएस उन्हें अपने अतिवादी काडर में शामिल कर लेगा। वे शायद ‘भारतीय अग्निवीर’ कहलाएंगें। तीसरे, राष्ट्रवादी धनिक सेलिब्रेटिज उन्हें अंगरक्षक के रूप में इस्तेमाल करेंगे। तब वे ‘रक्षण अग्निवीर’ कहलाएंगे।
भारतीय सैन्य बलों के उच्च अधिकारी, जिनमें तीनों सेनाओं के मुखिया शामिल हैं, आखिर इस योजना, जिसके भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश के लिए गंभीर निहितार्थ हैं, को लागू करने पर सहमत कैसे हो गए? अगर आप साल-दर-साल हजारों नौजवानों को सैन्य प्रशिक्षण देते जाएंगे और उनके लिए रोज़गार की व्यवस्था नहीं करेंगे, तो इससे देश में हिंसा कैसे घटेगी? अभी तक जो व्यवस्था लागू थी, उसमें सैनिकों को जीवन भर के लिए सेना का हिस्सा बनाया जाता था। लगभग 15 साल के कार्यकाल में उनकी शादी हो जाती थी और बाल-बच्चे भी। उनके पास स्नातक या उससे उच्च शैक्षणिक योग्यता होती थी और एक लंबा सैन्य अनुभव भी। उन्हें पेंशन भी मिलती थी और समाज में उनका सम्मान भी होता था। उन्हें आसानी से कोई दूसरा काम मिल जाता था। इसके विपरीत, स्कूल ड्रापआउट अग्निवीरों के पास न तो काम होगा न पेंशन। वे शायद विवाहित भी नहीं हों सकेंगे। क्या उन्हें समाज सम्मान की दृष्टि से देखेगा?
आज हमारे देश में चौकीदार का काम करने वाले किस जाति के होते हैं? क्या आनंद महिंद्रा अग्निवीरों को इसी तरह का काम नहीं देना चाहते? भाजपाई मंत्री किशन रेड्डी का सुझाव है कि वे नाई या धोबी के रूप में काम कर सकते हैं। आज ये काम किन जातियों के लोग कर रहे हैं? क्या किशन रेड्डी यह पसंद करेंगे कि उनका पुत्र अग्निवीर बने और फिर ऐसा ही कुछ काम करे। इस परियोजना के ज़रिये वर्ण धर्म की विचारधारा को बढ़ावा दिया जा रहा है।
♦️ध्वस्त होती महत्वाकांक्षाएं --
यह परियोजना समाज में हिंसा बढ़ाएगी। ज्ञानार्जन करने की आयु में युवाओं को स्कूल से बाहर खींच कर उन्हें पहले योद्धा और फिर बेरोजगार बनाया जाएगा। आरएसएस अपने अल्पसंख्यक-विरोधी एजेंडा के तहत युवकों को लाठी चलाने का प्रशिक्षण देता था। अब, जब कि वह सत्ता में है, वह इससे आगे जाना चाहता है। अल्पसंख्यकों से निपटने का काम तो अब पुलिस और बुलडोज़र कर रहे हैं। आप पहले युवकों को हिंसा करने का प्रशिक्षण देते हैं और फिर उनकी महत्वाकांक्षाओं को ध्वस्त कर देते हैं। ऐसे में आपको उनकी हिंसक प्रतिक्रिया पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
जिन युवकों को शाखाओं और चुनावी सभाओं में सब्जबाग दिखाए गए थे, जब उन्हें यह पता चलता है कि अग्निवीर जैसी योजनायें ला कर उनकी महत्वाकांक्षाओं को ध्वस्त किया जा रहा है तो वे अपने आकाओं के खिलाफ ही खड़े हो जाते हैं। हम आज यही देख रहे हैं। वैश्वीकृत सोशल मीडिया और निजीकृत राज्य नयी हिंसक ताकतों को जन्म देंगे। अग्निपथ से इस प्रक्रिया की शुरुआत भर हुई है।
♦️सेना के आधुनिकीकरण का तर्क महज छलावा --
केंद्र सरकार का दावा है कि इससे सेना के आधुनिकीकरण में मदद मिलेगी। कैसे मदद मिलेगी, यह साफ नहीं है। सरकार द्वारा अभी तक प्रस्तुत इस योजना की रूप-रेखा से इसकी कोई संभावना नहीं बनती है। सेवाकाल में कटौती प्रशासनिक मसला है। सैन्य विशेषज्ञों का मानना है कि एक फौजी को जंग के लिए तैयार करने में चार से पांच साल लगते हैं। ‘अग्निपथ’ योजना में केवल छह महीने के प्रशिक्षण का ही प्रावधान है। इस तरह कम अनुभव वाला फौजी सेना के आधुनिकीकरण में कैसे मददगार होगा?
