Saturday, 25 June 2022

(VI)- 1961 ईस्वी से लगातार चला आ रहा है श्री सीताराम नाम का अखंड संकीर्तन। मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह कोई भगवान् नहीं अपितु उनके बहन-बहनोई हैं।


अपनी आंखें बंद करके, दोनों हाथ जोड़कर, किसी मंदिर में खड़े होकर, खुद को न बदलने की शर्त पर, हम उस ईश्वर से किसी चमत्कार के होने की कामना तो करते हैं पर कभी भी खुद को औऱ ज्यादा विनम्र, सहनशील और संघर्षशील बनाने की प्रार्थना नही करते।


ऐसा लगता है मानो हम जीवन के इस संघर्ष से हार से गये है। उससे भी ज्यादा हास्यपद यह है कि वो संघर्ष जिसमे हम खुद को हारा हुआ मानते हैं, हमारे लिए उस संघर्ष की परिभाषा क्या है? 

हम भूल गए हैं कि जीवन संघर्ष से निखरता है किसी चमत्कार से नही, हम यह भी भूल गए हैं कि अगर भगवान ने उस दूसरे इंसान को हम जैसा ही बनाना होता तो वह हमारी प्रार्थना के बिना भी उसे हम जैसा ही बनाकर भेजता..

इन सब प्रार्थनाओं के बीच एक ख्याल जो कभी हमारे मन से होकर नही गुज़रता की यहाँ हर शख्स एक दूसरे से बिल्कुल अलग है यही इस जीवन की सुंदरता है। यही वजह है कि कोई शख्स खुद को दूसरों के हिसाब से नही बदल पाता है………



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क्षण भंगुर काया, तू कहाँ से लाया
गुरुवन समझाया, पर समझ न पाया

ये साँस निगोड़ी, चलती रुक थोड़ी
चल-चल रुक जावे, क्या खोया पाया

क्या लेकर आया जग में, क्या लेकर जाएगा?
ओ बंधु!
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इस संसार में, जहाँ तक हम देख सकते हैं, किसी भी चीज में रंग नहीं है। पानी, हवा, अंतरिक्ष और पूरा जगत ही रंगहीन है। यहाँ तक कि जिन चीजों को आप पूरी रंगत में देखते हैं, वे भी रंगहीन हैं। रंग तो दरअसल केवल प्रकाश में होता है। उसके अभाव में सब फीके हैं, रंगहीन हैं।

ऐसे ही अक्सर हम समझते हैं कि जो चीज़ हमारे भीतर है वो हमारा गुण होगा, जबकि जो आप अपने आस-पास बिखेरते हैं, जो बाँटते हैं, वो आपका गुण होता है।

ये ठीक वैसा ही है जैसा रंगों और रोशनी के साथ होता है, तो क्यों न थोड़ा ध्यान दें कि हम क्या बाँट रहें हैं और क्या बिखेर रहें हैं, आपको प्रकाश हो जाना है। आपके होने से ही वीरानी में भी रंगत आ जाए। वास्तव में यही हमारा व्यक्तित्व भी है।

क्या आपको पता है मिथिलावासियों के लिए मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह कोई भगवान् नहीं अपितु उनके बहन-बहनोई हैं। 1961 ईस्वी से लगातार चला आ रहा है श्री सीताराम नाम का अखंड संकीर्तन…



♦️श्री जानकी-मंदिर (जनकपुरधाम, नेपाल)-
श्री जानकी-मंदिर के विस्तार और महल-विन्यास की अलग ही कथा है। आज के युग में प्रसिद्द ये जानकी मंदिर, जनकपुर ही नहीं सम्पूर्ण मिथिला और नेपाल राष्ट्र के लिए एक गौरव स्तम्भ बन कर उभरा है। इस मंदिर को श्री किशोरीजी का साक्षात् निवास-स्थल माना जाता है। मान्यता के अनुसार इस मंदिर का प्रधान गर्भ-गृह श्री किशोरी जी का कोहबर है और वहाँ नित्य श्री दूल्हा-दुल्हन सरकार विराजते हैं। इस धारणा के पीछे मंदिर के संस्थापक और प्रथम महंत श्री बाबा सूरकिशोर दास जी की एक अद्भुत लीला का विवरण मिलता है। जैसा कि कथाओं में वर्णित है, एक बार बाबा ने सोचा कि बेटी की ससुराल जा कर उससे मिल आऊँ। ऐसा सोच कर बाबा अयोध्या की ओर प्रस्थान कर गए।भक्त का भाव देख कर श्री किशोरी जी, श्री दुलहा जी के साथ बाबा के दर्शन को गईं और उनसे नगर प्रवेश का निवेदन भी किया। किन्तु बाबा ने करुणा-पूरित शब्दों में मना करते हुए समझाया कि बेटी की ससुराल में जा कर रहना मर्यादोचित नहीं है। उनके निर्मल वचनों से रीझे हुए श्री दुलहा सरकार ने उनसे कोई वरदान माँगने का निवेदन किया। तब बाबा जी ने हाथ जोड़ कर श्री दुलहा जी से कहा कि हमारे यहाँ बेटी और जमाता को देने की परंपरा है और जमाता से कुछ लिया नहीं जाता। मैं इतना ही चाहता हूँ कि आप मेरी पुत्री के साथ नित्य मुझे दर्शन देते रहें। बाबा के ऐसे सहज और प्रेम अनुरक्त वचन सुन कर श्री किशोरी जी ने उन्हें वचन दिया कि वो नित्य श्री दुलहा के साथ जनकपुर स्थित कोहबर में स्थापित मूर्ति में ही विराजमान रहेंगी। इस कथा को सुन कर केवल मिथिला ही नहीं विश्व के कोने-कोने से भक्त और श्रद्धालु दर्शन और कामना पूर्ति हेतु मंदिर पधारने लगे। इसी क्रम में वर्तमान वृहत महल की स्थापना का श्रेय टीकमगढ़ (भारत) की तत्कालीन महारानी वृषभानकुअँरि जी को जाता है। कथा के अनुसार महारानी ने पुत्र प्राप्ति की कामना हेतु "श्री कनक-भवन" (अयोध्या, भारत) का पुनर्निर्माण करवाया था। किन्तु तब भी उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति नहीं हुई। तब श्री गुरु महाराज की आज्ञा पर उन्होंने 1895 ईस्वी के आस-पास श्री जानकी मंदिर के निर्माण की नींव ली जिसके लिए नौ लाख रुपयों का संकल्प लिया गया। इसलिए इस मंदिर को नौलखा मंदिर भी कहते हैं। हालाँकि इसके विन्यास और विस्तार को सिद्ध करने हेतु निर्माण में संकल्प से कहीं अधिक प्रयास किया गया और लगभग बारह वर्षों के कठिन श्रम के बाद मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। संकल्प के एक वर्ष के पश्चात ही महारानी जी को पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई किन्तु उनके जीवन काल में ये मंदिर संपन्न नहीं हो पाया और इसको पूर्ण करने का दायित्व उनकी छोटी बहन श्री नरेंद्र कुमारी ने पूर्ण किया। 
गर्भगृह के निर्माण के पश्चात मूर्ति की स्थापना लगभग 1911 ईस्वीमें कर दी गई थी। श्री किशोरी जी को समर्पित यह मंदिर जनकपुरमुख्य बाजार के उत्तर-पश्चिम में अवस्थित है। यह मंदिर हिन्दू-राजपूत नेपाली शिल्पकला का एक अच्छा मिश्रण है और इसमें प्रयुक्त स्थापत्य-कला मुग़ल शैली की है। जैसा की विवरण है यह मंदिर एक व्यापक महल और राज-दरबार की भांति विशाल और विराट स्वरूप में निर्मित किया गया है। मंदिर का निर्माण बड़ा रोचक है जिसमें बीच में मंदिर के गर्भगृह का भवन है और उसके चारों और विशाल दीवारों से घिरे भवनों की एक श्रृंखला है जिसके दो मुख्य द्वार हैं। मंदिर के चारों कोनों पर बने स्तम्भ एकदम एक जैसे हैं जो स्थापत्य कला का एक अलग ही नमूना है।यह एक तीन-मंजिले महल के रूप में विक्सित किया गया है जिसमें सफेद पत्थर और संगमरमर का प्रयोग किया गया है और मंदिर का यथा संभव बाह्य रंग भी सफेद ही रखा गया है जिसमें जो शांति और समृद्धि को दर्शाता है। पुनः साज सज्जा और भव्यता बनाए रखने के लिए केसरिया, पीला, हरा और नीला रंग भी प्रयुक्त हुआ है जो मुंडेरों और मेहराबों को भव्य और आकर्षक बनाता है। साथ ही भांति-भांति की चित्रकला और नक्काशी भी दिखाई देती है जो श्री किशोरी जी के ऐश्वर्या का प्रतीक है। मंदिर की ऊंचाई लगभग 70-75 मीटर की है और इसका क्षेत्रफल लगभग 4860 वर्गफीट का है। 
मंदिर में गर्भगृह के अतिरिक्त लगभग साठ कमरे हैं जिन्हें बहुत सुन्दर और कलात्मक ढंग से सुसज्जित किया गया है। इनमें रंग-बिरंगे काँच, भव्य स्थायी जालीदार पर्दे और जालीदार खिड़कियों का प्रयोग किया गया है। जानकी मंदिर प्रांगण में प्रवेश के लिए तीन विशाल द्वार हैं जो क्रमशः पूरब, दक्षिण और उत्तर दिशा से हैं। प्रांगण में घुसाने के पश्चात मंदिर के वाम भाग या पिछले भाग में विवाह मंडप आदि है और मंडप के सन्मुख प्रांगण में एक विशाल फव्वारा भी है जो इसकी सुंदरता को और भी निखरता है। मुख्य मंदिर में प्रवेश हेतु पाँच द्वार हैं जिनमें दो प्रमुख द्वार हैं और तीन छोटे--छोटे द्वार हैं। दोनों प्रमुख द्वार लगभग ३०-३० फीट की ऊंचाई के हैं और द्वार की संरचना और नक्काशी बहुत उत्तम कोटि की है। पहला द्वार जो मंदिर के गर्भगृह के ठीक सामने है वो बहुत विशाल और भव्य है और वही मुख्य प्रवेश द्वार भी है जहाँ से हर दिन हजारों की संख्याँ में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। किन्तु श्री किशोरी जी का दरबार है ऐसा मानकर उनके निजी सेवक और भक्त गर्भगृह के बाएँ और लगे सिंहद्वार से प्रवेश करना ज्यादा उचित मानते हैं। उस द्वार के ऊपर सिंह की मूर्तियाँ बनी हैं जो द्वार की सुंदरता और भव्यता को चार चाँद लगा देते हैं। ये द्वार पीछे वाला द्वार मना जाता है और यही विवाह मंडप आदि से मंदिर के गर्भगृह को जोड़ता है। इसके अतिरिक्त तीन छोटे -छोटे द्वार हैं जिनमें एक मुख्य गर्भगृह के पीछे अवस्थित जनक-मंदिर के पीछे से है, दूसरा द्वार मंदिर के रसोई-घर के दक्षिण से है और तीसरा द्वार श्री संकीर्तन कुञ्ज के पीछे उत्तर दिशा से है। 


