Sunday, 31 May 2020

प्रवासी-प्रवासी कहकर दिल ना दुखाएं
— अपने ही भाई-बहिनों को खुद से और समाज से दूर करने का प्रयास ना करें और उनके दुख-दर्द को भी महसूस करें .

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कोरोना वायरस ने आज पूरी दुनिया में कोहराम मचाकर रखा है और आज लगभग हर व्यक्ति जिंदगी और अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। ऐसे हालातों में आज जरूरत आन पड़ी है कि हर एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की पीड़ा को भी मानवता के नाते समझे और आपसी सहयोग से इस संकट का सामना करें। लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि मानवजाति पर आई इस संकट की घड़ी में ऐसे उदाहरण भी देखने को मिल रहे हैं कि जिसे देख-सुन कर मानवता भी कहीं न कहीं शर्मसार हो रही होगी। उदाहरण के रूप में, उत्तराखण्ड के पर्वतीय जिलों के प्रवासियों को लेकर जिस तरह,कतिपय यहीं के लोगो द्वारा डरावना और नफरत से भरा माहौल बनाया जा रहा है,वो किसी से छिपा नहीं है।पिछले लगभग दो महीनों से जिस तरह प्रवासियों को लेकर,कुछ ज्यादा ही समझदार लोगों द्वारा जो नफरत सा माहौल बनाया जा रहा है,उसके कारण ही अब अधिकतर गांवो में भी प्रवासियों को लेकर भय जैसा माहौल बनता दिख रहा है, जिसे किसी भी दशा में उचित नहीं ठहराया जा सकता है। जिन्हें हम आज प्रवासी- प्रवासी कहकर,खुद से,समाज से दूर करने करने का प्रयास कर रहे हैं, वो कोई किसी दूसरे ग्रह से आए प्राणी नहीं हैं,बल्कि गाँव-घरों से रोजगार के लिए बाहर गए हमारे ही भाई-बहिन हैं। और कोई उनको शौक नहीं था कि वो यहाँ से बाहर जाएँ। बल्कि अपने परिवार को जिंदा रखने के लिए वो बाहर नौकरी के लिए गए थे और आज कोरोना के कहर के बीच वापस लौट रहे हैं। जितने लोग आज कोरोना के कारण वापस आ रहे हैं, उनमें से अधिकतर वो हैं,जो प्राइवेट सैक्टर में नौकरी करते हैं और हर साल छुट्टी लेकर अपने-अपने घरों को आते-जाते रहे हैं।

ऐसा नहीं कि इन सभी लोगों के महानगरों में बड़े-बड़े मकान-कोठियाँ हों और आज कोरोना के कारण वापस आ रहे हों, बल्कि इनमें से अधिकतर गरीब और सामान्य आर्थिक हालातों वाले घरों के लोग ही हैं। ये वो लोग हैं,जिनका रोजगार छिन चुका है, सपने बिखर चुके हैं और फिलहाल भविष्य को लेकर उनके आगे,स्याह अंधेरे के सिवाय और कुछ नहीं है।पिछले दो महीनों से इनका जमकर मजाक उड़ाया गया है और इनको खूब खरी-खोटी सुनाई गयी है और पलायन के लिए इनको शत-प्रतिशत जिम्मेदार ठहरा दिया गया है। बड़े-बड़े विद्वानों द्वारा,घर वापस आती इनकी भीड़ और चेहरों को सोशल मीडिया में दिखा-दिखा कर इनका जमकर मजाक उड़ाया गया है और ना जाने किस-किस प्रकार की उलाहनाएं दी गयी हैं। जो तथाकथित विद्वान पिछले दो महीनों से प्रवासी भाई-बहिनों को पानी पी-पी कर कोस रहें हैं, क्या उनको पता है कि प्राइवेट नौकरी करके अपना परिवार चलाने वाले इन लोगों को महानगरों में कैसे-कैसे विषम हालातों का सामना करना पड़ता है और कैसे वो खुद के और अपने अस्तित्व को बचाने कि लड़ाई लड़ते आए हैं। क्या उनको इस बात का जरा भी आभास है कि कोरोना के चलते लॉकडाउन के बाद उन्होने कितने बदतर हालातों का सामना किया और आज भी कर रहे हैं।
पिछले दो महीनों में सोशल मीडिया में इन प्रवासियों के फोटो, वीडियोज को देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि वो कैसी नरकीय जिंदगी जीने को मजबूर हैं। एक तरफ उनकी नौकरियाँ चली गयी थी, एक कमरे में 8 से 10 लोगों का समूह जैसे-तैसे अपना दिन काट रहा था। अधिकतर लोगों के पास खाने तक के पैसे नहीं बचे थे और आपस में मिलकर जैसे-तैसे कमरों का किराया दे रहे थे। रोते-बिलखते और अपने घर वापस आने के लिए हजारों किलोमीटर की पैदल दूरी तय करने वाली प्रवासियों की तस्वीरें और वीडियो आज भी देखे जा सकते हैं। अब जैसे-तैसे वो घर तक पहुँच रहे हैं तो कई ज्यादा ही विद्वान लोगों द्वारा, उनके खिलाफ,नफरत का माहौल बनाने का प्रयास हो रहा है। हजारों की संख्या में अपने घर आ रहे ये लोग कोई आतंकवादी नहीं हैं कि इनसे बस नफरत ही की जाए। इनमें जो लोग कोरोना की चपेट में आए होंगे,तो उनका ईलाज होगा और वो ठीक भी होंगे। अब वो जानबूझ कर तो कोरोना अपने साथ नहीं ला रहे हैं। अपनी-अपनी नौकरियाँ खो चुके इन हजारों प्रवासियों के दिल-दिमाग में भी,अन्य लोगों की तरह बस यही उथल-पुथल है कि उनका और उनके परिवार का भविष्य क्या होगा। कुल मिलाकर कहना यही है कि मानवता और भाईचारे का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करते हुवे,प्रवासी भाई-बहिनों को तिरस्कार की नजर से ना देखें और हो सके तो उनके दर्द को महसूस करने का प्रयास करें। प्रवासी-प्रवासी सुनकर दिल दुखता है साहब!
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