Saturday, 25 June 2022

(V)चौरासी कोस भूमि मे बसा है सम्पूर्ण मिथिला



हम सभी ने अक्सर सुना व तस्वीरों में कहीं न कहीं देखा ही होगा कि भगवान कृष्ण सांवरे थे, ऐसा नहीं है। हमने इतना ही कहा है सांवरा कह कर, कि कृष्ण के सौंदर्य में बड़ी गहराई थी, जैसे गहरी नदी में होती है, जहां जल सांवरा हो जाता है। यह सौंदर्य देह का ही सौंदर्य नहीं था–यह हमारा मतलब है। खयाल मत लेना कि कृष्ण सांवले थे। रहे हों न रहे हों, यह बात बड़ी बात नहीं है। लेकिन सांवरा हमारा प्रतीक है इस बात का कि यह सौंदर्य शरीर का ही नहीं था, यह सौंदर्य मन का था। मन का ही नहीं था, यह सौंदर्य आत्मा का था। यह सौंदर्य इतना गहरा था, उस गहराई के कारण चेहरे पर सांवरापन था। छिछला नहीं था सौंदर्य, अनंत गहराई लिए था।




यह जो मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट, वह सुंदर मुकुट, जिसमें सारे रंग समाएं हैं! वही प्रतीक है। मोर के पंखों से बनाया गया मुकुट प्रतीक है इस बात का कि कृष्ण में सारे रंग समाए हैं। महावीर में एक रंग है, बुद्ध में एक रंग है, राम में एक रंग है–कृष्ण में सब रंग हैं। इसलिए कृष्ण को पूर्णावतार कहा है…सब रंग हैं। इस जगत की कोई चीज कृष्ण को छोड़नी नहीं पड़ी है। सभी को आत्मसात कर लिया है। कृष्ण इंद्रधनुष हैं, जिसमें प्रकाश के सभी रंग हैं। कृष्ण त्यागी नहीं हैं। कृष्ण भोगी नहीं हैं। कृष्ण ऐसे त्यागी हैं जो भोगी हैं। कृष्ण ऐसे भोगी हैं जो त्यागी हैं।

कृष्ण हिमालय नहीं भाग गए हैं, बाजार में हैं। युद्ध के मैदान पर हैं। और फिर भी कृष्ण के हृदय में हिमालय है। वही एकांत! वही शांति! अपूर्व सन्नाटा! कृष्ण अदभुत अद्वैत हैं। चुना नहीं है कृष्ण ने कुछ। सभी रंगों को स्वीकार किया है, क्योंकि सभी रंग परमात्मा के हैं।



अब बात करते हैं मिथिला की और जानने की कोशिश करते हैं मिथिलांचल व वहाँ का जीवन —

♦️प्राचीन मिथिला की राजधानी-
प्राचीन मिथिला की राजधानी जनकपुर में था। जनकपुर अब एक आधुनिक बाजार बन चुका है। जहां नेपाली मुद्रा के साथ-साथ भारतीय मुद्रा में भी लेन-देन होता है। जनकपुर जाने के लिए बिहार से तीन मार्ग से जा सकते हैं। पहला मार्ग जयनगर से रेल मार्ग के द्वारा, दुसरा सीतामढ़ी से बस के द्वारा तथा तीसरा मधुबनी जिले के उमगाँव से बस के द्वारा। वैसे भारत के प्रमुख नगरों से जनकपुर वायुमार्ग से भी जा सकते हैं। जनकपुर की रीति रिवाज, भाषा बिहार के मिथिलांचल जैसा ही है। भारतीय पर्यटक के साथ ही अन्य देशों के पर्यटक भी यहाँ आते रहते हैं। जनकपुर आने पर ऐसा नहीं लगता है कि हम किसी अन्य देश में हैं।



