Sunday, 17 July 2022

खत, यादों का एक झरोखा



फूल तुम्हें भेजा है खत में.………  प्यार का इजहार जताने वाला यह मशहूर गीत अब शायद अपनी प्रासंगिकता खो चुका है क्योंकि खत तो छोडि़ए आज के युवा वर्ग ने फूल भेजने के लिए भी अब मोबाइल और इंटरनेट जैसी आधुनिक तकनीक का दामन थाम लिया है। एक दौर था जब लोग एक दूसरे से बात करने के लिए चिट्ठियों का सहारा लेते थे लेकिन आजकल ऐसा बहुत कम होता है। अब लोग सीधा फोन मिलाकर या मैसेज करके बात कर लेते हैं। 



कहते हैं व्यक्ति के निर्माण में उसकी जन्म कुंडली के शुभ और अशुभ ग्रहों का विशेष प्रभाव होता है। हर ग्रह अपने भावों के साथ बैठा होता है, जिससे व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन का आकलन किया जा सकता है। ऐसे ही बचपन में पाए संस्कार हमारे साथ जीवन भर रहते हैं। हमारी उँगली पकड़कर हमें दौड़ाते हैं।

आज पुरानी आलमारी की सफाई कर रहा था, उसमें जाने कितने वर्षों पुराना कभाड़ भरा था। एक गट्ठर वहाँ रखा हुआ था, खोला तो पुरानी चिट्ठियों का बँधा ढेर था। हर चिट्ठी के साथ एक स्मृति और उसका इतिहास जुड़ा था। पिताजी के खत, प्रेमियों के लम्बे कई-कई पन्नों वाले पत्र और भी जाने कितने मित्रों के पत्र थे, याने खत ही खत मेरे सामने थे। लिखने वालों में अब अधिकांश मेरे स्वयं के इस संसार में जीवित नहीं हैं, पर उन चिट्ठियों में उस व्यक्ति की अपनी छवि, आब और वजूद वैसा ही बरकरार था। पोस्टकार्ड पर, लिफ़ाफ़ों पर उस समय की तारीखें और सन के साथ डाकघर की मोहर मौजूद थी। पोस्टकार्ड केवल दोस्त के थे। वह अपने खत पोस्टकार्ड पर ही लिखता। आज भी किसी का पोस्टकार्ड पर लिखा खत आया, तो एकदम से दोस्त की याद की फुरेरी कौंध जाती हैं। कितनी ढेर-ढेर स्मृतियों ने एक साथ आकर मुझे घेर लिया। स्मृतियों के हो-हल्ले और शोर ने मुझे बीते दिनों में पहुँचा दिया। हर स्मृति की अपनी अलग-अलग महक है। जैसे किसी पुराने इत्रदान में रखे इत्र की महक। इत्र खत्म हो गया पर उसकी खुशबू उसमें अभी भी बसी थी। पिताजी के लम्बे पत्रों में दुनिया की, समाज की बातें और अन्त में नन्हा-सा एक आश्वासन, जो हमेशा मेरे काँपते कमज़ोर पैरों को ताकत देता था।

मित्र के खुद के लिखे उर्दू के या फिर किसी के द्वारा लिखाए हिन्दी के खत और अन्त में बतौर तसदीक में उसके वही टेढ़े-मेढ़े हिन्दी के हस्ताक्षर, जैसे मानो मैंने उसे कभी चौथी कक्षा में पढ़ते समय लिखना सिखाया था। टूटे-फूटे शब्द वाले हस्ताक्षर जो बाद में बैंक से लेकर जायदाद के दस्तावेज़ों में भी चलने लगे थे। मित्र के हस्ताक्षर उनकी उपस्थिति को दर्ज कराता है। यह सारे पत्र अब मेरे लिए ज़िन्दगी के कीमती धरोहर से कम तो नहीं हैं। पिताजी के खतों में घर-परिवार और उनकी अपनी निजी बातें। लगता जैसे बस सामने बैठें हैं और बोल रहे हैं। हर शब्द के साथ उनका स्नेह होता और दबी-छुपी गुप्त रहस्य की बातें होतीं। हर शब्द के पीछे तहखाना छुपा होता। पिताजी की इन्हीं बातों ने क्या मुझे हमेशा थामे नहीं रखा था? संसार के किसी कानून को नहीं मानने वाला मन इन्हीं हिदायतों की पाबंदी को कभी लांघ नहीं पाया।

कभी सोचता हूँ, क्या आज के संपादक होने का गुण पिताजी के द्वारा लिखाए गए ख़तों से आया था? बचपन में पिताजी के दो वर्ष बीमार रहने के कारण उनके द्वारा लिखाए पत्र लिखते-लिखते मैं लेखक बन गया। क्या बाल मज़दूर की भूमिका में मुझे भविष्य के लिए मेरे पिता गढ़ रहे थे? गीली माटी को सान-सान कर पच-पच लोंदो को थोप-थोप कर एक मूरत तैयार कर रहे थे? आज पिताजी नहीं हैं, ज़िंदा होते तो कहते, "रहने दे इसे मत लिख, ऐसा कहीं कोई संपादकीय लिखता है?"