♦️श्री कोहबर (गर्भगृह)—
मंदिर में प्रवेश करने के बाद सर्वप्रथम श्री कोहबर (मंदिर के गर्भगृह) के दर्शन होते हैं जहाँ श्री किशोरी जी, श्री दुलहा जी, श्री लखन लाल और चारों दुल्हा-दुल्हिन सरकार की प्रतिमाएं स्थापित हैं। यह गर्भगृह पूरब दिशा की ओर है। श्री सूरकिशोर बाबा को प्राप्त हुए विग्रह भी यहीं स्थापित हैं। इस झांकी के अन्तः भाग में श्री युगल सरकार के विशेष कोहबर की सेवा की जाती है जो गोपनीय है। ऐसा मना जाता है कि भक्तों को दर्शन देने के बाद प्रभु इसी अन्तः गृह में विश्राम करते हैं। गर्भगृह को कोहबर कहने का एक विशेष कारण है मैथिल संस्कृति, जिसके अंतर्गत किसी नव-विवाहित जोड़े के शयन कक्ष को "कोहबर" कहा जाता है। मान्यताओं के अनुसार श्री किशोरी जी और श्री रघुनाथजी आज भी नव दुल्हा-दुल्हन के स्वरूप में ही विराजते हैं अतः उनका मंदिर कोहबर नाम से प्रसिद्द है। इस कोहबर में प्रतिष्ठित दरबार की झाँकी को एक निश्चित ऊंचाई पर व्यवस्थित किया गया है जिससे सूर्योदय की किरणें सर्वप्रथम श्री दुल्हा सरकार की सेवा में ही उपस्थित होती हैं। 
यहाँ मिथिलावासियों के लिए मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह कोई भगवान् नहीं अपितु उनके बहन-बहनोई हैं। इस मंदिर में प्रार्थना, याचना या मनोकामना नहीं की जाती अपितु अपनी किशोरी जी से विमर्श किये जाते हैं, उनके आदेश लिए जाते हैं, उनका मान किया जाता है। 


♦️श्री पाकशाला—
मंदिर में दर्शन के पश्चात ७ बार या चार बार परिक्रमा का विधान है और उसी परिक्रमा के क्रम में बाएं और (मंदिर के दक्षिण में ) श्री किशोरी जी की रसोई है जहाँ नित्य भोग आदि पकाया जाता है और भंडारे हेतु सम्पूर्ण व्यवस्था होती है। किन्तु इस भाग में सामान्य प्रवेश वर्जित है। 
श्री जानकी विद्युतीयचलचित्र संग्रहालय, पाकशाला के बाद दक्षिणी कोण में हाल ही में 2012 ईस्वी में श्री जानकी संग्रहालय बनाया गया है जिसके अंतर्गत मंदिर के प्रारम्भ से लेकर अब तक के इतिहास से सम्बंधितवस्तुएं, चित्र, वस्त्र-आभूषण, श्रृंगार आदि की सामग्रियों और मंदिर के महंत परंपरा के संतों और महंतों से सम्बंधित अभिलेख, चित्रपट और चित्र संकलन आदि लगाए गए हैं। इसके अतिरिक्त रामायण काल की हुई कुछ घटनाओं और संस्कृतियों को दर्शाने के लिए हाईड्रोलिकसिस्टम, ध्वनि और विद्युत् के माध्यम से कई झांकियों का निर्माण किया गया है जो श्री किशोरी जी के जन्म से ले कर विवाह आदि के समस्त घटना-क्रमों का वर्णन करता है। ये भाग भी दर्शनीय और ज्ञान वर्धक है। मंदिर में अंदर ही अंदर सभी भाग आपस में जुड़े हुए हैं और महल की अट्टालिकाएं दर्शनार्थियों का मन अपनी और खींचती हैं।


♦️अन्य -मंदिर —
मंदिर के गर्भगृह के ठीक पीछे जनक महाराजऔर अम्बासुनैनाका मंदिर है जिसमें श्री सूरकिशोर बाबा को प्राप्त हुई शिलाएं, अभिलेख आदि भी स्थापित हैं। जनक मंदिर से पूर्व श्री बाल-हनुमाना जी का मंदिर भी है जहाँ नित्य प्रति उनकी सेवा होती है। ये छोटे-छोटे मंदिर मिथिला की संस्कृति में परिवार परम्परा को भलीभांति दर्शाते हैं। यहाँ मात्र भगवान्ही नहीं अपितु उनका समस्त परिवारनिवास करता है। 


♦️कोठार-गृह—
परिक्रमा के क्रम में आगे कोठार-गृह मिलता है जिसमें मंदिर से सम्बंधित अभिलेख, धर्म-ग्रन्थ से जुड़े अभिलेख, विभिन्न प्रकार के ग्रन्थ आदि की व्यवस्था की गई है। 


♦️शालिग्राम-मंदिर — 
परिक्रमा के क्रम में मंदिर के उत्तरी भाग में श्री शालिग्राम भगवान का मंदिर भी है जिसमे लगभग सवा लाख (१२५०००) शालिग्राम स्थापित हैं और उनकी नित्य पूजा-अर्चना की जाती है। 


♦️अखंड नाम-संकीर्तन स्थली—
पाठ्यक्रम करते हुए मुख मंदिर के उत्तरी भाग में श्री सीताराम नाम का अखंड संकीर्तन स्थल है जहाँ लगभग 1961 ईस्वी से अखंड श्री सीताराम नाम संकीर्तन चल रहा है। ये स्थल भी दर्शनीय है । इस प्रकार परिक्रमा के पश्चात मंदिर से नीचे उतरते ही उत्तर की और पीछे वाले द्वार से सटे हुए भाग में श्री जनक-परंपरा के तत्कालीन विदेह महाराज का निवास स्थल है जहाँ से वह मंदिर और उसकी व्यवस्था का संचालन करते हैं। 




♦️विवाह मंडप -फुलवारी—
जानकी मंदिर के पिछले हिस्से मेंपश्चिमोत्तर कोण में एक बहुत ही सुन्दर उद्यान है जिसे फुलवारी कहते हैं। इस फुलवारी के मध्य में एक विशाल मंडप है जो नवीन विवाह मंडप के नाम से प्रसिद्द है। मान्यता के अनुसार इस स्थल पर श्री किशोरी जी और श्री दुल्हा जी का विवाह संपन्न हुआ था। इस मंडप के मध्य में श्री किशोरी जी -दुल्हा जी की प्रतिमा हैं जो गणपति-स्थापना के संग विवाह-वेदी पर बैठी हैं और उनके दोनों और चारुशीला और चन्द्रकला सखियों की प्रतिमाएं हैं। श्री किशोरी जी की तरफ वेदी के एक ओर श्री जनक जी, अम्बासुनैना, महाराज श्रुतिकीरत और गुरुदेव शतानन्द आदि हैं तो वहीँ दुल्हा जी की तरफ वेदी के दूसरे ओर श्री दशरथ जी, वशिष्ठ जी, विश्वामित्र जी आदि विराजमान हैं। पीछे श्री किशोरी जी के भाई-भावज श्री लक्ष्मीनिधि जी और श्री निधि जी खड़े हैं। इसमंडप का निर्माण नेपाल की पैगोडा शैली में किया गया है और इसके अंदर सभी स्तम्भों पर विवाह में उपस्थित देवताओं आदि की मूर्तियां बनाई गई हैं । इस मंडप में स्थापित सभी मूर्तियों की संख्याँलगभग108 हैं। इसे चारों ओर से काँच की दीवार से घेर दिया गया है जिसके कारण इसे शीश-महल भी कहते हैं। इस मंडप के चारों कोनों पर चारों दुल्हा-दुल्हिन सरकार की युगल मूर्तियां स्थापित हैं जिनमें बायीं ओर से श्री राम-जानकी कोहबर, फिर अगले कोने पर श्री भरत-मांडवीकोहबर, तीसरे कोने पर श्री लक्ष्मण-उर्मिलाकोहबर और चौथे कोने पर श्री शत्रुघ्न-श्रुतिकीर्तिकोहबर विराजमान हैं। मंडप से उतारकर फुलवारी के दूसरे भाग में जनक -परंपरा के कुछ प्रसिद्द महंतों की मूर्तियां स्थापित हैं जो उद्द्यान की शोभा को और भी बढ़ा देती हैं। 


