Wednesday, 20 July 2022

नमक मानव अस्तित्व के लिए सबसे महत्वपूर्ण



 
प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले खनिज पदार्थ के रूप में, नमक मनुष्यों और जानवरों के लिए अपरिहार्य है। नमक मानव स्वास्थ्य को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और मानव के आहार में सोडियम और क्लोराइड आयनों का मुख्य स्रोत है। सोडियम तंत्रिका और मांसपेशियों के कार्य के लिए आवश्यक है और द्रव नियमन में शामिल है, और यह रक्तचाप को नियंत्रित करने के लिए भी अनिवार्य है। मनुष्य और जानवर प्राकृतिक वातावरण से नमक को अलग-अलग तरीकों से अवशोषित करते हैं, जो जीवों की प्रकृति से निर्धारित होता है। लेकिन, नमक के खाने के अलावा और भी कई उपयोग हैं।
 




सबसे पहले, नमक का संरक्षण प्रभाव होता है।  फ्रिज न होने के दौर में लोग अक्सर खाद्य पदार्थों को ताजा रखने के लिए नमक का इस्तेमाल करते थे। दूध में एक चुटकी नमक भी मिलाने से दूध ज्यादा देर तक ताजा बना रह सकता है। जंगलों में, पनीर को फफूंदी से बचाने के लिए, इसे नमक पानी से डूबा हुआ कपड़े में लपेट दे सकते हैं। कॉफी में एक चुटकी नमक मिलाएं, आपकी कॉफी का स्वाद बेहतर होगा। 

नमक भी एक प्राचीन औषधि है। गले की खराश से राहत पाने के लिए रोजाना गर्म नमक के पानी के मिश्रण से गरारे करें, जो मुंह में बैक्टीरिया और घावों को कम करने में मदद कर सकता है। नमक घाव को साफ करता है, और नमक पानी से घाव को धोने से अच्छा काम होता है। आपात स्थिति में घाव पर संक्रमण से बचाव के लिए नमक भी लगाया जा सकता है। टूथपेस्ट के आविष्कार से पहले, लोग अक्सर अपने दाँत साफ करने के लिए नमक का इस्तेमाल करते थे। दांतों की सफाई की इस विधि का उल्लेख कुछ प्राचीन चीनी लेखों में मिलता है। मधुमक्खी के डंक के दर्द से राहत पाने के लिए भी नमक का इस्तेमाल किया जा सकता है।


नमकीन घोल से फलों को भिगोने से सफाई प्रभाव पड़ता है। सब्जियों को नमक के पानी में धोने से सब्जियों से जमी हुई मैल निकालना आसान होता है। नमक वास्तव में एक प्राचीन सफाई एजेंट है, और जंग लगे कंटेनरों को नींबू के रस के साथ मिश्रित नमक के साथ रगड़ने से जंग निकल सकता है। जब हाथ में मछली की गंध आने लगे, तो अपने हाथों को नमक में डूबा हुआ नींबू के स्लाइस से धोएं। नमक जूतों से आने वाली दुर्गंध को भी दूर कर सकता है। कैंपिंग करते समय, चींटियों और कुछ छोटे रेंगने वाले कीड़ों को बाहर रखने के लिए कैंपसाइट के आसपास या अपने टेंट के प्रवेश द्वार पर नमक छिड़क सकते हैं। रंगों को चमकदार बनाए रखने के लिए अपने कपड़े धोते समय थोड़ा नमक मिला सकते हैं। जब आपके कपड़ों पर वाइन या डार्क जूस हो, तो दाग पर नमक छिड़कें और इसे ठंडे पानी से धोने से पहले कुछ मिनट के लिए बैठने दें। नमक और सिरके का मिश्रण कांच से उन जिद्दी दागों को भी हटा सकता है।


ठंडे उत्तरी क्षेत्रों में बर्फ के बाद यातायात एक बड़ी समस्या है। इस समय, बर्फ के पिघलने को बढ़ावा देने के लिए मजदूर सड़क पर कुछ नमक छिड़केंगे। नमक मानव के अस्तित्व के लिए सबसे महत्वपूर्ण सामग्रियों में से एक है। सभी देश नमक के भंडार को बहुत महत्व देते हैं। लेकिन आज, नमक का मुख्य उपयोग भोजन नहीं है, बल्कि अधिक औद्योगिक उपयोग है। उदाहरण के लिए, साबुन के निर्माण में नमक मिलाया जाता है। डाई उद्योग में इस्तेमाल होने वाली सोडा ऐश भी नमक से उत्पन्न होती है, और डाई उत्पादन प्रक्रिया में लगभग हर चरण में नमक की खपत होती है।

Sunday, 17 July 2022

खत, यादों का एक झरोखा



फूल तुम्हें भेजा है खत में.………  प्यार का इजहार जताने वाला यह मशहूर गीत अब शायद अपनी प्रासंगिकता खो चुका है क्योंकि खत तो छोडि़ए आज के युवा वर्ग ने फूल भेजने के लिए भी अब मोबाइल और इंटरनेट जैसी आधुनिक तकनीक का दामन थाम लिया है। एक दौर था जब लोग एक दूसरे से बात करने के लिए चिट्ठियों का सहारा लेते थे लेकिन आजकल ऐसा बहुत कम होता है। अब लोग सीधा फोन मिलाकर या मैसेज करके बात कर लेते हैं। 



कहते हैं व्यक्ति के निर्माण में उसकी जन्म कुंडली के शुभ और अशुभ ग्रहों का विशेष प्रभाव होता है। हर ग्रह अपने भावों के साथ बैठा होता है, जिससे व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन का आकलन किया जा सकता है। ऐसे ही बचपन में पाए संस्कार हमारे साथ जीवन भर रहते हैं। हमारी उँगली पकड़कर हमें दौड़ाते हैं।

आज पुरानी आलमारी की सफाई कर रहा था, उसमें जाने कितने वर्षों पुराना कभाड़ भरा था। एक गट्ठर वहाँ रखा हुआ था, खोला तो पुरानी चिट्ठियों का बँधा ढेर था। हर चिट्ठी के साथ एक स्मृति और उसका इतिहास जुड़ा था। पिताजी के खत, प्रेमियों के लम्बे कई-कई पन्नों वाले पत्र और भी जाने कितने मित्रों के पत्र थे, याने खत ही खत मेरे सामने थे। लिखने वालों में अब अधिकांश मेरे स्वयं के इस संसार में जीवित नहीं हैं, पर उन चिट्ठियों में उस व्यक्ति की अपनी छवि, आब और वजूद वैसा ही बरकरार था। पोस्टकार्ड पर, लिफ़ाफ़ों पर उस समय की तारीखें और सन के साथ डाकघर की मोहर मौजूद थी। पोस्टकार्ड केवल दोस्त के थे। वह अपने खत पोस्टकार्ड पर ही लिखता। आज भी किसी का पोस्टकार्ड पर लिखा खत आया, तो एकदम से दोस्त की याद की फुरेरी कौंध जाती हैं। कितनी ढेर-ढेर स्मृतियों ने एक साथ आकर मुझे घेर लिया। स्मृतियों के हो-हल्ले और शोर ने मुझे बीते दिनों में पहुँचा दिया। हर स्मृति की अपनी अलग-अलग महक है। जैसे किसी पुराने इत्रदान में रखे इत्र की महक। इत्र खत्म हो गया पर उसकी खुशबू उसमें अभी भी बसी थी। पिताजी के लम्बे पत्रों में दुनिया की, समाज की बातें और अन्त में नन्हा-सा एक आश्वासन, जो हमेशा मेरे काँपते कमज़ोर पैरों को ताकत देता था।

मित्र के खुद के लिखे उर्दू के या फिर किसी के द्वारा लिखाए हिन्दी के खत और अन्त में बतौर तसदीक में उसके वही टेढ़े-मेढ़े हिन्दी के हस्ताक्षर, जैसे मानो मैंने उसे कभी चौथी कक्षा में पढ़ते समय लिखना सिखाया था। टूटे-फूटे शब्द वाले हस्ताक्षर जो बाद में बैंक से लेकर जायदाद के दस्तावेज़ों में भी चलने लगे थे। मित्र के हस्ताक्षर उनकी उपस्थिति को दर्ज कराता है। यह सारे पत्र अब मेरे लिए ज़िन्दगी के कीमती धरोहर से कम तो नहीं हैं। पिताजी के खतों में घर-परिवार और उनकी अपनी निजी बातें। लगता जैसे बस सामने बैठें हैं और बोल रहे हैं। हर शब्द के साथ उनका स्नेह होता और दबी-छुपी गुप्त रहस्य की बातें होतीं। हर शब्द के पीछे तहखाना छुपा होता। पिताजी की इन्हीं बातों ने क्या मुझे हमेशा थामे नहीं रखा था? संसार के किसी कानून को नहीं मानने वाला मन इन्हीं हिदायतों की पाबंदी को कभी लांघ नहीं पाया।

कभी सोचता हूँ, क्या आज के संपादक होने का गुण पिताजी के द्वारा लिखाए गए ख़तों से आया था? बचपन में पिताजी के दो वर्ष बीमार रहने के कारण उनके द्वारा लिखाए पत्र लिखते-लिखते मैं लेखक बन गया। क्या बाल मज़दूर की भूमिका में मुझे भविष्य के लिए मेरे पिता गढ़ रहे थे? गीली माटी को सान-सान कर पच-पच लोंदो को थोप-थोप कर एक मूरत तैयार कर रहे थे? आज पिताजी नहीं हैं, ज़िंदा होते तो कहते, "रहने दे इसे मत लिख, ऐसा कहीं कोई संपादकीय लिखता है?"

मुझे याद है मेरे स्कूल के रास्ते में डाकघर हुआ करता था। सड़क पर ही लाल पोस्ट बॉक्स लगा था जिसे हम बच्चे भानुमती का डिब्बा कहते थे। हमारी यह परिकल्पना थी कि इसके अन्दर एक जिन्न बंद है जो हर समस्या को सुलझा सकता है। बहुत छोटा था, शायद तीसरी-चौथी कक्षा में पढ़ता था। किसी ने बताया था इसमें चिट्ठी डालते है जो कहीं भी पहुँच सकती है। नन्हें मन में एक विचार कौंधा और झट से अपनी कक्षा की कापी का पन्ना फाड़कर एक पत्र टूटी भाषा में अपने सपनो को लिखा था। ढेर सारे तोहफ़े लाने की फ़रमाइशें थीं, मेरे जीवन का वह पहला पत्र था। वह तोहफ़े तो कभी नहीं आए पर एक दिन जब उसी पत्र को डाकघर के पीछे कचरे के ढेर पर पड़ा देखा तो डाकघर वालों पर बहुत गुस्सा आया और उन्हें सजा देने का सोचा। रोज़ पोस्ट बॉक्स में ढेर-ढेर कंकड़-पत्थर डालने लगे। डाकघर वाले परेशान, एक दिन पोस्ट-मास्टर ने छुपकर पकड़ लिया। मेरी शिकायत पर उन्होंने समझाया, बेटा पत्र लिफ़ाफ़े में रख पता लिखकर उसे गोंद से चिपका कर भेजा जाता है। वह सबक आज तक रटा हुआ है। उसके बाद कभी मेरा कोई पत्र गुम नहीं हुआ।

क्या दौर था, खाकी वर्दी में पत्रों का थैला लटकाए हाथों में पत्रों का गट्ठर लिए उस अजनबी व्यक्ति का सबको इंतज़ार रहता है। खुशी की खबर, दु:खों की सूचना लिए दौड़ता वह डाकिया कितना अपना, निकट का व्यक्ति लगता है। वह सरकारी व्यक्ति है, यह बात मानने को मन तैयार नहीं होता। डाकिया की जो परिभाषा हमने जानी और समझी है, उसमें वह केवल सन्देश वाहक ही नहीं हैं बल्कि दूरस्थ अंचलों में बसे अनपढ़ों के लिए तो वह पत्रवाचक तथा पत्रलेखक भी है। वह हमारी संवेदना का श्रोत और खुशियों का हिस्सेदार भी है। एक छोटा-सा कर्मचारी हमारी ज़िन्दगी में किस तरह घुल-मिल गया है, कि उसका आगमन एक सरकारी कर्मचारी की तरह नहीं, भावनाओं के बादलों की तरह वह हमारे आँगन में दुख-सुख की बरसात करने वाले व्यक्ति के रूप में हम उसे जानते हैं। उसके थैले में हमारे अरमानों के और खुशियों के हीरे-मोती भरे होते हैं। सूरज के साथ वह निकलता है और मनुष्य के निस्सार जीवन में कितना रंग, कितनी हलचल और उथल-पुथल भर देता है।

'विरहा प्रेम की जागृत गति है और सुषुप्ति मिलन है।' वियोग की असह्य पीड़ा का निदान सन्देश से ही संभव है। सीताहरण के पश्चात राम निर्जन जंगलों में भटकते हुए पूछते हैं, "हे खग मृग हो मधुकर श्रेनी, तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।" मारू के बाल विवाह के पश्चात जब वह यौवन को प्राप्त होती है तब वह अपने पति ढोला से मिलने के लिए बेचैन है। मन के अंतरतम दर्द की गोपनीयता बनाए रखने के लिए तोते के माध्यम से सन्देश भेजती है। इस प्रकार अपने प्रियतम को सन्देश पहुँचाने की बेचैनी में लोगों ने वृक्ष, पर्वत, तोते, कबूतर, भँवरे एवं बादलों का सहारा लिया। कुटनी के सहारे अपने सन्देश पहुँचाने की कोशिश की है। कहीं अपनी अंगूठी, वस्त्र चिन्ह और रंग के माध्यम से अपने संदेश पहुँचाए हैं। उसी आधार पर आज हमारे पहाड़ी समाज में मनाए जाने वाला उत्तराखंडी लोकपर्व “हरेला” भी कभी किसी समय का सन्देश वाहक रहा होगा। 