मुझे याद है मेरे स्कूल के रास्ते में डाकघर हुआ करता था। सड़क पर ही लाल पोस्ट बॉक्स लगा था जिसे हम बच्चे भानुमती का डिब्बा कहते थे। हमारी यह परिकल्पना थी कि इसके अन्दर एक जिन्न बंद है जो हर समस्या को सुलझा सकता है। बहुत छोटा था, शायद तीसरी-चौथी कक्षा में पढ़ता था। किसी ने बताया था इसमें चिट्ठी डालते है जो कहीं भी पहुँच सकती है। नन्हें मन में एक विचार कौंधा और झट से अपनी कक्षा की कापी का पन्ना फाड़कर एक पत्र टूटी भाषा में अपने सपनो को लिखा था। ढेर सारे तोहफ़े लाने की फ़रमाइशें थीं, मेरे जीवन का वह पहला पत्र था। वह तोहफ़े तो कभी नहीं आए पर एक दिन जब उसी पत्र को डाकघर के पीछे कचरे के ढेर पर पड़ा देखा तो डाकघर वालों पर बहुत गुस्सा आया और उन्हें सजा देने का सोचा। रोज़ पोस्ट बॉक्स में ढेर-ढेर कंकड़-पत्थर डालने लगे। डाकघर वाले परेशान, एक दिन पोस्ट-मास्टर ने छुपकर पकड़ लिया। मेरी शिकायत पर उन्होंने समझाया, बेटा पत्र लिफ़ाफ़े में रख पता लिखकर उसे गोंद से चिपका कर भेजा जाता है। वह सबक आज तक रटा हुआ है। उसके बाद कभी मेरा कोई पत्र गुम नहीं हुआ।

क्या दौर था, खाकी वर्दी में पत्रों का थैला लटकाए हाथों में पत्रों का गट्ठर लिए उस अजनबी व्यक्ति का सबको इंतज़ार रहता है। खुशी की खबर, दु:खों की सूचना लिए दौड़ता वह डाकिया कितना अपना, निकट का व्यक्ति लगता है। वह सरकारी व्यक्ति है, यह बात मानने को मन तैयार नहीं होता। डाकिया की जो परिभाषा हमने जानी और समझी है, उसमें वह केवल सन्देश वाहक ही नहीं हैं बल्कि दूरस्थ अंचलों में बसे अनपढ़ों के लिए तो वह पत्रवाचक तथा पत्रलेखक भी है। वह हमारी संवेदना का श्रोत और खुशियों का हिस्सेदार भी है। एक छोटा-सा कर्मचारी हमारी ज़िन्दगी में किस तरह घुल-मिल गया है, कि उसका आगमन एक सरकारी कर्मचारी की तरह नहीं, भावनाओं के बादलों की तरह वह हमारे आँगन में दुख-सुख की बरसात करने वाले व्यक्ति के रूप में हम उसे जानते हैं। उसके थैले में हमारे अरमानों के और खुशियों के हीरे-मोती भरे होते हैं। सूरज के साथ वह निकलता है और मनुष्य के निस्सार जीवन में कितना रंग, कितनी हलचल और उथल-पुथल भर देता है।

'विरहा प्रेम की जागृत गति है और सुषुप्ति मिलन है।' वियोग की असह्य पीड़ा का निदान सन्देश से ही संभव है। सीताहरण के पश्चात राम निर्जन जंगलों में भटकते हुए पूछते हैं, "हे खग मृग हो मधुकर श्रेनी, तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।" मारू के बाल विवाह के पश्चात जब वह यौवन को प्राप्त होती है तब वह अपने पति ढोला से मिलने के लिए बेचैन है। मन के अंतरतम दर्द की गोपनीयता बनाए रखने के लिए तोते के माध्यम से सन्देश भेजती है। इस प्रकार अपने प्रियतम को सन्देश पहुँचाने की बेचैनी में लोगों ने वृक्ष, पर्वत, तोते, कबूतर, भँवरे एवं बादलों का सहारा लिया। कुटनी के सहारे अपने सन्देश पहुँचाने की कोशिश की है। कहीं अपनी अंगूठी, वस्त्र चिन्ह और रंग के माध्यम से अपने संदेश पहुँचाए हैं। उसी आधार पर आज हमारे पहाड़ी समाज में मनाए जाने वाला उत्तराखंडी लोकपर्व “हरेला” भी कभी किसी समय का सन्देश वाहक रहा होगा। 