♦️श्री लक्ष्मण-मंदिर—
मंदिर के बाह्य परिसर में श्री लखन-लाल जी का मंदिर है जो नेपाल महाराज द्वारा बनवाया गया है। मान्यता अनुसार ये श्री जानकी मंदिर से भी पुरानाहै। इन सबके अतिरिक्त श्री जानकी मंदिर के कण-कण में विराजने वाली सौम्यता और दिव्यता को वर्णन करने से नहीं समझा जा सकता इसके लिए तो दर्शन करना ही उत्तम मार्ग है।


♦️कैसे पहुंचे - 
नेपाल की राजधानी काठमांडू से 400 किलोमीटर दक्षिण पूरब में बसा है। जनकपुर से करीब 14 किलोमीटर उत्तर के बाद पहाड़ शुरू हो जाता है। नेपाल की रेल सेवा का एकमात्र केंद्र जनकपुर है। यहां नेपाल का राष्ट्रीय हवाई अड्डा भी है। जनकपुर जाने के लिए बिहार राज्य से तीन रास्ते हैं। पहला रेल मार्ग जयनगर से है, दूसरा सीतामढ़ी जिले के भिठ्ठामोड़ से बस द्वारा है, तीसरा मार्ग मधुबनी जिले के उमगांउ से बस द्वारा है।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी एवं सीतामढ़ी जिला से इस स्थान पर सड़क मार्ग से पहुंचना आसान है। बिहार की राजधानी पटना से इसका सीतामढ़ी होते हुए सीधा सड़क संपर्क है। पटना से इसकी दूरी 140 की मी है।

हर साल, नेपाल, भारत, श्रीलंका और अन्य देशों के हजारों तीर्थयात्री भगवान राम और सीता की पूजा करने के लिए राम जानकी मंदिर जाते हैं। रामनवमी, विवाह पंचमी, दशैन और तिहार के त्योहारों के दौरान कई श्रद्धालु मंदिर आते हैं।

यहां से काठमांडू जाने के लिए हवाई जहाज़ भी उपलब्ध हैं। यात्रियों के ठहरने के लिए यहां होटल एवं धर्मशालाओं का उचित प्रबंध है। यहां के रीति-रिवाज बिहार राज्य के मिथलांचल जैसे ही हैं। वैसे प्राचीन मिथिला की राजधानी माना जाता है यह शहर। भारतीय पर्यटक के साथ ही अन्य देश के पर्यटक भी काफी संख्या में यहां आते हैं।


♦️मिथिला के प्रमुख शहर-
- जनकपुर
- मुजफ्फरपुर
- पूर्णिया
- समस्तीपुर
- दरभंगा
- सीतामढी
- जनकपुरधाम
- सहरसा
- कटिहार
- मधुबनी
- बेगूसराय
- भागलपुर
- दुमका
- देवघर

आप इस क्षण मेरे साथ जगत जननी जानकी की जन्मभूमि जनकपुर धाम में अवस्थित जानकी मंदिर के दर्शन कर रहे हैं। त्रेतायुग में माता जानकी की बाल्यावस्था यहीं बीती। ये मंदिर टीकमगढ़ की राजमाता वृषभानु लली ने आज से सैकड़ों वर्ष पहले बनवाया। माता की अपार कृपा उन पर बरसती थी। उस समय नौ लाख रूपये खर्च कर इस मंदिर का निर्माण हुआ इसलिये इसे नौलखा मंदिर भी कहा जाता है।
जनकपुर नेपाल ही नहीं अपितु दुनिया भर के लोगों के लिये अत्यंत पावन तीर्थ है। भगवान राम और माता जानकी का परिणय धनुष भंग के पश्चात जनकपुर में हुआ था। ब्रह्मर्षि राजा जनक अपने युग के प्रख्यात नरेश थे।

त्रेता युग के बाद मिथिला राज्य के अंतिम नरेश के रूप में कराल जनक का उल्लेख चाणक्य अपने अर्थशास्त्र में करता है। सुश्रुत संहिता के उत्तर तंत्र खंड में नेत्र चिकित्सा अध्याय में भी जनक का उल्लेख नेत्र चिकित्सा के सर्वोत्कृष्ट सर्जन के रूप में किया गया है। ये दो उल्लेख इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त हैं कि रामजी की कथा केवल धार्मिक साहित्य नहीं अपितु भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास के महत्वपूर्ण अंग हैं।






जिंदगी का असली आनन्द किसी को अपने मुताबिक बदलने की जद्दोजहद में नही बल्कि उन रास्तों को खोजने में है जिन रास्तों पर दो लोग अपनी विभिन्नताओं के बावजूद, एक दूसरे का हाथ पकड़कर चल सके और इस सफर को और ज्यादा खुशनुमा बना सकें।




जय माता जानकी…..
जय श्री राम…….
जय सीताराम…….🙏🏻

(V)चौरासी कोस भूमि मे बसा है सम्पूर्ण मिथिला



हम सभी ने अक्सर सुना व तस्वीरों में कहीं न कहीं देखा ही होगा कि भगवान कृष्ण सांवरे थे, ऐसा नहीं है। हमने इतना ही कहा है सांवरा कह कर, कि कृष्ण के सौंदर्य में बड़ी गहराई थी, जैसे गहरी नदी में होती है, जहां जल सांवरा हो जाता है। यह सौंदर्य देह का ही सौंदर्य नहीं था–यह हमारा मतलब है। खयाल मत लेना कि कृष्ण सांवले थे। रहे हों न रहे हों, यह बात बड़ी बात नहीं है। लेकिन सांवरा हमारा प्रतीक है इस बात का कि यह सौंदर्य शरीर का ही नहीं था, यह सौंदर्य मन का था। मन का ही नहीं था, यह सौंदर्य आत्मा का था। यह सौंदर्य इतना गहरा था, उस गहराई के कारण चेहरे पर सांवरापन था। छिछला नहीं था सौंदर्य, अनंत गहराई लिए था।




यह जो मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट, वह सुंदर मुकुट, जिसमें सारे रंग समाएं हैं! वही प्रतीक है। मोर के पंखों से बनाया गया मुकुट प्रतीक है इस बात का कि कृष्ण में सारे रंग समाए हैं। महावीर में एक रंग है, बुद्ध में एक रंग है, राम में एक रंग है–कृष्ण में सब रंग हैं। इसलिए कृष्ण को पूर्णावतार कहा है…सब रंग हैं। इस जगत की कोई चीज कृष्ण को छोड़नी नहीं पड़ी है। सभी को आत्मसात कर लिया है। कृष्ण इंद्रधनुष हैं, जिसमें प्रकाश के सभी रंग हैं। कृष्ण त्यागी नहीं हैं। कृष्ण भोगी नहीं हैं। कृष्ण ऐसे त्यागी हैं जो भोगी हैं। कृष्ण ऐसे भोगी हैं जो त्यागी हैं।

कृष्ण हिमालय नहीं भाग गए हैं, बाजार में हैं। युद्ध के मैदान पर हैं। और फिर भी कृष्ण के हृदय में हिमालय है। वही एकांत! वही शांति! अपूर्व सन्नाटा! कृष्ण अदभुत अद्वैत हैं। चुना नहीं है कृष्ण ने कुछ। सभी रंगों को स्वीकार किया है, क्योंकि सभी रंग परमात्मा के हैं।



अब बात करते हैं मिथिला की और जानने की कोशिश करते हैं मिथिलांचल व वहाँ का जीवन —

♦️प्राचीन मिथिला की राजधानी-
प्राचीन मिथिला की राजधानी जनकपुर में था। जनकपुर अब एक आधुनिक बाजार बन चुका है। जहां नेपाली मुद्रा के साथ-साथ भारतीय मुद्रा में भी लेन-देन होता है। जनकपुर जाने के लिए बिहार से तीन मार्ग से जा सकते हैं। पहला मार्ग जयनगर से रेल मार्ग के द्वारा, दुसरा सीतामढ़ी से बस के द्वारा तथा तीसरा मधुबनी जिले के उमगाँव से बस के द्वारा। वैसे भारत के प्रमुख नगरों से जनकपुर वायुमार्ग से भी जा सकते हैं। जनकपुर की रीति रिवाज, भाषा बिहार के मिथिलांचल जैसा ही है। भारतीय पर्यटक के साथ ही अन्य देशों के पर्यटक भी यहाँ आते रहते हैं। जनकपुर आने पर ऐसा नहीं लगता है कि हम किसी अन्य देश में हैं।



पुराणों के अनुसार इस मिथिला-परिक्रमा का बहुत महत्व है। जिस मिथिला धाम के नाम लेने मात्र से समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती हो उस मिथिला की परिक्रमा और प्रदक्षिणा का फल कितना दिव्य होगा यह कहने की आवश्यकता नहीं है। श्री पराशर जी ने इसी सन्दर्भ में श्री मैत्रेय जी से कहा कि परिक्रमा करने वाले की तो बात ही छोड़िए जो व्यक्ति इस मिथिला-परिक्रमा को करने का संकल्प भी लेता है या विचार भी करता है उसके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। ऐसे में इस परिक्रमा को पूर्ण करने वाले के तो स्वयं के साथ कुल और पितृगण का भी उद्धार हो जाता है। त्रेताकाल से चलती आ रही इस परिक्रमा की शुरुआत इस युग में श्री सूरकिशोर बाबा के आगमन से पूर्व ही हो गई थी और उनके आगमन तथा जनकपुर आदि के प्रादुर्भाव के बाद यह वृहत और व्यापक रूप में की जाने लगी।