♦️रेंजीमेंट प्रणाली में खामियां हैं तो संसद में चर्चा कीजिए --
दरअसल, सेना की भर्ती एक गंभीर मसला है। आजादी से पहले का जिक्र न भी करें, तो भी बीते 75 वर्षों से भारत में रेजीमेंट सिस्टम चला आ रहा है। प्रत्येक रेजीमेंट की अलग वेषभूषा, अलग नारा और अलग युद्ध-शैली है। इस प्रणाली में निस्संदेह कुछ कमजोरियां हो सकती हैं। समय के अनुसार हर नीति की समीक्षा जरूरी होती है। सेना में भर्ती की प्रक्रिया भी अपवाद नहीं है। लेकिन इतने अरसे से चली आ रही व्यवस्था को बदलने के लिए उसके हर पहलू पर विचार करना जरूरी है। मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा है, इसलिए सरकार को पार्टी हित, वर्गीय हित से ऊपर उठकर सोचना चाहिए। यदि सरकार ‘अग्निपथ’ को सचमुच कारगर और युगांतरकारी योजना मानती है; और उसे अपने ऊपर भरोसा है तो योजना को लागू करने से पहले, संसद में विधिवत चर्चा होनी चाहिए थी। आवश्यकता पड़ने पर विशेष सत्र भी बुलाया जा सकता था। सरकार का दोनों सदनों में बहुमत है। इसलिए उसे चिंता करने की भी जरूरत नहीं थी। फिर भी योजना को कैबिनेट फैसले के तहत पिछले दरवाजे से थोपा गया? अब वह विपक्ष की मांग पर मामले को संसदीय समिति के पास भेजने से भी कतरा रही है। सवाल उठता है कि आखिर क्यों?
इस बारे में पंजाब के गवर्नर रह चुके रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल बी.के.एन. छिब्बर की टिप्पणी किसी भी राजनीतिक बयान से ज्यादा प्रासंगिक है। चंडीगढ़, में प्रकाशित इस टिप्पणी को ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए। छिब्बर साहब का मानना है– “किसी भी दूसरे देश या यूरोपियन देशों की तुलना करते हुए यहां के युवाओं के लिए ऐसी योजना बनाना ठीक नहीं है। कम्पलसरी मिल्ट्री सर्विस का हमारे मुल्क में कोई उदाहरण नहीं है। हमारे पास रेजीमेंटल सिस्टम है। इससे हर अफसर और जवान को मिल्ट्री करियर या सर्विस के दौरान और बाद में पूरी तरह से संतोष मिलता है। हमारा रेजीमेंटल सिस्टम यूनिक और पूरी तरह से संतोषजनक है। युद्ध या शांति के दौरान हमारी सेना का काम उदाहरण देने लायक है तो वह इस सिस्टम की वजह से ही है। इसे कायम रखने के लिए सेना में लंबी सर्विस जरूरी है।”
छिब्बर साहब आगे कहते हैं– “भारतीय सेना रोजाना आतंकवादियों के साथ बखूबी सामना कर रही है। दूसरे देशों की आर्मी के पास हमसे अच्छी मिसाइल, गन, हथियार और एयरक्राफ्ट हो सकते हैं। लेकिन ग्राउंड वार जीतना आसान नहीं है। हमारी सेना हर परिस्थिति में बेहरतीन रिजल्ट देने की क्षमता रखती है। हमें सेना की इस क्षमता के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए।”
♦️सेना का राजनीतिकरण लोकतंत्र के लिए खतरा--
