Saturday, 27 June 2020

गाँवों को फिर से जवान बनाने के लिए पंचायतों की ज़मीन पर उद्योग लगाए सरकार, तभी गाँव की जवानी लिखेगी देश के आर्थिक विकास की कहानी!

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बहुत दिनों से आप लोगों को फिर एक और नई बात कहने का मन है, लेकिन फिर छोटा मुंह बड़ी बात जैसा अहसास होता है। ठिठक जाता हूँ। खुद को रोक लेता हूँ। परन्तु कब तक..

पर इस दुष्कर कोरोना काल में किसी हिचक का कोई मतलब नहीं है। रोज़ नये-नये अनुभव हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि हज़ार किताबों से जो न सीखा, वह इन कुछ महीनों ने सिखा दिया। एक वायरस ने जैसे सरे बाज़ार नंगा कर दिया है। नहीं, शरम-वरम की बात नहीं है, बात एक हक़ीक़त को पहचानने की है।

और वो हक़ीक़त है कि नयी दुनिया बनाने की इच्छा को अमूर्त रखना अब अपराध है। इसका तो स्पष्ट घोषणापत्र होना चाहिए।

नहीं समझे। चलिये कोशिश करता हूँ।

प्रधानमंत्री ग्रामीण सडक़ योजना की तर्ज पर ग्रामीण क्षेत्रों, क़स्बों, पंचायतों की ख़ाली पड़ी ज़मीनों में प्रधानमंत्री ग्रामीण उद्योग योजना चला कर सरकारों द्वारा समय व क्षेत्र में कच्चे सामान की उपलब्धता के आधार पर छोटे-बड़े उद्योगों निर्माण करवाना चाहिए। तभी व्यक्ति अपने परिवार साथ घर पर रहकर जीवन यापन कर सकता है। जैसे हमारे देश के गावों को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए दिसम्बर 2000 में प्रधानमंत्री ग्रामीण सडक़ योजना की शुरुवात हुई और 2003 होते होते कई ऐसे गांवों तक पक्की सडक़े पहुँच गई जहाँ अभी कोई मकान भी पक्का नहीं था। इस योजना ने ग्रामीण विकास को नया आयाम दिया। बसें चली, समान्य वर्ग भी अपने साधन से शहरों कस्बों के नजदीक हो गया। लेकिन इसने एक बहुत बड़ी विपदा को जन्म दिया। 2009 आते आते जो सडक़ें गांवों तक विकास को लेकर गई वही सडक़ें ग्रामीण युवाओं को शहर ले आने लगी। 100-150 किलोमीटर दूरी की नौकरी आम होने लगी।
हालात बदलने लगे, अप्रैल 2009 में उत्तराखंड के कुछ गांवों की डिटेल रिपोर्ट सामने आई। उस रिपोर्ट को ‘बूढों के गाँव’ के नाम से प्रचारित किया गया। उसमें 18 गाँवों के 950 घरों में केवल आधा दर्जन (6) युवा ही गांवों में बसे हुए थे बाकि 1500 से 1700 युवा अपने गांवों को छोड़ कर शहरों में नौकरी के बहाने जा चुके थे। गांवों की चौपाल, चोराहों पर केवल बूढ़े बुज़ुर्ग नजर आते थे। जिस सडक़ योजना ने गाँव को चमचमाती सडक़ें दी उसी ने पलायन का रास्ता भी दिया। ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री सडक़ योजना से पहले पलायन नहीं होता था, लेकिन नौकरी के लिए नहीं होता था। न ही ऐसा था कि पूरे पूरे गाँव ‘बूढों के गाँव’ बन गये हो। बहरहाल, गाँव सडक़ पाकर भी खुशहाल न हो सका और खाली होने लगा, गाँव की जवानी शहरों की नौकर हो गई। 


अब सरकार ऐसी कोई योजना चलाकर इस बयार को रोकने  प्रयास करे और रोजगार को ग्रामीण विकास का आधार बनाया जाए। इसके लिए पहला कदम सरकार अपनी ओर से पंचायती जमीन को उद्योगों आदि के लिए प्रयोग करे। इसे बड़े परिदृश्य में उठाया गया शुरुवाती कदम माना जाना चाहिए। 
इस बात को स्वीकार करते हुए कि पंचायती भूमि पर ग्रामीण रोजगार बढ़ाने से पलायन पूरी तरह नहीं रुकेगा लेकिन फिर भी गांवों से शहरों की ओर पलायन में काफी हद तक कमी जरुर आ सकती है। स्थानीय रोजगार मिलने और लिविंग कास्ट के कम होने के कारण गाँव में रहने की सुविधाएँ भी जुटने लगेंगी। गांवों के प्रति उदासीनता कम होगी।

अभी कहीं विरोध की टिप्पणियां भी अपना फन उठाने लगेंगी कि गांवों की बिजली उद्योगों को दे दी जाएगी, कब्जा हो जायेगा, बड़े व्यापारी कर्ज लेकर फरार हो जायेंगे आदि आदि। मैं केवल इन्हें शंका के रूप में देखता हूँ। जब जमीन गाँव की इस्तेमाल होगी तो इसमें उद्योगपति भी ज्यादातर स्थानीय युवा ही होंगे। कम पूंजी से लगने वाले उद्योगों में युवाओं को शत प्रतिशत तक का कर्ज सरकार देती ही है और ये भी देखिए कि सरकार इन उद्योगों के लिए जरुरी सरकारी और समाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर भी विकसित करेगी, जो अंतत: गाँव वालों के लिए ही मददगार होगा। गाँव के युवा गाँव में लगे उद्योगों में न केवल रोजगार पाएंगे बल्कि अपने परिवार के साथ ही रह सकेंगे।यह एक शुरुवाती कदम है और विकास के क्रम में पीछे छूट चुके गांवों को साथ लेकर चलने का क्रन्तिकारी प्रयास भी है। पढ़े लिखे और उर्जावान युवाओं को इसे दोनों बाहें फैला कर अपनाना चाहिए। केवल नौकरी के मक़सद भर से नहीं बल्कि आत्मनिर्भर बन देश में पलायन की गंभीर समस्या को भी हल करने के मक़सद से अपनाना चाहिए। कोरोना ने यह सब सम्भव कर दिखाया है। 

नोट- जिन्हें वाक़ई यह पागलपन लगता है, वे यहाँ बहस करके वक्त ज़ाया न करें। जो सहमत हैं, उनका स्वागत है। आगे का रास्ता सुझायें। घर में चुप बैठकर सत्य का जाप करने से कुछ नहीं होगा। सत्य को शक्तिमान बनाने के लिए दैनिक प्रभात फेरियों की ज़रूरत है।