मनुष्य को अपने सामाजिक संबंधों को निभाने तथा मन की भावनाओं को दूसरे तक पहुँचाने के उपक्रम में कितना भटकना पड़ा है। सदियों बाद डाकिया के उदय होने के पश्चात उसने राहत की सांस ली है। सन्देश संप्रेषण के रूप में जनभावना के संरक्षक की तरह उसने मानव इतिहास में एक अद्वितीय भूमिका निभाई है।

पत्रों ने जहाँ प्रेमियों को राहत दी, वहीं कई षड़यंत्र भी रचे और गवाह भी बने, पत्रों ने क्रांति की। बड़े साम्राज्यों के उत्थान-पतन के कारण बने। पत्रों से ग़लतफहमियाँ भी हुईं। इस तरह पत्रों ने उत्पात भी मचाया। पत्रों के माध्यम से अपराध पकड़े गए। आत्महत्या के समय लोग पत्र लिखकर मर जाते हैं, अन्त समय भी मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति पत्र से ही कर पाता है। सामाजिक संबंधों के पत्र, शादी-ब्याह के संदेश। 

आदिवासी इलाकों में लाल मिर्च, कमल का फूल युद्ध के संदेश माने जाते थे। बादशाह अकबर को रानी दुर्गावती ने पत्र लिखा था। रानी दुर्गावती ने सूत कातने का करघा अकबर को भेजा था कि बूढ़े हो गए घर बैठकर सूत कातो। अकबर ने उत्तर में चूड़ियाँ भेजी थीं कि- चूड़ी पहनो और घर बैठो। मीराबाई जब सामाजिक तानों और यातना से परेशान थी। साधु संगत से जोड़कर उस पर नाना प्रकार के आरोप लगाए जा रहे थे तब उसने तुलसी को पद में पत्र लिखा था। तुलसी ने भी उसका उत्तर पद से ही दिया था।

क्या टेलीफ़ोन, इन्टरनेट के फैलते जाल में अब डाकिया गुम होकर रह जाएगा? हर घर, हर गली में लगी फ़ोन सुविधा अब चिट्ठियाँ लिखने का रिवाज़ ही ख़त्म कर देंगी। सेलुलर फोन पर सड़क चलते, कार में, ट्रेन एवं एरोप्लेन में भी लोग खबर लेते रहते हैं कि पहुँच रहे हैं, क्या खाना पका, नींद आई या नहीं, तबीयत कैसी है, आदि। इसी प्रकार इंटरनेट संदेशों के आदान-प्रदान के साथ ही किसी विषय पर विचार, दवा के नुसख़े तथा अजनबियों से विचार-विमर्श। यहाँ तक कि सबेरे आनेवाला अखबार, लेख एवं पुस्तकों की पांडुलिपि तक बिना समय बिताए पढ़ सकते हैं। इतनी ढेर-ढेर सुविधाओं ने क्या मानवीय संवेदनाओं की बेल को सुखा नहीं दिया है? आज समय ही समय है परन्तु एहसास की, भावनाओं की कमी हो गई है, मन के भावों का समूचा ताल ही जैसे सूख गया है। नए संचार माध्यमों की जलकुंभी में सहज संदेशों के मनोहारी कमल क्या गुम हो जाएँगे, यह समय ही बताएगा।

जब मेरी तन्द्रा टूटी तो पाया, खत में मेरी ही खत के टुकड़े थे और मुझे लगा कि जवाब आया है। वो एक खत जो तुमने कभी लिखा ही नहीं, मैं रोज़ बैठ के उसका जवाब लिखता हूँ ||

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वो नीली चिट्ठियां कहां खो गई
जिनमे लिखने के सलीके छुपे होते थे

कुशलता की कामना से शुरू होते थें
बड़ों के चरणस्पर्श पर ख़त्म होते थें

और बीच में लिखी होती थी जिंदगी
प्रियतमा का विछोह,
पत्नी की विवशताएं
नन्हें के आने की खबर,
मां की तबियत का दर्दं
और पैसे भेजने का अनुनय
फसलों के खराब होने की वजह

कितना कुछ सिमट जाता था
एक नीले से कागज में
जिसे नवयौवना भाग कर सीने से लगाती
और अकेले में आंखों से आंसू बहाती

मां की आस थी ये चिट्ठियां
पिता का संबल थी ये चिट्ठियां
बच्चों का भविष्य थी ये चिट्ठियां
और गांव का गौरव थी ये चिट्ठियां

अब तो स्क्रीन पर अंगूठा दौड़ता हैं
और अक्सर ही दिल तोड़ता हैं
मोबाइल का स्पेस भर जाए तो
सब कुछ दो मिनिट में डिलीट होता हैं
सब कुछ सिमट गया छै इंच में
जैसे मकान सिमट गए फ्लैटों में 
जज्बात सिमट गए मैसेजों में
चूल्हे सिमट गए गैसों में
और इंसान सिमट गए पैसों में…………..

Friday, 15 July 2022

चलो आज मूड लिफ्ट हो जाए ………..



क्या आप जानते हैं, चॉकलेट के प्रति अपने जुनून को व्यक्त करने के लिए हर साल 'चॉकलेट दिवस' मनाया जाता है? चॉकलेट का नाम सुनकर आपके मुंह में पानी आ गया न। इसका स्वाद ही कुछ ऐसा है, जो बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, सभी को दीवाना बना देता है। आज पूरी दुनिया में चॉकलेट एक पसंदीदा खाद्य पदार्थ है। मिठाई के स्थान पर, त्यौहार हो या जन्मदिन सभी चॉकलेट के दीवाने हैं।




चॉकलेट, तरल या ठोस दोनों रूप में उपलब्ध है। इसका उपयोग पेय पदार्थ जैसे 'हॉट चॉकलेट' या 'चॉकलेट मिल्क' में भी किया जाता है। आपकी प्रिय चॉकलेट कोकोआ नामक पेड़ के बीजों से संशोधित करके बनाई जाती है। वर्तमान में दुनिया के 70 परसेंट कोको का उत्पादन अफ्रीका में होता है। एक किलो चॉकलेट बनाने के लिए करीब 800 कोकोआ बीजों की जरूरत पड़ती हैं।

1700 के दशक के दौरान जमैका में 'चॉकलेट मिल्क' का आविष्कार हुआ था, जिसका उपयोग कसरत के बाद 'रिकवरी ड्रिंक' के रूप में किया जाता है। चॉकलेट बनाने की सबसे पहली मशीन 1780 में स्पेन के बार्सिलोना में बनाई गई। 1817 में जोसेफ फ्राई ने पहली चॉकलेट बार बनाई। अमेरिका में हर सेकंड 100 पाउंड चॉकलेट खाई जाती है। चॉकलेट के मामले में बेल्जियम देश 'धरती का स्वर्ग' कहा जाता है।

शोध से पता चला है कि 'डार्क चॉकलेट' खाने से शरीर में एनर्जी बढ़ने से दिमाग की काम करने की शक्ति बढ़ जाती है, साथ ही आंखों की क्षमता में भी इजाफा होता है। हर रिश्ता एक मिठास की डोर से बंधा होता है, अतः बच्चों, दोस्तों और प्रेमियों को चॉकलेट का उपहार देकर उनके जीवन में मिठास भरें।

♦️कहां से आया चॉकलेट शब्द 
चॉकलेट शब्द मूल रूप से स्पैनिश भाषा से लिया हुआ बताया जाता है। कुछ जानकार मानते हैं कि चॉकलेट शब्द माया और एजटेक सभ्यता से आया है। एजटेक की भाषा में चॉकलेट का अर्थ होता है खट्टा या कड़वा।

♦️मेक्सिको के लोगों ने की थी चॉकलेट की खोज
सीधी भाषा में कहें तो चॉकलेट 4000 साल पुरानी है। इसका जन्म मेसोअमेरिका में हुआ था, जिसे आज मेक्सिको कहा जाता है। मेक्सिको के लोगों को चॉकलेट की खोज का श्रेय भी दिया जा सकता है। उन्होंने ही सबसे पहले अमेजन बेसिन के वर्षावनों में चॉकलेट के पेड़ देखें और इनका इस्तेमाल करना शुरू किया। इसका सेवन एक पेय पदार्थ के तौर पर किया जाता था। इसका स्वाद कड़वा और तीखा होता था। शुरुआत में चॉकलेट का इस्तेमाल एक मुद्रा के तौर पर भी होता था। 

♦️स्पेन के राजा का किस्सा
1521 में स्पेनिश साम्राज्य ने एजटेक साम्राज्य को हरा कर मैकिस्को को अपने साम्राज्य में मिला लिया और इसे न्यू स्पेन कहा जाने लगा। इसी दौरान मेक्सिको में खोजी गई चॉकलेट स्पेन तक पहुंच गई। स्पेन के राजा को कोको का स्वाद इतना अच्छा लगा कि वह कोको के बीजों को अपने साथ स्पेन तक ले गया। स्पेन के लोगों में यह स्वाद बहुत ही कम समय में पॉपुलर भी हो गया। स्पेन में चॉकलेट की एंट्री हुई तो इसे मेडिसिनल गुणों से भरपूर माना गया। डॉक्टरों ने इसे बुखार के दौरान खाने की सलाह दी, पेनकिलर के तौर पर और डाइजेशन की समस्या में भी इसका इस्तेमाल फायदेमंद भी बताया गया। 




♦️चॉकलेट की यूरोप यात्रा
बताया जाता है कि कॉफी और चाय से पहले चॉकलेट यूरोप पहुंची थी। यूरोप पहुंचते ही चॉकलेट की डिमांड एकदम से बढ़ गई। सन् 1850 में एक अंग्रेज व्यक्ति ने ही पहली सॉलिड चॉकलेट बनाई। उसने कोको पाउडर में कोको बटर और शुगर मिलाई, यहीं से चॉकलेट के उस रूप का जन्म हुआ, जिसे आज इस्तेमाल किया जाता है। 

मीठी, स्वादिष्ट और दिल को सुकून पहुंचाने वाली चॉकलेट शायद ही किसी को पसंद न हो। चॉकलेट खाने से आपका मूड फौरन ठीक हो जाता है। अगर आप शेप में रहने की कोशिश में चॉकलेट से दूरी बना रहे हैं, तो यह आर्टिकल आपके लिए ही है। तो आपको बताता चलूं चॉकलेट खाने की 5 वजहें, जो न सिर्फ आपको स्वस्थ रखेगी और कई बीमारियों से भी बचाए रखेगी।

♦️वज़न घटाने के लिए बेहतरीन
ज़्यादातर लोग उसी वक्त चॉकलेट खाना छोड़ देते हैं, जैसे ही उन्हें फिटनेस का ख़्याल आता है। हालांकि, एक्सपर्ट्स का मानना है कि चॉकलेट खाने से वज़न कम करने में मदद मिल सकती है। अगर आप वज़न घटाने का सोच रहे हैं, तो अपनी डाइट में रोज़ाना डार्क चॉकलेट का एक टुकड़ा जोड़ लें।

♦️दिल की सेहत में सुधार करता है
रोज़ाना चॉकलेट का एक छोटा टुकड़ा दिल के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने और दिल के दौरे और स्ट्रोक के जोखिम को कम करने में मदद कर सकता है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, यह पाया गया कि शुद्ध डार्क चॉकलेट का मध्यम मात्रा में सेवन दिल के रोग के विकास के जोखिम को एक तिहाई तक कम करने में मदद कर सकता है।

♦️ग्रेट स्ट्रेस बस्टर
चॉकलेट एक मूड लिफ्टर है, यह तनाव, चिंता को कम करता है और इस तथ्य का समर्थन दुनिया भर के विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है। डार्क चॉकलेट का एक छोटा सा टुकड़ा मस्तिष्क में डोपामाइन के रूप में जाना जाने वाला एक खुश हार्मोन जारी करता है, जो मूड को बेहतर करने में मदद करता है।

♦️कैंसर से बचाता है
अगर आप रोज़ाना चॉकलेट का एक टुकड़ा खाएं, तो यह कैंसर को दूर रखने में मदद कर सकती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि चॉकलेट का मुख्य घटक- कोको में पेंटामेरिक प्रोसायनिडिन या पेंटामर नामक एक यौगिक होता है, जो कैंसर कोशिकाओं के फैलने की क्षमता को कम करता है।

♦️दिमाग़ के काम में सुधार करती है
चॉकलेट का एक छोटा सा टुकड़ा भी मस्तिष्क के स्वास्थ्य को बढ़ा सकता है और याददाश्त में सुधार कर सकता है। नॉटिंघम विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में पाया गया कि कोको पीने या कोको से भरपूर चॉकलेट का सेवन करने से मस्तिष्क में रक्त के प्रवाह में सुधार हो सकता है। यह कोको में फ्लेवनॉल्स की उपस्थिति के कारण होता है जो मस्तिष्क के प्रमुख हिस्सों में 2 से 3 घंटे तक रक्त के प्रवाह को बढ़ाता है।

♦️त्वचा की सेहत सुधरती है
डार्क चॉकलेट में कॉपर, आयरन, कैल्शियम और मैग्नीशियम जैसे मिनरल्स और विटामिन्स होते है। ख़ासकर कैल्शियम क्षतिग्रस्त त्वचा को रिपेयर करने में मददगार है। डॉर्क चॉकलेट खाने से त्वचा बेहतर बनती है।

♦️डायबिटीज़ का ख़तरा कम होता है
डार्क चॉकलेट की संतुलित मात्रा से शरीर का मेटाबॉलिज़्म सुधरता है। ग्लूकोज़ का चयापचय बेहतर होता है। इसके अलावा डार्क चॉकलेट में फ़्लैवोनॉइड होते हैं, जो तनाव कम करने में बेहद कारगर हैं। इंसुलिन का प्रोडक्शन अच्छी तरह होने में मदद मिलती है। इन सबके मिले-जुले प्रभाव के चलते डार्क चॉकलेट खाने से डायबिटीज़ का ख़तरा कम होता है। 

