Tuesday, 30 May 2023

“सुनो, बिना हेलमेट वाले लड़के”




तुम्हारी आवाज़ तुम्हारी उम्र से मेल नही खाती। वो लरजती है किसी अठ्ठारह साल से कम के लड़के सी, उसमें अब भी लड़कपन का कच्चापन है। जब ज्यादा देर तक बोलते हो तो वो बैठने लगती है। ये जो जब तुम हंसते हो न खिल खिलाकर तुम्हारे दाँतों की ये दिल की धड़कनों के आकार की पंक्तियाँ आकर्षित करती हैं, ये बताती हैं तुम्हारे खूबसूरत होने का राज़, तुम्हारे माँ-बाप व परिवार की कृपा है तुम पर जो ज़िन्दा हो अब तक…. 

कभी सोचा है तुम्हारी इस लापरवाही के चलते किसी मोड़ या चौराहे पर क्या ईनाम दें सकते है यम के दूत? फिर तुम्हारे ही परिवार व समाज के कुछ सुधी लोग कहेंगे पुलिस ने कुछ किया होता तो शायद बच सकता था। पुलिस तो कुछ करती ही नही है। सारा आरोप हमारे ही सिर मढ़ डालेंगे…..

कभी सोचा है ये जो तुम सड़क पर अपने माता-पिता के मेहनत की कमाई की नुमाइश में इस बाईक को लहराते हुए हवाओं से बातें कर रहे हो, जिस पर तुम बड़ा गर्व महसूस करते हो। तुम्हारी एक छोटी सी चूक जान ले सकती है तुम्हारी भी और किसी राह चलते की भी। तब क्या करोगे? 


सोचो, जब तुम किसी सड़क या चौराहे पर धरा का चुम्बन लोगों तब वहाँ मौजूद पुलिसकर्मी पर क्या गुजरेगी? जिसने न जाने कितनी दफा तुम्हें टोका या समझाया न हो। बांकी आस-पास जो भीड़ इकट्ठा होगी वो तो सिर्फ तुम्हारा विडियो बनाकर सोशल मीडिया में पोस्ट कर शोक मनायेंगे पर हाथ लगाने कोई भी आगे नही आयेगा। तब हर कोई कहता सुनाई पड़ेगा ये पुलिस का काम है। जब उसी को तुम्हारे बिखरे शरीर को उसे बटोरना पड़े। बड़ी कोशिशों के बाद भी तुम्हारा चेहरा न समझ आए। लाख जतन करने पर भी वह तुम्हें एकत्रित न कर पाए और जब वह घर से निकलने वाला हो ठीक उससे पहले उसके बेटे ने भी एक बाईक की डिमांड रखी हो तो क्या वह अपने आंसू रोक सकेगा? आंखिर वह भी किसी का बाप है भाई। 

वहीं अपनी ड्यूटी में पास खड़ी महिला पुलिसकर्मी जब तुम्हारे धड़ से अलग कलाई पास के नाले से हाथ में उठाकर ला रही हो, जिस पर आज भी तुम्हारी बहन की राखी दिखाई दे रही हो। क्या यही वचन तुमने राखी का निभाया? जो तुम्हारी उँगलियों पर सिगरेट और मुँह में ज़हर भरा अब भी दिख रहा है। तुम्हारे बैग से मिली वो व्हिस्की की बोतल व जेब में पड़ी स्मैक की पुड़िया, क्या बीतेगी उस पर कभी सोचा है? आंखिर वह भी किसी की बहन-बेटी है भाई। घर पहुंचकर सुकून से खाना व चैन की नींद वह ले सकेगी। ये मौत का भयावह नजारा क्या उसे कभी भूलते भुलाया जायेगा? 

कभी सोच के देखना कंट्रोल रूम का वह पुलिसकर्मी जो आपके माता-पिता को इस हादसे के लिए सूचित करेगा आंखिर कहेगा क्या? वह खुद भी किसी का बेटा, भाई व पिता है। एक पिता होने के नाते क्या वह बता पायेगा तुम्हारे हादसे के हुबहू हालत? एक बेटा होने के नाते क्या वह तुम्हारी माँ से तुम्हारे बिखरे शरीर के बारे में कुछ कह पायेगा? जरा सोचो भाई आंखिर किस कठिन दौर से उसे गुजरना होगा। घर वालों को सूचित भी करना है और सच भी न कह पाने का मलाल तुम क्या जानो? आंखिर कैसा होता होगा? 

सोचो उस माता-पिता पर क्या गुजरेगी जब तुम्हें इस हाल में सामने पायेंगे। न बेटे का ललाट चूम सकते हैं, न चेहरा देख सकेंगे, न हाथ ही थाम सकेंगे। तुम्हारे बिखरे शरीर के हिस्सों को जब किसी प्लास्टिक पन्नी पर लपेट सामने रखा हो, कैसा भयावह मंजर होगा वो उनके लिए, जिन्होंने इस उम्मीद में तुम्हें पढ़ाया-लिखाया, तुम्हारी हर जरूरतें पूरी की, कि तुम बुढ़ापे में सहारा बनोगे। पर तुम तो अपने साथ-साथ उन्हें भी जीते जी मार गए। वो ज़िन्दा तो रहेंगे पर किसी लाश से कम नही। जितनी बार भी तुम्हारे दोस्तों को देखेंगे वो उतनी बार हर रोज मरेंगे। क्या यही सपना उन्होंने देखा था तुम्हें लेकर? 