मनुष्य को अपने सामाजिक संबंधों को निभाने तथा मन की भावनाओं को दूसरे तक पहुँचाने के उपक्रम में कितना भटकना पड़ा है। सदियों बाद डाकिया के उदय होने के पश्चात उसने राहत की सांस ली है। सन्देश संप्रेषण के रूप में जनभावना के संरक्षक की तरह उसने मानव इतिहास में एक अद्वितीय भूमिका निभाई है।

पत्रों ने जहाँ प्रेमियों को राहत दी, वहीं कई षड़यंत्र भी रचे और गवाह भी बने, पत्रों ने क्रांति की। बड़े साम्राज्यों के उत्थान-पतन के कारण बने। पत्रों से ग़लतफहमियाँ भी हुईं। इस तरह पत्रों ने उत्पात भी मचाया। पत्रों के माध्यम से अपराध पकड़े गए। आत्महत्या के समय लोग पत्र लिखकर मर जाते हैं, अन्त समय भी मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति पत्र से ही कर पाता है। सामाजिक संबंधों के पत्र, शादी-ब्याह के संदेश। 

आदिवासी इलाकों में लाल मिर्च, कमल का फूल युद्ध के संदेश माने जाते थे। बादशाह अकबर को रानी दुर्गावती ने पत्र लिखा था। रानी दुर्गावती ने सूत कातने का करघा अकबर को भेजा था कि बूढ़े हो गए घर बैठकर सूत कातो। अकबर ने उत्तर में चूड़ियाँ भेजी थीं कि- चूड़ी पहनो और घर बैठो। मीराबाई जब सामाजिक तानों और यातना से परेशान थी। साधु संगत से जोड़कर उस पर नाना प्रकार के आरोप लगाए जा रहे थे तब उसने तुलसी को पद में पत्र लिखा था। तुलसी ने भी उसका उत्तर पद से ही दिया था।

क्या टेलीफ़ोन, इन्टरनेट के फैलते जाल में अब डाकिया गुम होकर रह जाएगा? हर घर, हर गली में लगी फ़ोन सुविधा अब चिट्ठियाँ लिखने का रिवाज़ ही ख़त्म कर देंगी। सेलुलर फोन पर सड़क चलते, कार में, ट्रेन एवं एरोप्लेन में भी लोग खबर लेते रहते हैं कि पहुँच रहे हैं, क्या खाना पका, नींद आई या नहीं, तबीयत कैसी है, आदि। इसी प्रकार इंटरनेट संदेशों के आदान-प्रदान के साथ ही किसी विषय पर विचार, दवा के नुसख़े तथा अजनबियों से विचार-विमर्श। यहाँ तक कि सबेरे आनेवाला अखबार, लेख एवं पुस्तकों की पांडुलिपि तक बिना समय बिताए पढ़ सकते हैं। इतनी ढेर-ढेर सुविधाओं ने क्या मानवीय संवेदनाओं की बेल को सुखा नहीं दिया है? आज समय ही समय है परन्तु एहसास की, भावनाओं की कमी हो गई है, मन के भावों का समूचा ताल ही जैसे सूख गया है। नए संचार माध्यमों की जलकुंभी में सहज संदेशों के मनोहारी कमल क्या गुम हो जाएँगे, यह समय ही बताएगा।

जब मेरी तन्द्रा टूटी तो पाया, खत में मेरी ही खत के टुकड़े थे और मुझे लगा कि जवाब आया है। वो एक खत जो तुमने कभी लिखा ही नहीं, मैं रोज़ बैठ के उसका जवाब लिखता हूँ ||

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वो नीली चिट्ठियां कहां खो गई
जिनमे लिखने के सलीके छुपे होते थे

कुशलता की कामना से शुरू होते थें
बड़ों के चरणस्पर्श पर ख़त्म होते थें

और बीच में लिखी होती थी जिंदगी
प्रियतमा का विछोह,
पत्नी की विवशताएं
नन्हें के आने की खबर,
मां की तबियत का दर्दं
और पैसे भेजने का अनुनय
फसलों के खराब होने की वजह

कितना कुछ सिमट जाता था
एक नीले से कागज में
जिसे नवयौवना भाग कर सीने से लगाती
और अकेले में आंखों से आंसू बहाती

मां की आस थी ये चिट्ठियां
पिता का संबल थी ये चिट्ठियां
बच्चों का भविष्य थी ये चिट्ठियां
और गांव का गौरव थी ये चिट्ठियां

अब तो स्क्रीन पर अंगूठा दौड़ता हैं
और अक्सर ही दिल तोड़ता हैं
मोबाइल का स्पेस भर जाए तो
सब कुछ दो मिनिट में डिलीट होता हैं
सब कुछ सिमट गया छै इंच में
जैसे मकान सिमट गए फ्लैटों में 
जज्बात सिमट गए मैसेजों में
चूल्हे सिमट गए गैसों में
और इंसान सिमट गए पैसों में…………..

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