आज जब किताबी दुनिया में पढ़ने का शौक सिमट रहा है वहीं उनकी किताब “बातें कम स्कैम ज्यादा”खूब धूम मचा रही है। नीरज बधवार ऐसे व्यंग्यकार है जो शब्दों और रचनात्मकता की कला से दूसरों को परोस भी देते है और दिमाग का दही छानने का कारनामा भी दिखा देते है। वे युवा है और प्रयोगधर्मिता से उन्हें कोई परहेज भी नहीं है। व्यंग्यकार पत्रकार नीरज बधवार की यह किताब यदि आपको सोचने,हंसने और बुदबुदाने को मजबूर कर देती है तो हैरानी की बात नहीं होगी। नीरज बधवार के व्यंग्य आप इन्सान की जिंदगी से होते है और उन्हें बखूबी छूते है।
किसी शायर ने क्या खूब कहा है,चाहिए अच्छों को जितना चाहिए ये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए। बधवार की लेखनी कुछ ऐसी ही है की जब उन्होंने चाहा ही लिया तो फिर लिखना जरूरी हो जाता है,फिर चाहे खुद के बारें में हो या दूसरों को लेकर। अमूमन हर किताब के अंत में लेखक का परिचय होता है और उसमें सादगी कम महानता का बखान ज्यादा हो जाता है। “बातें कम स्कैम ज्यादा” में नीरज बधवार का परिचय आपराधिक रिकार्ड के रूप में नजर आता है,जो बहुत गुदगुदाता है।
जकरबर्ग ये लो हम भारतीयों का सारा डेटा में नीरज ये बताते हैं कि हम भारतीय डेटा लीक को लेकर इतने फिक्रमंद क्यों हैं। हम भारतीयों की सारी ज़िंदगी तो वैसे भी खुली किताब है। इसके बाद वो एक-एक करके बड़े शरारती अंदाज़ में भारतीय होने के कुछ लक्षण बताते हैं।
असली भारतीय वही है जो नई कार लेने के बाद 6 महीने तक सीट से उसकी पन्नी नहीं उतारता,क्योंकि पन्नी हटाने से चीज़ खराब हो जाती है। इसी चक्कर में कुछ लोग सारी ज़िंदगी अपने दिमाग से भी पन्नी नहीं हटाते और वो unused रह जाता है।
बस में आधा टिकट लेने के लिए हम 6 साल के बच्चे को 3 का बताते हैं। कपड़े लेते वक्त उसी 6 साल के बच्चे के लिए 9 साल का स्वेटर लेते हैं। स्वेटर नया होता है तो बच्चा छोटा होता है। जब तक बच्चा बड़ा होता है तो स्वेटर घिसकर छोटा हो चुका होता है।
एक टीशर्ट को हम 7 साल तक पहनते हैं मगर कभी फेंकते नहीं। पुरानी होने पर उससे रसोई की पट्टी साफ की जाती है। और पुरानी होने पर कामवाली डस्टिंग करती है। फिर छोटा भाई साइकिल साफ करता है। फिर उसका पोछा बनाया जाता है। पोछा दो फाड़ हो जाने पर उससे बाथरूम की ढीली टूटियां कसी जाती है।
रिमोट के सेल वीक होने पर उसकी पीठ पर थप्पड़ मारकर चलाते हैं। पढ़ाई में वीक बच्चों को टीचर थप्पड़ मारकर पढ़ाते हैं। कुछ रिमोट थप्पड़ मारने से चल भी जाते हैं मगर कुछ ढीठ बच्चे…
दिवाली पर सोनपापड़ी के डिब्बे को हम आगे ट्रांसफर कर देते हैं…एक रिश्तेदार दूसरे को, दूसरा तीसरे को, तीसरा चौथे को। इस तरह एक सोनपापड़ी का डिब्बा सालभर में वास्कोडिगामा से ज़्यादा ट्रेवल करता है। पिछले दिनों कानपुर में एक शख्स उस वक्त गश खाकर गिर पड़ा जब उसी का दिया सोनपापड़ी का डिब्बा 17 साल बाद दिवाली पर उसे कोई गिफ्ट कर गया।
चाय के साथ कुछ हल्का खाने के नाम पर भुजिया खाने लगें, तो आधा किलो भुजिया खा जाते हैं। अच्छे लगें, तो हम सिरके वाले प्याज खाकर पेट भर लेते हैं। भूख लगी हो तो हाजमोला की गोलियां खाकर पेट भर लेते हैं। शादी में तब तक गोल गप्पे खाते हैं जब तक उसका पानी नाक से बाहर न आ जाए। तब तक मंचूरियन ठूंसते रहते हैं जब तक एक-आधा बॉल कान से निकलकर बाहर न गिर पड़े। खाने के बाद मुंह मीठा करने के लिए रखी सौंफ मुट्ठियां भर-भरकर खा जाते हैं। हालत ये है कि कहीं फ्री में मिल रहा हो तो हम साइनाइड का कैप्सूल भी ये सोचकर रख लें कि क्या पता बाद में काम आ जाए!
