Sunday, 31 May 2020

पर्यटन उद्योग पर कोरोना का कहर
- सर्वाधिक रोजगार देने वाले पर्यटन सेक्टर पर ही पड़ी सबसे अधिक मार


पर्यटन को सिर्फ मनोरंजन तक सीमित नहीं रखना चाहिए बल्कि इससे बहुत अच्छा ज्ञान मिलता है। हम पहाड़ों के विषय में अक्सर पढ़ते आए हैं कि वे इतने ऊंचे होते हैं, वहां जंगल होता है और भयानक जीव रहते हैं लेकिन जब पहाड़ पर जाते हैं, उन्हें नजदीक से देखते हैं तो एक तरफ हजारों फिट गहरी खाईं और दूसरी तरफ सैकड़ों फिट ऊंचे पेड़ जिनके ऊपरी हिस्से को हम राह चलते छू सकते हैं। ऐसा ज्ञान किताबों से नहीं मिलता। विश्व पर्यटन संगठन के अनुसार पर्यटक वे हैं जो यात्रा करके अपने सामान्य वातावरण से बाहर के स्थानों में रहने जाते हैं। यह दौरा ज्यादा से ज्यादा एक साल के लिए मनोरंजन, व्यापार, धार्मिक आस्था व अन्य उद्देश्य से भी किया जाता है। पर्यटन दुनिया भर में एक आराम पूर्ण गतिविधि के रूप में लोकप्रिय हो गया है। भारत में ताजमहल, लखनऊ का इमामबाड़ा, मध्य प्रदेश में खजुराहो के मंदिर, मिस्र के पिरामिड, चीन की दीवार, उत्तराखंड में चारधाम, फूलों की घाटी, नैनीताल, पिंडारी ग्लेशियर, मिनी स्विज़रलैंड कौसानी आदि को देखने के लिए दुनिया भर के पर्यटक आते हैं। 

इन दिनों पर्यटक झिझके हुए हैं क्योंकि चीन से फैला कोरोना वायरस लोगों को घर से बाहर नहीं निकलने दे रहा है।
कोरोना वायरस के कहर का पर्यटन क्षेत्र पर व्यापक असर पड़ा है। ऐसे में कई ट्रैवल कंपनियों ने अपने कर्मचारियों की वेतन वृद्घि टाल दी है और नई भर्तियों पर रोक लगा दी है। अर्थव्यवस्था में नरमी और कोरोनावायरस की वजह से मांग कम होने से कारोबार पर असर पड़ा है। लोगों का घरों से निकलना पूरी तरह से बंद हो चुका है। सैर सपाटे का शौक़ रखने वाले सभी प्रकृति प्रेमी घरों में क़ैद हैं जिसका सीधा असर होटल व्यवसाय पर नजर आ रहा है। जहाँ सीधे तौर पर पहाड़ में पहाड़ सी ज़िम्मेदारी के ऊपर होटल व्यवसाइयों पर क़र्ज़ का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। जो वर्तमान समय में किसी से छुपा नही है। उत्तराखंड में पहाड़ के युवाओं के लिये मुख्य रोज़गार के रूप में पर्यटन ही है। जिस पर कोरोना के कहर के चलते जहाँ आज हज़ारों परिवारों के सामने रोज़ी-रोटी का संकट पैदा हो गया है और प्रदेश व देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से प्रभावित हो रही है। पर्यटन कारोबारियों का मानना है कि लॉकडाउन से सबसे अधिक असर उन्हीं पर पड़ा है। राहत भी सबसे बाद में ही मिलेगी। इस हालात में सभी ने सबसे बड़ी चुनौती कर्मचारियों को वेतन देने से लेकर टैक्स, बिजली बिलों के भुगतान को बताया। साफ किया कि यदि सरकार ने समय रहते सहायता नहीं दी, तो युवाओं को रोजगार देने वाला सबसे बड़ा ये सेक्टर डूब जाएगा।
संसार में सब से अधिक दुःखी प्राणी कौन है ? बेचारी मछलियां क्योंकि दुःख के कारण उनकी आंखों में आने वाले आंसू पानी में घुल जाते हैं, किसी को दिखते नहीं। अतः वे सारी सहानुभूति और स्नेह से वंचित रह जाती हैं। सहानुभूति के अभाव में तो कण मात्र दुःख भी पर्वत हो जाता है।
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गैर जिम्मेराना हरकतों से भय-भ्रम का माहौल बनाना छोड़ो और आम जनता में सकारात्मक माहौल बनाकर उनको जागरूक बनाने का प्रयास करो.....
♦️जागरूकता के साथ लड़ेंगे तो हारेगा कोरोना

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कल तक हम खुद को उसकी पहुँच से बहुत दूर महसूस कर रहे थे और लग रहा था की ये और जगह कहर बरपा सकता है,लेकिन इतनी दूर हम तक किसी भी हालत में पहुँच ही नहीं सकता। उसके हम तक नहीं पहुँच पाने के बहुत से कारण,हमने खुद ही बना लिए थे। लेकिन देखो वो हमारे आसपास दस्तक दे ही गया।पूरी दुनिया में विनाशलीला का स्वप्न लिए कोरोना वायरस रूपी मानवजाति का ये अदृश्य दुश्मन आज हमारे आसपास मौजूद है और बस इसी इंतजार में है कि,कब हम गलतियाँ करें,लापरवाह गतिविधियां करें और इसे हमें और हमारे अपनों को नुकसान पहुंचाने का मौका मिले। इतना सब कुछ साफ होने के बाद भी ऐसे तथाकथित शूरवीरों की कोई कमी नहीं,जो कोरोना वायरस को लेकर अपनी गैर जिम्मेराना हरकतों से आम जनता के बीच भय,अफरा-तफरी का माहौल बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं।जबकि ऐसे माहौल में ऐसी हरकतें करने के बजाय आम जनता के मध्य सकारात्मक वातावरण बनाने और उन्हें जागरूक करने का प्रयास करने की आवश्यकता है।