पुराणों के अनुसार इस मिथिला-परिक्रमा का बहुत महत्व है। जिस मिथिला धाम के नाम लेने मात्र से समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती हो उस मिथिला की परिक्रमा और प्रदक्षिणा का फल कितना दिव्य होगा यह कहने की आवश्यकता नहीं है। श्री पराशर जी ने इसी सन्दर्भ में श्री मैत्रेय जी से कहा कि परिक्रमा करने वाले की तो बात ही छोड़िए जो व्यक्ति इस मिथिला-परिक्रमा को करने का संकल्प भी लेता है या विचार भी करता है उसके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। ऐसे में इस परिक्रमा को पूर्ण करने वाले के तो स्वयं के साथ कुल और पितृगण का भी उद्धार हो जाता है। त्रेताकाल से चलती आ रही इस परिक्रमा की शुरुआत इस युग में श्री सूरकिशोर बाबा के आगमन से पूर्व ही हो गई थी और उनके आगमन तथा जनकपुर आदि के प्रादुर्भाव के बाद यह वृहत और व्यापक रूप में की जाने लगी।



अट्ठारहवीं शताब्दी में रचे गए मिथिला माहात्म्य ग्रन्थ में इस परिक्रमा का विशेष वर्णन मिलता है जिसमें भारत और नेपाल के बीच 128 किलोमीटर की दूरी तक की जाने वाली विशाल परिक्रमा का विवरण दिया गया है। मिथिला की सम्पूर्ण भूमि चौरासी कोस की मान कर इस परिक्रमा को आम भाषा में चौरासी कोस परिक्रमा भी कहते हैं। यह परिक्रमा जनकपुर से की जाती है और यही इसकी परंपरा रही है। मिथिला माहात्म्य के अध्याय तीन के अंतर्गत इस परिक्रमा को करने के लिए तीन समय बताए गए हैं- कार्तिक (अक्टूबर-नवम्बर), फागुन (फरवरी-मार्च) और वैशाख(अप्रैल-मई) महीना। लेकिन अभी की जाने वाली परिक्रमा में फागुन माह की परिक्रमा ही विशेष चर्चा में होती है।

♦️पुस्तक के अनुसार यहाँ तीन प्रकार की परिक्रमा का विवरण आता है--
(वृहत -परिक्रमा, मध्य-परिक्रमा और लघु -परिक्रमा ) इस परिक्रमा के अंतर्गत श्री मिथिला बिहारी जी और श्री किशोरी जी का डोला सजाया जाता है और उसमें दोनों युगल सरकार को स्थापित कर उनकी झाँकियों को भ्रमण में संग लेकर चलते हैं। साथ में संत, सन्यासी, गृहस्त, भजन-कीर्तन की टोली आदि चलती है और ईश्वर का गुणगान करते हुए पैदल ही यह परिक्रमा पूर्ण करनी होती है। रात भर जहाँ भी यह टोली विश्राम करती है वहाँ भजन-कीर्तन आदि अनवरत चलते रहते हैं।इस परिक्रमा के अंतर्गत जिस-जिस स्थान से यह डोला गुजरता है उस स्थान के निवासी और ग्रामवासी सेवा-सत्कार का कोई भी अवसर नहीं गंवाते अपितु सभी गाँवों में इस डोला-भ्रमण की प्रतीक्षा होती रहती है और जहाँ यह डोला विश्राम लेता है उस ग्राम के लोग और भक्त इसकी पूर्ण व्यवस्था करते हैं। इस डोला-परिक्रमा में सम्पूर्ण मिथिला उत्साहित होकर भाग लेती है।

