Monday, 15 May 2023

हाकिम ने जबान खींच ली…..



मुझे ये लिखते हुए बेहद दुःख हो रहा है कि मैं उस दौर में हूँ जहां सत्ता, लेखक व बाज़ार का ज़बरदस्त गठबन्धन है। हमें इस बात को समझने के लिए सरकार व सरकार ने नये लगने वाले नियमों को बारीकी से देखना पड़ेगा और उन्हें जनता तक पहुँचाने वाली संस्थाओं की धूर्तता को भी महसूस करना होगा। आंखिर कोई आपके व आपके जज़्बातों व संविधान द्वारा दिए गये आपके अधिकारों के साथ खिलवाड़ कैसे कर सकता है।  


वैसे मैं JNU से नही पढ़ा हूँ, पर वहाँ एक-दो बार गया जरुर हूँ। जहां पढ़ा वो मेरे व मुझ जैसे किसी छोटे गाँव में पले बढ़े छात्र के लिए कभी उससे कमतर भी नही रहा। हमें विद्यालय जाने को यूनिफोर्म की कभी शिकायत नही रही, कापी-किताब लेकर जाने की आज़ादी थी, शिक्षक से बेपरवाह बहस की आज़ादी थी। कभी भी आने-जाने पर कोई रोक-टोक व क्लास पढ़ने की बाध्यता भी कभी नही रही। उसके बावजूद भी मुझ जैसे वहाँ पढ़ने वाले छात्रों की शिक्षा बेहतर रही। बस एक कमी थी वहाँ कोई छात्रा नही पढ़ती थी वह केवल छात्रों के लिए ही बना विद्यालय था जो आज भी वैसा ही है। 

हमारे समय के अधिकतर छात्रों को आप उस समय के अपने शिक्षक के साथ आज हाथ मिलाते हुए, कभी कभार एक साथ जाम टकराते भी देख सकते हैं। कभी किसी प्रकार का कोई मतभेद नही रहता था, पर बहस हर रोज़ किसी न किसी रूप में होती रहती थी। उस समय हमारे शिक्षक व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ खुलकर बोलते थे तो छात्र भी उनके सुर में सुर मिलाते दिखाई पड़ते थे। खैर मैं बहुत अच्छा विद्यार्थी तो नही रहा, पर जैसा भी हूँ अपनी पढ़ाई से व पढ़ाई के दर्मियान बहुत खुश रहा। उसके बाद जब कॉलेज पहुंचा तो वहाँ हमारा रुतबा अलग ही रहा। अक्सर हमको सुनने को मिलता, अरे ये जीआईसी वाले हैं इनसे जरा दूर ही रहना। बहस हम बचपन से बिना किसी झिझक के करते आ रहे थे तो यहां भी कोई ख़ास दिक्कत नही आई। उस दौरान जो भी हमारे सम्पर्क में आया वो कभी हमें नही भुला सकता, ऐसा मेरा मानना है। जो अक्सर ज़िन्दगी के किसी न किसी मोड़ पर देखने को मिलते रहता है। शिक्षकों से वहाँ भी खुलकर बहस होती रही पर कभी मन में द्वेष भाव दोनो तरफ से नजर नही आया। आज भी उनके लिए मन में वही सम्मान है जो उस वक्त एक नये छात्र के रूप में था। उस दौर के हमारे कॉलेज शिक्षक अपनी बेबाक़ राय दिया करते थे। चाहे वह किसी भी सामाजिक, राजनीतिक, क़ानूनी या किसी के प्यार के मामले में हो, उन्हें अपना विचार रखने में किसी तरह की कोई शंका नजर नही आती थी। न ही कोई प्रतिबंध उन पर रहा होगा। ये कर्मचारी आचरण नियमावली तो तब भी रही होगी। 

अभी कुछ समय पहले या यूँ कहे कुछ दिन पूर्व प्रदेश सरकार में महानिदेशक विद्यालयी शिक्षा विभाग ने एक अधिकारिक पत्र जारी करते हुए कहा है कि कोई भी शिक्षक या अधिकारी किसी प्रकार का कोई कोई बयान मीडिया व सोशल मीडिया पर न दे जिससे कि विभाग की छवि ख़राब होने का खतरा है। इसके लिए किसी के कुछ भी बोलने पर प्रतिबन्ध लगाया गया है। फिर वहीं बड़ी शालीनता से कर्मचारी आचरण नियमावली का हवाला देते हुए धमकाया भी गया है। अब क्या करे कोई? जब रोज़गार करना है तो सुनना तो पड़ेगा, इस मानसिकता के साथियों ने तो इसे स्वागत योग्य भी बता डाला। 

परन्तु मैं आपसे पूछना चाहता हूँ?……
क्या यह एक शिक्षक के अधिकारों का हनन नही है? 
क्या यह भारत में निवास करने वाले की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर प्रहार नही है? 
क्या शिक्षक को अपने उत्पीड़न की आवाज़ उठाने का कोई अधिकार नही है? 