कोरोना के केस आए नहीं कि ऐसे शूरवीरों ने सोशल मीडिया में इस खबर को ऐसे-ऐसे तरीकों से परोसना शुरू कर दिया कि देखने-पढ़ने वालों में अफरा-तफरी का माहौल बनता दिखा और यकीनन भय का एक अनैच्छिक वातावरण का निर्माण हुवा। इनमें से कईयों ने तो हद ही पार कर दी। अरे भाई, ठीक है। देश के कोने-कोने में कोरोना संक्रमित पाए जा रहे हैं और यहाँ भी बाहर से वापस लौटे कुछ लोग कोरोना पॉज़िटिव पाए गए तो इसमें बहुत अधिक हैरानी की क्या बात हो गयी ? सभी चाहते हैं कि उनके यहाँ,कोरोना का प्रवेश ना हो, लेकिन हमेशा वैसा नहीं हो पाता,जैसा हम चाहते हैं। कोरोना संक्रमितों के ईलाज हेतु शासन-प्रशासन की अपने स्तर से तैयारियां हैं और संक्रमितों के ईलाज हेतु व्यवस्थाएं की गयी हैं और उनका ईलाज भी हो रहा है। अब ऐसी परिस्थितियों में क्या जरूरी है ? खुद जागरूक रहकर औरों को भी जागरूक करना जरूरी है या गैर जिम्मेराना हरकतें कर,आम जनता के मध्य भय का वातावरण बनाना जरूरी है ?
ये बहुत बड़ा सच है कि आज सोशल मीडिया,बहुत बड़ी ताकत बनकर सामने आया है और इसके सही-गलत दोनों प्रकार के प्रभाव भी समय-समय पर सामने आते दिखे हैं। अगर लोगों में होड़ केवल इस बात को लेकर हो कि कोरोना को लेकर वो सबसे पहले जानकारी सोशल मीडिया में साझा करे,फिर भले ही उनका जानकारी साझा करने का तरीका कितना ही गैर जिम्मेराना क्यों ना हो, तो फिर आप समझ सकते हैं कि सोशल मीडिया के माध्यम से किस प्रकार,आम जनता के मध्य भय और भ्रम का वातावरण बनाने का काम होता है। अब कोरोना हमारे आसपास दस्तक दे चुका है और अब ये अंतिम मौका है कि सभी लोग हालातों की गंभीरता को समझते हुवे ये तय कर लें कि हमें क्या करना है और क्या नहीं करना है। कोरोना की भयावहता की तस्वीर हमारे यहाँ नहीं बने,यदि हम ऐसा चाहते हैं तो हम सभी को सबसे पहले कोरोना से सुरक्षा और बचाव के सभी उपायों को अपनी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बनाना होगा और अन्यों को भी इसके लिए आवश्यक रूप से जागरूक करना होगा। आशा है कि कोरोना से इस जंग में हम सभी एक जागरूक कोरोना योद्धा बनेंगे और मानव जाति के अदृश्य दुश्मन कोरोना को परास्त करेंगे। जागरूक रहिए,सुरक्षित रहिए .....
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वही विजेता होगा, जिसका धैर्य व संकल्प मजबूत होगा!
— बचाव में ही बचाव है!!

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आज से पहले हमें बसों व रेलगाडिय़ों में यह बात पढऩे को मिलती है कि यात्री अपने सामान का स्वयं जिम्मेवार है। अब तो बड़े-बड़े मॉल क्या करीब-करीब प्रत्येक बड़े संस्थान में उपरोक्त तरह की चेतावनी देखने व पढऩे को मिलेगी। कोरोना संक्रमण के कारण हुए पूर्णबंदी से निकलने के लिए भी सरकार ने उपरोक्त चेतावनी का ही सहारा लिया एवं आगे भी लेना होगा।
‘दो गज दूरी’ का महत्व समझते हुए हमें संक्रमण रोकने के लिए यह सुनिश्चित करना होगा कि लोग सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने समेत अन्य सावधानियां बरत रहे हैं। कोरोना के खिलाफ लड़ाई को और ज्यादा केंद्रित करना होगा। हमें साफ पता चल चुका है कि देश के किन-किन इलाकों में कोरोना का खतरा ज्यादा है और अभी कौन से इलाके बहुत ज्यादा प्रभावित हैं। हालांकि हम जानते हैं कि हम मैराथन में दौड़ रहे हैं। यह छोटी दूरी की दौड़ नहीं है जिसे तेजी से भागकर पूरा कर लिया जाए। भारत और वास्तव में पूरी दुनिया को संक्रमण के प्रसार के लिये आने वाले कई-कई महीनों और संभवत: सालों तक के लिये तैयार रहना होगा।
अत्यधिक आबादी, शहरी इलाकों में अत्यधिक भीड़ और कुछ ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य देखभाल की खराब पहुंच के तौर पर कई चुनौतियां हैं। वास्तव में यह जन स्वास्थ्य निगरानी, प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्र और स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या को मजबूत करने का समय है। धरातल का सच यही है कि कोरोना महामारी से एक लंबी लड़ाई लडऩे के लिए विश्व को तैयार होना होगा। यह लड़ाई घर बैठकर तो लड़ी नहीं जा सकती और न ही सरकार एक सीमा से आगे कुछ करने की स्थिति में है। लॉकडाउन के कारण मजदूर, किसान से लेकर छोटे-छोटे दुकानदार, बड़े से बड़ा व्यापारी व उद्योगपति परेशान है। जन साधारण को भी लग रहा है कि वह एक तरह से कैदी नुमा जीवन जी रहे हैं। जीवन जैसे ठहर सा गया है। जीवन को पुन: गति देने के लिए सरकार ने ढीलें देनी तो शुरू की हैं लेकिन इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि लॉकडाउन-5 भी आयेगा लेकिन उस में छूटें पहले से अधिक होंगी। कोरोना वायरस एक लंबी दौड़ की तरह है जिसमें वही विजेता होता है जिसका धैर्य व संकल्प मजबूत होता है। जो अपना धैर्य खो देता है वह दौड़ को पूरा नहीं कर पाता। जीवन अपने आप में एक लंबी दौड़ ही है। इसमें सफल वही होता है जो लक्ष्य को सम्मुख रख अपना संघर्ष जारी रखता है और अपना संयम व संतुलन बनाये रखता है। प्रत्येक यात्री के अपने-अपने अनुभव होते हैं लेकिन चेतावनी सबके लिए होती है। चेतावनी को सम्मुख रख सबको एहतियात रखना होता है, जो नहीं रखता उसको खामियाजा भी भुगतना पड़ता है।
अब समय आ गया है कि जन-साधारण को लॉकडाउन से बाहर निकाला जाए। सरकार को जहां रोजमर्रा के जीवन में जन साधारण को अधिक रियायतें देनी चाहिए। वहीं सरकार को जन साधारण को यह भी चेतावनी देनी होगी कि अगर कोई लापरवाही हुई तो वह स्वयं उसका जिम्मेवार होगा। सतर्क रहकर व बताई गई बातों को ध्यान में रख कर तथा एहतियात रखते हुए हम अपने जीवन को पुन: गति दे सकेंगे। जरा सी असावधानी हमें व हमारे परिवार के वर्तमान व भविष्य को प्रभावित कर सकती है। कोरोना वायरस के प्रभाव से आप भली-भांति परिचित हैं, सो अपना ध्यान आप रखें। बचाव में ही बचाव है।

#Rescue_is_defense🙏🏻
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प्रवासी-प्रवासी कहकर दिल ना दुखाएं
— अपने ही भाई-बहिनों को खुद से और समाज से दूर करने का प्रयास ना करें और उनके दुख-दर्द को भी महसूस करें .