♦️प्रेग्नेंट मांओं के लिए है फ़ायदेमंद 
कई शोधों में यह बात सामने आई है कि डार्क चॉकलेट खाने से भ्रूण की सेहत में सुधार होता है। ख़ासकर अगर मां हाई ब्लड प्रेशर जैसी समस्या से जूझ रही हो। हालांकि यह नहीं स्पष्ट है कि डार्क चॉकलेट की कौन-सी चीज़ ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करती है, पर यह माना जाता है कि इसमें मौजूद फ़्लैवोनॉल यह काम करते हैं। 

♦️ऐंटी-ऑक्सिडेंट्स से भरपूर 
डार्क चॉकलेट्स ऐंटी-ऑक्सिडेंट्स से भरपूर होती है। यह हम जानते ही हैं कि शरीर को नुक़सान पहुंचानेवाले फ्री रैडिकल्स को ऐंटी-ऑक्सिडेंट्स कितन प्रभावी ढंग से नष्ट करते हैं। ये ऐंटी-ऑक्सिडेंट्स कैंसर को फैलानेवाले फ्री रैडिकल्स को भी नष्ट करते हैं। 

♦️डार्क चॉकलेट खाएं, पर… 
बेशक संतुलित और संयमित मात्रा में डार्क चॉकलेट खाना सेहत के लिहाज़ से अच्छा है, पर आपको यह बात याद रखनी चाहिए कि यह भी अंतत: है तो चॉकलेट ही। इसका मतलब यह हुआ कि इसमें में शक्कर होती है और सैचुरेटेड फ़ैट भी। शक्कर और सैचुरेटेड फ़ैट की अधिक मात्रा शरीर को काफ़ी नुक़सान पहुंचा सकती है। तो डार्क चॉकलेट कितनी भी फ़ायदेमंद क्यों न हो, ज़रूरत से ज़्यादा न खाएं। 




♦️चॉकलेट पर किताब
सोफी और माइकल ने चॉकलेट के इतिहास पर एक किताब True History of Chocolate भी लिखी है। इस किताब में बताया गया है कि चॉकलेट की दुनिया अब से 4000 साल पुरानी है। इस किताब में चॉकलेट को The food of the gods यानी देवताओं का खाद्य पदार्थ कहा गया है। 19वीं सदी में चॉकलेट आम लोगों की पहुंच में आई और जैसे हर घर की पसंद भी बन गई। जल्द ही आपकी प्रतिक्रियाओं के आधार पर कुछ समय बाद आपके साथ भारत में चॉकलेट का विस्तृत इतिहास सांझा करुंगा…………..

Thursday, 14 July 2022

सरकार की राष्ट्रवादी भूलभुलैया है अग्निपथ योजना


 
“सरकार को एक बनिया की भावना से नहीं सोचना चाहिए। इसका शासन केवल दुकानदारी के सिद्धांतों पर नहीं चलना चाहिए। सबसे पहला उद्देश्य जो एक सरकार का होना चाहिए वह है, जनता की भलाई।”
 

"सारा जगत एक रंगमंच है तो समाज उसका दर्पण और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंग कर्मी।" प्रसिद्ध साहित्यकार और नाटककार विलियम शेक्सपियर ने यह वाक्य लिखते समय कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख सिद्ध होगा। जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर किया नहीं किया अपितु रंगमंच को जिया, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है।


जीवन निर्मल भाव से जीने के लिए है। मुखौटे लगाकर नहीं अपितु आदमी बनकर रहने के लिए है। जीवन के रंगमंच पर मुखौटे पहने किसी क्रांतिकारी प्रदर्शन से समस्त दर्शकों में से अगर कोई दर्शक गायब होगा तो यकीन मानिए तो वह होगा केवल मुखौटा विहीन कलाकार।
इतिहास गवाह है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृति सामुदायिक रही। सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊंच न नीच। हर तरफ से देखा जा सकने वाला, सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।
बस आज जरूरत है थोड़ी देर के लिए मुखौटा उतारकर आदमी बन जाने की। प्रदर्शन के पर्दे हटाइए और लौटिए सामुदायिक प्रवृति की ओर बिना मुखौटों के मंच पर। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएं। जीवन का रंगमंच आज हमसे यही मांग करता है।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान यह देखने में आया है कि मोदी सरकार की यह स्थायी कमजोरी बन गई है कि वह कोई भी बड़ा देशहितकारी कदम उठाने के पहले उससे सीधे प्रभावित होने वाले लोगों की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश नहीं करती।
अभी तक जो देखने को मिला है उसे देखकर तो लगता है कि अग्निपथ योजना के विरुद्ध चला आंदोलन पिछले सभी आंदोलन से भयंकर सिद्ध होगा। वही अब सारे देश में हो रहा है। पहले उत्तर भारत के कुछ शहरों में हुए प्रदर्शनों में नौजवानों ने थोड़ी-बहुत तोड़-फोड़ की थी लेकिन अब पिछले दो दिनों में हम जो दृश्य देख रहे हैं, वैसे भयानक दृश्य मेरी याद्दाश्त में पहले कभी नहीं देखे गए। दर्जनों रेलगाड़ियों, स्टेशनों और पेट्रोल पंपों में आग लगा दी गई, कई बाजार लूट लिये गए, कई कारों, बसों और अन्य वाहनों को जला दिया गया और घरों व सरकारी दफ्तरों को भी नहीं छोड़ा गया। 
 
अभी तक पुलिस इन प्रदर्शनकारियों का मुकाबला बंदूकों से नहीं कर रही है लेकिन यही हिंसा विकराल होती गई तो पुलिस ही नहीं, सेना को भी बुलाना पड़ जाएगा। मुझे विश्वास है कि मोदी सरकार कोई बर्बर और हिंसक कदम नहीं उठाएगी। ऐसा कदम उठाते समय हो सकता है कि छात्रों और नौजवानों को भड़काने का दोष विपक्षी नेताओं के मत्थे मढ़ा जाए लेकिन नौजवानों का यह आंदोलन स्वतः स्फूर्त है। इसका कोई नेता नहीं है। यह किसी के उकसाने पर शुरू नहीं हुआ है। यह अलग बात है कि विरोधी दल अब इस आंदोलन का फायदा उठाने के लिए इसका डट कर समर्थन करने लगें, जैसा कि उन्होंने करना शुरू कर दिया है। इस आंदोलन से डर कर सरकार ने कई नई रियायतों की घोषणाएं जरूर की हैं और वे अच्छी हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का रवैया काफी रचनात्मक है और भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने तो यहां तक कह दिया है कि चार साल तक फौज में रहने वाले जवान को वे अपने दफ्तर में सबसे पहले मौका देंगे।
चार साल का फौजी अनुभव रखन वाले जवानों को कहीं भी उपयुक्त रोजगार मिलना ज्यादा आसान होगा। इसके अलावा इस अग्निपथ योजना का लक्ष्य भारतीय सेना को आधुनिक और शक्तिशाली बनाना है और पेंशन पर खर्च होने वाले पैसे को बचाकर उसे आधुनिक शास्त्रास्त्रों की खरीद में लगाना है। अमेरिका, इस्राइल तथा कई अन्य शक्तिशाली देशों में भी कमोबेश इसी प्रणाली को लागू किया जा रहा है लेकिन मोदी सरकार की यह स्थायी कमजोरी बन गई है कि वह कोई भी बड़ा देशहितकारी कदम उठाने के पहले उससे सीधे प्रभावित होने वाले लोगों की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश नहीं करती। जो गलती उसने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने, नोटबंदी करने और नागरिकता कानून लागू करते वक्त की, वही गलती उसने अग्निपथ पर चलने की कर दी! 
यह सैन्य-पथ स्वयं सरकार का अग्निपथ बन गया है। अब वह भावी फौजियों के लिए कितनी ही रियायतें घोषित करती रहे, इस आंदोलन के रूकने के आसार दिखाई नहीं पड़ते। यह अत्यंत दुखद है कि जो नौजवान फौज में अपने लिए लंबी नौकरी चाहते हैं, उनके व्यवहार में आज हम घोर अनुशासनहीनता और अराजकता देख रहे हैं। क्या ये लोग फौज में भर्ती होकर भारत के लिए यश अर्जित कर सकेंगे? सच्चाई तो यह है कि हमारी सरकार और ये नौजवान, दोनों ही अपनी-अपनी मर्यादा का पालन नहीं कर रहे हैं।

 
♦️नौजवानों को इन सवालों का जवाब दे सरकार --
जैसा हम सभी जानते हैं कि भारतीय सेना में हर साल लगभग 50-60 हजार सैनिक सेवानिवृत होते है। वर्ष 2020 से ही सेना में भर्ती बंद है। रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा अग्निपथ योजना के संबंध में 20 जून, 2022 को जारी अधिसूचना से साफ़ है कि अग्निवीर को पहले चार अग्निवीर की तरह चार साल बिताने होंगे। उसके बाद सबको सेवानिवृत्त कर दिया जाएगा और उनके फिर से आवेदन करने पर उसमें से अधिकत्तम 25 फीसदी अग्निवीरों को सैनिक के रूप में 15 साल के लिए भर्ती की जाएगी। इसका मतलब है कि 2020 से सेना में भर्ती बंद होने के बाद 2026 के अंत या 2027 के प्रारंभ में यानी 7 साल बाद लगभग 12 हजार अग्निवीरों को नियमित सैनिक के पद पर भर्ती होने की संभावना है। जबकि इस अवधि तक लगभग 3 लाख नियमित सैनिक सेवानिवृत हो जाएंगे और ऐसा ही चला तो आनेवाले 15 सालों में नियमित सैनिकों की संख्या के मुकाबले अग्निवीरों की संख्यां ज्यादा होगी, जो काम तो सैनिक का करेंगे, मगर सरकार उन्हें सैनिक का दर्जा नहीं देगी। लेकिन हर अग्निवीर को एक सैनिक की तरह देश के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार रहना होगा, लेकिन सरकार उसे एक नियमित सैनिक की तरह मान्यता देकर उसके परिवार को आर्थिक सुरक्षा या सम्मान नहीं देगी। कुछ तय राशि के बदले सैनिक देश (राजा) के लिए अपना सब कुछ लुटा दे, यह एक मध्ययुगीन सोच है। इससे जहां एक तरफ सेना में भी अग्निवीर भर्ती के नाम बेरोजगार युवाओं के शोषण का दौर शुरू होगा, वहीं यह देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने वाला साबित होगा।
“सहसा विश्वास नहीं होता, जो सरकार इतने बड़े संसद भवन होने के बावजूद नया संसद भवन बनाने में हजारों करोड़ रुपए लगा दे और सेना के इतने हवाईजहाज प्रधानमंत्री की सेवा में उपलब्ध होने के बावजूद आठ-आठ हजार करोड़ की लागत वाले दो हवाईजहाज खरीद ले, वह बढ़ते पेंशन व वेतनादि व्यय के नाम पर देश के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने वाले शूरवीरों को सैनिक का दर्जा देने को तैयार ना हो। सबसे कमाल की बात तो यह है, सेना के शौर्य और बलिदान को अपने राजनीतिक लाभ के लिए भुनाने वाली और राष्ट्रवाद का दम भरते नहीं थकने वाली पार्टी की सरकार ने बड़ी आसानी से यह सब कर दिया।“
अग्निपथ योजना में जो दो बातें प्रमुख तौर पर कही जा रही हैं। पहली बात यह कि इस योजना से सेना युवा सैनिको से भर जाएगी और दूसरी बात यह कि इससे सैनिकों की पेंशन आदि पर खर्च होने वाले खर्च में भारी कमी आएगी। यह दोनों ही तर्क गलत और खतरनाक हैं। 