खैर……..

मैंने जब यह पत्र अपने एक सहपाठी रहे पत्रकार साथी अजेय व उनकी पत्नी अपराजिता (जिन्हें मैं भाभी कहकर सम्बोधित करता हूँ) को भेजा तो भाभी जी की कॉल आयी। सामान्य हाल-चाल की बातों से आगे बढ़े तो पता लगा घर पर कल शाम को घमासान रण का माहौल था परन्तु अब अत्यधिक शान्ति का। मानो एक दूसरे की साँसों की आवाज भी न सुनाई दे रही हो। ज़ोर देकर पूछने पर पत्र पर हुई बहस का मामला सामने आया। भाभी बोलीं पहले तो आपके दोस्त कम थे जो अब सरकार ने भी मेरे बोलने पर प्रतिबंध लगा दिया है। जब भी घर आओ, इनसे बात करूँ तो ये बोलते हैं तुम कितने सवाल करती हो यार….. 

अब तो आलम ये है कि अक्सर बातों- बातों में मुझ पर झल्ला भी जाते हैं। पर क्या करूँ घर का ये दुःख विद्यालय जाकर बच्चों के बीच भूलने की कोशिश करती रहती हूँ। वहाँ भी कभी कभी उच्चाधिकारियों के दबाव या बेफिजूल के कामों से परेशान हो जाते तो अब तक अपना विरोध करने की आज़ादी तो थी। आज तक अपना गम हम मीडिया व सोशल मीडिया के माध्यम से बाटने की कोशिश किया करते थे। जब से ये लेटर आया है अब इन दोनो से दूर रहने की बात कही है। लगता है हाकिम ने जैसे ज़बान खींच ली हो। तब से बड़ी दुविधा में हूँ। अब इनसे कैसे बात करूँ? किसी ने देख लिया तो? अब आपके भाई साहब तो कितना कमाते है पता नही घर खर्च चलेगा या नही, कभी बताते भी नही। अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूँ?

अपने परिवार की खुशी या तुम्हारे भाई साहब की खुशी के लिये अपनी नौकरी से अलविदा कह दूँ। फिर बार-बार एक ही ख़याल सता रहा है कि उसके बाद घर कैसे चलेगा? फिर एक मन कह रहा है कि बहुत झमेला झेल लिया शादी करके अब इस विभागीय पत्र का हवाला लेते हुए अपने पत्रकार पति को ही छोड़ देती हूँ। 

आपको क्या लगता है? 
आपकी नजर से क्या यह ठीक रहेगा? 
अपनी राय दो………

थोड़ी देर खामोश रहने के बाद इस बहस से अपना पल्ला झाड़ने की मनसा से मैंने बोला भाभी आपको ये पत्र भेजने का मेरा ऐसा उद्देश्य तो बिलकुल भी नही था, जो आप बोल रहीं हैं। आप ऐसा कैसे सोच सकते हैं? अभी पाँच साल पहले तो आप दोनो की शादी हुई है। फिर मुस्कुराते हुए मैंने बोला वैसे आप एक पत्रकार से ही ये सारे सवाल व लम्बी-चौड़ी वार्ता कर रहीं हैं। थोड़ी चुटकी लेते हुए, आपको ध्यान रखना होगा, कहीं कोई कार्यवाही न हो जाए। 

वो….ह मैं तो भूल ही गयी थी आप भी एक पत्र… का…. कार ही हैं……. वैसे मैं तुम्हें एक सलाह देना चाहती हूँ कभी शादी करो तो देख लेना। हमारी तरह कुछ ऐसा न हो। वर्ना दोनो एक जैसे पछताओगे, तुम भी और मेरे सामने बैठा यह तुम्हारा पत्रकार दोस्त भी। 

वैसे भाड़ में जाओ तुम दोनो….. 
और गुर्राते हुए फोन कट कर दिया। अब आप ही बताओ दोस्तों मैंने कुछ गलत कहा।

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