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कोरोना वायरस ने आज पूरी दुनिया में कोहराम मचाकर रखा है और आज लगभग हर व्यक्ति जिंदगी और अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। ऐसे हालातों में आज जरूरत आन पड़ी है कि हर एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की पीड़ा को भी मानवता के नाते समझे और आपसी सहयोग से इस संकट का सामना करें। लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि मानवजाति पर आई इस संकट की घड़ी में ऐसे उदाहरण भी देखने को मिल रहे हैं कि जिसे देख-सुन कर मानवता भी कहीं न कहीं शर्मसार हो रही होगी। उदाहरण के रूप में, उत्तराखण्ड के पर्वतीय जिलों के प्रवासियों को लेकर जिस तरह,कतिपय यहीं के लोगो द्वारा डरावना और नफरत से भरा माहौल बनाया जा रहा है,वो किसी से छिपा नहीं है।पिछले लगभग दो महीनों से जिस तरह प्रवासियों को लेकर,कुछ ज्यादा ही समझदार लोगों द्वारा जो नफरत सा माहौल बनाया जा रहा है,उसके कारण ही अब अधिकतर गांवो में भी प्रवासियों को लेकर भय जैसा माहौल बनता दिख रहा है, जिसे किसी भी दशा में उचित नहीं ठहराया जा सकता है। जिन्हें हम आज प्रवासी- प्रवासी कहकर,खुद से,समाज से दूर करने करने का प्रयास कर रहे हैं, वो कोई किसी दूसरे ग्रह से आए प्राणी नहीं हैं,बल्कि गाँव-घरों से रोजगार के लिए बाहर गए हमारे ही भाई-बहिन हैं। और कोई उनको शौक नहीं था कि वो यहाँ से बाहर जाएँ। बल्कि अपने परिवार को जिंदा रखने के लिए वो बाहर नौकरी के लिए गए थे और आज कोरोना के कहर के बीच वापस लौट रहे हैं। जितने लोग आज कोरोना के कारण वापस आ रहे हैं, उनमें से अधिकतर वो हैं,जो प्राइवेट सैक्टर में नौकरी करते हैं और हर साल छुट्टी लेकर अपने-अपने घरों को आते-जाते रहे हैं।

ऐसा नहीं कि इन सभी लोगों के महानगरों में बड़े-बड़े मकान-कोठियाँ हों और आज कोरोना के कारण वापस आ रहे हों, बल्कि इनमें से अधिकतर गरीब और सामान्य आर्थिक हालातों वाले घरों के लोग ही हैं। ये वो लोग हैं,जिनका रोजगार छिन चुका है, सपने बिखर चुके हैं और फिलहाल भविष्य को लेकर उनके आगे,स्याह अंधेरे के सिवाय और कुछ नहीं है।पिछले दो महीनों से इनका जमकर मजाक उड़ाया गया है और इनको खूब खरी-खोटी सुनाई गयी है और पलायन के लिए इनको शत-प्रतिशत जिम्मेदार ठहरा दिया गया है। बड़े-बड़े विद्वानों द्वारा,घर वापस आती इनकी भीड़ और चेहरों को सोशल मीडिया में दिखा-दिखा कर इनका जमकर मजाक उड़ाया गया है और ना जाने किस-किस प्रकार की उलाहनाएं दी गयी हैं। जो तथाकथित विद्वान पिछले दो महीनों से प्रवासी भाई-बहिनों को पानी पी-पी कर कोस रहें हैं, क्या उनको पता है कि प्राइवेट नौकरी करके अपना परिवार चलाने वाले इन लोगों को महानगरों में कैसे-कैसे विषम हालातों का सामना करना पड़ता है और कैसे वो खुद के और अपने अस्तित्व को बचाने कि लड़ाई लड़ते आए हैं। क्या उनको इस बात का जरा भी आभास है कि कोरोना के चलते लॉकडाउन के बाद उन्होने कितने बदतर हालातों का सामना किया और आज भी कर रहे हैं।
पिछले दो महीनों में सोशल मीडिया में इन प्रवासियों के फोटो, वीडियोज को देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि वो कैसी नरकीय जिंदगी जीने को मजबूर हैं। एक तरफ उनकी नौकरियाँ चली गयी थी, एक कमरे में 8 से 10 लोगों का समूह जैसे-तैसे अपना दिन काट रहा था। अधिकतर लोगों के पास खाने तक के पैसे नहीं बचे थे और आपस में मिलकर जैसे-तैसे कमरों का किराया दे रहे थे। रोते-बिलखते और अपने घर वापस आने के लिए हजारों किलोमीटर की पैदल दूरी तय करने वाली प्रवासियों की तस्वीरें और वीडियो आज भी देखे जा सकते हैं। अब जैसे-तैसे वो घर तक पहुँच रहे हैं तो कई ज्यादा ही विद्वान लोगों द्वारा, उनके खिलाफ,नफरत का माहौल बनाने का प्रयास हो रहा है। हजारों की संख्या में अपने घर आ रहे ये लोग कोई आतंकवादी नहीं हैं कि इनसे बस नफरत ही की जाए। इनमें जो लोग कोरोना की चपेट में आए होंगे,तो उनका ईलाज होगा और वो ठीक भी होंगे। अब वो जानबूझ कर तो कोरोना अपने साथ नहीं ला रहे हैं। अपनी-अपनी नौकरियाँ खो चुके इन हजारों प्रवासियों के दिल-दिमाग में भी,अन्य लोगों की तरह बस यही उथल-पुथल है कि उनका और उनके परिवार का भविष्य क्या होगा। कुल मिलाकर कहना यही है कि मानवता और भाईचारे का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करते हुवे,प्रवासी भाई-बहिनों को तिरस्कार की नजर से ना देखें और हो सके तो उनके दर्द को महसूस करने का प्रयास करें। प्रवासी-प्रवासी सुनकर दिल दुखता है साहब!
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आशाओं की अनुभूति को हर पल जिंदा रखने वाला देश है भारत
— भारत की मिट्टी में है जीत का जज्बा घुला हुआ

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COVID-19 के प्रकोप से ठहर सी गयी दुनिया के बीच यह जाहिर हुआ है कि भारत आशाओं की अनुभूति को हर पल जिंदा रखने वाला देश है। यह इस देश की सकारात्मक ऊर्जा है कि यहां के लोग कठिनाइयों से अवसाद में जाने की बजाय नए रास्तों पर आगे बढ़ने का अवसर तलाश लेते हैं। संयम, सेवा, समर्पण, सहयोग, संतुष्टि और संकल्प का विलक्षण संयोग देश ने इस कठिन दौर में दिखाया है। लॉकडाउन की कठिनाइयों में नवाचार के नए-नए प्रयोग दिख रहे हैं। निश्चित ही यह सेवा और समर्पण के लिए मजबूत मन से संकल्पित होने का दौर है।
इस विकट परिस्थिति के खिलाफ खड़े होने की जिम्मेदारी भी सवा सौ करोड़ कंधों पर है। याद रखना चाहिए कि कोविड-19 के खिलाफ इस महायुद्ध में अमेरिका और यूरोप के देशों जैसी दुनिया की शीर्ष महाशक्तियां लाचार नजर आ रही हैं। स्वास्थ्य और सम्पन्नता के विश्वस्तरीय मॉडल निरीह और बेबस नजर आ रहे हैं। ऐसे में वैश्वीकरण में सिमट चुकी दुनिया वाले इस दौर में भारत का भी इससे अछूता रह जाना संभव नहीं था, किंतु संतोष और राहत की बात है कि हम और हमारा देश इस अदृश्य परजीवी के खिलाफ दुनिया के तमाम शक्ति संपन्न देशों की तुलना में बेहतर स्थिति में लड़ रहे हैं। यद्यपि संक्रमण के मामलों में अब तेजी आई है, फिर भी यह दर यूरोपीय देशों और अमेरिका से अभी कम है। अमेरिका और ब्राजील जैसे देश भारत से मदद मांग रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन को कोविड-19 के विरुद्ध भारत के कदमों में उबरने की आस दिख रही है। दुनिया के श्रेष्ठतम चिकित्सा प्रणाली वाले इटली और अमेरिका की स्थिति देखने के बाद यह वैश्विक संगठनों के लिए चकित करने वाली बात है कि भारत इस वायरस पर तुलनात्मक रूप से कैसे नियंत्रण कर सका है? इस सवाल के जवाब को समझते हुए सरकार की मानवीयता आधारित नीति और नागरिकों की संकल्प शक्ति का समन्वय नजर आता है।