उस बहन का क्या गुनाह था जिसने कुछ रोज पहले तुम्हारी कलाई पर राखी बांधी थी, आज वही कलाई तुम्हारे धड़ से जुदा है। क्या यही वचन तुमने उसे राखी पर दिया था। इस गम से तो कभी उभर भी पाए, पर फिर कभी किसी भाई की सूनी कलाई देख कर वह राखी नही बाध पायेगी। ना वो हिम्मत जुटा पायेगी, न उस लम्हे को कभी भुला पायेगी। 

अब तुम्हारे होठों का अब बनता बिगाड़ता आकार देख मन में आता है एक जोर का थप्पड़ जड़ दूँ। ये जो दीए की बाती की लौ सी तुम्हारी आँखे टपकर फड़फड़ाने लगी हैं, मानो लगता है इनमें जल की कोई बूंद दो आयामों के बीच ठहर गयी हो और जाने कितने भाव लिए नृत्य कर रहे हों डर, पीड़ा, दुःख और लाचारी के। तुम इतने अत्याचारी पापी कैसे बन जाते हो? कैसे निर्दयी बेटे, भाई हो तुम? आंखिर कितने अत्याचारी पति और पापी पिता बनोगे तुम? 

सुनो लड़के तुम्हारा मौन भी बोलता है, हंसता है, रोता है और मुस्कुरा उठता है, शरमा जाता है, तुम्हारे इस ईश्वर के बनाये रूप में। पर इसे सम्भालना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है, तुम्हें ही निभानी है। तुम्हारे बैग से मिली वो व्हिस्की की बोतल व जेब में पड़ी स्मैक की पुड़िया और ये हाथों में किसी मेडल सी लहराती सिगरेट को तुम्हें छोड़ना होगा। प्रण लेना होगा की फिर कभी हाथ नही लगाऊँगा और अपने आस-पास के समाज में नशे व सड़क सुरसा के लिए जागरूकता फैलाऊँगा। चौराहे पर तुम्हारी सुरक्षा में खड़े वो पुलिसकर्मी, माता-पिता और बहन को डरावना दर्द नही देना है तो हेलमेट पहनना है। जिससे खुद की, खुद के परिवार की और समाज की जान बचाई जा सके। 

आज भी हमारे समाज में नशीली दवाओं, नशे और दुर्घटनाओं के सबसे बड़े शिकार गरीब लोग हैं। खैर ये दुनिया ऐसे ही चलती है ना, गौर से देखें तो हर मनुष्य पीड़ा में आकंठ डूबा है। बावजूद इसके, वो कौन सा छलावा है? जो स्वयं की पीड़ा को परे हटा, दूसरों को पीड़ित करने के लिए उद्यत रहता है आदमी? कैसे फुर्सत मिल जाती है उसे अत्याचारी बन जाने या दूसरों को निर्दयी कह देने की? कैसे बदल जाती हैं तोहमतें? कभी पुरुष के मत्थे तो कभी स्त्री के सिर। अत्याचारी और निर्दयी होने के लिए ना पुरुष होना आवश्यक है और ना स्त्री! उसके लिए मन का पापी होना पड़ता है, जो कोई भी हो सकता है। 

“तो सुनो लड़के तुम अपने आप सम्पूर्ण हो किसी की तारीफों व रहमतों के मोहताज नही।अपनी जिम्मेदारी को समझो और हेलमेट पहन जीवन की कठिन राहों पर आगे बढ़ो।”



राजकुमार सिंह परिहार 
पत्रकार, बागेश्वर (उत्तराखंड) 

Monday, 22 May 2023

व्यंग्य ऐसा मानो आपके दिल की बात लिखी हो जैसे…



आज जब किताबी दुनिया में पढ़ने का शौक सिमट रहा है वहीं उनकी किताब “बातें कम स्कैम ज्यादा”खूब धूम मचा रही है। नीरज बधवार ऐसे व्यंग्यकार है जो शब्दों और रचनात्मकता की कला से दूसरों को परोस भी देते है और दिमाग का दही छानने का कारनामा भी दिखा देते है। वे युवा है और प्रयोगधर्मिता से उन्हें कोई परहेज भी नहीं है। व्यंग्यकार पत्रकार नीरज बधवार की यह किताब यदि आपको सोचने,हंसने और बुदबुदाने को मजबूर कर देती है तो हैरानी की बात नहीं होगी। नीरज बधवार के व्यंग्य आप इन्सान की जिंदगी से होते है और उन्हें बखूबी छूते है। 


किसी शायर ने क्या खूब कहा है,चाहिए अच्छों को जितना चाहिए ये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए। बधवार की लेखनी कुछ ऐसी ही है की जब उन्होंने चाहा ही लिया तो फिर लिखना जरूरी हो जाता है,फिर चाहे खुद के बारें में हो या दूसरों को लेकर। अमूमन हर किताब के अंत में लेखक का परिचय होता है और उसमें सादगी कम महानता का बखान ज्यादा हो जाता है। “बातें कम स्कैम ज्यादा” में नीरज बधवार का परिचय आपराधिक रिकार्ड के रूप में नजर आता है,जो बहुत गुदगुदाता है।

जकरबर्ग ये लो हम भारतीयों का सारा डेटा में नीरज ये बताते हैं कि हम भारतीय डेटा लीक को लेकर इतने फिक्रमंद क्यों हैं। हम भारतीयों की सारी ज़िंदगी तो वैसे भी खुली किताब है। इसके बाद वो एक-एक करके बड़े शरारती अंदाज़ में भारतीय होने के कुछ लक्षण बताते हैं।