 
♦️क्या कहती है अग्निवीर की नई अधिसूचना--
अग्निवीर की भरती के लिए जो नई अधिसूचना जारी की गई है, उसके बिंदु 2 (बी) (चार) एवं (पांच) में यह साफ़ है कि अग्निवीर को सेना की किसी भी ड्यूटी और किसी भी रेजिमेंट में भेजा सकता है। वहीं बिंदु 2 (सी) (एक) कहता है कि सभी अग्निवीर चार साल बाद ड्यूटी से निकाल दिए जाएंगे। बिंदु क्रमांक 2 (डी) (एक) के अनुसार, जो अग्निवीर एक सैनिक के रूप में 15 साल के लिए पोस्टिंग चाहते हैं, उन्हें नए सिरे से आवेदन देना होगा और नए सिरे से मेडिकल और शारीरिक जांच आदि में उत्तीर्ण होना होगा। चार साल के अग्निवीर के रूप में उनके प्रदर्शन के अंक भी इस दौरान देखे जाएंगे। इससे साफ़ है, अग्निवीर के दिमाग में एक चिंता हमेशा रहेगी कि अगर चार साल के दौरान उसमें कोई अस्थायी अपंगता आई और वह मेडिकल जांच पास नहीं कर पाया या आवेदन के ठीक पहले किसी कारणवश उसका अंग भंग हो गया तो उसके 15 साल के लिए सैनिक बनकर एक सैनिक तरह सारे अधिकार पाने और देश की सेवा करने के रास्ते हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे। इन सब चिंताओं के बीच वह देश की सीमाओं की रक्षा कैसे करेगा?
बात सिर्फ यहीं नहीं रुकती। इन अग्निवीरों द्वारा ड्यूटी के दौरान एक सैनिक की तरह अपना सब कुछ न्यौछावर कर मौत को गले लगाने या स्थायी अपंगता होने पर भी इन्हें एक सैनिक की तरह मान्यता या पेंशन आदि राशि नहीं मिलेगी। इस बारे में अधिसूचना के बिंदु क्रमांक 15 से 17 तक में सारी बातें बताई गई हैं। मसलन, बिंदु क्रमांक 15 में बताया है कि उन्हें ड्यूटी के दौरान मृत्यु के बावजूद भी एक सैनिक की तरह पेंशन आदि कुछ नहीं मिलेगा। इसमें अग्निवीर की मृत्यु को एक्स, वाई और जेड श्रेणी में रखा गया है। इसमें से एक्स श्रेणी का मतलब स्वभाविक मौत और वाई श्रेणी ट्रेनिंग के दौरान किसी दुर्घटनावश मौत और जेड श्रेणी ड्यूटी पर युद्ध में दुश्मन के हाथों मारे जाने या शांति कार्य में ड्यूटी पर हिंसा होने के कारण मौत है। तीनों ही श्रेणियों में मात्र 48 लाख रुपए की बीमा राशि मिलेगी। वहीं वाई और जेड श्रेणियों में 44 लाख रुपए अतिरिक्त मुआवजा राशि दी जाएगी। बस और कुछ नहीं! अपंगता के मामले में 20 से 49 प्रतिशत अपंगता को 50 प्रतिशत अपंगता मानकर 15 लाख का मुआवजा मिलेगा। 50 प्रतिशत से 75 प्रतिशत अपंगता को 75 प्रतिशत अपंगता मानकर 25 लाख का मुआवजा मिलेगा, और 76 प्रतिशत से 100 प्रतिशत अपंगता को 100 प्रतिशत अपंगता मानकर 44 लाख का मुआवजा मिलेगा। उपरोक्त राशि के अलावा अग्निवीर या उसके परिवार को कोई पेंशन, उनके बच्चों या परिवार के अन्य सदस्यों को नौकरी में प्राथमिकता आदि कुछ नहीं मिलेगा।
मगर सरकार जिसे सैनिक का दर्जा देती है, उसके लिए यह सब मापदंड अलग है। उसे और उसके परिवार को अशक्त पेंशन, अशक्त ग्रेचुटी, अपंगता पेंशन वॉर इंजुरी पेंशन, परिवार के सदस्य को आश्रित पेंशन, सेना में नौकरी में वरीयता आदि लाभ दिये जाते हैं। इतना ही नहीं, सेवानिवृत होने के 10 साल के अंतराल में अगर सैनिक को कोई ऐसी शारीरिक अपंगता दिखाई दे या उसकी अपंगता में बढ़ोतरी हो, जो उसे सेना में सेवा के दौरान किसी कारण से आई चोट के कारण हो तो उसके मद्देनजर सैनिक की बढ़ी हुई पेंशन नई सिरे से तय की जाती है। इससे यह भी साबित होता है कि नियमित सैनिकों को सेवानिवृति के 10 साल तक कोई पुरानी चोट से अपंगता आ सकती है या अपंगता में बढ़ोतरी हो सकती है। और ऐसे समय में एक सैनिक को सरकार उचित सहायता देती है। अगर किसी अग्निवीर के साथ ऐसा हुआ तो वो क्या करेगा? कहां जाएगा? 
 

♦️सेना युवा कैसे होगी? --
अगर हम सेना भर्ती के 2019 के नोटिफिकेशन पर नजर डालें तो हमें समझ में आएगा कि सेना में भर्ती की उम्र सीमा पहले भी 17-1/2 से 21 वर्ष थी और अभी 2022 के नोटिफिकेशन में भी उम्र सीमा वही है (सिर्फ इस साल दो साल की छूट दी गई है)। अगर भर्ती की उम्र वही है तो फिर सेना युवा सैनिकों से कैसे भर जाएगी? इसका जवाब है, अग्निवीर को सिर्फ 6 माह की ट्रेनिंग दी जाएगी और 18 से साढ़े इक्कीस साल का युवा अग्निवीर सैनिक के नाम पर मोर्चे पर भेजा जाएगा। जहां तक एक स्थायी सैनिक का सवाल है, उस मामले में सेना युवा की बजाए वृद्ध होगी। पहले 17.5 से 21 साल के युवा को सेना में भर्ती होने के बाद 15 साल के लिए स्थायी सैनिक बनने का मौका मिलता था। यानी वह 32.5 से लेकर 36 साल तक एक सैनिक के रूप में काम करता। लेकिन, अब उसे पहले अग्निवीर बनना होगा और उसके बाद ही वह 21.5 से लेकर 25 साल का होने के बाद ही सैनिक के पद के लिए आवेदन देने के लायक होगा। मतलब अग्निवीर से निकला सैनिक लगभग 37 से लेकर 40 साल की उम्र तक एक सैनिक के रूप में काम करेगा। 
यह सही है कि युवा अग्निवीर में जोश तो होगा, मगर अनुभव और समझ की भारी कमी होगी। मेरे एक सैनिक मित्र ने मुझे कहा कि ट्रेनिंग के दौरान हम वहीं गोली चलाते हैं, जहां हमें कहा जाता है। अगर हम अपने मन से एक भी गोली चला दें, तो हमें कड़ी सजा मिलती है। हम हर काम आदेश पर करते हैं। इसलिए मोर्चे पर आने के बाद जगह और परिस्थिति की समझ बनने और अपने मन से फैसला लेने की हिम्मत और समझ आने में काफी समय लगता है। यूनिट में घुलने-मिलने में भी समय लगता है। यह अग्निवीर तो ऐसी रेजिमेंट व्यवस्था में भेजे जाएंगे, जो क्षेत्र के आधार पर बनी हैं और नाम, नमक और निशान की परंपरा में गुंथी हैं। इस रेजिमेंट व्यवस्था में एक युवा अग्निवीर, जिसका अस्तित्व एक अस्थायी सैनिक का है, वो कैसे सहज महसूस करेगा? 
इसलिए अग्निवीर का सवाल सिर्फ युवाओं के रोजगार से जुड़ा नहीं है। हम एक देश के रूप में देश के लिए सब कुछ न्यौच्छावर करनेवाले युवाओं के शोषण की मंजूरी कैसे दे सकते हैं? अपने आपको शोषित और भविष्य के प्रति असुरक्षित महसूस करने वाले युवा देश की रक्षा कैसे करेंगे? जरुरी है कि इस योजना को अविलंब रोका जाए और इस पर व्यापक बहस की जाय।
सनद रहे कि थल सेना का कथन है – कोई भी सैनिक या अफसर अपर्याप्त ट्रेनिंग के चलते युद्ध में घायल ना हो या अपनी जिन्दगी से हाथ ना धोए। यह भारतीय सेना के प्रशिक्षण का सार है। जबकि 6 माह के आधे-अधूरे रूप से प्रशिक्षित अग्निवीर को मोर्चे पर भेजकर सेना अपने इस उद्देश्य भटक जाएगी।

 
♦️अग्निपथ के पीछे क्या है मोदी सरकार की मंशा?--
आर्थिक मंदी का दौर है और हर तरफ बेरोज़गारी का बोलबाला है। पिछले कई वर्ष से सेना या सुरक्षा बलों में नियमित भर्तियां नहीं हुई हैं। कोविड काल तो चलो एक आकस्मिक दिक़्क़त हुई लेकिन सैन्य बलों में भर्तियां इससे पहले से ही तक़रीबन बंद पड़ी हैं। ऐसे में इतनी नौकरियों की घोषणा के विरोध की उम्मीद किसी को नहीं रही होगी, भले ही यह तदर्थ, या अस्थायी ही क्यों न हों। सरकार और सेना ने अग्निपथ के पक्ष में तमाम तरह की दलीलें भी दी हैं। योजना के तमाम फायदे गिनाए हैं। लेकिन सवाल यह भी है कि सरकार को ऐसा करने की ज़रूरत क्यों पड़ी?
वर्ष 2016 के बाद से लगातार बिगड़ रहे देश के आर्थिक हालात भी इसका एक कारण हैं। नोटबंदी के बाद से असंगठित क्षेत्र बदहाल है, कृषि लगातार घाटे का सौदा बना हुआ है और निजी क्षेत्र में भी नौकरियों के अवसर 1991 से 2010 के बीच जैसे नहीं रह गए हैं। सरकार से पहली चूक निजी क्षेत्र पर दांव लगाने की ही हुई है। पिछले आठ साल में निजी क्षेत्र को तमाम तरह की आर्थिक सुविधा, पैकेज और टैक्स छूट दी गईं। सरकार को उम्मीद थी कि निजी कंपनियां जितना फले-फूलेंगी उतना आर्थिक संकट कम होगा और उतनी ही बेरोज़गारी घटेगी। लेकिन निजी क्षेत्र ने सरकार को लगातार धोखा दिय़ा। तमाम कंपनी टैक्स लाभ लेकर और लोन माफ कराकर बंद हुईं और कई उद्योगपति पैसे के साथ देश छोड़ गए।
अब हालात सरकार के क़ाबू से बाहर हैं। जिस तरह विदेशी क़र्ज़ लगातार बढ़ रहा है, और अर्थतंत्र की सांसें डूब रही हैं, ऐसे में सरकारी ख़र्च में कटौती और नौकरियों की संख्या में कमी के अलावा सरकार के पास कोई चारा नहीं है। सेना में तदर्थ भर्ती सिर्फ एक बानगी है। अभी दूसरे विभागों और पुलिस बलों में भी यही दोहराया जाना है। ऐसे में अग्निपथ से शुरु हुई आंदोलन की आग अभी दूसरी भर्तियों के दौरान भी फैलने का ख़तरा है।
कुछ लोग अग्निपथ योजना को यह कहते हुए बेहतर बता रहे हैं कि कुछेक देशों में पहले से ऐसी योजना चल रही है। मेरा मानना है कि हर देश के लोगों की मानसिकता अलग-अलग होती है, जो वहां के मौसम, भोगौलिक स्थिति, आर्थिक स्थिति, राजनीतिक स्थिति, ऐतिहासिक स्थिति और धार्मिक स्थिति आदि पर निर्भर है। इसलिए इस योजना को दूसरे देशों को देखकर लागू न किया जाए। भारत कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक और गोवा से लेकर आसाम तक फैला है। सरकार को यह बात समझनी चाहिए। 
मेरे हिसाब से सबसे बड़ी चुनौती तब सामने आएगी जब 75 फीसदी अग्निवीरों को जब निकाला जाएगा तो वे किसी भी सूरत में चुप नहीं बैठेंगे और जब उन्हें ढंग का रोजगार नहीं मिलेगा तो हो सकता है कि वे बड़ा बवाल खड़ा कर दें, जिसका असर स्थायी सैनिकों पर भी पड़ेगा। इसका असर देश की आंतरिक सुरक्षा पर भी पड़ेगा। वजह यह कि यदि बड़ी संख्या में नौजवानों को बीच मझधार में छोड़ दिया जाएगा तो वे अलगाववादी ताकतें उन्हें फांसने का षडयंत्र रच सकती हैं। 
दरअसल, इस पूरे मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीन कृषि क़ानून लाकर जिस प्रकार से किसानों का फ़ायदा करना चाहते थे, ठीक वैसे ही इस अग्निपथ योजना से फ़ौज का फ़ायदा करना चाहते हैं। जबकि हम सभी जानते हैं कि उन तीन कृषि क़ानूनों से किसान को क्या नुक़सान हो सकता था। ऐसे ही इस अग्निपथ योजना से नुक़सान होगा। तीन कृषि क़ानून लाकर सरकार एमएसपी से भागने की सोच रही थी और इस अग्निपथ योजना से सरकार पेंशन व वेतनादि का ख़र्च बचाने की सोच रही है। हमें चौधरी छोटूराम को याद करना चाहिए, जिन्होंने कहा था कि “सरकार को एक बनिया की भावना से नहीं सोचना चाहिए। इसका शासन केवल दुकानदारी के सिद्धांतों पर नहीं चलना चाहिए। सबसे पहला उद्देश्य जो एक सरकार का होना चाहिए वह है, जनता की भलाई।” जबकि भाजपा जबसे सत्ता में आयी है, तभी से वह देश चलाने के बजाय व्यापार अधिक कर रही है।  
सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि अग्निपथ योजना पर अधिकतर सेवानिवृत्त फ़ौज अधिकारी ख़ामोश हैं और जो अभी सेवारत हैं, सरकार की प्रशंसा करने में लगे हुए हैं। यह बड़े दुःख की बात है। जब इस प्रकार फ़ौज भी किसी नेता की अनावश्यक चमचागिरी में लग जाती है तो समझ लेना चाहिए कि देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा उत्पन्न हो चुका है। यह समय है कि सरकार चेते और नौजवानों के भविष्य के साथ न खेले।