‘मानव जीवन’ की रक्षा को ध्येय मानकर इस लड़ाई में आगे बढ़ते हुए ‘संपूर्ण लॉकडाउन’ घोषित किया। यह वह कदम था, जिसका साहस दुनिया का कोई विकसित देश नहीं दिखा पाया था। उपनिषद वाक्य है- ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्, अर्थात शरीर ही सभी कर्तव्यों को पूरा करने का साधन है। मोदी सरकार ने इसी को प्राथमिकता देते हुए आर्थिक हितों को दूसरे पायदान पर रखा। वहीं मोदी सरकार के इस कदम पर देश की जनता ने भी वही भाव दिखाया, जिसकी अपेक्षा मानवीय संवेदनाओं वाले समाज से की जाती है। सतर्कता, संयम, सेवा, समर्पण और अडिग संकल्प का भाव सवा सौ करोड़ जनता वाले देश में जिस ढंग से दिखा है, वह मिसाल है।
एक ऐसा दौर जब ‘शारीरिक दूरी’ आग्रह का विषय बन गया है, वैसे में अकेलापन, अवसाद और नकारात्मकता के घर करने का भय संभावी था, किंतु जनता कफ्र्यू के दिन जिस तरह से ‘कोरोना वैरियर्स’ के अभिवादन में देश ने अपनी चौखट पर एकजुट होकर करतल ध्वनि से कश्मीर से कन्याकुमारी तक के आसमान को गुंजायमान किया, वह इस धरती की जीवंत चेतना का परिचायक बना।
इस आपदा ने हमें बताया है कि यह देश आशाओं के बल से बलवान है। सेवा इसके आचरण का नैसर्गिक तत्व है। संकल्प इसके विजय का बीजमंत्र है। एकजुटता इसके चरित्र की जीवटता है। इसकी मिट्टी में जीत का जज्बा घुला हुआ है। इसकी सभ्यता अपराजेय है, इसकी सांस्कृतिक अट्टालिकाएं अभेद्द हैं। कोविड-19 को हराने के लिए हम भले ‘शारीरिक दूरी’ बना रहे हैं, लेकिन संवेदनाओं की पृष्ठभूमि में हम सवा सौ करोड़ देशवासी एक-दूसरे का हाथ पकड़े चट्टान बनकर खड़े हैं। यह देश कभी हारा नहीं है। इसबार भी नहीं हारेगा।

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साबुन लाल हो या नीला उसका झाग हमेशा सफेद क्यों होता है?
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बहुत दिनों से मन में एक ख्याल रह-रह के परेशान कर रहा था आंखिर साबुन लाल हो या नीला उसका झाग हमेशा सफेद क्यों होता है? स्कूल टाईम पर कहीं पढ़ा तो था, पर ठीक से याद नही आ रहा था। चलो आज इस पर विस्तार पूर्वक वार्ता करते हैं कभी आपको भी ऐसे ही अटपटे से ख्याल आये तो ज़रूर साँझा कीजिएगा। उस पर भी चर्चा कर प्रकाश डालने की पूरी कोशिश करूँगा। चलिए अब सीधे मुद्दे पर आते हैं -
टीवी पर आने वाले साबुन के विज्ञापनों पर अगर आप ध्यान दें तो आपको पता चलेगा कि उन सब में दावे भले ही अलग-अलग रहते हों लेकिन एक चीज, एक जैसी ही रहती है. यह चीज है साबुन का झाग। साबुन की गुणवत्ता बताने के साथ टीवी विज्ञापनों को रूमानियत देने या खूबसूरत बनाने के लिए झाग उड़ाने के दृश्य जरूर दिखाए जाते हैं। इन विज्ञापनों से अलग भी हम सब अपने बचपन में मौज-मजे के लिए साबुन का झाग और गुब्बारे बनाकर खेल चुके हैं। हर साबुन-शैंपू-डिटर्जेंट के साथ यह बात भी देखी जा सकती है कि वे चाहे किसी रंग के हों, उनका झाग हमेशा सफेद ही होता है।
बचपन में ही विज्ञान की पढ़ाई के दौरान यह नियम सिखाया-समझाया जाता है कि किसी वस्तु का अपना कोई रंग नहीं होता। उस पर जब प्रकाश की किरणें पड़ती हैं तो वह बाकी रंगों को सोखकर जिस रंग को परावर्तित करती है, वही उसका रंग होता है। यही नियम कहता है कि जब कोई वस्तु सभी रंगों को सोख लेती है तो वह काली और सभी रंगों को परावर्तित करती है तो सफेद दिखती हैं।

साबुन का झाग सफेद दिखाई देने के पीछे भी यही कारण है। झाग कोई ठोस पदार्थ नहीं है। इसकी सबसे छोटी इकाई पानी, हवा और साबुन से मिलकर बनी एक पतली फिल्म होती है। यह पतली फिल्म जब गोल आकार ले लेती है, हम इसे बुलबुला कहते हैं। दरअसल साबुन का झाग बहुत सारे छोटे बुलबुलों का समूह होता है।
साबुन के एक बुलबुले में घुसते ही प्रकाश किरणें अलग-अलग दिशा में परावर्तित होने लगती हैं। यानी उसके अंदर प्रकाश किरणें किसी एक दिशा में जाने के बजाय अलग-अलग दिशा में बिखर जाती हैं। यही कारण है कि साबुन का एक बड़ा बुलबुला हमें पारदर्शी सतरंगी फिल्म जैसा दिखाई देता है। अगर ऐसे किसी बुलबुले में से प्रकाश किरणें एक ही दिशा में लौटतीं तो यह कागज की तरह सफेद दिखाई देता।
झाग बनाने वाले छोटे-छोटे बुलबुले भी इसी तरह की सतरंगी पारदर्शी फिल्मों से बने होते हैं। लेकिन ये इतने बारीक होते हैं कि अव्वल तो इनमें हम सातों रंगों को नहीं देख पाते, वहीं दूसरी ओर इनमें प्रकाश इतनी तेजी से घूमता है कि ये एक ही समय पर तकरीबन सभी रंगों को परावर्तित करते रहते हैं। इसलिए यहां पर रंगों से जुड़ा विज्ञान का वही नियम लागू होता है जिसके मुताबिक कोई वस्तु अगर सभी रंगों को परावर्तित कर दे तो उसका रंग सफेद दिखाई देगा। इस तरह साबुन का झाग हमें सफेद दिखाई देता है।

अब इस सवाल के एक दूसरे महत्वपूर्ण हिस्से की तरफ आते हैं कि साबुन का रंग झाग में क्यों नहीं दिखता? दरअसल साबुन जब पानी में घुलता है तो उसका रंग तो छूटता ही है। अगर आप कांच के किसी पारदर्शी बर्तन में पानी रखकर साबुन उसमें घोल दें तो आप पाएंगे कि उस घोल का रंग साबुन के रंग जैसा ही होता है, लेकिन मूल रंग के मुकाबले काफी हल्का हो जाता है। वहीं जब इस पानी से बुलबुला बनता है तो इसको बनाने वाली फिल्म में यह रंग इतना हल्का हो चुका होता है कि वह हमें दिखाई नहीं देता। यानी कि अब ये बुलबुले उस रंग के प्रकाश को परावर्तित नहीं करते और यही वजह है कि साबुन लाल हो या नीला उसका झाग हमें सफेद ही दिखाई देता है।

