Saturday, 27 June 2020

गाँवों को फिर से जवान बनाने के लिए पंचायतों की ज़मीन पर उद्योग लगाए सरकार, तभी गाँव की जवानी लिखेगी देश के आर्थिक विकास की कहानी!

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बहुत दिनों से आप लोगों को फिर एक और नई बात कहने का मन है, लेकिन फिर छोटा मुंह बड़ी बात जैसा अहसास होता है। ठिठक जाता हूँ। खुद को रोक लेता हूँ। परन्तु कब तक..

पर इस दुष्कर कोरोना काल में किसी हिचक का कोई मतलब नहीं है। रोज़ नये-नये अनुभव हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि हज़ार किताबों से जो न सीखा, वह इन कुछ महीनों ने सिखा दिया। एक वायरस ने जैसे सरे बाज़ार नंगा कर दिया है। नहीं, शरम-वरम की बात नहीं है, बात एक हक़ीक़त को पहचानने की है।

और वो हक़ीक़त है कि नयी दुनिया बनाने की इच्छा को अमूर्त रखना अब अपराध है। इसका तो स्पष्ट घोषणापत्र होना चाहिए।

नहीं समझे। चलिये कोशिश करता हूँ।

प्रधानमंत्री ग्रामीण सडक़ योजना की तर्ज पर ग्रामीण क्षेत्रों, क़स्बों, पंचायतों की ख़ाली पड़ी ज़मीनों में प्रधानमंत्री ग्रामीण उद्योग योजना चला कर सरकारों द्वारा समय व क्षेत्र में कच्चे सामान की उपलब्धता के आधार पर छोटे-बड़े उद्योगों निर्माण करवाना चाहिए। तभी व्यक्ति अपने परिवार साथ घर पर रहकर जीवन यापन कर सकता है। जैसे हमारे देश के गावों को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए दिसम्बर 2000 में प्रधानमंत्री ग्रामीण सडक़ योजना की शुरुवात हुई और 2003 होते होते कई ऐसे गांवों तक पक्की सडक़े पहुँच गई जहाँ अभी कोई मकान भी पक्का नहीं था। इस योजना ने ग्रामीण विकास को नया आयाम दिया। बसें चली, समान्य वर्ग भी अपने साधन से शहरों कस्बों के नजदीक हो गया। लेकिन इसने एक बहुत बड़ी विपदा को जन्म दिया। 2009 आते आते जो सडक़ें गांवों तक विकास को लेकर गई वही सडक़ें ग्रामीण युवाओं को शहर ले आने लगी। 100-150 किलोमीटर दूरी की नौकरी आम होने लगी।
हालात बदलने लगे, अप्रैल 2009 में उत्तराखंड के कुछ गांवों की डिटेल रिपोर्ट सामने आई। उस रिपोर्ट को ‘बूढों के गाँव’ के नाम से प्रचारित किया गया। उसमें 18 गाँवों के 950 घरों में केवल आधा दर्जन (6) युवा ही गांवों में बसे हुए थे बाकि 1500 से 1700 युवा अपने गांवों को छोड़ कर शहरों में नौकरी के बहाने जा चुके थे। गांवों की चौपाल, चोराहों पर केवल बूढ़े बुज़ुर्ग नजर आते थे। जिस सडक़ योजना ने गाँव को चमचमाती सडक़ें दी उसी ने पलायन का रास्ता भी दिया। ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री सडक़ योजना से पहले पलायन नहीं होता था, लेकिन नौकरी के लिए नहीं होता था। न ही ऐसा था कि पूरे पूरे गाँव ‘बूढों के गाँव’ बन गये हो। बहरहाल, गाँव सडक़ पाकर भी खुशहाल न हो सका और खाली होने लगा, गाँव की जवानी शहरों की नौकर हो गई। 


अब सरकार ऐसी कोई योजना चलाकर इस बयार को रोकने  प्रयास करे और रोजगार को ग्रामीण विकास का आधार बनाया जाए। इसके लिए पहला कदम सरकार अपनी ओर से पंचायती जमीन को उद्योगों आदि के लिए प्रयोग करे। इसे बड़े परिदृश्य में उठाया गया शुरुवाती कदम माना जाना चाहिए। 
इस बात को स्वीकार करते हुए कि पंचायती भूमि पर ग्रामीण रोजगार बढ़ाने से पलायन पूरी तरह नहीं रुकेगा लेकिन फिर भी गांवों से शहरों की ओर पलायन में काफी हद तक कमी जरुर आ सकती है। स्थानीय रोजगार मिलने और लिविंग कास्ट के कम होने के कारण गाँव में रहने की सुविधाएँ भी जुटने लगेंगी। गांवों के प्रति उदासीनता कम होगी।

अभी कहीं विरोध की टिप्पणियां भी अपना फन उठाने लगेंगी कि गांवों की बिजली उद्योगों को दे दी जाएगी, कब्जा हो जायेगा, बड़े व्यापारी कर्ज लेकर फरार हो जायेंगे आदि आदि। मैं केवल इन्हें शंका के रूप में देखता हूँ। जब जमीन गाँव की इस्तेमाल होगी तो इसमें उद्योगपति भी ज्यादातर स्थानीय युवा ही होंगे। कम पूंजी से लगने वाले उद्योगों में युवाओं को शत प्रतिशत तक का कर्ज सरकार देती ही है और ये भी देखिए कि सरकार इन उद्योगों के लिए जरुरी सरकारी और समाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर भी विकसित करेगी, जो अंतत: गाँव वालों के लिए ही मददगार होगा। गाँव के युवा गाँव में लगे उद्योगों में न केवल रोजगार पाएंगे बल्कि अपने परिवार के साथ ही रह सकेंगे।यह एक शुरुवाती कदम है और विकास के क्रम में पीछे छूट चुके गांवों को साथ लेकर चलने का क्रन्तिकारी प्रयास भी है। पढ़े लिखे और उर्जावान युवाओं को इसे दोनों बाहें फैला कर अपनाना चाहिए। केवल नौकरी के मक़सद भर से नहीं बल्कि आत्मनिर्भर बन देश में पलायन की गंभीर समस्या को भी हल करने के मक़सद से अपनाना चाहिए। कोरोना ने यह सब सम्भव कर दिखाया है। 

नोट- जिन्हें वाक़ई यह पागलपन लगता है, वे यहाँ बहस करके वक्त ज़ाया न करें। जो सहमत हैं, उनका स्वागत है। आगे का रास्ता सुझायें। घर में चुप बैठकर सत्य का जाप करने से कुछ नहीं होगा। सत्य को शक्तिमान बनाने के लिए दैनिक प्रभात फेरियों की ज़रूरत है।

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