 
♦️अग्निवीर और शिक्षा-- 
अग्निपथ योजना का ध्यान से अध्ययन करने पर यह साफ़ हो जाता है कि वह कतई राष्ट्रहित में नहीं है। यह योजना वर्ण धर्म का आधुनिक स्वरुप है। इसका लक्ष्य शूद्र/ओबीसी/एसटी/एससी विद्यार्थियों को साढ़े सत्रह साल की अल्प आयु में स्कूल से बाहर कर देना है। ग्रामीण कृषि और शिल्पकार समुदायों के अधिकांश बच्चे इस उम्र तक मुश्किल से दसवीं कक्षा पास कर पाते हैं। यह योजना उन्हें स्कूल ड्रॉपआउट बना देगी। चार साल तक अग्निवीर के रूप में काम करने के बाद वे बेरोजगार हो जाएंगे। वे फिर से स्कूल में दाखिला लेने से रहे। क्या यह योजना नयी शिक्षा नीति का भाग है? चार साल तक सेना में काम करने के बाद अग्निवीर अपने गांव लौटकर आखिर करेंगे क्या? 
अग्निपथ योजना के अंतर्गत सेना में सबसे निचले पद (रंगरूट अथवा सिपाही) पर भर्ती की जाएगी। जाहिर है कि संपन्न वर्ग और द्विज जातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया, कायस्थ और खत्री) के लड़के अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ कर अग्निवीर नहीं बनेंगे। वे एनडीए में प्रवेश लेकर कमीशंड अधिकारी बनने का प्रयास करेंगे। एससी, एसटी और ओबीसी में भी केवल गरीब वर्ग के लोग अपने बच्चों को इस योजना के अंतर्गत सेना में भर्ती होने देंगे। 
दरअसल, अग्निपथ योजना संघ की शाखाओं का ही एक स्वरुप है। सरकार श्रमजीवी वर्गों/जातियों के साक्षर युवकों को चार साल में नाममात्र का वेतन देकर योद्धा बना देगी। उसके बाद, वे अपनी शैक्षणिक योग्यता बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं करेंगे। वे कहा जाएंगे? क्या करेंगे? 
सरकार के दिमाग में उनके लिए तीन प्रकार की नौकरियां हैं। पहली, अडाणी और अंबानी मार्का निजी उद्योग समूह उन्हें मामूली तनख्वाह पर सुरक्षाकर्मी के रूप में भर्ती कर लेंगे। शायद तब उन्हें ‘औद्योगिक अग्निवीर’ कहा जाएगा। आनंद महिंद्रा ने तो अभी से यह संकेत दिया है की वे अग्निवीरों को इस श्रेणी के काम देंगे। बढ़ते निजीकरण के इस दौर में निजी कंपनियों को श्रमजीवी वर्ग को काबू में रखने के लिए निजी अग्निवीर चाहिए होंगे। आरएसएस उन्हें अपने अतिवादी काडर में शामिल कर लेगा। वे शायद ‘भारतीय अग्निवीर’ कहलाएंगें। तीसरे, राष्ट्रवादी धनिक सेलिब्रेटिज उन्हें अंगरक्षक के रूप में इस्तेमाल करेंगे। तब वे ‘रक्षण अग्निवीर’ कहलाएंगे।
भारतीय सैन्य बलों के उच्च अधिकारी, जिनमें तीनों सेनाओं के मुखिया शामिल हैं, आखिर इस योजना, जिसके भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश के लिए गंभीर निहितार्थ हैं, को लागू करने पर सहमत कैसे हो गए? अगर आप साल-दर-साल हजारों नौजवानों को सैन्य प्रशिक्षण देते जाएंगे और उनके लिए रोज़गार की व्यवस्था नहीं करेंगे, तो इससे देश में हिंसा कैसे घटेगी? अभी तक जो व्यवस्था लागू थी, उसमें सैनिकों को जीवन भर के लिए सेना का हिस्सा बनाया जाता था। लगभग 15 साल के कार्यकाल में उनकी शादी हो जाती थी और बाल-बच्चे भी। उनके पास स्नातक या उससे उच्च शैक्षणिक योग्यता होती थी और एक लंबा सैन्य अनुभव भी। उन्हें पेंशन भी मिलती थी और समाज में उनका सम्मान भी होता था। उन्हें आसानी से कोई दूसरा काम मिल जाता था। इसके विपरीत, स्कूल ड्रापआउट अग्निवीरों के पास न तो काम होगा न पेंशन। वे शायद विवाहित भी नहीं हों सकेंगे। क्या उन्हें समाज सम्मान की दृष्टि से देखेगा? 
आज हमारे देश में चौकीदार का काम करने वाले किस जाति के होते हैं? क्या आनंद महिंद्रा अग्निवीरों को इसी तरह का काम नहीं देना चाहते? भाजपाई मंत्री किशन रेड्डी का सुझाव है कि वे नाई या धोबी के रूप में काम कर सकते हैं। आज ये काम किन जातियों के लोग कर रहे हैं? क्या किशन रेड्डी यह पसंद करेंगे कि उनका पुत्र अग्निवीर बने और फिर ऐसा ही कुछ काम करे। इस परियोजना के ज़रिये वर्ण धर्म की विचारधारा को बढ़ावा दिया जा रहा है।  
 

♦️ध्वस्त होती महत्वाकांक्षाएं --
यह परियोजना समाज में हिंसा बढ़ाएगी। ज्ञानार्जन करने की आयु में युवाओं को स्कूल से बाहर खींच कर उन्हें पहले योद्धा और फिर बेरोजगार बनाया जाएगा। आरएसएस अपने अल्पसंख्यक-विरोधी एजेंडा के तहत युवकों को लाठी चलाने का प्रशिक्षण देता था। अब, जब कि वह सत्ता में है, वह इससे आगे जाना चाहता है। अल्पसंख्यकों से निपटने का काम तो अब पुलिस और बुलडोज़र कर रहे हैं। आप पहले युवकों को हिंसा करने का प्रशिक्षण देते हैं और फिर उनकी महत्वाकांक्षाओं को ध्वस्त कर देते हैं। ऐसे में आपको उनकी हिंसक प्रतिक्रिया पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
जिन युवकों को शाखाओं और चुनावी सभाओं में सब्जबाग दिखाए गए थे, जब उन्हें यह पता चलता है कि अग्निवीर जैसी योजनायें ला कर उनकी महत्वाकांक्षाओं को ध्वस्त किया जा रहा है तो वे अपने आकाओं के खिलाफ ही खड़े हो जाते हैं। हम आज यही देख रहे हैं। वैश्वीकृत सोशल मीडिया और निजीकृत राज्य नयी हिंसक ताकतों को जन्म देंगे। अग्निपथ से इस प्रक्रिया की शुरुआत भर हुई है।

 
♦️सेना के आधुनिकीकरण का तर्क महज छलावा --
केंद्र सरकार का दावा है कि इससे सेना के आधुनिकीकरण में मदद मिलेगी। कैसे मदद मिलेगी, यह साफ नहीं है। सरकार द्वारा अभी तक प्रस्तुत इस योजना की रूप-रेखा से इसकी कोई संभावना नहीं बनती है। सेवाकाल में कटौती प्रशासनिक मसला है। सैन्य विशेषज्ञों का मानना है कि एक फौजी को जंग के लिए तैयार करने में चार से पांच साल लगते हैं। ‘अग्निपथ’ योजना में केवल छह महीने के प्रशिक्षण का ही प्रावधान है। इस तरह कम अनुभव वाला फौजी सेना के आधुनिकीकरण में कैसे मददगार होगा? 
 

♦️रेंजीमेंट प्रणाली में खामियां हैं तो संसद में चर्चा कीजिए --
दरअसल, सेना की भर्ती एक गंभीर मसला है। आजादी से पहले का जिक्र न भी करें, तो भी बीते 75 वर्षों से भारत में रेजीमेंट सिस्टम चला आ रहा है। प्रत्येक रेजीमेंट की अलग वेषभूषा, अलग नारा और अलग युद्ध-शैली है। इस प्रणाली में निस्संदेह कुछ कमजोरियां हो सकती हैं। समय के अनुसार हर नीति की समीक्षा जरूरी होती है। सेना में भर्ती की प्रक्रिया भी अपवाद नहीं है। लेकिन इतने अरसे से चली आ रही व्यवस्था को बदलने के लिए उसके हर पहलू पर विचार करना जरूरी है। मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा है, इसलिए सरकार को पार्टी हित, वर्गीय हित से ऊपर उठकर सोचना चाहिए। यदि सरकार ‘अग्निपथ’ को सचमुच कारगर और युगांतरकारी योजना मानती है; और उसे अपने ऊपर भरोसा है तो योजना को लागू करने से पहले, संसद में विधिवत चर्चा होनी चाहिए थी। आवश्यकता पड़ने पर विशेष सत्र भी बुलाया जा सकता था। सरकार का दोनों सदनों में बहुमत है। इसलिए उसे चिंता करने की भी जरूरत नहीं थी। फिर भी योजना को कैबिनेट फैसले के तहत पिछले दरवाजे से थोपा गया? अब वह विपक्ष की मांग पर मामले को संसदीय समिति के पास भेजने से भी कतरा रही है। सवाल उठता है कि आखिर क्यों?
इस बारे में पंजाब के गवर्नर रह चुके रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल बी.के.एन. छिब्बर की टिप्पणी किसी भी राजनीतिक बयान से ज्यादा प्रासंगिक है। चंडीगढ़, में प्रकाशित इस टिप्पणी को ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए। छिब्बर साहब का मानना है– “किसी भी दूसरे देश या यूरोपियन देशों की तुलना करते हुए यहां के युवाओं के लिए ऐसी योजना बनाना ठीक नहीं है। कम्पलसरी मिल्ट्री सर्विस का हमारे मुल्क में कोई उदाहरण नहीं है। हमारे पास रेजीमेंटल सिस्टम है। इससे हर अफसर और जवान को मिल्ट्री करियर या सर्विस के दौरान और बाद में पूरी तरह से संतोष मिलता है। हमारा रेजीमेंटल सिस्टम यूनिक और पूरी तरह से संतोषजनक है। युद्ध या शांति के दौरान हमारी सेना का काम उदाहरण देने लायक है तो वह इस सिस्टम की वजह से ही है। इसे कायम रखने के लिए सेना में लंबी सर्विस जरूरी है।”
छिब्बर साहब आगे कहते हैं– “भारतीय सेना रोजाना आतंकवादियों के साथ बखूबी सामना कर रही है। दूसरे देशों की आर्मी के पास हमसे अच्छी मिसाइल, गन, हथियार और एयरक्राफ्ट हो सकते हैं। लेकिन ग्राउंड वार जीतना आसान नहीं है। हमारी सेना हर परिस्थिति में बेहरतीन रिजल्ट देने की क्षमता रखती है। हमें सेना की इस क्षमता के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए।”
 

♦️सेना का राजनीतिकरण लोकतंत्र के लिए खतरा--
बीते शुक्रवार, 17 जून को तीनों सैन्य प्रमुखों ने ‘अग्निपथ’ के समर्थन में सार्वजनिक बयान दिया। रक्षामंत्री, गृहमंत्री और सरकार के प्रवक्ता सरकार के फैसले का समर्थन करें, इसमें बुराई नहीं है। व्यक्तिगत और प्रशासनिक स्तर पर तीनों सैन्य प्रमुख भी उसके समर्थक हो सकते हैं। किंतु ‘अग्निपथ’ के समर्थन में सार्वजनिक बयान देकर, जल्दी ही भर्ती शुरू करने की घोषणा करना, खासकर ऐसे समय जब योजना का विरोध किया जा रहा है – क्या स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा मानी जाएगी? क्या सरकार नागरिकों से ऊपर होती है! क्या जन-भावनाओं का ध्यान रखना उसकी जिम्मेदारी नहीं है! सेना का राजनीतिक इस्तेमाल लोकतंत्र के लिए बहुत ही भयावह है। यह दर्शाता है कि अपनी नाकामी छिपाने के लिए सरकार, सैन्य प्रमुखों को बीच में लाकर बेहद खतरनाक खेल खेल रही है।
 

♦️चार वर्ष बाद रंगरूटों के भविष्य का सवाल--
सरकार का कहना है कि चार साल की सेवानिवृत होनेवाले जवानों के हाथ में 11.65 लाख रुपये की जमा राशि रहेगी। उससे वे कोई व्यापार कर सकते हैं। अगर वे ऐसा कर पाएं तो अच्छी बात है। लेकिन सेना में जाते कौन हैं? वे जो साधारण परिवारों से आते हैं। उनमें भी 80 फीसदी गांव के लड़के, जो परिस्थितिवश ज्यादा पढ़ नहीं पाते। व्यापार करने की योग्यता उनमें से बहुत कम युवकों में होती है। यदि कोई कोशिश भी करे तो ग्रामीण परिवेश और संसाधनों के अभाव में सफलता की संभावना घट जाती है। ऊपर से जिम्मेदारियों का दबाव। छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई, शादी-विवाह और बूढ़े मां-बाप की देखभाल, इतने दबावों के बीच ‘सम्मान-निधि’ कितने समय तक टिक पाएगी, कहना मुश्किल है। कुछ सरकार समर्थकों का कहना है कि चार साल की ‘अग्निवीरी’, गार्ड की नौकरी करने से तो अच्छी रहेगी। उनकी समझ पर बलिहारी। लोग गार्ड या ऐसी ही मामूली नौकरी खुशी से नहीं करते। ना ही देश-भक्ति का आह्वान उन्हें विवश करता है। मजबूरी उनसे ऐसा कराती है। उन्हें उम्मीद होती है कि सरकार उनके लिए कुछ अच्छा करेगी। अब सरकार ऐसी योजना लाए, जिसमें चार वर्ष के बाद उन्हें दुबारा उसी जगह लौटना पड़े, तो उसकी कौन सराहना करेगा! ऐसे में आम आदमी पार्टी के संजय सिंह का यह कहना एकदम सही है कि यह योजना प्राइवेट कंपनियों के लिए गार्ड उपलब्ध कराने को लाई गई है। इस बयान में हैल्परों, चपरासियों, कूरियर बॉय वगैरह को भी जोड़ा जा सकता है। बीते आठ वर्षों के दौरान सरकार के हर फैसले ने सिद्ध किया है कि उसे इस देश के पूंजीपतियों और बड़े लोगों की चिंता कहीं ज्यादा है। इस अवधि में बड़े पूंजीपतियों की सकल संपत्ति में 400-500 प्रतिशत की वृद्धि, दूसरी ओर छोटे उद्यमियों की बरबादी, सुरसामुखी महंगाई और बढ़ती बेरोजगारी आदि इसकी पुष्टि करती है। बीते दिनों यह भी सुनने में आया कि सरकार आगामी जुलाई से नए श्रम कानून लागू करना चाहती है। यदि यह सच है तो संभव है कि अग्निपथ योजना की तरह नए श्रम कानून भी चुपके से थोप दिए जाएं। यह बहुत डरावनी संभावना है।