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सरकार गोरी हो या भूरी सोचने का तरीका अमूमन एक जैसा होता है।
— भारत में 11 ऐसे अकाल पड़े जिसमें हर बार लाखों लोगों की मृत्यु हुई

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महामारियों से हमारा नाता सदियों पुराना रहा है, यह तस्वीर 1943 के अकाल की है, जिस अकाल में बंगाल के लगभग 40 लाख लोगों की मौत हो गयी थी। कहा जाता है कि यह अकाल उस वक़्त के ब्रिटिश पीएम विंस्टन चर्चिल की गलत नीतियों की वजह से पड़ा था। कई इतिहासकारों ने इसे मानव जनित होलोकॉस्ट की संज्ञा दी है। यह द्वितीय विश्व युद्ध का वक़्त था। चर्चिल ने बड़े पैमाने पर भारतीय खाद्यान्न की आपूर्ति मोर्चे पर तैनात ब्रिटिश फौजियों के लिये कर दी थी। उस वक़्त चर्चिल ने कहा था, कुपोषित बंगालियों की भूख से जरूरी मजबूत यूनानियों की भूख का इंतजाम करना है। भारत से उस साल 2.7 मिलियन टन खाद्यान्न का निर्यात किया गया था।
जब भारत में अकाल पीड़ितों की मौत का आंकड़ा काफी अधिक हो गया। तब भी चर्चिल नहीं पिघला, उसने कहा, मरने वाले खुद जिम्मेदार हैं। वे खरगोश की तरह बच्चे पैदा करते हैं। चर्चिल ने कहा, यह कैसा अकाल है, जब गांधी की ही मौत नहीं हुई।
अकाल या ऐसी ही आपदाओं के वक़्त अंग्रेज सरकार का यह संवेदनहीन रवैया कोई नई बात नहीं थी। शशि थरूर की पुस्तक द डार्क एरा के मुताबिक अंग्रेजों के 200 साल के राज के दौरान भारत में 11 ऐसे अकाल पड़े जिसमें हर बार लाखों लोगों की मृत्यु हुई। अनुमानतः लगभग 3.5 करोड़ लोगों की इस दौरान मृत्यु हुई।


हर बार अंग्रेज सरकार की गलत नीतियों की वजह से ये अकाल पड़े। मगर अपनी गलती स्वीकारना और उसका निराकरण करना तो दूर। हर बार अंग्रेज सरकार ने इस दौरान पीड़ित लोगों को किसी भी किस्म का राहत देने से इनकार कर दिया। हर बार कहा जाता कि राहत अभियान चलाना स्वतंत्र बाजार के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा, इसके अलावा यह भी कहा जाता जिस रकम का बजट में उल्लेख नहीं है उसे खर्च नहीं किया जाना चाहिये। इसके अलावा बार बार मेल्थस के उस सिद्धांत का जिक्र किया जाता, जिसके मुताबिक अधिक जनसंख्या का निराकरण प्रकृति इस तरह करती है।
1866 में ओडिशा के अकाल के दौरान जब सरकार द्वारा खाद्य पदार्थों की कीमत कम न करने के प्रयासों की आलोचना होने लगी तो बंगाल के तत्कालीन गवर्नर बीडन ने कहा कि अगर मैं ऐसा करता हूँ तो मुझे एक डाकू समझा जाना चाहिये। दिलचस्प जानकारी यह है कि उस साल जब 15 लाख लोगों की मौत हुई थी, तब 20 करोड़ पाउंड चावल ब्रिटेन को निर्यात किया गया।
इसके अलावा अंग्रेज आपदाओं में राहत अभियान चलाने के भी सख्त विरोधी थी। अकालों में जब लोगों की अत्यधिक मौत होने लगती और लंदन के बौद्धिक तबका भारत के ब्रिटिश अधिकारियों से सवाल पूछता तो वे कहते कि अगर आप बिल पे करने के लिये तैयार हैं तो मैं आपकी तरफ से राहत अभियान चला सकता हूँ। एक ब्रिटिश अधिकारी ने अपने पैसों से राहत अभियान चलाने की कोशिश की तो सरकार ने उसके खिलाफ कार्रवाई कर दी।
यह सब किस्से शशि थरूर की किताब द डार्क एरा में पढ़ रहा हूँ। पढ़ते हुए मालूम होता है कि सरकार गोरी हो या भूरी सोचने का तरीका अमूमन एक जैसा होता है। इस कोरोना और लॉक डाउन काल में मौजूदा सरकार के कई फैसलों की झलक इन ऐतिहासिक संदर्भों में नजर आती हैं।

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अदृश्य युद्ध के दौर में चुनौतियां हौसलों से ही हारा करती हैं,
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निश्चित ही यह एक अकल्पनीय समय है। वह घटित हो रहा है, जो किसी ने कभी सोचा तक नहीं था। आगे बढ़ती हुई एक सदी अचानक थम गई, बीती हुई सदी अपने तमाम जख्मों के साथ फिर प्रकट हो गई। फिर वही भूख, पलायन, गरीबी और बेबसी, बेबसों का वही रेला।

कश्मीर से कन्याकुमारी तक दुख और दर्द का समुंदर ठाठे मार रहा है। हर कोई आवाक् है, बदहवास है। क्या मजदूर, क्या मालिक, क्या शासन, क्या प्रशासन...हर पल एक नयी चुनौती सामने आती है, रूप बदल बदल कर नयी नयी मुश्किलें नुमाया होती हैं...लेकिन जंग जारी है। इनसान लड़ रहा है। जीत रहा है।
यह समय पूरी दुनिया पर कहर बनकर टूट रहा है। पूरी दुनिया में श्रम पर जिंदा रहने वाले लोग मुश्किल में हैं। भारत में भी कोरोना से उपजी परिस्थितियों ने प्रवासी श्रमिकों को सड़क पर ला दिया है। घर लौट रहे हजारों-हजार मजदूरों का रेला हर रोज एक राज्य से दूसरे राज्य दाखिल हो रहा है।
कोरोना की आहट मिलने के तुरत बाद से ही सरकार और समाजसेवी पीडि़तों को राहत पहुंचाने की कोशिश में जुटे हुए हैं। दूसरे प्रदेशों में कमाने-खाने गये मजदूरों की सुरक्षित घर वापसी के लिए ट्रेनों-बसों का इंतजाम करने, उनसे संपर्क बनाए रखने, उन्हें क्वारंटाइन करने और क्वारांटाइन की अवधि में उनकी सेहत तथा सुविधाओं का खयाल रखने में बडा़ अमला जुटा हुआ है। एक सीमा से दूसरी सीमा तक पहुंचाने के लिए वाहनों का प्रबंध करने में भी सैकडो़ लोग जिसमें ज़िला प्रशासन, स्वास्थ्य, परिवहन आदि के साथ सामाजिक संगठन लगे हुए हैं। तपती हुई दोपहरियों में, संक्रमण के तमाम खतरों के बीच, वे भी मजदूरों के पसीनों में अपना पसीना मिला रहे हैं। अपने परिवार से दूर रहकर वे भी अपनी सामाजिक जिम्मेदारियां पूरी कर रहे हैं।
कोरोना के विषाणुओं की तरह चुनौतियां भी अदृश्य हमले करती हैं। चौक-चौराहों पर अपनी संवेदनाओं की ढाल लेकर तैनात योद्धा इनसे पल-पल मुकाबिल है। इस कठिन लडा़ई में कभी कभी चुनौतियां भी भारी पड़ सकती हैं। असंख्य लोगों के भोजन और वाहनों के इंतजाम में समय की ऊंच-नीच हो सकती है। लेकिन यह समय कमी निकालने का नही बल्कि काम करने वालों को प्रोत्साहित करने और उनका हौसला बढ़ाने का है ।यह एक युद्ध है और युद्ध को युद्ध की तरह ही देखना और लड़ना होगा। चुनौतियां हौसलों से ही हारा करती हैं, हर हाल में हमें अपने योद्धाओं का हौसला बनाए रखना होगा।
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मैं जन्मजात पहाड़ी हूँ कोरोना से कम विशेषज्ञों से ज्यादा डरता हूं। आप न डरने का निर्देश देकर और भी डरा रहे हैं।
- एक कोरोना और करोड़ों बातें, हम भारतीय समय की चिंता नहीं करते,