अट्ठारहवीं शताब्दी में रचे गए मिथिला माहात्म्य ग्रन्थ में इस परिक्रमा का विशेष वर्णन मिलता है जिसमें भारत और नेपाल के बीच 128 किलोमीटर की दूरी तक की जाने वाली विशाल परिक्रमा का विवरण दिया गया है। मिथिला की सम्पूर्ण भूमि चौरासी कोस की मान कर इस परिक्रमा को आम भाषा में चौरासी कोस परिक्रमा भी कहते हैं। यह परिक्रमा जनकपुर से की जाती है और यही इसकी परंपरा रही है। मिथिला माहात्म्य के अध्याय तीन के अंतर्गत इस परिक्रमा को करने के लिए तीन समय बताए गए हैं- कार्तिक (अक्टूबर-नवम्बर), फागुन (फरवरी-मार्च) और वैशाख(अप्रैल-मई) महीना। लेकिन अभी की जाने वाली परिक्रमा में फागुन माह की परिक्रमा ही विशेष चर्चा में होती है।

♦️पुस्तक के अनुसार यहाँ तीन प्रकार की परिक्रमा का विवरण आता है--
(वृहत -परिक्रमा, मध्य-परिक्रमा और लघु -परिक्रमा ) इस परिक्रमा के अंतर्गत श्री मिथिला बिहारी जी और श्री किशोरी जी का डोला सजाया जाता है और उसमें दोनों युगल सरकार को स्थापित कर उनकी झाँकियों को भ्रमण में संग लेकर चलते हैं। साथ में संत, सन्यासी, गृहस्त, भजन-कीर्तन की टोली आदि चलती है और ईश्वर का गुणगान करते हुए पैदल ही यह परिक्रमा पूर्ण करनी होती है। रात भर जहाँ भी यह टोली विश्राम करती है वहाँ भजन-कीर्तन आदि अनवरत चलते रहते हैं।इस परिक्रमा के अंतर्गत जिस-जिस स्थान से यह डोला गुजरता है उस स्थान के निवासी और ग्रामवासी सेवा-सत्कार का कोई भी अवसर नहीं गंवाते अपितु सभी गाँवों में इस डोला-भ्रमण की प्रतीक्षा होती रहती है और जहाँ यह डोला विश्राम लेता है उस ग्राम के लोग और भक्त इसकी पूर्ण व्यवस्था करते हैं। इस डोला-परिक्रमा में सम्पूर्ण मिथिला उत्साहित होकर भाग लेती है।

♦️वृहत-परिक्रमा-
वास्तव मंत वृहद परिक्रमा गृहस्तों के लिए नहीं है क्योंकि इसे करने में मिथिला के चारों ओर चौरासी कोस की परिक्रमा होती है जिसके अंतर्गत लगभग 268 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है जिसे करने के लिए एक वर्ष लग जाता है।शुरू में यह परिक्रमा बस सन्यासियों के द्वारा ही की जाती थी किन्तु समय के साथ यह गौण होती गई और अब यह परिक्रमा नहीं की जाती है। वैसे इस परिक्रमा का प्रारम्भ कौशिकी नदी के तट से किया जाता था जो फिर बाबा सिंघेश्वर स्थान(सहरसा)से होते हुए गुजरती थी। फिर सिंघेश्वर स्थान से यह परिक्रमा पश्चिम की ओर बढाती थी और गंगा नदी के सिमरिया घाट तक जाती थी जहाँ से पुनः यह परिक्रमा मुड़ती थी और हिमालय के तराई क्षेत्रों (नेपाल आदि) से होते हुए वापस कौशिकी नदी तट पर आती थी। वहाँ से पुनः यह परिक्रमा सिंघेश्वर मंदिर में आकर समाप्त होती थी। कालक्रम में होने वाले व्यवधानों और प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण कम होते होते अब यह वृहत परिक्रमा विलुप्त प्राय हो गई है।

♦️मध्य परिक्रमा(आधुनिक वृहत परिक्रमा)-
आधुनिक काल में यही परिक्रमा वृहत परिक्रमा मानी जाती है जिसके अंदर लगभग मिथिला के चारों ओर चालीस-बयालीस कोस की परिक्रमा होती है जो लगभग 128 किलोमीटर तक की जाती है। किन्तु अब इसे ही चौरासी कोस परिक्रमा के नाम से जाना जाता है।

ग्रन्थ के हिसाब से इस परिक्रमा को पाँच दिन में पूर्ण कर लेना चाहिए लेकिन मिथिला के पंडितों ने समय और व्यवस्था को देखते हुए इस परिक्रमा के लिए पंद्रह दिन का समय निर्धारित किया है जिससे बड़े- बूढ़े और अस्वस्थ व्यक्ति भी इस परिक्रमा को पूर्ण कर अपना जीवन कृतार्थ कर सकें।

वर्तमान समय में यह परिक्रमा फागुन (फरवरी-मार्च) माह की अमावश्या तिथि को प्रारम्भ होती है और इसी दिन श्री मिथिला बिहारी और श्री किशोरी जी का डोला परिक्रमा के लिए उठाया जाता है। लगातार पंद्रह दिनों तक चलने वाली यह परिक्रम फागुन शुक्ल-पक्ष पूर्णिमा (होली) से एक दिन पहले चतुर्दशी को समाप्त होती है। इन पंद्रह दिनों में प्रत्येक रात्रि को एक विश्राम स्थल बनाया गया है जहाँ डोला-यात्रा रोकी जाती है।

अमावश्या के दिन यह यात्रा नेपाल अधिकृत मिथिला के धनुषा जिले के पास कचुरी गांव से शुरू होती है जो जनकपुर से लगभग12किमी दूर है और वहाँ से उठाकर प्रथम रात्रि को जनकपुर के हनुमान नगर में विश्राम लेती है। जनकपुर स्थित हनुमान-नगर का हनुमान मंदिर इस यात्रा का पहल पड़ाव है।



दूसरे दिन (प्रतिपदा) को यह यात्रा हनुमान नगर से निकल कर कल्याणेश्वर महादेव (कलना) के मंदिर के पास विश्राम लेता है। तीसरे दिन (द्वितिया) को यह डोला कल्याणेश्वर महादेव को प्रणाम कर गिरिजा-स्थान (फुलहर) में जाकर विश्राम लेता है। चौथे दिन(तृतीया) को माँ गिरिजा के आशीर्वाद से यह डोला उठता है और मटिहानी के विष्णु-मंदिर में जाकर विश्राम लेता है। फिर पाँचवें दिन (चौठ) को यह डोला सारे दिन भ्रमण करते हुए मार्ग में जलेश्वर महादेव की शरण में विश्राम लेता है। छठे दिन ( पंचमी ) को यह डोला जलेश्वर से उठ आकर मार्ग में कीर्तन भजन आदि करते हुए मड़ई पहुँचता है जहाँ माण्डव्य ऋषि का आश्रम है। सातवें दिन (षष्ठी) को यह डोला उठ कर अपनी अगली यात्रा पर विदा होता है और रात्रि में ध्रुव-कुंड के निकट ध्रुव मंदिर के पास विश्राम लेता है। तत्पश्चात आठवें दिन (सप्तमी) को यह डोला उठ कर जनकपुर के निकट के कंचन-वन में विश्राम लेता है जहाँ श्री किशोरी जी की रास स्थली मानी जाती है। यहाँ रात्रि भर बहुत सुन्दर उत्सव आदि होते रहते हैं और भजन-कीर्तन अनवरत चलता रहता है। नौमे दिन (अष्ट्मी ) को यह डोला कंचन वन से विदा लेते हुए पर्वत में विश्राम करता है जहाँ पाँच पवित्र पहाड़ों का दर्शन होता है। तत्पश्चात दसवें दिन (नवमी) को यह डोला पवित्र धनुषा-धाम को पहुँचता है जहाँ शिव जी के टूटे हुए पिनाक धनुष का मध्य भाग रखा हुआ है। पुनः ग्यारहवें दिन(दशमी) , यह डोला सतोखरि में विश्राम लेता है जहाँ सात कुंड एक साथ हैं। फिर बारहवें दिन(एकादशी) , सतोखरि से चलकर यह डोला औराही फिर तेरहवें दिन वहाँ से करुणा और चौदहवें दिन (त्रियोदशी ) को बिसौल में जाकर विश्राम लेता है जहाँ श्री विश्वामित्र जी का मंदिर है। अंत में बिसौल से होते हुए पन्द्रहवें दिन (चतुर्दशी ) ये डोला जनकपुर पहुँचता है और वहाँ श्री किशोरी जी के दर्शन के पश्चात यह परिक्रमा समाप्त मानी जाती है । इस पूरे यात्रा के दौरान श्री मिथिला बिहारी और जनक दुलारी जी के डोले को बहुत खूबसूरती से सजाया जाता है और एक बड़े ध्वज के साथ एक मजबूत मंच पर रखा जाता है, जिसके चारों ओर भजन और कीर्तन करते हुए यात्रा और विश्राम किया जाता है। भारत और नेपाल से आये हुए सन्यासियों और श्रद्धालुओं के भजन-कीर्तन आदि से पूरे पंद्रह दिनों तक दिवारात्रौ बस ईश्वर अनुराग की ध्वजा लहराती रहती है। श्री किशोरी जी और श्री दुल्हा जी के नाम का जय जय घोष, सम्पूर्ण मिथिला को पावन कर देता है। तत्पश्चात जब यह डोला जनकपुर पहुँचता है तो वहाँ यह जनकपुर की अंतर्गृही परिक्रमा के साथ जुड़ जाते हैं।