बखत-बखतै बात



पैली बखत कदुक भल और सजिल छी येक बारमै बात करणक लिजी लै आज हमुकै पुराण बखतक लोग आपण दगड़ में जरुरी चैनी, जो हमर नई पीढ़ी कूँ भली कै पुराण कहावतक दगड़ समझै सको।  
पैली बखत में एक दौर छी जब सभै झकड आपस में बातचीत कर सुलझाई जांछी, जब आपसी बातचीत में बात नी बड़ी तब घर या घरक आस-पड़ोस बटी ठुल-बुजुर्ग लोगों कै शामिल कर बैठकी लगाई जाछी। 


झकड सुलझुणक यो प्रयास एक बार न बल्कि बार-बार करी जांछी, केवल एक कोशिश नी हुछी बल्कि हजार भगै यो कोशिश हुछि। ऊ बैठकों में सबुकै आपण बात कुणक पुर अधिकार हुंछि, सबु बात सुणी जांछि, सबु बात में पुर विचार हुंछी, बैठक में बैठी ठुल बुजुर्ग बिलकुल निष्पक्ष हैबेर बात करछी, सब एक दूसरक सम्मान करछी, यैक लिजी झकडक निपटारा हुणक सम्भावना ज़्यादा है जांछि।  

♦️एक बखत आज लै छु -

सोशल मीडिया में स्टेटस या स्टोरी लाईनक जरिये आपण दिलक भड़ास निकाली जां, सबै लोग एक तरफ़ा संवाद करनक कोशिश में लगी छिन, वीक बाद लै आपण तसल्लीक लिजी बार-बार देखनी कि जैक लिजी यो स्टेट्स लिख रखौछी वील देखो की ना, वीक स्टेट्स देख भेर वीक प्रतिक्रिया जाणनक कोशिश जारी छू…

कुल मिलैभेर पैली बटी जो संवाद छी ऊ द्वि तरफ़ा संवाद छी और उमै द्विये पक्ष आपण-आपण मनक बात रख पांछि, यैक लिजी ज़्यादातर झकडक हल निकल जांछी। आजकल संवाद केवल एक तरफ़ा संवाद रै गयी, जो संवाद बस मनक भड़ास निकलनक ज़रिया मात्र रै गयी। 

किलैकि यस संवाद में दूसरक पक्ष नी सुणी जान, वीक दगड़ खुलबेर बातचीत नी है पान, कैं कोई प्रकारक निष्पक्षता नी हुनी, हमर करी बात सच या झूठ वीक परखनक लिजी कोई मज़बूत आधार नी हुन। येक लिजी यस एक तरफ़ा संवादक मकसद झकड़क हल निकालन छोड़ आपण बात और आपण कै सही ठहरें बे दूसर कै गलत ठहरुण मात्र हूँ। 

थक हार, के नई नी सुण पान, के नई नी समझ पान, आपणैं दायरों में बंद हम लोगोंक यो निशानी हूँ। तभै आज लै हमार पुराण बुजुर्ग कहते रूनी बख़ता तेर बलाई ल्यूल…….

(मेरी भाषा मेरी पछ्याण, कभै नी भुलिया दगड़ियों। आपणी यो भाषा कै अघिल लिजानक पुरज़ोर तराण आपु लोगोल लागोण छू।)

#म्योर_पहाड़_मेरी_पछ्याण॥

अंहकार


एक पौराणिक कथा है - कामदेव पर विजय प्राप्त करने के उपरांत देवर्षि नारद अहंकार से ग्रस्त हो गए थे। 'मैंने कामदेव को जीता, कामदेव मुझसे पराजित हो गया' कहते हुए वह तीनों लोकों में भ्रमण करने लगे थे। उनका यह अंहकार किसी को भी अच्छा नहीं लगा, लेकिन सभी चुप थे। अंततः सर्वशक्तिमान विष्णु ने नारद को सबक सिखाने के उद्देश्य से नारद के चेहरे को वानर के चेहरे में बदलकर उन्हें हास्यास्पद स्थिति में ला दिया। 




'मैं' शब्द अंग्रेजी में 'आई' कहलाता है। कैपिटल शब्द 'आई' एक सीधे डण्डे की तरह होता है। जब भी कोई 'आई' कह कर घमंड का इजहार करता है, 'आई' दीवार बन जाता है। जिस पल व्यक्ति में घमंड आता है वह 'मैं' 'मैं' करने लगता है। 'आई' शब्द को लिटा देने पर वह 'डेश' (हलंत) बन जाता है, ये दो शब्द बिछडे़ हुए साथियों को पुल की तरह जोड़ने का काम करते हैं।

मुझे पिछले कुछ महीनों से यह एहसास होने लगा था कि 'प्रचार का नशा' धन के नशे से कम नहीं  होता। स्वयं के प्रचार का नशा एक मंदिर में रहने वाले निर्धन को उतना ही आनंदित करता है, जितना धन का नशा एक महल में रहने वाले धनिक को।

महात्मा गांधी की जीवनी मैंने एकाग्रता से पढ़ी है, लेकिन संपूर्ण गांधी दर्शन में किसी भी स्थान पर मुझे बापू के अंहकार की झलक नहीं दिखी। बापू बिना किसी प्रचार के, अंतर्मन से सेवा कार्य में जुटे रहते थे। उच्छिष्ट तक की सफाई से उन्होंने परहेज नहीं किया। दशानन के अंदर भी अहंकार की भीषण ज्वाला थी, लेकिन कालचक्र के बीच प्रभु श्री राम ने उसके अहंकार का दमन किया। लेकिन यह कभी नहीं कहा कि मैंने रावण का वध कर दिया।

जो जस करई सो तस फल चाखा।



यदि हमें विश्वास ही करना चाहिए था, तो हमें तर्क क्यों प्रदान किया गया था? क्या तर्क के विरोध में विश्वास करना, भयंकर ईशनिंदा नहीं है? हमें क्या अधिकार है, कि हम ईश्वर के सर्वोत्तम उपहार का उपयोग न करें? मुझे पूरा विश्वास है कि ईश्वर उस व्यक्ति को क्षमादान देगा, जो अविश्वास करते हुए अपने तर्क का उपयोग करेगा, न कि उस व्यक्ति को, जो अपनी शक्तियों, जो ईश्वर ने उसे प्रदान की है, का प्रयोग न करते हुए केवल अंधविश्वास करेगा। वह अपनी प्रकृति का अधोपतन करते हुए पशु के स्तर तक चला जाएगा और अपनी संवेदनाओं का अधोपतन करके मृत्यु प्राप्त करेगा- स्वामी विवेकानंद॥




“मैंने अक्सर सुना है समय हर घाव को ठीक कर देता है। वक्त हर जख्म को भर देता है,वगैरह वगैरह।”……

मैं इसमें कुछ जोड़ना चाहता हूँ, की ऐसा नही है समय सिर्फ जख्म ही भरता है। समय अपने साथ अच्छी यादे, प्रेम, खुशियां, प्राथमिकता वगैरह को भी बदल देता है। उदाहरण के लिए आज से 10 साल पहले आपके लिए कोई प्राथमिकता स्वरूप रहा होगा, पर आज वो नही है। आज उसकी जगह कोई और है। कल को आपको किसी से प्रेम था, आज किसी और से है। वस्तुतः समय अपने साथ कुछ नही करता, किंतु हम समय के साथ बदल जाते है और मुझे लगता है कि ये बदलाव ही जिंदगी है। जो नही बदल पाते होंगे वो या तो आत्महत्या कर लेते होंगे या फिर साधु-वाधु बन जाते होंगे।

जब हम बच्चे होते है तो माँ हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण होती है। जब जवान होते है तो प्रेमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। विवाह के बाद पत्नी और माता-पिता बनने के बाद बच्चे महत्वपूर्ण हो जाते है। ये बदलाव ही जिंदगी है।

मैं अभी कुछ दिन पहले सोच रहा था कि लोग बदल क्यो जाते है। फिर मेरे अंदर से मेरे मन ने कहा कि तुम्ही कौन से वही हो जो तुम थे? लोग बदल क्यो जाते है ये हम तब कहते है जब हम किसी अपने भूतकाल के महत्वपूर्ण व्यक्ति को खुशियां बाँटते, मनाते देखते है। फिर हमारा अहम इस बात को मानने को तैयार नही होता कि ये व्यक्ति मेरे बिना भी खुश हो सकता है। क्योंकि हम उसे उसी रूप में देखते है जिस रूप में जिस हाल में छोड़ा था। इसलिए हम उससे वही उम्मीद रखते है जो 10 साल पहले रखते थे। जब हम उसके बिना हँसते है, किसी उत्सव में शामिल होते है तब ये बात भूल जाते है, की हम भी तो वही कर रहे है। तो ये जो भी है ये बदलना नही, हमारे अपने अंदर की ईष्या होती है, की कोई मेरे बिना खुश है तो कैसे है? क्योंकि अपने आपको सब सिकन्दर ही समझते है। जैसे सल्लू भाई के फैन सब अपने आप मे एक सलमान खान ही है। 

भावार्थ यह है कि किसी भी बात के लिए समय को कोसने से कोई फायदा नही। ये जो भी हुआ है या हो रहा है वो सब आपकी ही किसी न किसी कार्य का परिणाम है। चाहे वो प्रत्यक्ष रूप में हो या अप्रत्यक्ष रूप में। तुलसीदास जी की अदभूत कृति रामचरितमानस में एक चौपाई है जो बहुत ही फिट बैठती है इस बात पर—

“कर्म प्रधान विश्व करि राखा। 
जो जस करई सो तस फल चाखा।”

अर्थात- इस विश्व को, समस्त संसार ने कर्म से बाँध रखा है, इसलिए जो जैसा करता है वैसा ही उसको मिलता भी है। जैसे हम चाह कर भी समय से अलग नही हो सकते, वैसे ही चाह कर भी कर्म से अलग नही हो सकते। हम किसी न किसी रूप में कर्म करते रहते है, जिसका परिणाम विश्व को तुरंत और हमे बाद में मिलता रहता है।

अच्छा लगता हैं के तुम पढ़ते हो मुझे..!!
जाहिर नही होने देते, ये अलग बात है….❤️

मुसीबत बन रहे आवारा सांड


शहर में आवारा पशु खास कर सांड शहरवासियों के लिए मुसीबत साबित हो रहे है। नगरपरिषद की उदासीनता एवं सभापति व आयुक्त की शहर के लोगों के प्रति बेरूखी के कारण आये दिन सांड के हमलों से लोग चोटिल हो रहे है। शहर के बस स्टैण्ड, टैक्सी स्टैण्ड, चौक बाज़ार, गोमती पुल, सरयू पुल, सिनौला सहित शहर के प्रमुख बाजारों व गलियों में हर वक्त सांडो के खड़े रहने के कारण भयभीत लोग बाजार आने से पूर्व कतराते है। व्यापारियों ने बताया कि आवारा सांडो का इतना आंतक है कि ग्राहक दुकान पर खड़े होने से भी डरते है। वहीं सांडो की लडाई में कई वाहन चालकों को नुकसान भुगतान पड़ा है। इससे पूर्व सांडो के हमले से एक-दो जने अपनी जान गंवा चुके है और दर्जनों घायल हो चुके हैं। 




आपने कभी करिश्माई कृष्ण और क्रोधी सांड की कहानी सुनी है, यदि आपका जवाब ना है तो चलिए साथ मिलकर इस कहानी का आनन्द लेते हैं। मैंने भी कुछ दिन पहले ही इस कहानी का आनन्द लिया था। आज बाज़ार में एक सांड के रवैये को देख अनायास ही मुझे वह कहानी की एक-एक बात किसी विडियो की तरह मेरे सामने घूमने लगी। सोचा इसे आप सभी साथियों के सम्मुख प्रस्तुत करूँ। आपको कैसी लगी अवश्य अपनी प्रतिक्रिया के साथ अवगत कराएँ ——

भगवान श्री कृष्ण के जीवन से जुड़ी ऐसी अनेक घटनाएं और लीलाएं हैं जिनसे उन्होंने लोगों को जबर्दस्त तरीके से प्रभावित किया। उन्होंने एक बार जो ठान लिया, उसे पूरा करके ही दम लिया। अपने प्रेम से भरे आचरण के जरिये उस क्रोधी सांड हस्तिन को काबू करने की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। 

जब वह 14 या 15 साल के थे, तो एक घटना हुई। वृंदावन में एक प्रजनक सांड था। ये सांड स्वभाव से बेहद आक्रामक और हिंसक था। इस सांड का नाम था 'हस्तिन', जिसका मतलब है कि वह हाथी की तरह था। वह बहुत बड़ा और ताकतवर था, इतना आक्रामक था कि हर वक्त लड़ने को तैयार रहता। लोगों ने उसे इसलिए रखा हुआ था क्योंकि वह वृंदावन की तमाम गायों के लिए प्रजनन का साधन था। वह इतना हिंसक था कि किसी की उसके पास जाने की हिम्मत नहीं होती थी।

कृष्ण के बड़े भाई बलराम अपनी आयु के तमाम बच्चों से कहीं ज्यादा शक्तिशाली थे। वे विशाल शरीर वाले असाधारण मानव थे। उनके जीवन में आई कई परिस्थितियों से यह पता चलता है कि वह एक साधारण इंसान की तुलना में कहीं ज्यादा बलवान और शक्तिशाली थे। बलराम हमेशा कुछ करना चाहते थे। वैसे भी जिन लोगों के पास शारीरिक ताकत ज्यादा होती है, वे कुछ न कुछ करना चाहते हैं। बलराम के पास भी शारीरिक शक्ति थी तो वह भी कुछ करना चाहते थे। वह कसकर व्यायाम करते थे और जमकर खाना खाते थे। वह और ज्यादा शक्तिशाली होना चाहते थे। एक दिन ऐसे ही उन्होंने कह दिया कि मैं इतना शक्तिशाली बनना चाहता हूं कि एक ही मुक्के  में हस्तिन को मार डालूं।