असली भारतीय वही है जो नई कार लेने के बाद 6 महीने तक सीट से उसकी पन्नी नहीं उतारता,क्योंकि पन्नी हटाने से चीज़ खराब हो जाती है। इसी चक्कर में कुछ लोग सारी ज़िंदगी अपने दिमाग से भी पन्नी नहीं हटाते और वो unused रह जाता है।

बस में आधा टिकट लेने के लिए हम 6 साल के बच्चे को 3 का बताते हैं। कपड़े लेते वक्त उसी 6 साल के बच्चे के लिए 9 साल का स्वेटर लेते हैं। स्वेटर नया होता है तो बच्चा छोटा होता है। जब तक बच्चा बड़ा होता है तो स्वेटर घिसकर छोटा हो चुका होता है।

एक टीशर्ट को हम 7 साल तक पहनते हैं मगर कभी फेंकते नहीं। पुरानी होने पर उससे रसोई की पट्टी साफ की जाती है। और पुरानी होने पर कामवाली डस्टिंग करती है। फिर छोटा भाई साइकिल साफ करता है। फिर उसका पोछा बनाया जाता है। पोछा दो फाड़ हो जाने पर उससे बाथरूम की ढीली टूटियां कसी जाती है।

रिमोट के सेल वीक होने पर उसकी पीठ पर थप्पड़ मारकर चलाते हैं। पढ़ाई में वीक बच्चों को टीचर थप्पड़ मारकर पढ़ाते हैं। कुछ रिमोट थप्पड़ मारने से चल भी जाते हैं मगर कुछ ढीठ बच्चे…

दिवाली पर सोनपापड़ी के डिब्बे को हम आगे ट्रांसफर कर देते हैं…एक रिश्तेदार दूसरे को, दूसरा तीसरे को, तीसरा चौथे को। इस तरह एक सोनपापड़ी का डिब्बा सालभर में वास्कोडिगामा से ज़्यादा ट्रेवल करता है। पिछले दिनों कानपुर में एक शख्स उस वक्त गश खाकर गिर पड़ा जब उसी का दिया सोनपापड़ी का डिब्बा 17 साल बाद दिवाली पर उसे कोई गिफ्ट कर गया।

चाय के साथ कुछ हल्का खाने के नाम पर भुजिया खाने लगें, तो आधा किलो भुजिया खा जाते हैं। अच्छे लगें, तो हम सिरके वाले प्याज खाकर पेट भर लेते हैं। भूख लगी हो तो हाजमोला की गोलियां खाकर पेट भर लेते हैं। शादी में तब तक गोल गप्पे खाते हैं जब तक उसका पानी नाक से बाहर न आ जाए। तब तक मंचूरियन ठूंसते रहते हैं जब तक एक-आधा बॉल कान से निकलकर बाहर न गिर पड़े। खाने के बाद मुंह मीठा करने के लिए रखी सौंफ मुट्ठियां भर-भरकर खा जाते हैं। हालत ये है कि कहीं फ्री में मिल रहा हो तो हम साइनाइड का कैप्सूल भी ये सोचकर रख लें कि क्या पता बाद में काम आ जाए!

कोई पत्रकार लगातार निष्पक्ष बना हुआ है तो आप उससे सीधे पूछ सकते हैं-क्यों भाई, लाइन बदलने की सोच रहे हो या गांव की ज़मीन हाईवे में आ गई है? आखिर तुम अपने करियर को सीरियसली  क्यों नहीं ले रहे। बहुत मुमकिन है उसका जवाब होगा- हां यार, सोच रहा हूं प्रॉपर्टी डीलिंग का काम कर लूं या किसी सरकारी स्कूल के बाहर गैस वाले गुब्बारे बेचने लगूं।
इतना तय है कि उसके पास कोई प्लान बी ज़रूर होगा। वरना पत्रकारिता में निष्पक्ष रहकर करियर बर्बाद करना आत्महत्या करने का कोई बेहतरीन विकल्प नहीं है। कारण, निष्पक्षता आज की तारीख में चुनाव नहीं, आपके निक्कमेपन को बताती है। मतलब अपनी लेखनी से आप आज तक किसी पार्टी को कन्वींस नहीं कर पाएं कि ज़रूरत पड़ने पर आप उनके विपक्षी की बखिया उधेड़ सकते हैं या खुद उनकी उखड़ी हुई बखियां सिल सकते हैं।

इसी वजह से आजकल मैं भी खुद को निकम्मा मानने लगा हूं। बड़ी ईर्ष्या होती है ये सुनकर फलां पत्रकार उस पार्टी के हाथों जमीर और रीढ़ समेत बिक गया और मैं अब भी 5 रुपए बचाने के लालच में गले हुए टमाटर खरीद रहा हूं।

नीरज अपना परिचय कराते हुए बताते है कि कॉलेज ख़त्म होने तक नीरज बधवार ने ज़िंदगी में सिर्फ 3 ही काम किए-टीवी देखना, क्रिकेट खेलना और देर तक सोना। ग्रेजुएट होते ही उन्हें समझ आ गया कि क्रिकेटर मैं बन नहीं सकता, सोने में करियर बनाया नहीं जा सकता, बचा टीवी; जो देखा तो बहुत था मगर उसमें दिखने की तमन्ना बाकी थी। यही तमन्ना उन्हें दिल्ली घसीट लाई।