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Tuesday, 23 June 2020

मनुष्य की जीवटता की सबसे मजबूत डोर होती है आशा तो फिर डिप्रेसन में आत्महत्या क्योँ ?
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आज के समाज को सबसे पहले एक बात समझनी आवश्यक है कि मानव जीवन हमेशा से अवसादों,  कठिनाइयों भरा रहा है। यूँ तो अवसाद या डिप्रेशन कई तरह का होता है जो हर इंसान के जीवन में किसी ना किसी मोड़ पे होता ही होता है। हम किसी रिश्ते में , पढ़ाई में, नौकरी -व्यापार, प्रमोशन में जब असफल होते हैँ तो हमें उस नुकसान का बुरा लगता है, तनाव होता है, ये स्वभाविक है। लेकिन इतने भर से कोई आत्म हत्या नही करता। आत्महत्या का कारण कभी नुकसान मात्र नही होता, क्योंकि नुकसान की भरपाई हो सकती है फिर वो मानसिक हो या आर्थिक। एग्जाम अगले साल फिर होगा, प्रेम फिर घटित होगा, प्रमोशन अगले साल मार्च में फिर हो सकता है, आज घाटा तो कल मुनाफा हो सकता है। ये जीवन का हिस्सा हैँ इसके लिए कोई जीवन ख़त्म नही करता।


आत्महत्या का मूल कारण होता है "उम्मीद का ख़त्म हो जाना"। जब व्यक्ति को लगता है कि जो चीज चली गयी वो लौट कर नही आएगी। उसे यदि दुबारा मिलने की सम्भावना हो तो आदमी कभी आत्महत्या नही करता। सारे धर्म की किताबों का मूल यही होता है कि जो हो रहा है वो ईश्वर,  अल्लाह, गॉड कि मर्जी है ताकि मनुष्य सोच ले इसमें उसकी कोई गलती नही है। वो शोक मानाने की बजाय आगे बढ़ जाये। शुरुआत में हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद तेरहवीं (भोज) का प्रावधान इसी लिए था कि लोग शोक छोड़ कर तैयारियों में जुट जाएँ..
मनुष्य की जीवटता की सबसे मजबूत डोर होती है आशा और वो आती है छोटे-छोटे जीतने के अहसासों से। हर व्यक्ति अपनी जिंदगी के बुरे, असफल और कड़वे अनुभव याद रखता है लेकिन अच्छे अनुभव भूल जाता है। 


मेरी 2 सलाह है कि अव्वल तो आप अपनी जिंदगी की हर वो छोटी से छोटी जीत, अच्छा अहसास याद रखें जिससे आपको सुकून मिला है..  जैसे कब आप सबसे खूबसूरत दिखे, कक्षा में कब डिबेट जीती, गली क्रिकेट में हाफ सेंचुरी मारी, दोस्तों की महफिल में कैसे आपके गाने ने समां बाँध दिया..  आपकी प्रेमिका /प्रेमी से आपकी किसी अन्य ने तारीफ की,  आपके परिवार को कब आपपे फ़ख्र महसूस हुआ वगैरह...  ये छोटी बातें हैँ लेकिन यकीन मानो इंसान आत्मविश्वास एक दिन में नही बनता..  इन्हीं चीजों से धीरे-धीरे आत्मविश्वास बनता है। 

दूसरा, बुरे वक्त को हर कोई याद रखता है लेकिम आप हमेशा बहुत बुरे वक्त के तुरँत बाद का समय याद रखें... 
याद कीजिये जब आपको किसी बात के घर पे पता चलने का बहुत डर था लेकिन एक बार पता चल गयी तो घर वालों ने सम्भाल किया और आपकी छाती से एक बोझ कम हुआ। फेल होने के बाद आप जब दुबारा में  सफल हुए। इस से आपको ताकत मिलेगी। आपका दिमाग अवश्य कहेगा कि जब वो बुरा वक्त नही रहा तो ये भी नही रहेगा। इस से कभी आप हिम्मत नही हारोगे, आशा ख़त्म नही होंगी। कभी-कभी सारे लॉजिक कहेँगे कि अब कोई रास्ता नही बचा, तब पुराना बुरा वक्त याद करो तो लगता है कोई न कोई तो रास्ता निकलेगा ही। क्योंकि पहले भी ऐसा हुआ था, तब भी तो निकला था..  

ये मेरा तरीका है..  मुझे पता नही आपको अच्छा लगेगा या बकवास लेकिन अभी तक हमेशा सफल रहा है। आजमा कर देखिये और बुरे वक्त में कभी नींद ना आये तो जिंदगी का सबसे खूबसूरत गुजरा वक्त याद करना.. (ex नही ).. नींद आ जाएगी। 

Monday, 22 June 2020

घर में रहना कितना मुश्किल है? या घर में कैसे रहें?

आज का दौर वाक़ई बहुत कठिन है। कैसे संभला जायेगा इस दौर से ईश्वर ही जाने। घर कहने से हमारे दिमाग के भीतर जो तस्वीर बनती है, उसे नॉस्टेल्जिया में लपेटकर बहुत सारा झूठ कहने-सुनने की हम लोगों को पुरानी आदत है। घर पाखंड के सर्वकालिक लोकप्रिय रूपकों में से एक है। 

अब घरों में ज़्यादातर लोग एक दूसरे से बनावटी व्यवहार करते हैं और इसे जानते हुए बेचैन रहते हैं। वहाँ भी सत्ता का विपक्ष सतत तनाव रहता है जो इन दिनों और सघन हो गया होगा। अब परिवार एक स्वार्थी संस्था का नाम है जो अपने दायरे से बाहर के लोगों के बारे में सोचने और कुछ करने से रोकता है। लोग स्वेच्छा से घर में रहते तो और बात होती, लेकिन यहाँ तो मृत्यु के डर से उन्हें बिठाया गया है। जिनके घर नहीं हैं और बाहर भटक रहे हैं, ज़रूर उनके संबंधों में मेरी ज़्यादा दिलचस्पी है। मैं कभी घर में टिका नहीं, क्या बताऊँ कि कैसे रहें! बहुत कठिन सवाल है। आप भी अपने अनुभव सांझा करें-

नॉस्टेल्जिया— घटनाओं की यादें।
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केवल बांधे रखने के लिए ही बच्चों को होमवर्क दे रहे हैं क्या?
— बच्चों के बालमन को, परम्परागत लोक ज्ञान-विज्ञान की अथाह थाती को समझने-बूझने का अवसर आखिर कौन देगा ? होमवर्क के बोझ तले गुम होती बच्चों की रचनात्मकता की जिम्मेदारी आख़िर किसकी?