यह कोई ऐसा सपना नहीं था जिसे पूरा न किया जा सके। बहुत से युवक इस तरह का सपना देखते हैं कि एक ही मुक्के में वे सामने वाले को धूल चटा दें। इसी तरह बलराम भी सोचते थे कि एक ही मुक्के में वह उस हिंसक और आक्रामक सांड हस्तिन को मार गिराएं। कृष्ण ने मुस्कराकर बलराम से कहा, ‘आप उसे एक ही मुक्के में मार डालना चाहते हैं। वैसे भी आप ऐसा नहीं कर सकते और अगर आपने ऐसा कर भी दिया तो भी इसका कोई लाभ नहीं है। मैं हस्तिन की सवारी करूंगा।' कृष्ण की इस बात पर लोग हंसने लगे। तमाम युवक कहने लगे, ‘ये कुछ नहीं, बस डींगें मारता है। हस्तिन की सवारी कोई नहीं कर सकता। वह बहुत खूंखार है। ‘कृष्ण ने कहा, ‘मैं उसकी सवारी करने जा रहा हूं।'

पूर्णिमा की शाम थी। सभी ने खूब झूमकर नृत्य किया था और अब वे थककर बैठे थे और शेखी मार रहे थे। कृष्ण ने कहा,  ‘अगली पूर्णिमा तक मैं हस्तिन की सवारी करके दिखा दूंगा।' ऐसी बातें होती रहती हैं। पर लोग उन्हें सिर्फ कोरी बातें मानकर भूल जाते हैं और इस तरह से जिंदगी चलती रहती है। धीरे-धीरे दिन गुजरते गए। पूर्णिमा आने में अब बस कुछ ही दिन बचे थे। बलराम ने कृष्ण को हस्तिन वाली बात याद दिलाते हुए कहा,  ‘तुमने तो कहा था कि अगली पूर्णिमा तक तुम हस्तिन पर सवारी करके दिखाओगे। अब क्या हुआ? मुझे तो नहीं लगता कि तुम ऐसा कर पाओगे।' कृष्ण ने कहा,  ‘मैं अब भी अपनी बात पर कायम हूं कि मैं पूर्णिमा तक हस्तिन की सवारी करके दिखा दूंगा।' बलराम बोले,  ‘तुमने लंबी चौड़ी डींगें तो हांक दीं, लेकिन अब तुम घबरा रहे हो कि तुम यह काम कर नहीं पाओगे। अब तो तुम पिछले कुछ समय से गायब भी रहते हो। हर शाम हम यहां मिलते हैं। तुम कहां रहते हो? तुम बचना चाहते हो और मुझे पूरा विश्वास है कि जब पूर्णिमा का दिन आएगा तो तुम हमें मिलोगे भी नहीं।' कृष्ण ने दृढ़ निश्चय के साथ कहा कि 'मैं हस्तिन की सवारी करके दिखाऊंगा'। वहां मौजूद सभी युवक यह सुनकर डर गए कि अब बात गंभीर हो गई है। अब ये महज बातें नहीं रहीं। पहले उन्हें लगता था कि ये सब बातें मजाक में हो रही हैं।

इस पूरे माह के दौरान कृष्ण ने एक काम किया। वह हर रोज उस स्थान पर जाते जहां हस्तिन को एक पेड़ से बांधकर रखा गया था। केवल दो लोग जो उसके बचपन के साथी थे, उस सांड के पास तक जा पाते थे। दरअसल, इन दो लोगों को ही हस्तिन अपने समीप आने देता था। इन दो लोगों के अलावा जब भी कोई और हस्तिन के पास जाता, तो वह हिंसक हो उठता था। कृष्ण वहां गए और उन्होंने कहा कि 'मैं हस्तिन के पास जाना चाहता हूं।' उन दोनों ने कहा, ‘हम तुम्हें उसके पास नहीं जाने देंगे। अगर तुम्हारे पिताजी को पता चल गया और तुम्हें कुछ हो गया तो वह हमें मार डालेंगे।' कृष्ण ने जिद की, ‘नहीं, मुझे उसके पास जाना है।' वह वहां गए और उससे थोड़ी दूर बैठ गए। कृष्ण को देखते ही हस्तिन अपने पैरों से जमीन खोदने लगा और गुस्से से भर गया। किसी भी नए आदमी को वह बर्दाश्त नहीं कर सकता था। वह फौरन उस पर हमला करना चाहता था। बलराम के सपने की तरह उसका भी सपना था कि एक ही वार से वह हर किसी को धूल चटा दे। वह भी किसी योद्धा से कम थोड़े ही न था। खैर, कृष्ण आराम से वहां बैठ गए। उन्होंने अपनी बांसुरी निकाली और बजाने लगे। वह रोज वहां जाते और घंटों बांसुरी बजाते। धीरे-धीरे सांड विनम्र होने लगा। इस बात से उत्साहित होकर एक दिन कृष्ण ने चारे में गुड़ मिलाकर उसे दूर से ही खिलाया। इस तरह धीरे-धीरे वह बैल के और करीब आते गए और एक दिन ऐसा आया, जब उन्होंने उस सांड के समीप जाकर बांसुरी बजाई और उसे अपने हाथों से स्पर्श किया। एक माह में उन्होंने हस्तिन के साथ दोस्ती कर ली। इस उद्देश्य के लिए वह रोजाना कोशिश कर रहे थे, लेकिन इसके बारे में किसी को पता नहीं था।

पूर्णिमा आई। कृष्ण ने कहा, ‘मैं हस्तिन की सवारी करने जा रहा हूं।' बलराम और कुछ और दोस्त वहां मौजूद थे। उन्होंने कहा, ‘हम अपनी शर्त वापस लेते हैं। तुम चिंता मत करो। तुम्हें उस पर सवारी करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हम तुम्हें मृत नहीं देखना चाहते।' कृष्ण ने दोहराया, ‘मैं हस्तिन की सवारी करने जा रहा हूं। आप लोग मेरे साथ आएं। ‘कृष्ण का चचेरा भाई और उनका प्रिय मित्र उद्धव भी डर गया। उसे लगा कि इस पागलपन और जोखिम से भरे काम को करने के चक्कर में कृष्ण की जान चली जाएगी। वह किसी भी कीमत पर उन्हें रोकना चाहता था। वह भागा-भागा राधे के पास गया और राधे को उसने पूरी बात बता दी कि कृष्ण ऐसा जोखिम भरा काम करने जा रहा है। वह खुद अपनी मौत को बुला रहा है। राधे भावुक हो गईं और दौड़ती हुई कृष्ण के पास आईं। राधे ने कृष्ण से कहा कि मैं तुम्हें किसी भी कीमत पर हस्तिन की सवारी नहीं करने दूंगी। कृष्ण ने कहा, ‘मैं हस्तिन की सवारी करने जा रहा हूं। बस।' राधे ने कहा,  ‘ऐसा नहीं हो सकता। अगर तुम हस्तिन की सवारी करके अपनी जान देना चाहते हो तो मैं भी हस्तिन की सवारी करूंगी और अपनी जान दे दूंगी । मैं तुम्हें यह सब अकेले नहीं करने दूंगी।'

कृष्ण ने भरपूर कोशिश कर ली लेकिन राधे ने उन्हें जाने नहीं दिया। कृष्ण ने कहा, ‘ठीक है, तुम इंतजार करो। पहले मुझे उसके समीप जाने दो। कुछेक लोगों के साथ कृष्ण हस्तिन के समीप गए। जैसे ही हस्तिन ने इतने सारे लोगों को देखा, वह अंदर ही अंदर गुस्से से उबल पड़ा और हिंसक हो उठा। कृष्ण ने अपने साथियों से दूर रहने को कहा, खुद उसके समीप गए और बांसुरी बजाने लगे। इसके बाद उन्होंने सांड को खाने के लिए मीठी चीजें दीं। धीरे-धीरे वह उसके और निकट पहुंच गए। फिर उन्होंने राधे को इशारा करके कहा कि मेरे पीछे आ जाओ और ठीक ऐसे खड़ी रहो जैसे मैं खड़ा हूं। अपने पैरों को ठीक मेरे पैरों के पीछे रखना और अपने शरीर को भी ठीक मेरे शरीर के पीछे, जिससे कि हस्तिन तुम्हें न देख पाए। शिकारी हमेशा ऐसा करते हैं। आमतौर पर होता क्या है कि जानवर पैरों को देखकर पहचान जाते हैं कि उसके पीछे कितने लोग हैं।

शुरू में हस्तिन उत्तेजित था, लेकिन धीरे-धीरे वह विनम्र और शांत होता गया। कृष्ण ने मौका ताड़ा और लपककर उसकी पीठ पर चढ़ गए और धीरे से राधे को भी ऊपर खींच लिया। कृष्ण जैसे ही हस्तिन की पीठ पर सवार हुए, वह हिंसक हो उठा और उसने भागना शुरू कर दिया। कृष्ण ने सांड की पीठ को कसकर पकड़ लिया और राधे ने कृष्ण को। उन्होंने पूरे गांव से होते हुए जंगलों तक सांड की पीठ पर सवारी की। हस्तिन लंबे समय तक दौड़ता रहा। एक वक्त ऐसा आया कि उसकी पूरी ऊर्जा खत्म हो गई। वह थककर रुक गया और घास चरने लगा। उस हिंसक सांड की पीठ पर राधे कृष्ण के सवारी करने और फिर थक चुके हस्तिन के घास चरने के इस अविश्वसनीय दृश्य को तमाम लोगों ने देखा। यह घटना लोगों के लिए एक बड़े चमत्कार की तरह थी। समय बीतने के साथ-साथ इस चमत्कार को तमाम तरीकों से बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। दरअसल, कृष्ण थे ही ऐसे। अगर किसी काम को करने की ठान लेते तो उसे ठीक वैसे ही अंजाम देते थे जैसे उसे दिया जाना चाहिए। कोई क्या कह रहा है, इसका उन पर कोई असर नहीं होता था। उन्हें पता होता था कि उन्हें क्या करना है।

यह कोई एक घटना नहीं है। कृष्ण के जीवन से जुड़ी ऐसी तमाम घटनाएं हैं, जिन्होंने उन्हें उस समाज का एक स्वाभाविक नेता बना दिया। जब वह 15-16 साल के हुए, उस समाज के बुजुर्गों ने भी उनसे सलाह लेना शुरू कर दिया, क्योंकि उन्होंने समाज में खुद को एक नई शक्ति, प्रखर बुद्धि तथा स्पष्ट दृष्टि वाले शक्स के रूप में स्थापित कर लिया था।

किसी ने क्या खूब कहा है, भाषा शरीर का ऐसा अदृश्य अंग हैं, जिसमें मनुष्य का सब कुछ दिखाई देता है। अब मेरे शहर के आला अधिकारी व सजग जनप्रतिनिधि कब तक इस तरह का ऊर्जावान कार्य कर अपनी प्रजा को भययुक्त करने का प्रयास करेंगे?

क्या माइक्रोप्लास्टिक्स ने हमारे शरीर पर कब्जा कर लिया है?



प्लास्टिक प्रदूषण एक पुराना विषय है। लेकिन अतीत में, लोग केवल प्राकृतिक पर्यावरण को प्लास्टिक के नुकसान पर ध्यान देते थे, लेकिन आज प्लास्टिक्स के कण मानव शरीर में प्रवेश शुरू होने लगे हैं, जिससे मानव के स्वास्थ्य पर भारी प्रभाव पड़ता है। मार्च 2020 में, डच शोधकर्ताओं ने पाया कि मानव के रक्त में बड़ी मात्रा में माइक्रोप्लास्टिक्स मौजूद रहे हैं। और पिछले अध्ययनों ने बताया है कि माइक्रोप्लास्टिक्स मानव के "भ्रूण" तथा विभिन्न अंगों में भी मौजूद हैं। मामले को बदतर बनाने के लिए, नवजात शिशुओं में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा वयस्कों की तुलना में 10-20 गुना अधिक है, जिसका अर्थ है कि प्लास्टिक्स प्रदूषण का नुकसान बहुत गंभीर बना है।




शोध के आंकड़ों से पता चलता है कि एक आदमी हर दिन 7,000 माइक्रोप्लास्टिक का ग्रहण कर सकता है। माइक्रोप्लास्टिक पारंपरिक प्लास्टिक जैसे पॉलीविनाइल क्लोराइड से आता है, जिसका व्यास केवल लगभग 0.1 µm है, जो आंखों के लिए पूरी तरह से अदृश्य है। वे साधारण प्लास्टिक की तरह गैर-अपघट्य हैं, लेकिन वे मानव शरीर और पर्यावरण के लिए अधिक हानिकारक हैं। माइक्रोप्लास्टिक चुपचाप जीवित जीवों में आक्रमण करता है और हमेशा के लिए मौजूद हो सकता है। "माइक्रोप्लास्टिक्स" इस शब्द पर केवल हाल के वर्षों में ध्यान आकर्षित किया गया है, लेकिन माइक्रोप्लास्टिक्स के खतरों को 50 से अधिक वर्षों पहले देखा गया। 1971 में, समुद्री जीवविज्ञानियों ने समुद्र में तैरते हुए बड़ी मात्रा में माइक्रोप्लास्टिक की खोज की। 2004 में, ब्रिटिश समुद्री जीवविज्ञानी रिचर्ड थॉम्पसन ने औपचारिक रूप से "माइक्रोप्लास्टिक्स" की अवधारणा का प्रस्ताव रखा। शोध के परिणाम बताते हैं कि माइक्रोप्लास्टिक्स ने महासागरों, जंगलों, वायु, जानवरों और पौधों, मानव भोजन और यहां तक कि मानव शरीर पर कब्जा कर लिया है। माइक्रोप्लास्टिक्स हर जगह मौजदू रहते हैं।