जर्नलिज़्म का कोर्स करने के बाद छुट-पुट नौकरियों में शोषण करवा वो टीवी में एंकर हो गए। एंकर बन पर्दे पर दिखने का शौक पूरा किया तो लिखने का शौक पैदा हो गया। हिम्मत जुटा एक रचना अखबार में भेजी। उनके सौभाग्य और पाठकों के दुर्भाग्य से उसे छाप दिया गया। इसके बाद दु:स्साहस बढ़ा तो उन्होंने कई अख़बारों में रायता फैलाना शुरू कर दिया।
सिर्फ अख़बार और टीवी में लोगों को परेशान कर दिल नहीं भरा तो ये सोशल मीडिया की ओर कूच कर गए। अपने वन लाइनर्स के माध्यम से लाखों लोगों को ट्विटर और फेसबुक पर अपने झांसे में ले चुके हैं। नीरज पर वनलाइनर विधा का जन्मदाता होने का इल्ज़ाम भी लगता है। और ऐसा इल्ज़ाम लगाने वाले को वो अलग से पेमेंट भी करते हैं।

अपना ही परिचय थर्ड पर्सन में लिखने की धृष्टता करने वाले नीरज वर्तमान में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में क्रिएटिव एडिटर के पद पर कार्यरत है। जहां ‘Fake it India’ कार्यक्रम के ज़रिए लोगों को बुरा व्यंग्य परोसने का काम बखूबी अंजाम दे रहे हैं। जनता का भी टेस्ट इतना खराब है कि अब तक 20 करोड़ लोग इन विडियोज़ को देख अपनी आंखें फुड़वा चुके हैं।

इनकी पहली किताब ‘हम सब Fake हैं’ को भारत में आई इंटरनेट क्रांति का श्रेय दिया जाता है। उसे पढ़ते ही जनता का लिखने-पढ़ने से भरोसा उठ गया और वो इंटरनेट की ओर कूच कर गई। नीरज की यह दूसरी किताब ज़ुल्म की इस लंबी दास्तां का एक और किस्सा है और इस उम्मीद में आपके हाथों में है कि इसका हिस्सा बनकर आप इस किस्से को सुनाने लायक बना पाएंगे।

बाकी, किताब पर बर्बाद हुए पैसों के लिए लानत-मलानत करनी हो, तो लेखक को सीधे इस नंबर (9958506724) पर कॉल कर सकते हैं। कॉल कर पैसे बर्बाद न करना चाहें, तो मिस कॉल दे दें, लेखक इतना खाली है कि खुद पलटकर आपको फोन कर लेगा।

वैसे मुझे तो लगता है पैसा वसूल है किताब आप अभी ऑडर कर सकते हैं। 


Saturday, 20 May 2023

जाइये, कीजिये और जानिये



मैं- मैं तुमसे प्रेम में हूँ।
वो- मैं तुमसे प्रेम में नही हूँ। 

कई बार प्रेम में पड़ा, हरबार बिछड़ गया। यह बिछड़न सिर्फ दो दिलों का बिछड़न नही थी। यह दो इंसानों का भी था। मैं कहानियां लिखूँ, कविताएं भी। दरअसल हम कहानियां, कविताएं, शायरी किसी एक को केंद्रबिंदु में रखकर लिखते हैं। और केंद्रबिंदु में रखा इंसान अगर लिखे हुए को नही पढ़ता तो चैन नही मिलता। वो प्रेमिका जो बिछड़ गई वो पढ़ सकी केवल प्रेम पर कहानी और कविता, तो क्या कहने।

मैं खुश था, एकतरफा प्रेम। वो मेरे हर लिखे को पढ़ सकेगी और कभी मेरे प्रेम को शायद सुन भी लेगी। 

मैं- चाय पर कब चलोगी।
वो- जब तुम कहो। 

एक छायादार पेड़ के नीचे हम आमरस पी रहे थे। चाय उसकी पहली पसंद नही है। प्रेमी तो प्रेम में चाय पर ही बुलाता है। ये भी अपना एक अन्दाज़ है, क्यूँकि अक्सर प्रेमी खाली जेब ही नजर आता है। 
 
वो सुंदर लग रही थी। हर रोज से ज्यादा सुंदर। कुछ देर के लिए ही सही वो उस पेड़ के नीचे सिर्फ मेरे लिए बैठी थी। आस-पास ढेरो लोग थे। हम सिर्फ अकेले, मैं और वो। 

वो- तुम्हें क्या पसंद है?
मैं- सबसे खराब कविताएं लिखना और सबसे सुंदर कविताएं पढ़ना। 

वो - हा, हा, हा, सुनाओ फिर कुछ। 
मैं- तुम्हारी मुस्कान बहुत खूबसूरत है। 

प्रेमी, प्रेम का कोई मौका नही छोड़ता। मैंने वही कविता सुना दी जो उसके प्रेम में किसी रात करवटे बदलते हुए लिखी थी। 

मैं- कैसी लगी कविता।
वो- सुंदर। 

वो मुझे आप कह रही थी। वो मुझसे प्रेम में नही थी। मैंने उसके हिस्से के खुद को तुम लिख दिया है। मैं प्रेम में हूँ और शायद यह लिखते वक़्त प्रेम के सबसे निचले गहराई में डूबा हुआ हूँ। 

वैसे प्रेम खलिहर लोगों का काम है। रोज ट्रेन के धक्के हों, किराए का मकान हो, सेहत की दिक्कतें हों, तो फिर प्रेम सिर्फ नाटक लगता है। पेट भरा हो तब ज़रूर प्रेम सूझता है। 

क्या आपने कभी सोचा है, बिना ज़रूरत बोल पड़ने का पश्चाताप उतना कभी नहीं होता, जितना ज़रूरत होते हुए चुप रह जाने का होता है। 

कई ज़माने लगते हैं सुबह होने में, जिन्हें रातों में नींद नहीं आती। कभी-कभी किसी रोज दिन इतना बड़ा लगता है मानो वह 24 से बढ़कर 48 घंटे का हो गया हो, पर ये तब ही होता है जब मैं, प्रेम में उसके विरह को याद करता हूँ। उस समय के हर क्षण में मुझे प्रतीक्षा होती है प्रेम की, मैं दबता चला जाता हूं समय के नीचे, यादों में...!!!