♦️लघु (अंतर्गृही) परिक्रमा--
यह परिक्रमा फागुन पूर्णिमा के दिन की जाती है जिसके अंतर्गत जनकपुर नगर के चारों ओर लगभग आठ किलोमीटर तक भ्रमण किया जाता है और जनकपुर नगरी की प्रदक्षिणा की जाती है। इस परिक्रमा में डोला को घूमने के लिए एक पथ बना हुआ है। इस परिक्रमा के अंतर्गत कदम्ब चौक हनुमान मंदिर से गंगा सागर में स्नान कर भ्रमण प्रारम्भ करते हैं और इस सर में स्नान करने के बाद सभी भक्त अपने मिथिला बिहारी के डोले के साथ कदम्ब चौक जाते हैं। फिर वहाँ से परिक्रमा पथ के सहारे मुरली चौक होते हुए, ज्ञानकूप, विहार कुंड, पापमोचनी सर आदि की परिक्रमा करते हुए पुनः उसी स्थान पर गंगा सागर के निकट पहुँच जाते हैं। जहाँ बात नेपाल स्थित मूल श्री जानकी मंदिर की आती है तो, इस स्थल का इस परिक्रमा में बहुत बड़ा स्थान है।



क्रमशः——

Thursday, 23 June 2022

(IV) जब मिथिला पधारे राम





जब हम कोसलपुरी अयोध्या का नाम लेते हैं, उस समय विदेह-पुरी मिथिला का भी स्मरण हो आता है। ये दोनों ही धार्मिक पुरियाँ हर काल में हमारे लिए प्रेरणा एवं संबल का स्रोत रही हैं। यह वर्तमान में उत्तरी बिहार और नेपाल की तराई का इलाका है जिसे मिथिला या मिथिलांचल के नाम से जाना जाता था। मिथिला प्राचीन भारत में एक राज्य था। मिथिला की लोकश्रुति कई सदियों से चली आ रही है जो अपनी बौद्धिक परंपरा के लिये भारत और भारत के बाहर जाना जाता रहा है। इस इलाके की प्रमुख भाषा मैथिली है। धार्मिक ग्रंथों में सबसे पहले इसका उल्लेख रामायण में मिलता है। मिथिला का उल्लेख महाभारत, रामायण, पुराण तथा जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में हुआ है।


कुछ दिनों तक यहाँ तीर-भुक्ति (तिरहुत) की भी राजधानी स्थित थी। इसीलिए लोग कभी-कभी इस पुर को तीरभुक्ति भी कहते थे।

मिथिला नरेश राजा जनक थे। जनक की पुत्री सीता थी। सीताजी का प्रादुर्भाव सीतामढ़ी (भारत) के पास पुनौरा गाँव में हुआ था और पालन-पोषण जनकपुर नगर (नेपाल) में।


सन 1816 में ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल नरेश के बीच हुई सुगौली संधि के बाद मिथिला का आधा भारतीय हिस्सा नेपाल में चला गया। राष्ट्र पृथक हुआ, पर दोनों ओर के मिथिलावासी सांस्कृतिक दृष्टि से एक रहे। दोनों ओर के लोग इस आसानी से सीमा पार आते-जाते हैं, जैसे खेतों की मेड़ लाँघ रहे हों। उन्हें भगवान राम के रूप में प्रतापी दामाद पाने का बहुत गौरव है। यहाँ तक कि आज भी लोकगीतों में हर दूल्हे में राम की ही छबि देखी जाती है। लेकिन उनका दृढ़ विश्वास है कि अवध-नरेश राम जो कुछ हैं, वह मिथिला की बेटी जनक-दुलारी के प्रताप से। जनकपुर के लोग सीता को जगज्जननी मानते हैं और जनकपुर को सभी जाति-वर्ग के लोगों की ननिहाल। इसलिए उनका मानना है कि जो यहाँ नहीं आता, वह अगले जन्म में कौआ होता है! यहाँ तक कि जो जगन्नाथपुरी जाते हैं, उन्हें जनकपुर जाना ही पड़ता है, क्योंकि वहाँ अँटका (जूठन प्रसाद) खाने से जो दोष लगता है, उसका निवारण वहीं होता है।


मिथिलावासियों की मान्यता है कि श्रीराम की जननी कौसल्या तो इस लोक को छोड़कर पतिलोक में चली गयीं, मगर श्रीकिशोरी जी की माता पृथ्वी जन कल्याण के लिए कल्पांत तक यहीं रहेगीय यह पत्थर की लकीर है। विवाह पंचमी उत्सव के तौर पर मनाया जाता है, इस दिन भगवान राम और सीता का विवाह हुआ था। इस उत्सव को सबसे अधिक नेपाल में मनाया जाता है।

मिथिला के विवाह लोकगीत में राम का वर्णन --
आजु मिथिला नगरिया निहाल सखिया, 
चारों दुलहा में बड़का कमाल सखिया!
शिश मणी मौरिया, कुण्डल सोहे कनमा, 
कारी कारी कजरारी जुलमी नयनमा, 
लाल चंदन सोहे इनके भाल सखिया, 
चारों दुलहा में बड़का कमाल सखिया!
श्यामल-श्यामल, गोरे- गोरे, जोड़ीया जहान रे, 
अँखिया ना देखनी सुनलीं ने कान हे जुगे जुगे,
जीबे जोड़ी बेमिसाल सखिया, 
चारों दुलहा में बड़का कमाल सखिया!
गगन मगन आजु, मगन धरतिया, 
देखि देखि दुलहा जी के,
साँवर सुरतिया, बाल वृद्ध, 
नर-नारी, सब बेहाल सखिया, 
चारों दुलहा में बड़का कमाल सखिया!
जेकरा लागी जोगी मुनि, जप तप कईले, 
से मोरा मिथिला में पाहुन बन के अईले,
आजु लोढ़ा से सेदाई इनके गाल सखिया.. 
चारों दुलहा में बड़का कमाल सखिया!

संपूर्ण मिथिला के लोग राम के भक्त हैं। कहते हैं श्रीराम जब मिथिला में आए तब सारे मिथिलावासी अपना कार्य छोड़कर राम के दर्शन के लिए दौड़ पड़े। 'भगवान राम की शादी मिथिला में होने के कारण यहां दामाद के उत्कृष्ट सत्कार की प्रथा है। दामाद को राम का सदृश और बेटी को सीता सदृश सम्मान है। इन्हें अतिथियों में अतिविशिष्ट स्थान हासिल है। मिथिला में छप्पन भोग का वास्तविक स्वरूप दामाद के भोजन के दौरान दिखता है।'


मिथिलांचल में दिवाली पर लक्ष्मी-गणेश संग होती है राम व सीता की भी पूजा की जाती है। होली के अवसर पर फाग गायन में श्मिथिला में राम खेलत होली..श् प्रचलन है। विवाह के अवसर पर नव दम्पत्ति को सीता और राम की जोड़ी की संज्ञा दी जाती है। राम का जहाँ स्वयंवर में धनुष भंग की वीरता है वहीं के दामाद के रूप में धीरता है।

जगदगुरु रामभद्राचार्य जी ने कहा है कि संपूर्ण मिथिला के लोग राम के भक्त हैं। श्रीराम जब मिथिला में आए तब सारे मिथिलावासी अपना कार्य छोड़कर राम के दर्शन के लिए दौड़ पड़े। 

गोस्वामी जी ने भी लिखा है कि –"धाए धाम काम सब त्यागी मनहु रंक निधि लूटन लागी। वहां के लोग इस तरह दौड़ पड़े जैसे कोई रंक खजाना लूटने के लिए दौड़ पड़े। वहीं, युवतियां झरोखे से राम का दर्शन करने लगीं। गोस्वामी जी ने अपनी चैपाई में लिखा है कि युवती भवन झरोखन लागी। निरखहीं राम रूप अनुरागी। तात्पर्य सह है कि युवती का मतलब सिर्फ बाला नहीं। संतों ने कहा है कि युवती वही है कि जिसका राम भक्त पुत्र हो। 
इस संदर्भ में भी गोस्वामी जी ने सिद्धांत दिया है कि- पुत्रवती युवति जग सोई, रघुपति भगत जासु सूत होई। जो राम के प्रेम का अनुरागी हैं, वे संसार के संपूर्ण सुख साधन और संपत्ति को त्यागकर राम के रूप के प्रति स्नेह रखते हैं। मिथिला के बच्चे भी राम के आगमन की सूचना पर उनके संग हो गए। सभी बालक भगवान के संग लग गए।

हमारे साहित्य एवं मौखिक परम्पराओं में मिथिला के राजा जनक उतने ही जीवित हैं, जितना कि अयोध्या के राजा दशरथ। वे अपनी दार्शनिक अभिरुचि तथा अनासक्ति के लिये प्रसिद्ध थे।

रामायण के अनुसार मिथिला के नागरिक शिष्ट एवं अतिथिपरायण थे। इस ग्रन्थ के अनुसार महर्षि विश्वामित्र राम एवं लक्ष्मण को साथ लेकर चार दिनों की यात्रा करने के पश्चात् मिथिला पहुँचे थे।