कोई पत्रकार लगातार निष्पक्ष बना हुआ है तो आप उससे सीधे पूछ सकते हैं-क्यों भाई, लाइन बदलने की सोच रहे हो या गांव की ज़मीन हाईवे में आ गई है? आखिर तुम अपने करियर को सीरियसली क्यों नहीं ले रहे। बहुत मुमकिन है उसका जवाब होगा- हां यार, सोच रहा हूं प्रॉपर्टी डीलिंग का काम कर लूं या किसी सरकारी स्कूल के बाहर गैस वाले गुब्बारे बेचने लगूं।
इतना तय है कि उसके पास कोई प्लान बी ज़रूर होगा। वरना पत्रकारिता में निष्पक्ष रहकर करियर बर्बाद करना आत्महत्या करने का कोई बेहतरीन विकल्प नहीं है। कारण, निष्पक्षता आज की तारीख में चुनाव नहीं, आपके निक्कमेपन को बताती है। मतलब अपनी लेखनी से आप आज तक किसी पार्टी को कन्वींस नहीं कर पाएं कि ज़रूरत पड़ने पर आप उनके विपक्षी की बखिया उधेड़ सकते हैं या खुद उनकी उखड़ी हुई बखियां सिल सकते हैं।
इसी वजह से आजकल मैं भी खुद को निकम्मा मानने लगा हूं। बड़ी ईर्ष्या होती है ये सुनकर फलां पत्रकार उस पार्टी के हाथों जमीर और रीढ़ समेत बिक गया और मैं अब भी 5 रुपए बचाने के लालच में गले हुए टमाटर खरीद रहा हूं।
नीरज अपना परिचय कराते हुए बताते है कि कॉलेज ख़त्म होने तक नीरज बधवार ने ज़िंदगी में सिर्फ 3 ही काम किए-टीवी देखना, क्रिकेट खेलना और देर तक सोना। ग्रेजुएट होते ही उन्हें समझ आ गया कि क्रिकेटर मैं बन नहीं सकता, सोने में करियर बनाया नहीं जा सकता, बचा टीवी; जो देखा तो बहुत था मगर उसमें दिखने की तमन्ना बाकी थी। यही तमन्ना उन्हें दिल्ली घसीट लाई।
जर्नलिज़्म का कोर्स करने के बाद छुट-पुट नौकरियों में शोषण करवा वो टीवी में एंकर हो गए। एंकर बन पर्दे पर दिखने का शौक पूरा किया तो लिखने का शौक पैदा हो गया। हिम्मत जुटा एक रचना अखबार में भेजी। उनके सौभाग्य और पाठकों के दुर्भाग्य से उसे छाप दिया गया। इसके बाद दु:स्साहस बढ़ा तो उन्होंने कई अख़बारों में रायता फैलाना शुरू कर दिया।
सिर्फ अख़बार और टीवी में लोगों को परेशान कर दिल नहीं भरा तो ये सोशल मीडिया की ओर कूच कर गए। अपने वन लाइनर्स के माध्यम से लाखों लोगों को ट्विटर और फेसबुक पर अपने झांसे में ले चुके हैं। नीरज पर वनलाइनर विधा का जन्मदाता होने का इल्ज़ाम भी लगता है। और ऐसा इल्ज़ाम लगाने वाले को वो अलग से पेमेंट भी करते हैं।
अपना ही परिचय थर्ड पर्सन में लिखने की धृष्टता करने वाले नीरज वर्तमान में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में क्रिएटिव एडिटर के पद पर कार्यरत है। जहां ‘Fake it India’ कार्यक्रम के ज़रिए लोगों को बुरा व्यंग्य परोसने का काम बखूबी अंजाम दे रहे हैं। जनता का भी टेस्ट इतना खराब है कि अब तक 20 करोड़ लोग इन विडियोज़ को देख अपनी आंखें फुड़वा चुके हैं।
इनकी पहली किताब ‘हम सब Fake हैं’ को भारत में आई इंटरनेट क्रांति का श्रेय दिया जाता है। उसे पढ़ते ही जनता का लिखने-पढ़ने से भरोसा उठ गया और वो इंटरनेट की ओर कूच कर गई। नीरज की यह दूसरी किताब ज़ुल्म की इस लंबी दास्तां का एक और किस्सा है और इस उम्मीद में आपके हाथों में है कि इसका हिस्सा बनकर आप इस किस्से को सुनाने लायक बना पाएंगे।
बाकी, किताब पर बर्बाद हुए पैसों के लिए लानत-मलानत करनी हो, तो लेखक को सीधे इस नंबर (9958506724) पर कॉल कर सकते हैं। कॉल कर पैसे बर्बाद न करना चाहें, तो मिस कॉल दे दें, लेखक इतना खाली है कि खुद पलटकर आपको फोन कर लेगा।
वैसे मुझे तो लगता है पैसा वसूल है किताब आप अभी ऑडर कर सकते हैं।
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