क्या करुं इस ज़िद्दी से मन का? इसी बात पर मेरे मन ने फ़रमाया है, यदि आप हाथ पर हाथ धरे ये सोच रहे हैं कि आपका अच्छा वक़्त आएगा तो वक़्त भी पैर पर पैर धरे यही सोच रहा है कि ये थोड़ी तो मेहनत करेगा। 

इसी बात पर गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि इंसान सुनता है मन भर और सुनने के बाद प्रवचन देता है टन भर और "स्वयं" ग्रहण नहीं करता कण भर। जिसका उदाहरण मेरे खुद के रूप में आपके सामने है।

ये अधूरा इश्क़ भी कम सुन्दर नही होता साहब। इसमें होती है मीठी किचकिच, लड़ाईयां, झगड़े, झड़प, बेवजह प्यार, फ़िक्र और उनसे दूर होने पे उनके पास रहने का एहसास। बड़ा ही खूबसूरत होता है अधूरा इश्क़। किसी को बना देता है ये शायर तो किसी को कवि। आजकल तो टूटे हुए दिल से या तो लेखक प्रेम कहानियां लिख रहे हैं या फिर इंजीनियर अपनी मोहब्बत के किस्से। 

बहुत विविधतायें है हिंदुस्तान के इश्क़ में। अब तो इश्क़ क्रान्तिकारी भी हो गया है। इनको अपने सनम की मोटाई से भी प्यार है, उनके गोरे-गोरे बच्चों जैसे मुखड़े और उनके मोटे चश्मे के पीछे छिपी कमजोर नज़रों से भी। प्रेम है उनके सांवले चेहरे पे हुए पिम्पल्स से... क्यूट लगते हैं वो। उन पतली कलाइयों से प्यार है जिसमे कोई घड़ी भी फिट नहीं होती। ये पढ़ते तो ओशो को है पर फॉलो प्रेमचन्द को करते हैं। गुलज़ार की नज़्म में जीते है। "हम चीज है बड़े काम की यारम..." गुनगुनाते हैं।

ये इश्क़, प्रेम, प्यार, मोहब्बत सब सीमाओं से परे हैं जितना भी आप इनको बंधना चाहेंगे न उतना ही खोते चले जयेंगे। रेत जैसा होता है मुट्ठी में बन्द करने की कोशिस करेंगे तो हाथ में बस कुछ धूल ही आएगी। पछतावे की धूल। ये ताक़त हैं एक दूसरे की कमजोरी नही। 

तो जाइये इश्क़ कीजिये। छज्जे पे चढ़कर, क्लास में उनको पलट के देख कर या उनके साथ भीड़ में चलकर। उनके बेतुके जोक्स पे हँसकर, उनकी मीठी आवाज़ में गाने सुनकर, उनके कॉलेज के सामने इंतज़ार करकर। उनके साथ गोलगप्पे खाकर  या उनकी बानायी हुई मैगी खाकर। बताकर, सुनकर, पढ़कर या लिखकर... 

इकरार कीजिये, चिल्लाकर, मुस्कुराकर, उनके छत पे चिट्ठी फेककर। फोन करकर, उनकी कॉपी के पीछे लिखकर, उनकी हथेली पे ऊँगली से नाम लिखकर, मुस्किया कर या आँखों से बताकर!  अगर वो रूठीं हो तो मनाइये और खुद रूठें हो तो ऐसे ही मान जाइये। क्योंकि इश्क़ अब सिर्फ "कुछ कुछ होता है" तक सिमित नहीं अब "माँझी" और "मसान" तक जा पहुंचा है। अब प्रेम ज़ेहन में बसता है किसी मुट्ठी में नही। अब ये लाखों के दहेज़ और स्विफ्ट डिजायर को लात मार रहें है क्योंकि जो सुक़ून उनकी ज़ुफों की छावं में है वो कहीं नही। खैर...

जाइये इश्क़ कीजिये साहेब!! और हाँ जो इश्क़ करना पड़े तो वो क्या सच में इश्क़ है। इश्क़ तो हो जाता है मिया और होने के बाद इश्क़ किया नहीं जाता निभाया जाता है। इसके लिए कलेजा-जिगरा नही बस एक दिल चाहिये। क्योंकि ये कर्तव्य नही क्रांति है।

और……

जब ज़िन्दगी की दिक़्क़तें न जागने दें और न सोने दें, तो सपने कहाँ से देखूँ साहब। ना बस में है जिंदगी, ना कोई काबू मौत, लेकिन फिर भी यहाँ इंसान खुदा बना फिरता है..!!


जीवन के इस द्वंद में आदमी, आदमी ना होकर बहुरुपिया हो जाता है, हर रोज भेष बदलकर खुद की नुमाइश करने को मजबूर!

Monday, 15 May 2023

हाकिम ने जबान खींच ली…..