क्रमशः——

(III) मिथिला में अभी भी बारातियों, दूल्हे और समधियों को ‘गाली’ दिए बिना विवाह को संपन्न नहीं माना जाता है।



प्रेम कभी किसी पुरस्कार की अपेक्षा नहीं करता, कृतज्ञता की भी नहीं। अगर कृतज्ञता दूसरी तरफ से आती है, तो प्यार हमेशा हैरान होता है - यह सुखद आश्चर्य है, क्योंकि कोई उम्मीद नहीं है।


यहाँ दृष्टिकोण है: जो कुछ भी अस्तित्व आपको देता है, वह आपकी आत्मा की सूक्ष्म आवश्यकता होनी चाहिए, अन्यथा यह आपको पहले स्थान पर नहीं दिया जाता।

यह सारा जीवन एक अपरिचित देश है। हम एक अज्ञात स्रोत से आते हैं। अचानक हम यहाँ हैं, और एक दिन अचानक हम नहीं रहे, हम फिर से मूल स्रोत पर वापस आ गए हैं। बस कुछ दिनों का सफर है, इसे यथासंभव आनंदमय बनाएँ। लेकिन हम इसके ठीक विपरीत काम करते रहते हैं - हम उसे जितना संभव हो उतना दुखी करते हैं। हमने अपनी सारी ऊर्जा उसे और अधिक दुखी करने में लगा दी।

“तुम कौन हो? - मुझे पता नहीं है। कभी पता चले तो बताना जरूर।"


♦️विवाह मंडप (धनुषा)-
विवाह पंचमी के दिन इसी मंडप में राम-जानकी का विवाह बहुत ही धूम- धाम से किया जाता है। यह विवाह मंडप जनकपुर से १४ कि० मि० दूर धनुषा नामक जगह पर स्थित है। भगवान् रामचंद्र ने इसी जगह पर शिव धनुष तोड़ा था। जिसका अवशेष आज भी पत्थर के रूप में स्थित है। विवाह पंचमी के अवसर पर नेपाल के मूल निवाशियों के साथ ही पुरे भारत वर्ष से श्रद्धालु उपस्थित रहते हैं। 
विवाह मंडप के चारों ओर छोटे-छोटे कोहबर हैं जिसमे सीता-राम, मांडवी-भरत, उर्मिला-लक्ष्मण एवं श्रुतिकृति-शत्रुघ्न की मूर्तियाँ स्थापित की गयी हैं। राम-मन्दिर के बारे में यह जनश्रुति है कि शुरकिशोर दास जी ने अनेक दिनों तक एक गाय को वहां दूध बहाते देखा था। कहा जाता है कि भूमि की कुंड से शिशु सीता को दूध पिलाने के लिए कामधेनु गाय ने दूध की धारा बहाई। दूध की धारा से वहां दूधमती नदी बन गयी। वहां जब खुदाई कराई गयी तो खुदाई में राम की मूर्ति मिली। वहां पर एक कुटिया बना कर उसका प्रभार एक संन्यासी को सौंपा गया और यह परम्परा आजतक कायम है अर्थात राम मन्दिर के महंथ सन्यासी ही होते आ रहे हैं। इसके अतिरिक्त जनकपुर में बहुत ही कुंड हैं जिसमे से प्रसिद्ध हैं रत्ना सागर, अनुराग सरोवर एवं सीता कुंड। 
जनकपुर में एक संस्कृत विद्यालय और एक विश्वविद्यालय भी है। विद्यालय में छात्रों के लिए भोजन तथा रहने की व्यवस्था निःशुल्क है। इस संस्कृत विद्यालय को ज्ञानकूप के नाम से भी जाना जाता है। 


♦️हास्य व्यंग करने की चली आ रही है परंपरा-
महिलाएँ जगद्गुरु को समधी कह संबोधित कर रही हैं, इसके पीछे भी एक प्रसंग है। दरअसल रामचरित मानस में वर्णन है कि जब भगवान श्री राम की बारात मिथिला पहुँची तो साथ में गुरु वशिष्ठ भी थे, तो वहाँ की महिलाओं ने बारातियों और गुरु वशिष्ठ से हास्य-व्यंग्य किया और उनको ‘गालियाँ’ सुनाईं। हालाँकि यह प्रथा विलुप्त सी होती जा रही है, लेकिन मिथिला में अभी भी बारातियों, दूल्हे और समधियों को ‘गाली’ दिए बिना विवाह को संपन्न नहीं माना जाता है।
शादी के लिए आए बाराती को गाली देना शुभ शगुन माना जाता है और घर में भी रौनक बनी रहती है। बाराती भी इसे गलत तरीके से नहीं लेते हैं। वह भी इसका आनंद लेते हैं। इसके पीछे उनका अपार प्रेम छुपा होता है। मिथिला में जमाइ (दूल्हा) और समधी (दूल्हे के पिता) को सम्मान भी उतना ही दिया जाता है।



क्रमशः——

Saturday, 18 June 2022

(II) मन्दिर की वास्तुकला महत्वपूर्ण राजपूत स्थापत्य शैली का उदाहरण है।



किसी ने क्या खूब कहा है, जो सुनने योग्य नहीं है, उसे सुनना मत। जो छूने योग्य नहीं है, उसे छूना मत। जितना जीवन में जरूरी है, आवश्यक है, उससे पार मत जाना। और आप अचानक पाओगे, आपके जीवन में शांति की वर्षा होने लगी।

अशांत आप इसलिए हो कि जो गैर-जरूरी है उसके पीछे पड़े हो। जो मिल जाए तो कुछ न होगा, और न मिले तो प्राण खाए जा रहा है। गैर-जरूरी वही है जिसके मिलने से कुछ भी न मिलेगा, लेकिन जब तक नहीं मिला है तब तक रात की नींद हराम हो गई है। तब तक सो नहीं सकते, शांति से बैठ नहीं सकते, क्योंकि मन में एक ही उथल-पुथल चल रही है कि घर में दो कार होनी चाहिए।

♦️जनकपुर का उद्भव-
विदेह राज्य के संस्थापक मिथि के वंश में महाराज शिरध्वज २२वे जनक थे जो बहुत बड़े विद्द्वान भी थे। मिथिला में आये अकाल से निजात पाने के लिए ऋषि-मुनियों के सुझाव पर खेत में उन्होंने हल चलाये, हल जोतने के क्रम में उन्हें खेत से एक नन्हीं लड़की मिली।  इस नन्हीं सी लडकी को उन्होंने अपनी पुत्री माना। यही पुत्री आगे चलकर सीता एवं जानकी कहलायी। रामायण-महाभारत जैसे प्राचीन ग्रन्थों में राजा जनक की राजधानी का नाम मिथिला बताया गया है, जनकपुर नहीं। 
विद्यापति की प्रसिद्ध ग्रन्थ भू-परिक्रमा में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जनकपुर से सात कोश दक्षिण में महाराज जनक का राजमहल था जो पोखरौनी, बेन्गरा आदि गाँव में पड़ता है। जिसे लोग विदेहों की मिथिलापुरी नहीं मानते हैं। बाल्मीकि रामायण के अनुसार, अहिल्या स्थान से उत्तर की दिशा में स्थापित मिथिला नगरी को जनकपुर मानते हैं। 
जनकपुर की प्रसिद्धि कैसे हुई तथा लोग कैसे राजा जनक की राजधानी मानने लगे इस सम्बन्ध में एक सुनी हुई कहानी प्रसिद्ध है जनक वंश का पतन महाराज कराल जनक के शासन काल से ही शुरू हो गया था। इसका वर्णन सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री कौटिल्य ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक अर्थशास्त्र में भी किया था। उन्होंने ने इस पुस्तक में लिखा है कि महाराज कराल जनक एक बार कामांध होकर एक ब्राम्हण की कन्या से जबरदस्ती मिलन किया था जिसके परिणामस्वरुप वह अपने बन्धु-बांधवों के साथ मारा गया। 
इस तथ्य को अश्वघोष ने भी अपनी पुस्तक वुद्ध चरित्र में बर्णन किया है। कराल जनक के बाद जितने भी जनक वंशी बच गए वे सब निकटवर्ती तराई जंगल में छिप गए। इन लोगों के जनक वंशी होने के कारण इस जगह को जनकपुर कहा जाने लगा। 

♦️सीता स्वयंबर-
रामायण के अनुसार जनक राजाओं में सबसे प्रसिद्ध सीरध्वज जनक हुए। वे शिव के बहुत बड़े भक्त थे, उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उन्हें अपना धनुष दिया था। यह धनुष बहुत ही भारी था। जनक की पुत्री सीता एक धर्म परायण थी। महाराज जिस स्थान पर पूजा पाठ करते थे, उस स्थान की साफ़ सफाई सीता स्वयं करती थी। 
एक दिन महाराज जनक जब पूजा करने के लिए आये तो उन्होंने देखा कि सीता उष शिव धनुष को बांयी हाथ से उठा कर पूजास्थल की साफ़ सफाई कर रही है। इस दृश्य को देख कर जनक जी अचंभित हो गये कि आज तक इस शिव धनुष को कोई उठा पाया था, उसे एक सुकुमारी कन्या ने कैसे उठा लिया, उसी समय जनक ने यह प्रतिज्ञा किया कि जो व्यक्ति इस शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसी के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दूंगा। 

अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार राजा जनक ने यग्य का आयोजन किया, इस यग्य में विश्व के सभी राजा, महाराजा, राजकुमार तथा वीर पुरुषों को आमंत्रित किया गया। अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण भी अपने गुरु विश्वामित्र के साथ पधारे। अब शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढाने की बारी आयी। एक-एक कर सभी राजा एवं महाराजाओं ने धनुष पर प्रत्यंचा चढाने की कोशिश की, लेकिन धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की बात तो दूर, धनुष को हिला भी नहीं सका, इस स्थिति को देख कर राजा जनक बहुत ही दुखी हुए। 
गुरु की आज्ञा पर रामचंद्र ने शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने को चले। जैसे ही उन्होंने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई, धनुष तीन टुकड़ों में टूट गया। जनक नंदिनी जानकी जी का श्री रामचन्द्र के साथ माघ मास के शुक्ल पंचमी को विवाह सम्पन्न हुआ। कालान्तर में त्रेताकालीन जनकपुर का विलोप हो गया। 
करीब साढ़े तीन सौ साल के बाद एक महात्मा शुरकिशोर दास ने जानकी जी की जन्म स्थान का पता लगाया और उनकी मूर्ति की स्थापना कर पूजा शुरू कर दी। इसके बाद ही आधुनिक  जनकपुर विकसित हुआ। जनकपुर भारत के बिहार राज्य के सीतामढ़ी, मधुबनी और दरभंगा से बहुत ही नजदीक है। 

♦️जानकी मंदिर-
जनकपुर में एक ऐतिहासिक स्थल है जो जानकी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। मंदिर की वास्तु हिन्दू-राजपूत वास्तुकला है जो महत्वपूर्ण राजपूत स्थापत्य शैली का उदाहरण है। यह मन्दिर ४८६० वर्गफीट क्षेत्र में फैला हुआ है। मंदिर के प्रांगण एवं इसके आसपास के क्षेत्र में १५५ सरोवर एवं कुंड हैं। जिसमे सबसे महत्वपूर्ण एवं पवित्र सरोवर एवं कुंड गंगासागर, परशुराम कुंड एवं धनुष सागर हैं। 
जानकी मन्दिर का निर्माण १९११ ई० में भारत के टीकमगढ़ की महारानी वृषभानु कुमारी ने पुत्र प्राप्ति के लिए करवाया था। मन्दिर निर्माण होने के एक वर्ष के भीतर ही वृषभानु कुमारी को पुत्र प्राप्त हुआ। मन्दिर निर्माण के लिए वृषभानु कुमारी ने नौ लाख रूपये का संकल्प किया था। यही कारण है कि जानकी मंदिर को नौलखा मन्दिर भी कहा जाता है।

क्रमशः——

Thursday, 16 June 2022

जनक नंदिनी माता जानकी का नौलखा मंदिर- I






“मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ, वो महज़ ली हुई साँसें हैं। की हुई बातें हैं। साथ–साथ देखा शरद व पूनम का चाँद है, जागती रातें हैं। उन जागती रातों की कुछ करवटें हैं, भागती सुबहें हैं, अलसायी गर्म दुपहरियाँ हैं। उदास शामें हैं, भारी बरसात है। उसमें किया हुआ इंतज़ार है। जिया हुआ साथ है और हैं, तुम्हारे स्पर्श में लिपिबद्ध चंद अक्षर।”

आइये आपको मिथिलांचल ले चलता हूँ, अभी कुछ दिन पूर्व यात्रामे था। सोचा कुछ जानकारियां आपके साथभी सांझा कर, इसी क्रम मे एक प्रयास.....

जब हम कोसलपुरी अयोध्या का नाम लेते हैं, उस समय विदेह-पुरी मिथिला का भी स्मरण हो आता है। ये दोनों ही धार्मिक पुरियाँ हर काल में हमारे लिए प्रेरणा एवं संबल का स्रोत रही हैं। यह वर्तमान में उत्तरी बिहार और नेपाल की तराई का इलाक़ा है जिसे मिथिला या मिथिलांचल के नाम से जाना जाता था। मिथिला की लोकश्रुति कई सदियों से चली आ रही है जो अपनी बौद्धिक परंपरा के लिये भारत और भारत के बाहर जाना जाता रहा है। इस इलाके की प्रमुख भाषा मैथिली है। धार्मिक ग्रंथों में सबसे पहले इसका उल्लेख रामायण में मिलता है। बिहार-नेपाल सीमा पर विदेह (तिरहुत) का प्रदेश जो कोसी और गंडकी नदियों के बीच में स्थित है। इस प्रदेश की प्राचीन राजधानी जनकपुर में थी। मिथिला का उल्लेख महाभारत, रामायण, पुराण तथा जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में हुआ है।



रामायण-काल-
रामायण-काल में यह जनपद बहुत प्रसिद्ध था तथा सीता के पिता जनक का राज्य इसी प्रदेश में था। मिथिला जनकपुर को भी कहते थे। [1] अहिल्याश्रम मिथिला के सन्निकट स्थित था।

वाल्मीकि रामायण [2] के अनुसार मिथिला के राज्यवंश का संस्थापक निमि था। मिथि इसके पुत्र थे और मिथि के पुत्र जनक। इन्हीं के नाम राशि वंशज सीता के पिता जनक थे। हमारे साहित्य एवं मौखिक परम्पराओं में मिथिला के राजा जनक उतने ही जीवित हैं, जितना कि अयोध्या के राजा दशरथ। वे अपनी दार्शनिक अभिरुचि तथा अनासक्ति के लिये प्रसिद्ध थे।


रामायण के अनुसार मिथिला के नागरिक शिष्ट एवं अतिथिपरायण थे। इस ग्रन्थ के अनुसार महर्षि विश्वामित्र राम एवं लक्ष्मण को साथ लेकर चार दिनों की यात्रा करने के पश्चात् मिथिला पहुँचे थे। जनकपुर प्राचीन विदेह राज्य की राजधानी थी। यह एक ऐसा रमणीक और पवित्र स्थान है जिसका वर्णन धर्मग्रंथों, काव्यों एवं रामायण में भी किया गया है। वर्तमान में यह नगर नेपाल देश में स्थित है। इसी जगह भगवान् राम एवं आदर्श नारी सीता का विवाह संपन्न हुआ था] यहीं पर माता जानकी का विशाल मन्दिर है। जनकपुर में वैसे तो दर्जनों तालाब हैं लेकिन उनमे से दो तालाब बहुत ही प्रसिद्ध हैं - एक गंगा सागर तालाब और दुसरा धनुषा सागर तालाब।

भगवान राम ने वनवास से पहले भी यात्रा की और वह यात्रा की थी ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के साथ। इस दौरान कई लोगों का कल्याण करते हुए जब वे मिथिला प्रदेश में पहुंचे तो राजा जनक खुद को धन्य समझने लगे। उस वक्त मिथिला की राजधानी जनकपुर थी, जो कि अब हमारे पड़ौसी देश नेपाल में है। राजा जनक सीताजी के पिता थे। सीता माता का जन्मस्थल यह जनकपुर आज भी भारत और नेपाल की सीमा के नजदीक मौजूद है।
धनुष यज्ञ में दुनियाभर के राजा, महाराजा, राजकुमार तथा वीर पुरुषों को आमंत्रित किया गया था। समारोह देखने गए रामचंद्र और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्रजी के साथ वहीं उपस्थित थे। जब धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की बारी आई तो वहां उपस्थित किसी भी व्यक्ति से धनुष हिला तक नहीं। इस स्थिति को देख राजा जनक दु:खी हो गए और बोलने लगे कि क्या धरती वीरों से खाली है। राजा जनक के इस वचन को सुनकर लक्ष्मण के आग्रह और गुरु की आज्ञा पर रामचंद्र ने जैसे ही धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई वैसे ही धनुष तीन टुकड़ों में बंट गया। इसके बाद भगवान राम और जनक नंदिनी जानकी का विवाह माघ शीर्ष शुक्ल पंचमी को जनकपुर में हुआ। भगवान राम के साथ ही उनके भाइयों का विवाह भी सीताजी की बहनों के साथ ही हुआ।


कहते हैं कि त्रेता युग के समय के जनकपुर का लोप हो गया था। करीब साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व महात्मा सूरकिशोर दास ने जानकी के जन्मस्थल का पता लगाया और मूर्ति स्थापना कर पूजा प्रारंभ की। यहां जानकी मंदिर है। सीताजी का स्वयंवर इसी मंदिर में हुआ था। पास ही एक मंदिर है राम-सीता विवाह मंडप, जिसमें राम और सीता का विवाह हुआ था।

यह मंदिर नौलखा मंदिर के नाम से जाना जाता है। ये मंदिर सन् 1910 में बना था, जिसकी लागत 9 लाख रुपए आई थी। यहां सूरकिशोरदास को 1657 में सीता की सोने की मूर्ति और उनकी फोटो मिली थी, उसी जगह पर ये मंदिर बनवाया गया है। अब जल्द ही जनकपुर में माता सीता की 151 फुट की प्रतिमा बनाई जाएगी। अमेरिका की संस्था मैथिली दिवा और नेपाल सरकार के सहयोग से बनाई जा रही इस प्रतिमा की लागत करीब 25 करोड़ रुपए आएगी।

जनकपुर नेपाल की राजधानी काठमांडू से 400 किलोमीटर दक्षिण पूर्व में बसा है। इससे करीब 14 किलोमीटर के बाद पहाड़ शुरू हो जाता है। यहां जाने के लिए बिहार से तीन रास्ते हैं। पहला जयनगर से रेल मार्ग है, दूसरा सीतामढ़ी जिले के भिठ्ठामोड़ से और तीसरा मार्ग मधुबनी जिले के उमगांउ से बस का है। बिहार के दरभंगा, मधुबनी एवं सीतामढ़ी जिले से इस स्थान पर सड़क मार्ग से पहुंचना आसान है। पटना से इसका सीतामढ़ी होते हुए सीधा सड़क संपर्क है और इसकी दूरी 140 किलोमीटर है।