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दोस्तों बहुत दिनों से एक बात कहने का मन है, लेकिन छोटा मुंह बड़ी बात जैसा अहसास होता है तो मैं ठिठक जाता हूँ।

पर इस दुष्कर कोरोना काल में किसी हिचक का कोई मतलब नहीं है। रोज़ नये-नये अनुभव हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि हज़ार किताबों से जो न सीखा, वह इन कुछ महीनों ने सिखा दिया। एक वायरस ने जैसे सरे बाज़ार नंगा कर दिया है। नहीं, शरम-वरम की बात नहीं है, बात एक हक़ीक़त को पहचानने की है।

और वो हक़ीक़त है कि आज पूरे विश्व में फैली वैश्विक महामारी कोरोना काल में बच्चों को होमवर्क देना विद्यालयों की दैनिक शिक्षा प्रक्रिया का एक जरूरी अंग बन गया है। शायद ही कोई ऐसा स्कूल हो जो बच्चों को विषयगत होमवर्क न देता हो। देखने में आता है कि होमवर्क बच्चों को बांधे रखने का जरिया बन चुका है। होमवर्क में विद्यालय में पढ़ाये गये विषय के प्रकरण और पाठों पर आधारित वही प्रश्न घर पर पुनः लिखने को दिये जाते हैं जो बच्चों में ‘रटना’ की गलत प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं।
जबकि एनसीएफ-2005 की स्पष्ट अनुशंषा है कि बच्चों को कल्पना एवं मौलिक चिंतन मनन करने के अवसर दिये जायें न कि रटने या नकल करने को बाध्य किया जाये। पर होमवर्क का बच्चों में ज्ञान निर्माण करने की बजाय सूचनाओं को रटवाने और नकल करने पर जोर है। क्योंकि आज की शिक्षा बच्चों को एक उत्पाद के रूप में तैयार कर रही है और इस प्रक्रिया में अभिभावक की भी स्वीकृति और भागीदारी है। तो यहां एक प्रश्न मैं आपसभी से पूछना चाहता हूँ कि बच्चों कों होमवर्क क्यों दिया जाये क्या यह जरूरी है और बच्चों के लिए इसके क्या फायदे हैं।

होमवर्क में फंसे बच्चे के पास न तो प्रश्न हैं न ही जिज्ञासा। अगर कुछ है तो होमवर्क पूरा करनें का दबाव और इस दबाव ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है। उसके पास-पड़ोस और परिवेश में घट रही घटनाओं प्राकृतिक बदलावों सामाजिक तानाबाना तीज-त्योहारों को समझने-सहेजने अवलोकन करने और कुछ नया खोजबीन करने का न तो समय है न ही स्वतंत्रता। होमवर्क बच्चो मे कुछ नया सीखने को प्रेरित नहीं कर रहा बल्कि लीक का फकीर बनने को बाध्य कर रहा है।

🔹जान होल्ट के शब्दों में कहूं तो ‘‘वास्तव में बच्चा एक ऐसी जिंदगी जीने का आदी बन जाता है जिसमें उसे अपने आसपास की किसी चीज को ध्यान से देखने की जरूरत ही नहीं पड़ती। शायद यही एक कारण है कि बहुत से युवा लोग दुनिया के बारे में बचपन में मिली चेतना और उसमें मिली खुशी खो बैठते हैं’
आखिर कैसी पीढ़ी तैयार की जा रही है जिसकी सांसों में अपनी माटी की न तो महक बसी है और न ही आंखों में सौन्दर्यबोध। न लोकजीवन के रसमय रचना संसार की अनुभूति है और न ही लोकसाहित्य के प्रति संवेदना और अनुराग। सहनशीलता, सामूहिकता, सहिष्णुता, न्याय, प्रेम-सद्भाव एवं लोकतांत्रिकता के भावों का अंकुरण न होने के कारण उनकी सोच एवं कार्य व्यवहार में एक प्रकार का एकाकीपन दिखायी पड़ता है। उसमें अंदर से रचनात्मक रिक्तता है और रसिकता का अभाव भी।

देखा जाये तो होमवर्क बच्चों की रचनात्मकता को पैदा करने की बजाय उस मार्ग को अवरुद्ध करता है। होमवर्क पूरा करने के दबाव में बच्चे रचनात्मक शैक्षिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों नृत्य, संगीत, कला, पेपर क्राफ्ट, मिट्टी का कार्य, बुनाई, लेखन, वाद-विवाद, भाषण, खेलकूद आदि से दूर हुआ है जहां परस्पर मिलन और संवाद से बच्चे एक-दूसरे को समझते और सीखते हैं। होमवर्क के कारण पठन संस्कृति भी खत्म हो रही है क्योंकि बच्चो के पास इतना समय नहीं बच रहा कि वे पाठ्येतर पुस्तकें या पत्रिकाएं पढ़ सकें। इस कारण पढ़ने से उत्पन्न नया सीख पाने का भाव समाप्त सा हो रहा हैं। बचपन में खेलकूद और अन्य सामूहिक क्रियाकलापों से बच्चे सामाजिकता का शुरुआती पाठ स्वयं ही सीख जाते हैं पर होमवर्क के कारण बच्चे खेलकूद और अन्य गतिविधियों से दूर हुए हैं और यह दूरी लगातार बढ़ती ही जा रही है। इसी कारण बच्चे हिंसक और चिड़चिड़े होते जा रहे हैं। फलतः बच्चे एक व्यक्तिवादी सोच के साथ बढ़ रहे हैं। सामाजिक समरसता के अभाव के कारण बच्चों का दृष्टिकोण और सोच एकांगी है। उसके मन में एक प्रकार की जड़ता ने घर बना लिया है जिससे उसे सामाजिक सरोकारों से कोई मतलब नहीं रह गया है। होमवर्क ने अपनी परम्परागत लोक ज्ञान-विज्ञान की अथाह थाती को समझने-बूझने का अवसर बालमन को नहीं दिया। श्रम के प्रति निष्ठा और गर्व एवं गौरव का भाव कहीं दिखाई नहीं देता।

मेरा मानना है कि बच्चों को वर्तमान समय में विद्यालयों से विषय और पाठाधारित प्रश्न न देकर बच्चों की रुचि अनुसार ऐसे प्रश्न एवं प्रोजेक्ट दिये जायें जिनसे वह अपने सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश को समझ सकें जो उसमें अवलोकन अनुमान तुलना सम्बंध निरूपण एवं खोजबीन करने एवं हालातों से जूझने की सामर्थ्य पैदा कर सके। श्रम के प्रति निष्ठा एवं मानवीय मूल्यों का पोषक हो। तब वे किताबां एवं बड़ों की बनाई राय से इतर अपनी एक राय बना सकेंगे तथा स्वयं को लगातार बेहतर करते रहंगे। यह उसे न केवल एक सुयोग्य संवेदनशील नागरिक के रूप में निर्मित करेगा बल्कि उसमें मानवीय मूल्यों का निर्माण भी करेगा।
अभिभावकों को भी चाहिए कि वे बच्चों को मेलों विवाह उत्सवों कला एवं साहित्य प्रदर्शनियों संगीत समारोहों एवं प्रकृति भ्रमण पर ले जायें तथा सतत् संवाद बनाये रखते हुए बच्चों से उनके अनुभव लिखवायें। होमवर्क के संजाल में उलझे बच्चे एक प्रकार के तनाव में जी रहे हैं। जीवन में सकारात्मकता का संचार हुआ ही नहीं। उनके चेहरे पर मुस्कान नहीं नकारात्मकता कुंठा और क्रोध के भाव पसरे दिखाई देते हैं। क्या यह शिक्षकों और पालकों की असफलता नहीं है कि जिस बचपन को हंसता-खिलखिलाता तेजवान एवं अनंत ऊर्जावान हो उल्लास उमंग से नवीन सर्जना में लगना चाहिए था वह मुरझाया बुझा हुआ दीनहीन एक अज्ञात भय के साये में बड़ा हो रहा है। कौन है इसका जिम्मेदार। स्कूल शिक्षक अभिभावक या हमारी शैक्षिक-सामाजिक व्यवस्था। तो बच्चों को उत्साही बनाये रखने का एक ही तरीका कि उन पर काम के बेहतर परिणाम का दबाव न डाला जाये।