मुझे ये लिखते हुए बेहद दुःख हो रहा है कि मैं उस दौर में हूँ जहां सत्ता, लेखक व बाज़ार का ज़बरदस्त गठबन्धन है। हमें इस बात को समझने के लिए सरकार व सरकार ने नये लगने वाले नियमों को बारीकी से देखना पड़ेगा और उन्हें जनता तक पहुँचाने वाली संस्थाओं की धूर्तता को भी महसूस करना होगा। आंखिर कोई आपके व आपके जज़्बातों व संविधान द्वारा दिए गये आपके अधिकारों के साथ खिलवाड़ कैसे कर सकता है।  


वैसे मैं JNU से नही पढ़ा हूँ, पर वहाँ एक-दो बार गया जरुर हूँ। जहां पढ़ा वो मेरे व मुझ जैसे किसी छोटे गाँव में पले बढ़े छात्र के लिए कभी उससे कमतर भी नही रहा। हमें विद्यालय जाने को यूनिफोर्म की कभी शिकायत नही रही, कापी-किताब लेकर जाने की आज़ादी थी, शिक्षक से बेपरवाह बहस की आज़ादी थी। कभी भी आने-जाने पर कोई रोक-टोक व क्लास पढ़ने की बाध्यता भी कभी नही रही। उसके बावजूद भी मुझ जैसे वहाँ पढ़ने वाले छात्रों की शिक्षा बेहतर रही। बस एक कमी थी वहाँ कोई छात्रा नही पढ़ती थी वह केवल छात्रों के लिए ही बना विद्यालय था जो आज भी वैसा ही है। 

हमारे समय के अधिकतर छात्रों को आप उस समय के अपने शिक्षक के साथ आज हाथ मिलाते हुए, कभी कभार एक साथ जाम टकराते भी देख सकते हैं। कभी किसी प्रकार का कोई मतभेद नही रहता था, पर बहस हर रोज़ किसी न किसी रूप में होती रहती थी। उस समय हमारे शिक्षक व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ खुलकर बोलते थे तो छात्र भी उनके सुर में सुर मिलाते दिखाई पड़ते थे। खैर मैं बहुत अच्छा विद्यार्थी तो नही रहा, पर जैसा भी हूँ अपनी पढ़ाई से व पढ़ाई के दर्मियान बहुत खुश रहा। उसके बाद जब कॉलेज पहुंचा तो वहाँ हमारा रुतबा अलग ही रहा। अक्सर हमको सुनने को मिलता, अरे ये जीआईसी वाले हैं इनसे जरा दूर ही रहना। बहस हम बचपन से बिना किसी झिझक के करते आ रहे थे तो यहां भी कोई ख़ास दिक्कत नही आई। उस दौरान जो भी हमारे सम्पर्क में आया वो कभी हमें नही भुला सकता, ऐसा मेरा मानना है। जो अक्सर ज़िन्दगी के किसी न किसी मोड़ पर देखने को मिलते रहता है। शिक्षकों से वहाँ भी खुलकर बहस होती रही पर कभी मन में द्वेष भाव दोनो तरफ से नजर नही आया। आज भी उनके लिए मन में वही सम्मान है जो उस वक्त एक नये छात्र के रूप में था। उस दौर के हमारे कॉलेज शिक्षक अपनी बेबाक़ राय दिया करते थे। चाहे वह किसी भी सामाजिक, राजनीतिक, क़ानूनी या किसी के प्यार के मामले में हो, उन्हें अपना विचार रखने में किसी तरह की कोई शंका नजर नही आती थी। न ही कोई प्रतिबंध उन पर रहा होगा। ये कर्मचारी आचरण नियमावली तो तब भी रही होगी। 

अभी कुछ समय पहले या यूँ कहे कुछ दिन पूर्व प्रदेश सरकार में महानिदेशक विद्यालयी शिक्षा विभाग ने एक अधिकारिक पत्र जारी करते हुए कहा है कि कोई भी शिक्षक या अधिकारी किसी प्रकार का कोई कोई बयान मीडिया व सोशल मीडिया पर न दे जिससे कि विभाग की छवि ख़राब होने का खतरा है। इसके लिए किसी के कुछ भी बोलने पर प्रतिबन्ध लगाया गया है। फिर वहीं बड़ी शालीनता से कर्मचारी आचरण नियमावली का हवाला देते हुए धमकाया भी गया है। अब क्या करे कोई? जब रोज़गार करना है तो सुनना तो पड़ेगा, इस मानसिकता के साथियों ने तो इसे स्वागत योग्य भी बता डाला। 

परन्तु मैं आपसे पूछना चाहता हूँ?……
क्या यह एक शिक्षक के अधिकारों का हनन नही है? 
क्या यह भारत में निवास करने वाले की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर प्रहार नही है? 
क्या शिक्षक को अपने उत्पीड़न की आवाज़ उठाने का कोई अधिकार नही है? 



खैर……..

मैंने जब यह पत्र अपने एक सहपाठी रहे पत्रकार साथी अजेय व उनकी पत्नी अपराजिता (जिन्हें मैं भाभी कहकर सम्बोधित करता हूँ) को भेजा तो भाभी जी की कॉल आयी। सामान्य हाल-चाल की बातों से आगे बढ़े तो पता लगा घर पर कल शाम को घमासान रण का माहौल था परन्तु अब अत्यधिक शान्ति का। मानो एक दूसरे की साँसों की आवाज भी न सुनाई दे रही हो। ज़ोर देकर पूछने पर पत्र पर हुई बहस का मामला सामने आया। भाभी बोलीं पहले तो आपके दोस्त कम थे जो अब सरकार ने भी मेरे बोलने पर प्रतिबंध लगा दिया है। जब भी घर आओ, इनसे बात करूँ तो ये बोलते हैं तुम कितने सवाल करती हो यार….. 