मनुष्य हर साल सैकड़ों-हजारों टन प्लास्टिक कचरा समुद्र में फेंकते हैं, जो अंततः माइक्रोप्लास्टिक या नैनोप्लास्टिक बन जाएगा, और ये छोटे प्लास्टिक समुद्री जीवों के शरीर में प्रवेश करेंगे और अंततः मानव शरीर में भोजन के रूप में प्रवेश करेंगे। हमारे आस-पास सब कुछ प्लास्टिक से संबंधित है, जैसे टूथपेस्ट, टूथब्रश, प्लास्टिक की बोतलें और बाल्टी, कटलरी बॉक्स आदि। जहां भी प्लास्टिक होते हैं, वहां के हवा में माइक्रोप्लास्टिक कण होते हैं। अध्ययनों से पता चला है कि मानव शरीर को माइक्रोप्लास्टिक का नुकसान अन्य जानवरों और पौधों की तुलना में कहीं अधिक है। मानव शरीर में, माइक्रोप्लास्टिक कण आंतों और अन्य स्थानों में जमा होते हैं। हालांकि कुछ माइक्रोप्लास्टिक कण उत्सर्जित हो सकते हैं, उनमें से अधिकांश शरीर में रहते हैं। इससे रक्तस्राव, मधुमेह, अवरुद्ध रक्त वाहिका और यहां तक कि कैंसर और प्रजनन संबंधी विकार जैसी बीमारियां भी हो सकती हैं।

यदि गर्भवती महिला के शरीर में माइक्रोप्लास्टिक कण होते हैं, तो भ्रूण में भी यह होगा, और मां की तुलना में 10-20 गुना अधिक हो सकेगा। सभी प्रकार के बच्चे के कपड़े, दूध पिलाने की बोतलें, टेबलवेयर, खिलौने, खाद्य पैकेजिंग आदि, लगभग सभी प्रकार के शिशु उत्पाद प्लास्टिक्स उत्पाद से संबंधित हैं, और माइक्रोप्लास्टिक आसानी से बच्चे के शरीर में प्रवेश कर सकते हैं। खतरा यह है कि माइक्रोप्लास्टिक में निहित कुछ रसायन पदार्थ बच्चे के तंत्रिका तंत्र को नुकसान तथा बौद्धिक हानि जैसे नुकसान पहुंचा सकते हैं। लेकिन प्लास्टिक मानव शरीर के लिए इतना हानिकारक है, क्या हम प्लास्टिक का उपयोग कम कर सकते हैं? प्लास्टिक के बिना हमारा जीवन कैसा होगा? उधर टीवी, रेफ्रिजरेटर, वाशिंग मशीन, एयर कंडीशनर आदि जैसे सभी घरेलू उपकरणों में प्लास्टिक होता है। यहां तक कि पानी पाइप और बिजली के उपकरण भी प्लास्टिक का उपयोग करते हैं। कारों और अन्य वाहनों में प्लास्टिक होता है। प्लास्टिक के बिना, हम अब जीवित नहीं रह सकते।




लेकिन जब हमने प्लास्टिक से मानव और पर्यावरण को होने वाले नुकसान को पहचान लिया है, तो हमें प्लास्टिक कचरे के उत्पादन को कम करना चाहिए और प्लास्टिक के पुनर्चक्रण और पुन: उपयोग को बढ़ाने के लिए प्रौद्योगिकी पर भरोसा करना चाहिए। उदाहरण के लिए, एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक उत्पादों के उपयोग को कम करने से लाखों टन प्लास्टिक कम हो सकता है। खरीदारी करते समय अधिक कपड़े के थैलों का उपयोग करें, प्लास्टिक के तिनके के बजाय कागज के तिनके का उपयोग करें। वर्तमान में, दुनिया में प्लास्टिक की रीसाइक्लिंग दर केवल 9% है। इस संबंध में सुधार की बहुत गुंजाइश है। साथ ही, प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या को हल करने के लिए तकनीकी प्रगति पर भरोसा करना आवश्यक है। आर्थिक विकास जरूरी है, लेकिन पर्यावरण प्रदूषण के प्रति हमें हाथ धो नहीं बैठना चाहिये अन्यथा, प्लास्टिक प्रदूषण अंततः हमें खुद को दंडित करेगा।

कम पढ़ने लगे हैं अब लोग किताबें



पहले जब हम छोटे थे तब की यदि बात करें तो अतीत में पढ़ना अपेक्षाकृत फैशनेबल चीज हुआ करती थी। तब का फ़ैशन पढ़ाई हुआ करता था, परन्तु आज, वो आप सब देख ही रहे हैं। लोग गर्व महसूस करते थे कि उन्होंने किस किस प्रसिद्ध किताबें पढ़ीं। लेकिन आज विभिन्न शहरों में लोगों को गंभीरता से पढ़ते हुए देखना मुश्किल है, और पुस्तकालयों में भीड़ बहुत कम हो गई है। इसके बजाय, आप देख सकते हैं कि लोग हर जगह हाथ में फ़ोन लिए हुए पढ़ते हैं। यहाँ तक कि बस या मिट्रो में भी, हर कोई अपने फ़ोन को नीचे की ओर देख रहा है। तो लोग अब कागज़ की किताबें पढ़ना क्यों पसंद नहीं करते?




जब मैं एक छात्र था, तब हमें अपनी पढ़ी गई किताबों के बारे में बात किए बिना शर्म आती थी। लोग अपने नवीनतम पढ़ने की सिफारिश करने के लिए उत्सुक थे। संस्कृति  समय के विकास को प्रतिबिंबित करती है। अतीत में, जीवन की गति धीमी थी, और यहां तक कि यातायात और मेल भी धीमा था। उस समय, लोगों के लिए अवकाश समय में किताबें पढ़ना एक महत्वपूर्ण विषय रहा। लेकिन आज सबकुछ बदल हो गया है। सिर्फ स्मार्टफोन की वजह से नहीं, बल्कि खुद पढ़ने की जरूरत काफी कम हो गई है। इसके अलावा, मोबाइल फोन नेटवर्क के माध्यम से लोग पहले से ही कहीं भी नवीनतम घटनाओं को आसानी से जान सकते हैं। मोबाइल फोन के माध्यम से विभिन्न जानकारी प्राप्त की जा सकती है। मोबाइल फोन का उपयोग न केवल संचार के लिए, बल्कि कार्यालय के काम करने और समय बिताने के लिए किया जाता है।



इंटरनेट के युग के आगमन के साथ, अधिकांश पारंपरिक मीडिया पर भारी प्रभाव पड़ा है। अतीत में, लोग कई समाचार पत्रों की सदस्यता लेते थे, लेकिन अब जब इंटरनेट पर एक ही बात पढ़ी जा सकती है, तो कागज़ की किताबें खरीदने की कोई आवश्यकता क्यों है? समय पूरी तरह बदल गया है। साहित्यिक रचना को भी समय के साथ बदलना चाहिए और प्रिंट मीडिया को ऑनलाइन के रूप में विकसित होना चाहिए। तो ऐसा नहीं है कि लोग अब कम पढ़ते हैं, यह है कि वे पहले की तुलना में अधिक चीजें ऑनलाइन में पढ़ रहे हैं। कोई भी युग क्यों न हो, जानकारी हमेशा लोगों को आकर्षित करती है। स्मार्टफोन के युग में, लोगों के पास "ई-बुक्स" हैं, और कोई भी बिना ज्यादा पैसे खर्च किए सैकड़ों पेज वाली किताब पढ़ सकता है। कागज़ की किताबें और पत्रिकाएँ कोने में छोड़ दी गई हैं। पढ़ने के नए रूप ने बड़ी संख्या में ई-पुस्तकों और ऑडियो पुस्तकों का उत्पादन किया है, जो नए युग में पाठकों की जरूरतों को पूरा करती हैं और तेजी से बाजार पर कब्जा कर लेती हैं।



पढ़ना न केवल जानकारी प्राप्त करने के लिए है, बल्कि लोगों के आध्यात्मिक जरूरतों में सुधार करने के लिए है। अतीत में, कुछ प्रसिद्ध समाचार पत्रों और पत्रिकाओं ने हमेशा पाठकों को उच्च गुणवत्ता वाले कार्यों के साथ प्रदान किया था। पाठक पत्रिका में अपनी पसंदीदा सामग्री की एक किस्म देखते थे। अतीत में हमारे देश की कुछ सबसे लोकप्रिय पत्रिकाओं की सदस्यता लाखों में पहुंच गई थी। हालाँकि, अब यह अलग है। समय बदल गया है। कोई एक मीडिया सभी पाठकों तक नहीं पहुंच सकता और यहां तक कि इंटरनेट पर भी प्रभुत्व की स्थिति को कोई नहीं जीत सकता। इंटरनेट ने पाठकों की पसंद को बहुत बढ़ा दिया है, और लोग इंटरनेट पर किसी भी सामग्री को आसानी से ब्राउज़ कर सकते हैं जिसे वे देखना चाहते हैं। 

आज का दौर तो ऐसा हो चला है, यदि हमारा कोई मित्र हमें WhatsApp पर कुछ जानकारी भेजता है तो हम उसको ही सच मानने लगे हैं। अपना दिमाग अब कोई लगाना ही चाहता है। इसीलिए तो कहते हैं पढ़ेगा इण्डिया तभी तो बढ़ेगा इण्डिया।

दोधारी तलवार है राष्ट्रवाद



आपने पढ़ा होगा, इतिहास में भारतीय उपमहाद्वीप हमेशा विदेशी आक्रमणकारियों का निशाना रहा और यहां तक कि ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में राजा सिकंदर ने भी भारत पर कब्ज़ा करने का युद्ध किया था। इसके अलावा, मुस्लिम राजवंशों और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने जो भारत का शासन किया और वे सब अंततः भारतीय इतिहास का हिस्सा बन गये। भारत भिन्न भिन्न धर्मों, राष्ट्रों और संस्कृतियों का एक पिघलने वाला बर्तन बन गया जिसके परिणामस्वरूप, भारत के अद्वितीय राष्ट्र और राष्ट्रवाद का निर्माण हुआ है। हिन्दुस्तानी जनता ने आजादी के लिए राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद कर लिया और आज भी वे इसी बैनर तले राष्ट्रीय पुनरुत्थान कर रही हैं।
  


हालाँकि, राष्ट्रवाद एक दोधारी तलवार है। एक ओर, राष्ट्रवाद सभ्यता की प्रगति को बढ़ावा देता है और राष्ट्रीय आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास को उत्तेजित करता है। दूसरी ओर, राष्ट्रवाद अक्सर देश को विभाजन की ओर ले जाता है और आतंकवाद और नस्लीय भेदभाव को जन्म देता है। आज भी भारत में हम अक्सर कुछ राजनेताओं को हिंदू और इस्लामी राष्ट्रवाद को उकसाते हुए और पड़ोसी देशों के खिलाफ संघर्ष पैदा करने के लिए राष्ट्रवाद का उपयोग करते हुए देखते हैं। उन्नीसवीं सदी के मध्य में, भारत में एक के बाद एक राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन उभरे। 1885 में मुंबई में राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की स्थापना हुई, 1906 में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना ढाका में हुई, 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नागपुर में स्थापित हुआ। अंततः भारत ने 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त की। देश के विभाजन से बचने के लिए, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी ने "राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्रवाद और समाजवाद" का नारा पेश किया। 
 
लेकिन भारत के कुछ सीमावर्ती क्षेत्र इतिहास में कभी भी भारतीय संस्कृति के अधीन नहीं हुए थे। इन क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्वाधीनता का आंदोलन हमेशा केंद्र सरकार के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द रहा है। भारत और उसके पड़ोसियों के बीच सीमा संघर्ष भी वास्तव में राष्ट्रवादी लहर का उपोत्पाद है। इसके अलावा राष्ट्रवाद के शुरू से ही धर्म के साथ घनिष्ठ संबंध मौजूद रहे। भारत की स्वतंत्रता की प्रक्रिया में, राष्ट्रवाद और धर्म का गहरा संबंध था। मुस्लिम लीग और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनके प्रतिनिधि थे। विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच जो संघर्ष हुए वे हमेशा सामाजिक एकता के रास्ते पर बाधाएं रहती हैं। उधर धार्मिक उग्रवादियों ने धार्मिक राष्ट्रवाद के साथ पूरे लोगों की सोच और कार्यों को एकजुट करने के प्रयास में "एक देश, एक राष्ट्र और एक संस्कृति" के राष्ट्रवाद को बढ़ावा देते हैं। हालांकि, इसका परिणाम विभिन्न संप्रदायों के बीच एक क्रोधित आग को प्रज्वलित करना है। धार्मिक संघर्षों का परीणाम है कि अनिवार्य रूप से बड़े पैमाने पर धार्मिक संघर्षों को जन्म दिया गया है। उदाहरण के लिए, 1992 में बाबरी मस्जिद का धार्मिक संघर्ष एक भयानक त्रासदी बना। 

वास्तव में, चाहे राजनीतिज्ञ हों या शिक्षित वाले लोग, वे अच्छी तरह जानते हैं कि राष्ट्रवाद एक दोधारी तलवार है। लोगों की एकता को बढ़ावा देने के साथ-साथ वह निश्चित रूप से जातीय अंतर्विरोधों और संघर्षों का कारण बनेगा और विदेशों के साथ युद्ध पैदा करेगा। इसलिए, विश्व के अधिकांश देशों ने राष्ट्रवाद के प्रति सख्त कानूनी परिसीमन रख दिया है। शक्तिशाली देश बनाने के लिए प्रयास सही है, लेकिन गरीबी और सामाजिक अन्याय को खत्म करने के बजाय, राष्ट्रवाद के सहारे विरोधाभ्यास और टकराव पैदा करने का यही नतीजा होगा कि खुद को भी चोट पहुँचाया जाएगा।