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कोरोना महामारी है। महामारी की इस अवधि में हजारों विद्वान व विशेषज्ञ प्रकट हो गए हैं। हमारे जैसे लोग हलकान हैं। ढेर सारे विद्वान, ढेर सारे विशेषज्ञ, ढेर सारे चैनल। पुराना फिल्मी गीत याद आता है- किस किस को प्यार करूं? टीवी पर बहसे ही बहसें। एक विशेषज्ञ ने कहा कि कोरोना का विषाणु गर्मी के ताप में झुलस जायेगा। हमने अपनी मित्रमण्डली में विषय रखा। मैंने गर्मी के प्रभाव का अपना ज्ञान जोड़ा। गपशप अंतिम चरण में थी कि विषय का ज्ञान न रखने वाले एक अन्य विशेषज्ञ ने कहा कि सरकारी प्रवक्ता ने इस विचार का खण्डन कर दिया है। एक विशेषज्ञ ने बताया कि यह वायरस प्राकृतिक नहीं है। चीन की प्रयोगशाला में इसका जन्म हुआ। हम यह बात मानने को तैयार ही हो रहे थे कि चीन ने इस बात से इंकार कर दिया। मैं क्या करता? जब बाप ही अपनी औलाद को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है तो आप क्या कर लोगे? लेकिन दूसरे विशेषज्ञ ने ज्ञान जोड़ा कि चीन ने जानबूझकर यह वायरस नहीं पैदा किया। प्रयोग का उद्देश्य दूसरा था। दूसरे विशेषज्ञ ने कहा कि सही जो भी हो, बच्चा तो चीन का ही है।



अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प चीन पर गुस्सा हो गये। आपने इसकी सूचना क्यों नहीं दी? यह भी कोई बात हुई कि आपके घर नाटी ब्वाय का जन्म हुआ और आप छुपाए रहे। विशेषज्ञ इस विषय की आगे की चर्चा की जिम्मेदारी ट्रम्प पर छोडक़र आगे बढ़े। न कोरोना से जुड़े विषय कम और न विशेषज्ञ कम। फिर इसी बीमारी की दवा के रूप क्लोरोक्वीन बहस का विषय बनी। कुछ विशेषज्ञों ने अडंगा लगाया। बताया कि यह नुकसानदेह है। अगले ने कहा कि बीमारी पर इसका प्रभाव सुविदित है। विशेषज्ञ बीमार और बीमारी के पक्ष विपक्ष में लड़ते झगड़ते थकते थकते भी राय दे रहे हैं। इसी बीच कई देशों से खबर उड़ी कि इसकी दवा खोज ली गई है। इससे आशावाद बढ़ा विशेषज्ञों ने कहा इसमें कम से कम दो वर्ष लगने वाला है। फिर रोग निरोध शक्ति’’ नाम की प्राचीन भारतीय धारणा नए रूप में प्रकट हो गई। शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता का ज्ञान वैदिक काल से है। वैदिक ऋषि १०० वर्ष से ज्यादा लम्बी आयु के अभिलाषी थे। विशेषज्ञों ने रोग निरोधक क्षमता की बाते शुरू की तो योग विशेषज्ञ गहरी सांस लेकर मैदान में आ गए। बता रहे हैं कि इस आसन से वह अंग शक्ति पाता है और उस आसन से यह। कोरोना तो भी अजर अमर।