अब तो आलम ये है कि अक्सर बातों- बातों में मुझ पर झल्ला भी जाते हैं। पर क्या करूँ घर का ये दुःख विद्यालय जाकर बच्चों के बीच भूलने की कोशिश करती रहती हूँ। वहाँ भी कभी कभी उच्चाधिकारियों के दबाव या बेफिजूल के कामों से परेशान हो जाते तो अब तक अपना विरोध करने की आज़ादी तो थी। आज तक अपना गम हम मीडिया व सोशल मीडिया के माध्यम से बाटने की कोशिश किया करते थे। जब से ये लेटर आया है अब इन दोनो से दूर रहने की बात कही है। लगता है हाकिम ने जैसे ज़बान खींच ली हो। तब से बड़ी दुविधा में हूँ। अब इनसे कैसे बात करूँ? किसी ने देख लिया तो? अब आपके भाई साहब तो कितना कमाते है पता नही घर खर्च चलेगा या नही, कभी बताते भी नही। अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूँ?

अपने परिवार की खुशी या तुम्हारे भाई साहब की खुशी के लिये अपनी नौकरी से अलविदा कह दूँ। फिर बार-बार एक ही ख़याल सता रहा है कि उसके बाद घर कैसे चलेगा? फिर एक मन कह रहा है कि बहुत झमेला झेल लिया शादी करके अब इस विभागीय पत्र का हवाला लेते हुए अपने पत्रकार पति को ही छोड़ देती हूँ। 

आपको क्या लगता है? 
आपकी नजर से क्या यह ठीक रहेगा? 
अपनी राय दो………

थोड़ी देर खामोश रहने के बाद इस बहस से अपना पल्ला झाड़ने की मनसा से मैंने बोला भाभी आपको ये पत्र भेजने का मेरा ऐसा उद्देश्य तो बिलकुल भी नही था, जो आप बोल रहीं हैं। आप ऐसा कैसे सोच सकते हैं? अभी पाँच साल पहले तो आप दोनो की शादी हुई है। फिर मुस्कुराते हुए मैंने बोला वैसे आप एक पत्रकार से ही ये सारे सवाल व लम्बी-चौड़ी वार्ता कर रहीं हैं। थोड़ी चुटकी लेते हुए, आपको ध्यान रखना होगा, कहीं कोई कार्यवाही न हो जाए। 

वो….ह मैं तो भूल ही गयी थी आप भी एक पत्र… का…. कार ही हैं……. वैसे मैं तुम्हें एक सलाह देना चाहती हूँ कभी शादी करो तो देख लेना। हमारी तरह कुछ ऐसा न हो। वर्ना दोनो एक जैसे पछताओगे, तुम भी और मेरे सामने बैठा यह तुम्हारा पत्रकार दोस्त भी। 

वैसे भाड़ में जाओ तुम दोनो….. 
और गुर्राते हुए फोन कट कर दिया। अब आप ही बताओ दोस्तों मैंने कुछ गलत कहा।

Monday, 8 May 2023

एसएमएस, कॉल कर परेशान न करें



आपको भी कई सन्देश आते रहते होंगे, फलना ऑफ़र चल रहा है, इतने प्रतिशत की छूट मिलेगी वगैरह-वगैरह। अब तो मैसेज भी आने लगे इस नम्बर पर कॉल करें, मुझे भी अक्सर आते रहते हैं। आप कहीं भी हो, आपके नम्बर पर किसी का कॉल लगे या न लगे इनका तो लग ही जाता है, पता नही क्या गड़बड़झामा है। आज मैंने भी इनके एक कस्टमर केयर नम्बर में पहले जवाबी सन्देश भेजा जब कोई जवाब नही आया तो फोन ही कर डाला और एक बेहतरीन ऑफ़र भी दे डाला……… 


पहले तो मुझे लगा फोन लगेगा भी या नही, क्यूँकि एसएमएस तो डिलीवर हुआ नही उस पर मेरा। फोन नम्बर कर कॉल किया तो रिंग हो रहा था…

उधर से एक लङकी ने फोन उठाया- सर आपका स्वागत है, मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूँ?

मैं- मुझसे शादी करोगी, मैं बहुत अकेला औऱ तनहा हूँ ?

लङकी- सर आपका गलत नंबर लग गया है, कृपया नम्बर की पुनः जांच कर लें।

मैं- ना सही लगा है रे, प्लीज बताओ ना, करोगी शादी मुझसे, तुमको महारानी बनाकर रखूंगा... कसम से ??

लङकी- सर, आई एम नॉट इंट्रेस्टेड इन यू..... मुझें आपमें कोई दिलचस्पी नहीं है, माफ़ कीजिए औऱ फ़ोन रखिए।

मैं- अरे सुन तो, अरेँज मैरिज पर स्विट्ज़रलैंड का और लव मैरिज पर सिंगापुर का हनीमून प्लान है मेरा। कर ले ना मुझसे शादी, सारा जीवन ऐश ही ऐश करेगी।

लङकी - मैं तुम्हें जानती भी नही, मुझे तुमसे शादी मे बिलकुल इंट्रेस्ट भी नही है, अपने प्लान अपने पास रखो बेवकूफ आदमी।

मैं- अरे यार सुन तो, जान भी लोगी, पहचान भी लोगी जल्दी। मैं तेरे को वेडिंग फंक्शन पर डायमंड नैक्लेस दूँगा औऱ रिशेप्शन के दिन झूमके और खूबसूरत गोल्ड कंगन के साथ पायल भी दूँगा। अब तो कर ले मेरी जान मुझसे शादी।