🔹जैसाकि अमेरिकी शिक्षाविद् जान होल्ट अपनी किताब बच्चे असफल कैसे होते है में कहते हैं कि जब बच्चों को ऐसी परिस्थितियां मिलती हैं जहां सही उत्तर पा लेने का दबाव उन पर नहीं होता न ही उन्हे सब कुछ तुरत-फुरत कर डालना होता है तो बच्चों का काम सचमुच अद्भुत होता है। मुझे लगता है होमवर्क की जड़ता से मुक्ति ही सक्षम एवं समर्थ पीढ़ी का निर्माण कर सकेगी।
आज हम देख रहे हैं स्कूल बंद हैं बस होमवर्क मिलता ही जा रहा है। बच्चे दिन भर व्यस्त हैं। जिस घर में शिक्षित लोग मौजूद नही हैं वहाँ क्या हाल होगा आप अंदाज़ा भी नही लगा सकते हैं। यदि आप इस पूरे लेख को अन्त तक पढ़ चुके हैं तो इस पर अपनी राय भी अवश्य ही व्यक्त करें।
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क्या गजब की बला है क्वारंटाइन? कहाँ से हुई थी क्वारंटाइन की शुरुआत?
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महामारियों से गुजरना साक्षात् मौत की सुरंग को पार करने जैसा होता है। हवाओं में तैरते, धूल-मिट्टी में छिपे या पानी में घुले और स्पर्श से जीवनदान पाते सूक्ष्म रोगाणुओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता। इनकी वजह से बड़े पैमाने पर फैलने वाले रोग जब महामारियों का रूप धरते हैं तो गाँव, शहर और कस्बे तो क्या कई बार पूरी सभ्यता की तबाही का कारण बनते हैं।

एथेंस में फैली प्लेग के बारे में आप जानते होंगे कि कैसे एक विशाल साम्राज्य को निगल गई थी यह महामारी। ऐसी तबाहियों ने ही इंसानों को रोगों से बचाव की रणनीतियों के मंत्र सौंपे। और तब हमें मिले लॉकडाउन तथा क्वारंटाइन जैसे उपाय जो आज भी उतने ही कारगर हैं जितने सदियों पहले थे।जब-जब इनका पालन सही समय पर और उचित रीति से हुआ, वहां बीमारियों पर जल्दी काबू पा लिया गया और जहां-जहां चूक हुई या ढिलाई बरती गई, उन जगहों पर बहुत भयंकर परिणाम भुगतने पड़े।

‘सोशल डिस्टेन्सिंग’ और लॉकडाउन—
स्पेनिश फ्लू से भी पहले 1896 में भारत पहुंच चुकी थी बुबोनिक प्लेग। चीन के युन्नान प्रांत से हांगकांग होते कारोबारी जहाज़ों पर लदकर इसने पश्चिम में बंबई के तट पर दस्तक दी थी। शुरू में व्यापारिक हितों को प्रभावित न होने देने के मकसद से अंग्रेज हुकूमत ने बंदरगाहों पर जहाजी बेड़ों की आवाजाही जारी रखी लेकिन जब कुछ ही महीनों में महामारी ने विकराल रूप धारण कर लिया तो हारकर सरकार को महामारी अधिनियम 1897 बनाना पड़ गया। जगह-जगह इसी कानून का शिकंजा तेज़ कर रोग पर नियंत्रण की तैयारी की गई।
इसी कानून की बानगी देखिए तत्कालीन महाराष्ट्र में आयोजित होने वाली एक धार्मिक यात्रा पर प्रतिबंध का आदेश सुनाने वाले इस आदेश में—
आदेश यह समझने के लिए काफी है कि सवा सौ साल पहले भी ‘सोशल डिस्टेन्सिंग’ का पालन करवाने के लिए प्रशासन को ‘लॉकडाउन’ करना पड़ा था–

कहाँ से हुई थी क्वारंटाइन की शुरुआत?—
संक्रमण रोकने के लिए इन्हें फैलाने वाले जीवाणुओं, विषाणुओं या दूसरे रोगाणुओं की जीवन-लीला को विराम देना होता है और यह तभी मुमकिन है जब उन्हें शिकार न मिलें। एक से दूसरे शरीर पर कूदने वाले, दूसरे से तीसरे-चौथे बदन को धराशायी करते हुए एक-एक कर कितने ही कस्बों-शहरों को अपना शिकार बना चुकने के बाद ये अदृश्य ‘दरिंदे’ भौगोलिक सीमाओं को ठेंगा दिखाकर परेदस जा पहुंचते हैं।
पहले जमाने में जब देशों के बीच आदान-प्रदान सिर्फ समुद्री मार्गों तक सीमित था, तो संक्रमणों को फैलने से रोकने के लिए विदेश यात्रा से लौटे जहाज़ को नाविकों में किसी रोग के फैलने या आशंका होने पर बंदरगाह से दूर रोक दिया जाता था और वे चालीस दिनों तक इसी तरह खड़े रहते थे। ऐसे रोगी जहाजियों को लेकर लौटने वाले जहाज़ों पर पीला झंडा लहराने की परंपरा भी थी। चालीस (लैटिन – क्वाद्रागिंता) दिन की इसी अलगाव की अवधि ने ‘क्वारंटाइन’ की प्रथा शुरु की। जहाज़ के कप्तान की यह प्रमुख जिम्मेदारी थी कि वह पोत पर लंगर डालने से पहले अपने साथ लौटने वाले नाविकों की सेहत का खुलासा करे और ऐसा न करना जुर्म माना जाता था।

भौगोलिक सीमाबंदी से स्वस्थ आबादी को बचाना—
इतिहास में ऐसे कई वाकयात मिलते हैं जब महामारियों पर अंकुश लगाने के लिए संक्रमितों को स्वस्थ लोगों से अलग-थलग रखा जाता था। बेशक, मध्यकालीन यूरोप में स्वास्थ्यकर्मियों को बैक्टीरिया या वायरस की जानकारी नहीं थी लेकिन वे इतना समझते थे कि रोगी को शेष स्वस्थ आबादी से अलग रखकर, या कारोबारी के जरिए आने वाली वस्तुओं को नहीं छूने से रोगों से बचा जा सकता है। यही उस दौर में ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ और ‘आइसोलेशन’ की बुनियाद थी। हालांकि जब रोग तेजी से फैलने लगते और लोग अफरातफरी में शहर छोड़कर भागने लगा करते थे तो ऐसे में महामारियों का प्रसार और तेजी से होता था।