हम प्राचीन काल से स्वच्छता प्रेमी हैं। विशेषज्ञों ने कोरोना से बचाव के लिए हाथ धोते रहने का ज्ञान दिया। उन्होंने २० सेकेण्ड का समय जोड़ा। कैसे नापें २० सेकेंड। हम भारतीय समय की चिंता नहीं करते। लेकिन सौभाग्य से कई गुणी ज्ञानी टीवी पर पधारे। उन्होंने साबुन के झाग को प्रत्येक अंगुली में ले जाकर विधिपूर्वक हाथ धोए। बोले २० सेकेंड हो गए। यह ज्ञान उपयोगी है। एक साबुन कम्पनी को अपने साबुन के प्रचार का मौका मिला। विशेषज्ञ हाथ धोकर पीछे पड़े हैं। विशेषज्ञों के सामने ढेर सारी समस्याएं है। प्रश्नावली बड़ी है। क्या कोरोना वायरस जूतों से भी फैलता है? एक ने कहा कि जूतों पर भी कुछ समय तक रहता है। अब जूते डराने लगे। जूतों को घर के बाहर ही उतारने की भारतीय परंपरा पुरानी है। घर के हर कोने जूते चलेंगे तो परिणाम सुखद कैसे होंगे? फिर खबर उड़ी कि खबरें देकर खबरदार करने वाले अखबारों से भी कोरोना के वायरस फैल सकते हैं। विशेषज्ञ मौन रहे। सोचा होगा कि अखबार के सम्पादक बुरा मानेंगे तो विशेषज्ञों की विशेषज्ञता कैसे सिद्ध होगी। इस खबर से मैं भी डर गया। मैं न्यूनतम अखबार पढ़ता हूं। कई अखबारों में लिखता छपता भी हूं। लेकिन अखबारों में इसका खण्डन छपा। अखबार सुरक्षित हैं। इस विषय पर विशेषज्ञों का मौन ही अच्छा ज्ञान है।
परस्पर दूर रहने से बचाव का उपाय सबने माना लेकिन एक ही कमरे वाले घरों के निवासी क्या करें? लाखों मजदूरों के किराए के आवास बहुत छोटे हैं। मुम्बई का धारावी त्रासद स्थिति में है। सरकार भी परेशान है। जीवन यहां सामूहिक है। ऐसे सघन आबादी वाले नगरों में सरकार भी परस्पर दूरी का नियम कैसे लागू करें? प्रवासी मजदूर भूखे हैं। वे घर जाने के लिए तड़प रहे हैं। हजारेां मजदूर हजार डेढ़ हजार किलोमीटर दूर अपने गांवो के लिए पैदल जा रहे हैं। पुलिस इनसे अच्छा बर्ताव नहीं करती। इनमें से कुछ रास्ते में ही दम तोड़ रहे हैं। ऐसे दृश्य भावुक करते हैं। इस आस्था को प्रश्न वाचक बनाते हैं। विशेषज्ञ बेकार का ज्ञान झाड़ रहे हैं। वे ७० साल पुराने संवैधानिक तंत्र पर अर्थचिंतन नहीं करते। मैं स्वयं इसी संविधान तंत्र का हिस्सा हूं। ७० साल में भी हम सब मजदूरों को स्थानीय स्तर पर रोजगार क्यों नहीं दे सके? उत्तराखंड सरकार ने प्रवासी मजदूरों को घर लाने के अच्छे उपाय किए है। अन्य राज्य भी प्रयासरत हैं। मूलभूत प्रश्न दूसरे हैं कि श्रम बेचने के लिए मजदूर स्थानीय स्तर पर रोजगार क्यों नहीं पा सकते? और उन्हें स्थानीय स्तर पर स्वरोजगार की व्यवस्था हम ७० साल के बावजूद क्यों नहीं कर सके? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसी ध्येय पर सक्रिय हैं। यह स्वागत योग्य है।
विशेषज्ञ डरा रहे हैं। कुछ मौतों का विश्लेषण बता रहे हैं। कुछ खांसी को भी कोरोना से जोड़ रहे हैं। वे खांसने के समय दायें-बांए कंधे में मुंह छुपाने के परामर्श दे रहे हैं। छींकना अपने देश में पहले से अशुभ माना जाता है। विशेषज्ञ छींक के प्रभाव की दूरी बता रहे हैं। कुछ कमरे की सिटकिनी पर भी वायरस का अड्डा बता रहे हैं। लिफ्ट के बटन को वायरस का खतरनाक आवास बता रहे हैं। कोरोना हर जगह है। यहां, वहां, आगे, पीछे, ऊपर, नीचे। विशेषज्ञों का ज्ञान भय पैदा कर रहा है। वे कहते हैं कि डरना मना है। अजीब बात है। आप ही डरा रहे हैं। आप ही न डरने का निर्देश दे रहे हैं। आप न डरने का निर्देश देकर और भी डरा रहे हैं। मैं भी नागरिक हूँ हम बिना प्रयास ही आज अपने जीवन के आधे वर्ष पूरे कर रहे हैं। अब तक पढ़ता सुनता आया हूं कि जवानी खतरनाक होती है। जवानी में कदम डगमगाते हैं। विशेषज्ञ जवानी पर चुप हैं। कोरोना काल में बूढ़ों को भारी खतरा बता रहे हैं। सो खांसी आते ही डर जाता हूं। विशेषज्ञों की मानें तो बड़ी उम्र में रोगनिरोधक शक्ति घटती है। मेरी रोग निरोधक शक्ति ठसाठस है। मित्रों के कहने से गिलोय, तुलसी, काली मिर्च आदि का काढ़ा पी रहा हूं। विशेषज्ञ कृपया बताएं कि यह शक्ति जरूरत से ज्यादा बढ़ गई तो क्या होगा? उन्होंने पहले से ही डरा रखा है यह एक नया डर हो सकता है।



विशेषज्ञों की न डरने की सलाह ने चौकन्ना किया है। वे अन्य डरों के साथ में कह रहे हैं कि अवसाद से भी बचिए। अवसाद आदि रोगों के मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञ भी तमाम परामर्श देने को तत्पर हैं। वे अवसाद का कारण व निदान बता रहे हैं। लेकिन हमारा डर नहीं घटता। मैं जन्मजात पहाड़ी हूँ कोरोना से कम विशेषज्ञों से ज्यादा डरता हूं। क्या पता कौन विशेषज्ञ बिना पूछे ही परामर्श देने लगे कि लाकडाउन में पुस्तकें पढऩा अवसाद बढ़ाता है। वह बता सकते हैं कि इस समय ९० प्रतिशत पुस्तक पढऩे वाले लोगों में अवसाद के लक्षण देखे गए हैं कि अवसाद के लक्षण वाले ५२ प्रतिशत लोगों में कोरोना के संक्रमण की संभावना है। आंकड़े निर्मम होते हैं। कृपया डराने वाले आंकड़े न दीजिए। शराबबंदी खुलने वाले दिन उमड़ी भीड़ कहां डरी थी? सारा ज्ञान, शिष्टाचार लतियाते हुए कहीं कहीं पुलिस की लात खाते हुए भी वे दारू को ही श्रेष्ठ मानते रहे। विशेषज्ञ यहां भी नहीं चूके। उन्होंने एक दिन में ही बिकी दारू के आंकड़े बता ड़ाले। पीने के बाद हुए उत्पात के आंकड़ों की प्रतीक्षा है। सतर्कता की बात ही ठीक है। डराना सही नहीं।डर के आगे ही जीत है।
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जिंदगी हमेशा सुविधाजनक नहीं होती, नई जीवनशैली में ढलकर करनी होगी नई शुरुवात।
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लॉकडाउन-5 में ढील दिए जाने या खत्म होने के बाद जीवनशैली फिर पुराने ढर्रे पर लौटेगी? क्या हम कोविड-19 से पहले की तरह बाहर जा पाएंगे? क्या पहले ही तरह मॉल-सिनेमा जा पाएंगे, क्या कोई पार्टी होगी, क्या कोई लॉन्ग ड्राइव होगा, कोई प्रवचन, धर्मसभा या मन्दिरों के दर्शन होंगे? क्या निकट भविष्य में सडक़ों पर भीड़, खचाखच भरा सार्वजनिक परिवहन, रेलवे स्टेशन पर जबरदस्त भीड़, बस अड्डों पर लोगों की कतारें, एयरपोर्ट पर लोगों की भीड़, ऑफिस, कैंटीन्स, रेस्तरां, शॉपिंग मॉल्स, रिक्शा में बच्चे, स्कूल में बच्चे और भी कई दृश्य हैं जिनके बिना जीवन असंभव-सा लगता है। पूरे विश्व में कोविड-19 की महामारी एवं कहर ने सबकुछ बदल दिया है। जो पहले हमारी जीवन का अपरिहार्य हिस्सा था, वह सबकुछ अब एक अलग दुनिया की चीज हो गयी है। एक बड़ा प्रश्न है कि हम कब अपनी पहले वाली जीवनशैली की ओर लौटेंगे।

लेकिन हमें अभी लम्बे समय तक ऐसे ही जीवन की आदत को बरकरार रखना होगा। यह हमारे लिये परीक्षा की घडिय़ा है, बड़ी चुनौती है। कोरोना महासंकट की विजय गाथा को रचते हुए हमें इस विश्वास को जिन्दा करना होगा कि कोरोना की चुनौतियों को देखकर हम डर कर विपरीत दिशा में नहीं, बल्कि उसकी तरफ भागें। क्योंकि डरना आसान है, पर जितनी जल्दी हम चुनौतियों को अपने पैरों तले ले आयेंगे, उतनी जल्दी हम इस डर से मुक्त हो जायेंगे, जीवन के असंभव हो गये अध्यायों को संभव कर पाएंगे। अभी हमारे सामने अंधेरा ही घना है, निराशा के बादल ही मंडरा रहे हैं। क्योंकि जो भी मौजूदा संकेत हैं, उनसे यही पता चलता है कि कोविड-19 का वैक्सीन और इलाज अभी तक मिला नहीं है, उसके मिलने तक शहरी लोगों का जीवन लॉकडाउन के दौरान वाला ही होगा। भले ही चाहे प्रतिबंधों को हटा ही क्यों न दिया जाए। और कई जगह यह छह माह से एक साल तक रहने वाला है। अभी हम घर के अंदर रहने वाली दुनिया में हैं। घर से काम कर रहे हैं। जरूरी चीजों की खरीददारी के लिए भले ही चेहरा और नाक ढके घर से बाहर निकल रहे हैं। फिर भी सोशल डिस्टेसिंग एवं आत्मसंयम ही जीवन का हिस्सा बने रहने वाला है।