♦️वृहत-परिक्रमा-
वास्तव मंत वृहद परिक्रमा गृहस्तों के लिए नहीं है क्योंकि इसे करने में मिथिला के चारों ओर चौरासी कोस की परिक्रमा होती है जिसके अंतर्गत लगभग 268 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है जिसे करने के लिए एक वर्ष लग जाता है।शुरू में यह परिक्रमा बस सन्यासियों के द्वारा ही की जाती थी किन्तु समय के साथ यह गौण होती गई और अब यह परिक्रमा नहीं की जाती है। वैसे इस परिक्रमा का प्रारम्भ कौशिकी नदी के तट से किया जाता था जो फिर बाबा सिंघेश्वर स्थान(सहरसा)से होते हुए गुजरती थी। फिर सिंघेश्वर स्थान से यह परिक्रमा पश्चिम की ओर बढाती थी और गंगा नदी के सिमरिया घाट तक जाती थी जहाँ से पुनः यह परिक्रमा मुड़ती थी और हिमालय के तराई क्षेत्रों (नेपाल आदि) से होते हुए वापस कौशिकी नदी तट पर आती थी। वहाँ से पुनः यह परिक्रमा सिंघेश्वर मंदिर में आकर समाप्त होती थी। कालक्रम में होने वाले व्यवधानों और प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण कम होते होते अब यह वृहत परिक्रमा विलुप्त प्राय हो गई है।

♦️मध्य परिक्रमा(आधुनिक वृहत परिक्रमा)-
आधुनिक काल में यही परिक्रमा वृहत परिक्रमा मानी जाती है जिसके अंदर लगभग मिथिला के चारों ओर चालीस-बयालीस कोस की परिक्रमा होती है जो लगभग 128 किलोमीटर तक की जाती है। किन्तु अब इसे ही चौरासी कोस परिक्रमा के नाम से जाना जाता है।

ग्रन्थ के हिसाब से इस परिक्रमा को पाँच दिन में पूर्ण कर लेना चाहिए लेकिन मिथिला के पंडितों ने समय और व्यवस्था को देखते हुए इस परिक्रमा के लिए पंद्रह दिन का समय निर्धारित किया है जिससे बड़े- बूढ़े और अस्वस्थ व्यक्ति भी इस परिक्रमा को पूर्ण कर अपना जीवन कृतार्थ कर सकें।

वर्तमान समय में यह परिक्रमा फागुन (फरवरी-मार्च) माह की अमावश्या तिथि को प्रारम्भ होती है और इसी दिन श्री मिथिला बिहारी और श्री किशोरी जी का डोला परिक्रमा के लिए उठाया जाता है। लगातार पंद्रह दिनों तक चलने वाली यह परिक्रम फागुन शुक्ल-पक्ष पूर्णिमा (होली) से एक दिन पहले चतुर्दशी को समाप्त होती है। इन पंद्रह दिनों में प्रत्येक रात्रि को एक विश्राम स्थल बनाया गया है जहाँ डोला-यात्रा रोकी जाती है।

अमावश्या के दिन यह यात्रा नेपाल अधिकृत मिथिला के धनुषा जिले के पास कचुरी गांव से शुरू होती है जो जनकपुर से लगभग12किमी दूर है और वहाँ से उठाकर प्रथम रात्रि को जनकपुर के हनुमान नगर में विश्राम लेती है। जनकपुर स्थित हनुमान-नगर का हनुमान मंदिर इस यात्रा का पहल पड़ाव है।