शायद मौजूदा सरकारों ने ‘लॉकडाउन’ इसी को देखकर लागू किया है और तभी अपनी-अपनी भौगोलिक सीमाओं को सील कर दिया है। इस संदर्भ में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का ट्वीट काफी कुछ कहता है जो उन्होंने कोविड-19 फैलने के मद्देनज़र 23 मार्च को पोस्ट किया किया – ”दिस इज़ वाय वी नीड बॉर्डर्स।’’
मध्यकाल में, जिस नगर-कस्बे में महामारी फैलती थी वहां से लोगों को बाहर आने-जाने की मनाही होती थी, और दूसरी जगह से भी लोग वहां नहीं आ-जा सकते थे। अगर बीमारियां जानवरों से फैलने वाली होती तो उन्हें बाड़ों में सीमित रखा जाता ताकि उनके जरिए रोग न फैले। इस सामाजिक दूरी, संक्रमण और संक्रमित से बचकर रहने की सलाह सदियों से दी जाती रही है और मामला जब गंभीर हो जाता है तो ‘लॉकडाउन’ करना पड़ता है। जैसे कोविड-19 महामारी के दौरान किया गया है, दुनिया के देशों ने अपनी-अपनी सीमाएं आवागमन के लिए बंद कर दी हैं, ट्रैवल वीज़ा रद्द हो गए हैं, हर तरह की यात्रा के साधन भी रोक दिए गए हैं ताकि कोरोनावायरस के प्रसार को रोका जा सके। बहुत जरूरी है ऐसे कदम उठाना वरना ढीठ रोगाणुओं से मुक्ति मिलने में कई बार सालों लग जाते हैं, जैसे मध्यकाल में यूरोप में फैलने वाली महामारियों में होता आया था। चौदहवीं सदी में जो प्लेग इस महाद्वीप में दाखिल हुई थी उसने एक या दो नहीं बल्कि अगले चार साल तक लोगों को हलकान किए रखा था। इस महामारी ने अफ्रीका और यूरेशिया में लोगों की नींद उड़ाकर रख दी थी और लाखों लोगों को अपना ग्रास बनाने के बाद पिंड छोड़ा था। अब कोविड-19 नामक महामारी भारतीय सरज़मीं इतिहास क्या होगा? ये तो आने वाला समय ही बताएगा।
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ऑनलाइन शिक्षा, कहीं किसी के पढ़ने के सपने को तो नही तोड़ रही है ।
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सही है कि आनलाइन शिक्षा पद्धति को एक विकल्प के रूप में आजमाया जा सकता है। लेकिन क्या इसके पहले यह सुनिश्चित कर लिए जाने की जरूरत नहीं है कि नियमित स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ने वाले सभी विद्यार्थियों की पहुंच तकनीकी आधुनिक संसाधनों तक है या नहीं? इंटरनेट की उपलब्धता और गति, घर का माहौल और बहुत सारे बच्चों और उनके परिवारों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति आज भी ऐसी है कि इसे एकमात्र विकल्प बनाया जाना बड़ी तादाद में गरीब और ग्रामीण पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों, खासतौर पर लड़कियों को समूची शिक्षा व्यवस्था से बाहर कर देगा।

सरकारी आँकड़ो के आधार पर आज भी देश भर में चालीस फीसद से ज्यादा लोगों के पास कंप्यूटर, लैपटॉप, स्मार्टफोन, टेबलेट, प्रिंटर, राउटर जैसी जरूरी चीजें नहीं हैं। ग्रामीण इलाकों में तो एक चौथाई आबादी के पास इंटरनेट सुविधा भी नहीं है। ऐसे में अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि अगर ऑनलाइन शिक्षा को मुख्य विकल्प बनाया गया और नियमित स्कूली-विश्वविद्यालयी शिक्षा से दूरी बनाई गई तो कितनी बड़ी आबादी जरूरी शिक्षा से वंचित हो जाएगी! इसके अलावा, नियमित स्कूल-कॉलेजों की कक्षाओं में शिक्षक और विद्यार्थी के बीच सीधे संवाद के मनोविज्ञान का विकल्प तकनीकी संसाधन किस हद बन पाएंगे, इस पर भी विचार किया जाना चाहिए।
वैसे एक बात यहाँ पर और बड़ी गम्भीर हो जाती है जिसकी आज़ादी के बाद से आज तक हमारे जंप्रतिनिधियों व सरकारों ने सुध नही ली। ग्रामीण जीवन जीने वाले परिवारों का आधुनिकीकरण करने का, आज भी हम जैसे हज़ारों ग्रामीण परिवार आधुनिक भारत का हिस्सा नही बन पाए हैं अर्थात जो मूलभूत संचार सुविधा से वंचित हैं। तो कैसे हमारी सरकारों ने सोच लिया कि ये सम्भव हो पाएगा शिक्षा के क्षेत्र में क्या अब इस आबादी के लोगों से शिक्षा का अधिकार भी छीन लिया जायेगा? सोचनीय है।

♦️आपको जनवरी 2020 की एक घटना से अवगत कराना चाहता हूँ जिसने मुझे अंदर तक हिला दिया और मेरे पास कोई जवाब नही था —

आज जब ऑनलाईन शिक्षा के बारे में लिखने की सोच ही रहा था तो अचानक वो वाक्या याद आ गया पूरा दृश्य एक बार फिर आँखो के सामने चलने लगा और मन दुःखी हो उठा। बात गोगिना गाँव की है जहाँ जनवरी महीने में लबालब बर्फ की सफ़ेद चादर के बीच वो जगह किसी जन्नत से कम नही लग रही थी। वहाँ से बागेश्वर जिला मुख्यालय तक मोबाईल नेटवर्क की माँग को लेकर एक पदयात्रा का आयोजन होना था, जो 73 किमी के दुर्गम रास्तों होकर जिला मुख्यालय पहुचनी थी। एक अजब सुकून सन्नाटा था वातावरण में तब एक बच्ची की आवाज़ ने ध्यान अपनी ओर खींचा—