कोरोना महामारी एक तात्कालिक, वास्तविक और विराट त्रासदी है, एक महाप्रकोप है, जो हमारी आंखों के सामने घटित हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और दुनिया के स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि कोरोना महामारी जल्द खत्म होने वाली नहीं है। विशेषज्ञों तो यह भी कहना है कि इसके नियंत्रित होने या थम जाने के बाद भी हमें बदले तरीके से ही जीवन को जीना होगा। इस संकट ने कई जीवन-मानक एवं सोच के दायरे बदल दिये हैं। अपनी रोजमर्रा की खुशियों से पहले उनके जोखिम का आकलन जरूरी हो गया है। कौन वैज्ञानिक या डॉक्टर मन ही मन में किसी चमत्कार के लिए प्रार्थना नहीं कर रहा है? कौन पुजारी, तांत्रिक, धर्मगुरु हैं जो मन ही मन में विज्ञान के आगे समर्पण नहीं कर चुका है? और कोरोना वायरस के इस संक्रमण के दौरान भी कौन है जो पक्षियों के गीतों से भर उठे शहरों, चौराहों पर नृत्य करने लगे मयूरों, प्रकृति की खिलखिलाहट एवं आकाश की नीरवता पर रोमांचित नहीं है? बदल तो सब गया है। यह बदलाव ही है कि इस महामारी के कहर के दौर में एक गरीब इंसान की बीमारी एक अमीर समाज के स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रही है। बड़े-बड़े धनाढ्य एवं महाशक्तिशाली भी घुटने टेकते हुए दिखाई दिये। कई मोटीवेशनल लोग निकट भविष्य में ज्यादा समझ एवं सहयोग वाली दुनिया की उम्मीद कर रहे हैं तो दुनिया के अधिक संकीर्ण एवं स्वार्थी होने की संभावनाएं भी व्यक्त की जा रही है। शासन-व्यवस्था एवं प्रणालियों पर भी ग्रहण लगता हुआ दिखाई दे रहा है, महाशक्तियां निस्तेज एवं धराशायी होते हुए दिखाई दे रहे हैं, तानाशाही के पनपने एवं लोकतांत्रिक मूल्यों में बिखराव के भी संकेत मिल रहे हैं।
कोरोना चुनौतियों के डर बहुत हैं। हम अपनी बंधी-बंधाई जिंदगी पर लगे घुन से परेशान और बेचैन हैं। अचानक हमारी ऊर्जा कम होने लगी है, काम करने का उत्साह घट गया है, आत्मविश्वास दरकने लगा है। साठ प्रतिशत लोग नई चुनौतियों के आगे कुछ ऐसा ही महसूस कर रहे हैं। यह अस्वाभाविक नहीं है। पर इससे बच कर भागना या हार मान जाना रास्ता नहीं है। हमें पहले से अपने को तैयार करना होगा कि हम एक ढर्रे पर ना चलें। नए की चुनौतियों को स्वीकार करें। क्योंकि वास्तव में जब वैक्सीन की खोज हो जाएगी तब भी इससे रोगियों को निरोगी करने में समय लगेगा। क्योंकि सबसे पहले हमें इसकी पर्याप्त मात्रा उपलब्ध करानी होगी। अगर कई दवा कंपनियां एकसाथ मिलकर काम करें और उसका उत्पादन करें तब भी धरती पर रहने वाले करीब 8 अरब लोगों को तुरंत इससे इम्युनिटी हासिल होना मुश्किल होगा। इसमें सालों लगेंगे। क्या कोई सरकार सबकुछ खोलने का खतरा मोल लेगी? यह संभव नहीं लगता।

अमेरिका की प्रथम महिला रही मिशेल ओबामा ने कहा भी था, ‘जिंदगी हमेशा सुविधाजनक नहीं होती। ना ही एक साथ सभी समस्याएं हल हो सकती हैं। इतिहास गवाह है कि साहस दूसरों को प्रेरित करता है और आशा जिंदगी में अपना रास्ता स्वयं तलाश लेती है।’ समस्या जितनी ही बड़ी होती है, उतनी बड़ी जगह उसे हम अपने मन में देते हैं। ये हमारी बड़ी दिक्कत है कि हमें बुरी बातें पहले दिखती हैं, अच्छी बाद में। हर विजेता के पास अपने आगे आने और चुनौतियों से निपटने की एक कहानी होती है। डर उन्हें भी लगता है। पर वे जल्दी से उसका मुकाबला करना सीख लेते हैं। हमारे सामने ऐसी स्थिति आ गई है, तो उससे भागने के बजाय अपने अंदर झांके, संयम, अनुशासन एवं परिष्कृत सोच का परिचय देते हुए समस्या के मूल को समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़े। हर शताब्दी में एक महामारी ने इंसानी जीवन को संकट में डाला।
प्लेग का इतिहास हमारे सामने है। पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य में आई ब्लैक डेथ की बीमारी ने यूरोप का नक्शा ही बदल दिया, लेकिन उस समय अंधेरों के बीच रोशनी की तलाश हुई। अनेक सामाजिक-आर्थिक एवं जीवनगत बदलाव हुए, सोचने-समझने एवं शासन-व्यवस्थाओं के तरीके अधिक लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक एवं जीवनमूल्यों पर आधारित बनाये गये। क्या हम कोरोना महामारी के सामने खड़े विश्व को बचाने के लिये एक मानवीय अर्थव्यवस्था, सादगी-संयममय जीवनशैली, प्रकृतिमय जीवन की ओर नहीं बढ़ सकते?

याद करिए 1918 के स्पैनिश फ्लू को। यह गर्मी के महीने में थम तो गया था लेकिन सर्दियों में इसका दूसरा वेव आ गया था। ऐसा ही कोरोना को लेकर संभव है, चीन में हमने देखा भी है। जापान के होक्काइदो में हमने देखा, जापान ने कोविड-19 जैसे आपात स्थिति से बेहतर तरीके से निपटा। इसने स्थिति पर अच्छे से नियंत्रण पाया और सभी प्रतिबंधों को हटा दिया। स्कूल फिर से खुल गए, रेस्तरां आम दिनों की तरह खुल गए, लेकिन कोविड-19 के दूसरे वेव ने जल्दी ही इस द्वीप पर ज्यादा ताकत से हमला किया और यहां पहले चरण की तुलना में ज्यादा सख्ती से लॉकडाउन लागू करना पड़ा।
हमारे सामने एक बड़ा सवाल है कि क्या हम ऐसी जिंदगी जी सकते हैं जो हमारे भूख का ख्याल रखे, लोलुपता का नहीं? हमारी जरूरतों का ख्याल रखे, लालच का नहीं? क्या हम शहरों में साईकल से आ-जा सकते हैं? क्या हम घरों से काम करने की पद्धति को प्रोत्साहन दे सकेंगे?

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