बीते शुक्रवार, 17 जून को तीनों सैन्य प्रमुखों ने ‘अग्निपथ’ के समर्थन में सार्वजनिक बयान दिया। रक्षामंत्री, गृहमंत्री और सरकार के प्रवक्ता सरकार के फैसले का समर्थन करें, इसमें बुराई नहीं है। व्यक्तिगत और प्रशासनिक स्तर पर तीनों सैन्य प्रमुख भी उसके समर्थक हो सकते हैं। किंतु ‘अग्निपथ’ के समर्थन में सार्वजनिक बयान देकर, जल्दी ही भर्ती शुरू करने की घोषणा करना, खासकर ऐसे समय जब योजना का विरोध किया जा रहा है – क्या स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा मानी जाएगी? क्या सरकार नागरिकों से ऊपर होती है! क्या जन-भावनाओं का ध्यान रखना उसकी जिम्मेदारी नहीं है! सेना का राजनीतिक इस्तेमाल लोकतंत्र के लिए बहुत ही भयावह है। यह दर्शाता है कि अपनी नाकामी छिपाने के लिए सरकार, सैन्य प्रमुखों को बीच में लाकर बेहद खतरनाक खेल खेल रही है।
♦️चार वर्ष बाद रंगरूटों के भविष्य का सवाल--
सरकार का कहना है कि चार साल की सेवानिवृत होनेवाले जवानों के हाथ में 11.65 लाख रुपये की जमा राशि रहेगी। उससे वे कोई व्यापार कर सकते हैं। अगर वे ऐसा कर पाएं तो अच्छी बात है। लेकिन सेना में जाते कौन हैं? वे जो साधारण परिवारों से आते हैं। उनमें भी 80 फीसदी गांव के लड़के, जो परिस्थितिवश ज्यादा पढ़ नहीं पाते। व्यापार करने की योग्यता उनमें से बहुत कम युवकों में होती है। यदि कोई कोशिश भी करे तो ग्रामीण परिवेश और संसाधनों के अभाव में सफलता की संभावना घट जाती है। ऊपर से जिम्मेदारियों का दबाव। छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई, शादी-विवाह और बूढ़े मां-बाप की देखभाल, इतने दबावों के बीच ‘सम्मान-निधि’ कितने समय तक टिक पाएगी, कहना मुश्किल है। कुछ सरकार समर्थकों का कहना है कि चार साल की ‘अग्निवीरी’, गार्ड की नौकरी करने से तो अच्छी रहेगी। उनकी समझ पर बलिहारी। लोग गार्ड या ऐसी ही मामूली नौकरी खुशी से नहीं करते। ना ही देश-भक्ति का आह्वान उन्हें विवश करता है। मजबूरी उनसे ऐसा कराती है। उन्हें उम्मीद होती है कि सरकार उनके लिए कुछ अच्छा करेगी। अब सरकार ऐसी योजना लाए, जिसमें चार वर्ष के बाद उन्हें दुबारा उसी जगह लौटना पड़े, तो उसकी कौन सराहना करेगा! ऐसे में आम आदमी पार्टी के संजय सिंह का यह कहना एकदम सही है कि यह योजना प्राइवेट कंपनियों के लिए गार्ड उपलब्ध कराने को लाई गई है। इस बयान में हैल्परों, चपरासियों, कूरियर बॉय वगैरह को भी जोड़ा जा सकता है। बीते आठ वर्षों के दौरान सरकार के हर फैसले ने सिद्ध किया है कि उसे इस देश के पूंजीपतियों और बड़े लोगों की चिंता कहीं ज्यादा है। इस अवधि में बड़े पूंजीपतियों की सकल संपत्ति में 400-500 प्रतिशत की वृद्धि, दूसरी ओर छोटे उद्यमियों की बरबादी, सुरसामुखी महंगाई और बढ़ती बेरोजगारी आदि इसकी पुष्टि करती है। बीते दिनों यह भी सुनने में आया कि सरकार आगामी जुलाई से नए श्रम कानून लागू करना चाहती है। यदि यह सच है तो संभव है कि अग्निपथ योजना की तरह नए श्रम कानून भी चुपके से थोप दिए जाएं। यह बहुत डरावनी संभावना है।
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