दादी, मेरे पापा कहा हैं? यह सवाल था एक नन्ही बच्ची का। चूंकि, उसे जिंदगी और सरकारी व्यवस्थाओं के मायने पता नहीं, इसलिये अपनी दादी से उसका यह सवाल बड़ा सामान्य और बाल सुलभ था। मासूम का सवाल अनुत्तरित रहा तो उसने घर का एक-एक कोना छान मारा। तब दादी ने कहा तेरे पापा दुकान गये है। तेरे लिये बिस्कुट लाने तो उसने ज़ोर से कहा मुझे नही चाहिए बिस्कुट हमें मोबाईल टावर चाहिए। जिसके लिये हम सब को मिलकर आंदोलन करना है गोगिना से बागेश्वर तक की पैदल पद यात्रा में जाना है। तभी तो मैं बड़े भाई से बात कर अपने लिए एक कम्प्यूटर मगाऊँगी, अच्छा वाला मोबाईल मंगाऊँगी, जिसमें नेट चलता है। जैसे टीवी में दिखाते है एक दूसरे से आमने-सामने जैसी बात करेंगे विडियो कॉल से.... मैं उसकी ये सब बातें सुन चौंका। एकटक उसे देखकर उसके मनोभाव सुनता रहा। उसकी ये सब बातें सुन में अपने अतीत में कहीं खो सा गया सोच रहा था जब मैं इसकी उम्र का रहा हुंगा क्या तब मुझे ये सब जानकारी रही होगी। उसके अंकल की आवाज़ ने मेरी तंद्रा तोड़ी, मैंने उसकी तरफ देखते हुए बोला हाँ क्या हुआ। उसने पूछा क्या हमारे यहाँ भी अब मोबाईल टावर लग जायेगा? हम भी फ़ोन पर बात करेंगे दोस्तों से? आपके मोबाईल में नेट चलता है? कैमरा भी है? कितने का है? मैं भी मगाऊँगी। एक साथ कई सवाल और मैं चुप, मुझे कुछ नही सुझाया तो मैंने कहा हां अब आपके यहाँ भी जल्दी मोबाईल टावर लगेगा, आपके गाँव के सब लोग डीएम साहब को ज्ञापन देंगे तब शायद हो जायेगा। उसने कहा बड़े होकर मुझे भी डीएम बनना है फिर मैं भी सब जगह टावर लगवा दूंगी। मैंने बोला इसके लिए तो आपको बहुत पढ़ना पड़ेगा, आप अभी कौन सी क्लास में पढ़ते हो? ६ क्लास में। फिर बर्फ ज्यदा गिरने लगी तो उसकी माँ ने उसे बुला लिया और वह दौड़ के अंदर चली गई। तब तक दादी मेरे सामने बैठी थी तो मैंने पूछा आपकी नातिन का क्या नाम है? ( नातिनिक के नाम छू आमा)। आमा ने क्या बोला मुझे कुछ भी समझ नही आया और आमा भी आगे को बढ़ चली। मैं बड़ी देर तक इस बच्ची और उसकी सोच के बारे में सोचता रहा फिर मेरे मन ने मुझसे पूछा क्या मैंने इस बच्ची से सच बोला? खैर......


आज जब ऑनलाईन शिक्षा की बात हो रही है तो मुझे उस बच्ची का ख्याल आया जिसका नाम तक मैं नही जानता । वहाँ आज भी नेटवर्क की सुविधा नही है। तो ऑनलाइन शिक्षा उनके लिये किसी सपने से कम है क्या? क्या उस बच्ची को आधुनिक शिक्षा का कोई अधिकार नही है। क्या वह क्षेत्र हमारे भारत का हिस्सा नही है।

जहाँ पूर्णबंदी की वजह से उनकी रोजी-रोटी छिन गई थी और वे किसी तरह अपने परिवार का पेट भर पा रहे थे। ऐसे में अपनी बच्ची को ऑनलाइन कक्षा में शामिल होने की सुविधा वे नहीं मुहैया करा सके। जब बच्ची के सामने पढ़ाई-लिखाई छूट जाने का डर खड़ा होगा, तो वह पूरी तरह टूट जायेगी। जिस समाज में लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा आज भी मुश्किल बनी हुई है, उसमें यह स्थिति क्या एक लड़की के पढ़ने के सपने को भी नहीं तोड़ रही है? अपने विचार अवश्य सांझा करें ——
#जागो_सरकार_जागो

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फीस नही तो बच्चों को तो माफ कर दीजिए सरकार —
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बच्चे देश का भविष्य है...प्रिय बापू ,चाचा नेहरू से लेकर काका कलाम के मुँह से यह बात सुनता था तो लगता था कि इस देश के नेता इतने संवेदनशील तो है कि कम से कम वो बच्चों को लेकर किसी प्रकार राजनीति नहीँ करेंगे लेकिन पिछले तीन महीने मैं यह धारणा भी टूट गई है

पूरे देश मे नर्सरी से लेकर प्रायमरी क्लास तक बच्चों ऑनलाइन क्लासेस शुरू हो गई है स्कूल किसी भी नीति के अभाव में अपने अपने नियम बना रहे है जिन माता पिता ने अपनो बच्चों को कोरोना के डर से दूर रखा वो भी मजबूरी में उन्हें इंटरनेट के सामने बिठा कर सारी नकरात्मक खबरों से रूबरू करवा रहे है
अगर ऐसा नही करेंगे तो बच्चों का भविष्य बिगड़ जाएगा

सायबर हेल्थ सेफ्टी नॉर्म्स की तहत 10 साल तक के बच्चों को स्माल और मीडियम स्क्रीन से दूर रहना चाहिए स्क्रीन टाइम बच्चों के मस्तिष्क के विकास को भी प्रभावित करता है।यह एक ऐसा समय है जब उनका दिमाग विकसित होता है । मोबाइल और कम्यूटर उपकरणों की स्क्रीन ओवरस्टीमुलेशन का कारण बनती हैं, जिससे मस्तिष्क में डोपामाइन और एड्रेनालाईन का उत्पादन होता है।

यह सब इस उम्र में इंटरनेट के नशे की लत बनाता है। यह उम्र सामजिक गतिविधियों को समझेने की होती है जिसे स्क्रीन पर नहीं बल्कि व्यक्तिगत सिखाया जाना चाहिए।इस उम्र में इंटरनेट का उपयोग करने का विरोध तो स्वयं यूनेस्को और WHO कर चुका है लेकिन सरकार की क्या मजबूरी है वो मुझे समझ नही आ रहा है

जिस देश मैं आज भी 40 % से ज्यादा फीचर फोन औऱ बेसिक फोन है वँहा ऑनलाइन क्लासेस का विचार हास्यास्पद है यूनेस्को की रिपोर्ट के हिसाब से पूरे विश्व के 83 करोड़ छात्रों में से 70 करोड़ छात्रों के पास इंटरनेट नही है और 13 करोड़ छात्रों में से आधे को सायबर सिक्योरिटी का कखग भी नही पता है तब छोटे छोटे बच्चों के भविष्य को क्यो दाँव पर लगाया जा रहा है

सरकार पर शिक्षा माफिया का दबाव है लेकिन मध्यम वर्ग क्यों चुप है दिनभर में 70 साल को 70 बार कोसने वाला मध्यम वर्ग इतना डरपोक हो गया कि वो अपने बच्चों के लिए भी अपना मुँह खोलेगा यह एक असाधारण स्थिति है इसलिए सरकार से सवाल पूछिये अगर आपने आज सवाल नही पूछा तो कल अपने बच्चों के सवालो का जवाब नही दे पाएंगे 👍👍👍

साभार- अपूर्व भारद्वाज


अगर आपको अपने नसीब पर पक्का भरोसा है कि वह आपको कभी धोखा नहीं दे सकता, तो आप स्पेशल केस हैं।
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अपने इर्द गिर्द आप देख सकते हैं कि कितने अपराधी आपके कर्णधार बन चुके हैं और कितने शरीफ लोग धूल में मिल चुके हैं। इस प्रकार देखें तो पाप-पुण्य जैसा कुछ इस धरती पर एक्जिस्ट नहीं करता और सब कुछ केवल नसीब का खेल है।

इस एकांतवास के समय शांतचित होकर आप अंदाज़ा लगाइये कि कैसे एक आदमी दस, बीस, पचास मर्डर, रेप, अपहरण, लूट करके भी बच जाता है और देश की संसद और विधानसभाओं में पहुंचकर भारत भाग्यविधाता बन जाता है। दूसरा आदमी पेट की भूख से मजबूर होकर आलू चुराता हुआ पकड़ लिया जाता है, भीड़ के हत्थे चढ़ जाता है और पीट पीटकर मार डाला जाता है।