दूसरे दिन (प्रतिपदा) को यह यात्रा हनुमान नगर से निकल कर कल्याणेश्वर महादेव (कलना) के मंदिर के पास विश्राम लेता है। तीसरे दिन (द्वितिया) को यह डोला कल्याणेश्वर महादेव को प्रणाम कर गिरिजा-स्थान (फुलहर) में जाकर विश्राम लेता है। चौथे दिन(तृतीया) को माँ गिरिजा के आशीर्वाद से यह डोला उठता है और मटिहानी के विष्णु-मंदिर में जाकर विश्राम लेता है। फिर पाँचवें दिन (चौठ) को यह डोला सारे दिन भ्रमण करते हुए मार्ग में जलेश्वर महादेव की शरण में विश्राम लेता है। छठे दिन ( पंचमी ) को यह डोला जलेश्वर से उठ आकर मार्ग में कीर्तन भजन आदि करते हुए मड़ई पहुँचता है जहाँ माण्डव्य ऋषि का आश्रम है। सातवें दिन (षष्ठी) को यह डोला उठ कर अपनी अगली यात्रा पर विदा होता है और रात्रि में ध्रुव-कुंड के निकट ध्रुव मंदिर के पास विश्राम लेता है। तत्पश्चात आठवें दिन (सप्तमी) को यह डोला उठ कर जनकपुर के निकट के कंचन-वन में विश्राम लेता है जहाँ श्री किशोरी जी की रास स्थली मानी जाती है। यहाँ रात्रि भर बहुत सुन्दर उत्सव आदि होते रहते हैं और भजन-कीर्तन अनवरत चलता रहता है। नौमे दिन (अष्ट्मी ) को यह डोला कंचन वन से विदा लेते हुए पर्वत में विश्राम करता है जहाँ पाँच पवित्र पहाड़ों का दर्शन होता है। तत्पश्चात दसवें दिन (नवमी) को यह डोला पवित्र धनुषा-धाम को पहुँचता है जहाँ शिव जी के टूटे हुए पिनाक धनुष का मध्य भाग रखा हुआ है। पुनः ग्यारहवें दिन(दशमी) , यह डोला सतोखरि में विश्राम लेता है जहाँ सात कुंड एक साथ हैं। फिर बारहवें दिन(एकादशी) , सतोखरि से चलकर यह डोला औराही फिर तेरहवें दिन वहाँ से करुणा और चौदहवें दिन (त्रियोदशी ) को बिसौल में जाकर विश्राम लेता है जहाँ श्री विश्वामित्र जी का मंदिर है। अंत में बिसौल से होते हुए पन्द्रहवें दिन (चतुर्दशी ) ये डोला जनकपुर पहुँचता है और वहाँ श्री किशोरी जी के दर्शन के पश्चात यह परिक्रमा समाप्त मानी जाती है । इस पूरे यात्रा के दौरान श्री मिथिला बिहारी और जनक दुलारी जी के डोले को बहुत खूबसूरती से सजाया जाता है और एक बड़े ध्वज के साथ एक मजबूत मंच पर रखा जाता है, जिसके चारों ओर भजन और कीर्तन करते हुए यात्रा और विश्राम किया जाता है। भारत और नेपाल से आये हुए सन्यासियों और श्रद्धालुओं के भजन-कीर्तन आदि से पूरे पंद्रह दिनों तक दिवारात्रौ बस ईश्वर अनुराग की ध्वजा लहराती रहती है। श्री किशोरी जी और श्री दुल्हा जी के नाम का जय जय घोष, सम्पूर्ण मिथिला को पावन कर देता है। तत्पश्चात जब यह डोला जनकपुर पहुँचता है तो वहाँ यह जनकपुर की अंतर्गृही परिक्रमा के साथ जुड़ जाते हैं।

♦️लघु (अंतर्गृही) परिक्रमा--
यह परिक्रमा फागुन पूर्णिमा के दिन की जाती है जिसके अंतर्गत जनकपुर नगर के चारों ओर लगभग आठ किलोमीटर तक भ्रमण किया जाता है और जनकपुर नगरी की प्रदक्षिणा की जाती है। इस परिक्रमा में डोला को घूमने के लिए एक पथ बना हुआ है। इस परिक्रमा के अंतर्गत कदम्ब चौक हनुमान मंदिर से गंगा सागर में स्नान कर भ्रमण प्रारम्भ करते हैं और इस सर में स्नान करने के बाद सभी भक्त अपने मिथिला बिहारी के डोले के साथ कदम्ब चौक जाते हैं। फिर वहाँ से परिक्रमा पथ के सहारे मुरली चौक होते हुए, ज्ञानकूप, विहार कुंड, पापमोचनी सर आदि की परिक्रमा करते हुए पुनः उसी स्थान पर गंगा सागर के निकट पहुँच जाते हैं। जहाँ बात नेपाल स्थित मूल श्री जानकी मंदिर की आती है तो, इस स्थल का इस परिक्रमा में बहुत बड़ा स्थान है।



क्रमशः——

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