गौरतलब है कि जनकपुर क्षेत्र के रीति-रिवाज बिहार राज्य के मिथिलांचल जैसे ही हैं। भारतीयों के साथ ही अन्य देश के लोग भी बड़ी संख्या में यहां आते हैं। अधिकतर सैलानी भारतीय इलाके के मिथिला क्षेत्र से होते हुए नेपाल के मिथिला में प्रवेश कर माता सीता के जन्मस्थल पर दर्शन के लिए जाते हैं।




क्रमशः——

Monday, 13 June 2022

को नहीं जानत है, महत्व नाक का


आपने सोचा हम सबसे ज्यादा कठोर, सबसे ज्यादा निर्दयी किस पर होते हैं ? मेरे हिसाब से शाय़द खुदपर , हां जितनी चोट हम खुद को पहुंचाते हैं उतना ना हम किसी को पहुंचा सकते हैं और ना हमें कोई। कभी खुद की हरकतों से, कभी किसी और के कड़वे बातों से तो कभी अपनी आशा के अनुरूप कोई काम ना कर पाने से, हम खुद को इतना परेशान कर देते हैं कि चीजें सही होते हुए भी हमें दिखाई नहीं देती, रास्ते सामने होते हुए भी हम तलाश में बंजारों की तरह भटकते रहते हैं। जिंदगी के उतार-चढ़ाव, भागमभाग में और लोगों के बारे में सोचते सोचते कोई पीछे छूट जाता है तो वो हैं हम खुद। 
मैं मानता हूं स्वयं पर कठोर होना जरूरी होता है काफी समय, पर हमेशा खुद को यूं परेशान करना हमें खुद से मिलने ही नहीं देता कभी, उस खुबसूरती को देखने से रोकता है जो सच में है हमारे अंदर 
तो क्यों खुद को इतना सताना, क्यों ना एकबार खुद को सारी गलतियों के लिए माफ कर के देखा जाए, एक बार खुद को खुद ही तसल्ली दी जाए ठीक है यार होता है, खुद पर थोड़ा नरम हुआ जाए, थोड़ा समय अपने साथ, उन सभी चीजों के साथ जो पसंद तो है पर हमने करना छोड़ दिया समय के दवाब में या और  किसी भी कारण से, थोड़ा खुद को सहेज कर, थोड़ी खुद से नाराज़गी खत्म कर देखें की क्या होता है। हो सकता है हमारी समस्याएं फिर भी ना सुलझे पर हम उस इंसान से मिल पाएंगे जिसे हमने अपने अंदर कहीं दबा दिया है शायद। आज ऐसे ही एक मुद्दे पर अपनी एक पुरानी साथी से हुई वार्तालाप का कुछ महत्वपूर्ण अंश आपसे सांझा कर रहा हूँ उम्मीद है आप पसंद करेंगे —



नाक चेहरे का महत्वपूर्ण अंग है जिसके ऊपर चश्मे के साथ साथ ऊंचे सामाजिक स्तर को संभाले रखने की जिम्मेदारी भी है। दुःख की बात ये है कि मेरी नाक बनाते वक्त भगवान जरा भी सीरियस नही थे। कभी-कभी तो लगता है भगवान जी ने अपने जीवन साथी से तू-तू मैं मैं के बाद ही मेरी रचना की अर्थात गुस्से में थोप-थाप कर धर दिया तभी तो पूरे चेहरे पर एक भी चीज ढंग की नही लगाई। मुझे बड़ी आंखें पसंद हैं तो चीया मटर सी छोटी छोटी आंखे लगा दी और देखो नाक इतनी बड़ी कर दी कि उसने पूरे चेहरे पर अपना आधिपत्य जमा रखा है। होंठ अलग ही अफ्रीकन से मोटे हैं पर दुख नाक को देखकर ज्यादा होता है जो सबसे ऊंची सबसे मोटी नजर आती है।
पतली सुतवा नाक देखकर ठंडी सांस लेते हम हर रात सपना देखते कि सुबह उठे तो इंदिरा गांधी या नर्गिस जैसी नाक हो जाए। कभी कभी तो इस साढ़े सात सौ ग्राम की नाक को छीलने की इच्छा भी जागी बस हिम्मत न हुई। जब सुना कि नाक की सर्जरी होने लगी है तो जेब की हालत फटेहाल थी और जब जेब की हालत सुधरी सोच ऐसी हो चुकी थी कि हमें कौन सा हिरोइन बनना है। 

मुझे लगता था मोटी हो जाऊंगी तो गाल गुलगुले हो जायेंगे तो नाक पतली दिखेगी लेकिन ये कमबख्त मुंह के अनुपात में ही बढ़ रही है और पकोड़े से समोसा बन चुकी है। कभी कभी लगता है बस गोरा रंग दे दिया बाकी तो सब जल्दबाजी में थोपा और भाग लिए। वो तो समाज के लोगों को गोरे रंग से प्रेम है सो ब्याह गए वरना कौन इस थोबड़े को पसंद करता।

मुझे पसंद है सांवला रंग और तीखे नैन नक्श और मिला उससे उलट पर कर क्या सकते हैं? नाक का सवाल है सो उसे संभाल रहे हैं। भगवान ने बेटी भी नही दी जिसकी वजह से नाक कटने का डर हो जैसे मेरी मां को होता था हर वक्त जब वो कहती थी " मेरी नाक मत कटवा दीजो " और मैं सोचती इतनी सुंदर नाक मिली है खुद को और जिम्मेदारी मुझे दे रखी है संभालने की। हमारे दर्द को कहां समझा किसी ने शीशा देखने से भी डरते हम बस दर्द भरे नग्मे गाते हैं। 

बातों का सिलसिला कुछ पल के लिए रुका ही था कि मेरे फोन की घंटी बज उठी, उसने मानो मेरी तंद्रा तोड़ी हो। दोस्त की दर्द व बातें सुन मन भारी हो चला, गला कुछ बैठ सा गया। मैंने फोन काट दिया। फोन फिर बेचैन हो चिल्लाने लगा तो चुटकी लेते हुए दोस्त ने मुस्कुराते हुए कहा, ले लो कॉल तुम्हारी गर्लफ़्रेंड परेशान हो रही होगी। अनजान नम्बर था सोचा नही बात करता फिर कटाक्ष पर प्रमाण न मिले इस बात के लिये फोन रिसीव किया। 

मैंने फोन रिसीव करते ही भारी मन से कहा - हैलो… (अभी गले में कुछ भारीपन खुद मुझे भी लग रहा था)

सामने से जो आवाज़ आयी उसे सुनकर में चौका और मैंने फोन स्पीकर पर ले लिया। अब हम दोनो दोस्त उस अनजान कॉल सुनने लगे। 

पापा………..
रोने की आवाज़…..
पापा प्लीज... … 
फोन मत रखना.... 

मैं जानती हूं मैंने आपका विश्वास तोड़ा है, लेकिन मैं बहुत पछता रही हूं कि क्यों आपको छोड़कर अपने घर से भागकर मुंबई आ गयी। 
मैं यहां बहुत परेशान हूं पापा…
मैं तुरंत घर लौटना चाहती हूं 
पापा प्लीज… 
एक बार … 
सिर्फ एक बार कह दीजिए कि आपने मुझे माफ कर दिया कहते हुए वह बार-बार सुबक रही थी। उसने फोन पर हैलो सुनते ही गिड़गिड़ाना शुरू कर दिया था। 

उसका रोना सुन खुद को न रोक पाते हुये मैंने कहा तुम कहां हो बेटी?
तुम ... 
तुम जल्दी ही घर लौट आओ मैंने तुम्हारी सब गलतियां माफ कर दी
यह कहकर मैंने फोन रख दिया। 

अब यह सुन मेरी दोस्त जोर से हंसते हुये कहने लगी पचास साल का कुँवारा-प्रौढ़ जिसकी शादी ही नहीं हुई तो यह बेटी कहां से आ गई ....

लेकिन तत्काल मुस्कुराते हुए जवाब दिया, कि किसी भटकी हुई लड़की ने यहां रांग नंबर डायल कर दिया था बहरहाल.... मुझे तो  इस बात की खुशी है कि मेरी आवाज उस लड़की के पिता से मिलती - जुलती थी और मैंने उसे रांग नंबर कहने की बजाय ठीक ही जवाब दिया था शायद मैं इस बहाने से एक पिता और बेटी के मिलन का जरिया जो बन गया, वरना ना जाने भटकाव के चलते उस बेटी के साथ-साथ उस पिता की जिंदगी भी बर्बाद हो जाती। 

आज हमारे समाज को परिवार व अपनत्व को समझने-समझाने की आवश्यकता आन पड़ी है। हमें सिर्फ खुद से मतलब रह गया है। जहां तक मैं समझ पाया हूँ कि एक पिता की नाक उसके बच्चे ही सम्भाल कर रखते हैं। पर आज के समाज में एक जाति-धर्म के नाम पर उलटी गंगा भी बह रही है जाने वो कितनों की नाक ले बहेगी। 

इस फोन कॉल के बाद हमारी चर्चा दूसरी ओर मुड़ चली थी, फिर चाय पी कर मैंने अपनी दोस्त से दुबारा मुलाक़ात का वादा कर बिदा लिया।