कितने मेहनती प्रतिभाशाली लोग अपनी बदनसीबी के कारण नष्ट हो गए और कितने अयोग्य निकम्मे लोग अपने नसीब के कारण राज कर रहे हैं। इसलिए नसीब तो है, लेकिन वह मैनेज करने योग्य नहीं है। मतलब, कि वह जो है सो है। उसे किसी के द्वारा बदला नहीं जा सकता। उसे आप अंगूठियों, रत्नों, मालाओं, भभूतों, भस्मों, प्रसादों इत्यादि के ज़रिए भी नहीं बदल सकते। उसे पहले जानना भी संभव नहीं।

यह प्रवचन आज इसलिए दिया, क्योंकि जीवन और मृत्यु भी नसीब द्वारा संचालित है।

अभी कोरोना काल में एक आदमी ऐसा हो सकता है, जो पहले की तरह नॉर्मल लाइफ जीते हुए भी संक्रमण से बचा रहे और एक बदनसीब ऐसा भी हो सकता है, जो तमाम तपस्याएं और परहेज करके भी महज एकाध छोटी मोटी असावधानियों, जो किसी मजबूरी का भी परिणाम हो सकती हैं, के कारण संक्रमित हो जाए।

इसी तरह एक आदमी ऐसा हो सकता है, जिसे संक्रमित होने के बावजूद सारी चिकित्सा सहायताएं उचित ढंग से मिलती चली जाएं और बीमारी के प्रति अधिक संवेदनशील होने या कमज़ोर इम्युनिटी के बावजूद वह बच जाए। दूसरी तरफ एक बदनसीब ऐसा भी हो सकता है, जिसे संक्रमित होने के बावजूद ठीक तो किया जा सकता है, लेकिन उचित चिकित्सा सहायता नहीं मिल पाने के कारण उसकी जान चली जाए।

मतलब यह, कि अगर आपको अपने नसीब पर ऐसा पक्का भरोसा है कि वह आपको कभी धोखा नहीं दे सकता, तो आप स्पेशल केस हैं, लेकिन अगर आपको लगता है कि अक्सर नसीब आपको धोखा दे जाती है तो कोरोना से बचने के लिए जितनी अधिक सावधानी बरत सकते हैं, बरतें, क्योंकि इसके अलावा आपके पास कोई दूसरा चारा नहीं है। ये दुनिया एक रंगमंच है। हम सब यहाँ एक किरदार निभा रहे है। किसको कब आना है कब जाना है वह सब उस निर्देशक के आदेश पर निर्भर करता है। जो इस पूरी दुनिया का किसी अदृष्ट शक्ति के रूप में संचालित कर रहा है।

आप मनन कर अपने आस-पास, समाज का आंकलन कर बेहतर भविष्य की नीव रख सकते हैं। हमें कैसा समाज चाहिए? कैसे लोगों के बीच हमें रहना है? कैसे लोग हमारा प्रतिनिधित्व करेंगे? हमें किन लोगों का भरोसा करना चाहिए व किस पर नजर रखनी चाहिए? कैसे हमारा आने वाला कल सुरक्षित होगा? हम हो न हो हमारा समाज आने वाले कल में आज से बेहतर होना ही चाहिए? आपने आज तक क्या पाया व क्या आने वाले समय में आप पा सकते हैं? आपका क्या ख़्याल है ज़रूर सांझा कीजियेगा।

धन्यवाद।
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मित्रता ऐसा अनमोल रत्न है जिसे पा लें तो जीवन की हर मुश्किल आसान और जिसके बिना जीवन का सफ़र कठिन हो जाता है।
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जब हम अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाते है, तब पहली कठिनता मित्र चुनने में पड़ती है। यदि स्थिति बिल्कुल एकान्त और निराली नहीं रहती तो हमारी जान-पहचान के लोग धड़ाधड़ बढ़ते जाते हैं और थोड़े ही दिनों में कुछ लोगों से हमारा हेल-मेल हो जाता है। यही हेल-मेल बढ़ते-बढ़ते मित्रताप में परिणत हो जाता है। मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफ़लता निर्भर हो जाती है। क्योकि संगति का गुप्त प्रभाव हमारे आचरण पर बड़ा भारी पड़ता है। हम लोग ऎसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है, हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते है जिसे जो जिस रूप में चाहे, उस रूप का करे-चाहे वह राक्षस बनावे, चाहे देवता।


मित्रता वह शब्द है जो इंसान की जिन्दगी में सबसे अधिक महत्व रखता है। कहा जाता है -- सम्बन्धी ऊपर से निर्धारित आते हैं लेकिन मित्र हम स्वयं चुनते हैं। एक ऐसा रिश्ता जिसके साथ हम अपने सुख-दुख बेहिचक बाँट सकते हैं । जिसके साथ झगड़ना भी आनंददायक होता है। जहां हम वह सब कुछ कह सकते हैं - बेहिचक ,इस विश्वास के साथ कि मेरा मित्र मुझे समझेगा और अपनी सही राय बेहिचक देगा। आज मित्रता पर लिखते हुए मुझे कवि बुद्धिलाल पाल जी एक प्यारी सी कविता याद आ रही है जो दोस्ती के महत्व को बड़े ही सुन्दर ढंग से व्याख्यायित कर जाती है ---



दोस्ती —
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सूरज के होने से
चमकता हुआ दिन होता है
चाँद के होने से
शीतल दुधिया चाँदनी
तारों के टिमटिमाते रहने से
रात में भी दिशा ज्ञान होता है
पृथ्वी के घूमते रहने से
बहती हवाएं दिशाएँ बदलती हैं
हिमद्वीपों के होने से
धरती जलमग्न होने से
बची रहती है
समुद्र के होने से
बरसात की बूंदें बची रहती हैं
धरती के भीतर नमी होने से
बची रहती हैं उम्मीदें
कभी - कभी
दोस्त के होने से ऐसा होता है
कि जीवन
व्यर्थ होने से बचा रहता है ।।

सच है, मित्रता ऐसा अनमोल रत्न है जिसके बिना जीवन का सफ़र कठिन हो जाता है और जिसे पा लें तो जीवन की हर मुश्किल आसान। हमारे यहाँ कृष्ण और सुदामा की मित्रता की कहानी काफी प्रसिद्द है। सच्ची मित्रता की पहचान भी यही है कि किसी राजकुमार और एक निर्धन व्यक्ति के बीच भी मित्रता हो सकती है तथा जरुरत पड़ने पर एक सच्चा मित्र अपने मित्र को अपना सब कुछ दे सकता है। इंसान की बात तो रहने दें मित्रता का यह सुन्दर उदाहरण जानवरों में भी देखने /पढने को मिलता है।
महान कथाकार मुंशी प्रेमचन्द जी की कहानी "दो बैलों की कथा " इसका सुन्दर उदाहरण है। इसकी कुछ पंक्तियाँ देखें --
“झूरी क पास दो बैल थे- हीरा और मोती। देखने में सुंदर, काम में चौकस, डील में ऊंचे। बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय किया करते थे। एक-दूसरे के मन की बात को कैसे समझा जाता है, हम कह नहीं सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी,जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है। दोनों एक-दूसरे को चाटकर सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे, विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोनों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफसी, कुछ हल्की-सी रहती है, फिर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिए जाते और गरदन हिला-हिलाकर चलते, उस समय हर एक की चेष्टा होती कि ज्यादा-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे। दिन-भर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते तो एक-दूसरे को चाट-चूट कर अपनी थकान मिटा लिया करते, नांद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नांद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुँह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता था। "

कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सदव्रत्ति का ही नाश नही करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा-पुरूष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बंधी चक्की के समान होगी जो उसे दिन-दिन अवनति के गड्डे में गिराती जायेगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जायेगी। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती है।
ह्रदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगत की छूत से बचो। यही पुरानी कहावत है कि-

काजर की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय,
एक लीक काजर की, लागिहै, पै लागिहै।


ज़िंदगी में आप तब सीखते हैं जब आपको ठोकर लगती है। ठोकर खाकर गिरना जिंदगी नही है उसके बाद ख़ुद को सम्भाल लेना ही जिंदगी है। मैंने भी अपनी जिंदगी में कई बार ठोकरें खायी और खुद को सम्भालते रहे। ईश्वर ना करे किसी की मित्रता को कोरोना की बुरी नजर लगे। यह लेख उन सभी सच्चे मित्रों को समर्पित जिन्होंने जीवन के प्रत्येक मोड़ पर बराबरी से खड़े होकर मेरा साथ दिया।

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किस्से गाँव-घर के-
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चित्र में जो दिख रहा है हम इसे 'नौऊ’ (नौला) बोलते हैं। शुद्ध प्राकृतिक पेयजल श्रोत। गाँव में आई नई- नवेली दुल्हन को भी सबसे पहले नौऊ ही दिखाया जाता था। शादी में भी लड़की को यहाँ से पानी लाने के लिए एक गगरी जरूर मिलती थी। अपना नौला पत्थर और मिट्टी से बना होता था। एक तरह से जमीन के अंदर से निकलने वाले पानी के स्टोरेज का अड्डा था। इसमें अंदर-अंदर पानी आता रहता था। हम इसको 'शिर फूटना' भी कहते थे। मतलब जमीन के अंदर से पानी का बाहर निकलना।

नौला थोड़ा गहरा और नीचे से साफ कर दिया जाता था ताकि पानी इकट्ठा हो सके और मिट्टी भी हट जाए। कुछ गाँव में नौला के अंदर चारों ओर सीढ़ीनुमा आकार दे दिया जाता था। यह सब गाँव की आबादी और खपत पर निर्भर करता था। सुबह- शाम नौला से पानी लाना बच्चों का नित कर्म था। बारिश हो या तूफान नौला से पानी लाना ही होता था।

इस्कूल जाने से पहले नौला से एक डब्बा या 'गागर' (तांबे की गगरी) पानी लाना नियम था। ईजा रात को ही कह देती थीं’ नौऊ बे पाणी ल्या बे धर दिए तबे इस्कूल जाए हाँ'। सुबह आँख मलते हुए जब हम पानी लेने जाते थे तब तक ईजा 2 गागर पाणी ला चुकी होती थीं। सुबह चार- पाँच बजे से लोग नौला पानी लेने चले जाते थे।


शाम को दिन छिपने के बाद सारा गाँव नौला में ही उमड़ आता था। इधर से डब्बा फतोड़ते (डब्बा बजाते नहीं फतोड़ते थे) हुए मैं जा रहा हूँ तो वहाँ से दो भाई और आ रहे हैं। ईजा डब्बे की आवाज सुनकर ज़ोर से बोल देती थीं कि 'फोड़ दें हाँ डाब कें, आ तू घर आ आज'। थोड़ी देर नहीं बजाते थे फिर जहाँ से घर दिखना बंद हो जाता डम- डम शुरू कर देते थे।

शाम को नौला में 1 से 2 घण्टा बैठते थे। नौला सामूहिक झगड़ों और देश- विदेश के ज्ञान को प्रदर्शित करने का केंद्र भी था। कभी-कभी नौला में डिब्बे और कंटर बजाकर जागरी लगाते थे। यह बात जब भी ईजा को पता लगती थी तो, घर पर 'सिसोंण' (बिच्छू घास और कंडाली) तैयार रहता था। पानी का डब्बा गोठ रखते ही जैसे अंदर को कदम बढ़ते.. झप एक झपाक ईजा लगा देती थीं... आजी लगाले नौला पन जागर.... आजी बजाले डाब-भान..... न ईजा न... भो बे नि लगुँल.. नौला पन जब 'मसाण' (भूत) लागल न तब पत... ओ ईजा अब न न न.... कहते- कहते तीन- चार झपाक लग ही जाते थे। तब अम्मा आकर बीच बचाव करती थीं।

अगले दिन फिर शाम को बैट- बॉल खेलने 'तप्पड'( मैदान) चले जाते थे। दिन ढलने के बाद वहीं से पानी लेने नौला चल देते थे। जब गांव के सब बच्चे नौला पहुंच जाते थे तो फिर पहले दिन लगे सिसोंण का बदला गाली देकर निकालते थे..... जैल म्यर ईजें कें बता ऊ घुरि जो.. वीक पाणी गागर लफाई जो..फेल हैं जो ऊ...मन का सब गुब्बार फेर कर कंधे में पानी का डब्बा रख घर चल देते थे।

अक्सर ईजा नौला से लेट आने के लिए फटकार लगती थीं। कई बार नौला से लौटते हुए रात हो जाती थी तो रास्ते में पानी गिर जाता था। एक -दो बार तो अंधेरे में डर के मारे पानी का डब्बा भी गिर गया था। ईजा कहती थीं कि ‘पठ अन्यार में आ, कदिने बाघ खाल...’ पर यह रोज का था। ईजा की मार, डाट खाने और बाघ से डर के बावजूद भी नौला से अंधेरा होने से पहले घर जाने का मन ही नहीं करता था।


अब नौला खाली और गाँव वीरान पड़े हैं। घर-घर पर नल लग गए हैं। गधेरे पानी को और गाँव इंसान को तरस रहे हैं। आज भी ईजा सुबह-सुबह पानी नौला से ही लाती है। हर सुबह गगरी सर में रख नौला चली जाती है। कहती है- नल के पानी में स्वाद नहीं आता है, न 'तीस' (प्यास) मिटती है. अपने नौला का पानी तो मीठा होता है।

गाँव की लगभग हर ईजा को अब भी नौला का पानी ही अच्छा लगता है जबकि दुनिया बिसलेरी और केंट आ रो पर पहुंच गई है। पहाड़ व पहाड़ का अपनापन अद्भुत है, जिसका कोई सानी नही है। आपका क्या अनुभव है? आपको क्या लगता है आप भी अपने अनुभव साँझा करें?
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