लङकी- शटअप, मै इंट्रेस्टेड ही नहीँ हूँ, चल अब फ़ोन रख। 

मैं- अब समझ में आया मेरा दर्द ? रोज मुझे फोन और SMS कर कर के क्या-क्या ऑफर देती रहती हो जिनमे मैं बिलकुल भी इंट्रेस्टेड नहीँ होता...... अपनी बकवास हमेशा भाजते रहते हो हम जैसे भोले भाले लोगों पर। 

सुधार जाओ तुमलोग, नहीं तो अगली बार नागिन डांस करते हुए बारात लेकर सीधे तेरे दफ़्तर पहुँच जाऊंगा चुड़ैल और उसने हाहाहाहाहाहाहाहा कर बड़बड़ाते हुए फोन काट दिया। 

व्यंग्य अनसुलझे क्रोध या कुंठाओं वाले लोगों के लिए एक कुत्सित मुकाबला करने वाला तंत्र है। फ्योदोर दोस्तोवस्की ने इसमें दर्द की एक चीख को पहचाना: व्यंग्य, उन्होंने कहा, "आम तौर पर विनम्र और पवित्र आत्मा वाले लोगों की अंतिम शरणस्थली होती है, जब उनकी आत्मा की निजता पर मोटे तौर पर और दखलंदाजी की जाती है।”

कैसी रही मित्रों, पक्का तुम कुछ और ही सोच में पड़े होगे…….🤪

Saturday, 6 May 2023

मेरा अनमन



अक्सर मैं जिंदगी को ढूंढने दरबदर फिरता हूं और शाम बेबसी को साथ लेकर घर लौट आता हूं मैं। उम्र इतनी हो गई है अब फिर भी बचपने को याद कर आज भी चुपके से मैं उस गली की सैर कर आता हूं। कल यूं ही अनमने ढंग से मोबाइल को पकड़े फेसबुक को स्क्रॉल कर रहा था कि अचानक ही एक पोस्ट पे रुक गया! जो अधूरे प्रेम की यादें अक्सर छोटे छोटे किस्सो में तब्दील हो जाया करती है कि बातों के बारे में लिखा था। पढ़ते पढ़ते ही याद आ गया कि उसके पास भी तो ऐसी बहुत सी यादें है जो अब किस्सो कहानियों में बदलना चाहती थी!!


फिर आंखे मूंद के बैठा सोचने कि आंखिर मैं आज उसकी किस याद को किस्सा बनाऊँ। उसका मिलना लिखूँ, या पहली मुलाकात लिखूँ, या कैब की राईड, या फिर वो लीची छील छील के थमाना लिखूँ, या पेड के नीचे बैठ के बिताई वो शाम लिखूँ या लिख डालूँ वो अधूरे वादे जो किसी मंदिर के अहाते में बनी बेंच पे एक दूसरे से किये गए थे!!  खैर इन सब यादों में एक भी याद ऐसी न थी जिसे किस्सा बनाया जाए। हर एक याद अपने आप मे पूरी एक कहानी थी, जो सिर्फ आसुओ से और कुछ एक मुस्कानों से सजी हुई थी! 

आंखे खोल के बैठ गया, परेशान हो गया था कि कोई ऐसी बात नही जिसे लिख दिया जाए। बस परेशानी में कलम उठायी और लिख ली कुछ कहानी, और खड़ा हो गया दरवाज़े के बाहर रात के अंधेरे में दूर तक देखने की कोशिश करते हुए!! 

"तुम रातों को जागना नही छोड़ोगे न" 
- अरे यार छोड़ दूंगा न, इतना परेशान क्यों करती हो तुम 
"तुमने वादा किया था न मुझसे" 
- हां तो इसमें कौन सा पहाड़ ही टूट गया, वादे होते ही है टूटने के लिए!! 
"हां शायद वादे होते ही है टूटने के लिए" 

अचानक ही उसके हाथ की तपिश सी महसूस हुई मेरे हाथ पर और बड़ी जोर से मैंने हाथ झटक दिया। देखा तो रात पूरी बीत चुकी थी और यादों में ऐसा खोया के खाना पीना भूल गया था। लेकिन कुछ सोचा, खुद पर हंसी भी आयी, लाइट बुझायी, हाथ में पकड़ी किताब को बाहर ही फेंक के अंदर चल दिया गुनगुनाते हुए!! 

"सुनते है के मिल जाती है हर चीज प्रार्थना से, एक रोज तुम्हे मांगेंगे परमात्मा से" 

वो तुमसे
प्यार करे और जिद भी,
बात करो तो ब्लॉक कर दे 

बेअसर रहे दर्दे दास्तां,
मर्ज बने और दवा भी दे,

फरेब का ताज पहन बने,
राजा, सभी को चोर बना दे

प्यार का पिंजरा बर्बादी का,
कैद करे और रिहाई भी न दे,

गजब दुनिया के अजब रिश्ते,
मजबूर को कमज़ोर बना दे,

बहाने, फसाने से दूर हो चले,
जिंदा रहे और जिंदगी भी न दे,

अच्छी थी पहले की जिंदगी,जो
प्यार को हसीन एहसास बना दे।

मैं हर रोज सोचता हूं किसी से कभी कुछ ना कहूं, पर क्या करुं अपने लिखने में हमेशा ही उभर आता हूं। आंखों के आगे बिखरती हुई उम्मीदों की किरचन अक्सर अकेले में आँखों और सीने में चुभती है, कैसे कहोगे किसी को कि इसे महसूस करके देखो, क्योंकि चुभन की कोई कैसे कल्पना करेगा....!! 

❤❤❤