''हरेक चीज़ है अपनी जगह ठिकाने पे,
कई दिनों से शिक़ायत नहीं ज़माने से!'
दु:ख वैसा ही गर्वीला होता है, वह वैसे ही अपने लिए हाशिये बांधता है, कहता है पहले तुम चंगे हो जाओ, तब मैं अडोल मन से अपना दु:ख मनाऊं।
कोरोना चूंकि नया वायरस है, इसलिए इसका सामना करने के मनुष्य के अभी तक के तमाम तरीक़े रक्षात्मक रहे हैं। उसके पास केवल प्लान-ए है और वह डिफ़ेंसिव प्लान है। प्लान-बी है ही नहीं। उसकी खोज की जा रही है। किंतु अभी के लिए मनुष्य ने एक साधारण-से तर्क का इस्तेमाल किया है, और वो यह है कि जब तक हममें इस विषाणु का संक्रमण नहीं होगा, हम सुरक्षित रहेंगे।
शुरू में उन्होंने कहा, हाथ धोइये और चेहरे को नहीं छुइये। एक-दूसरे से दूरी बनाकर रखिये। फिर जब मालूम हुआ कि इससे काम नहीं चलेगा तो तालाबंदी की नीति अपनाई गई। ना हम बाहर निकलेंगे, ना यह विषाणु हमें ग्रसेगा।
एक लतीफ़ा चला कि कोरोना बहुत घमंडी है। वह अपने से आपके घर नहीं आएगा। आप स्वयं जाकर भेंट करेंगे तभी वह हाथ मिलाने बढ़ेगा। जब प्लान-बी न हो तो गरदन नीची करके प्लान-ए पर राज़ी होना पड़ता है। जब आक्रमण की गुंजाइश न हो तो क़िलेबंदी से काम चलाना पड़ता है। पुराने वक़्तों में लम्बे-लम्बे लॉकडाउन होते थे। दुश्मन की फ़ौजें बाहर सीमा पर डेरा डाले होती थीं और नगरवासी क़िले के परकोटे में समा जाते थे। महीनों तक यह स्थिति बनी रहती थी। पहले किसकी रसद चुकती है, पहले किसका धैर्य जवाब देता है, इसी पर सब कुछ निर्भर करता था। यह कहना बिलकुल भी अनुचित नही होगा, आधुनिक मनुष्य के लिए यह लॉकडाउन पुरानी काट की क़िलेबंदी का नया अनुभव था।
किंतु रक्षात्मक होने पर इतना ज़ोर है कि परिप्रेक्ष्य हमारे सामने धुंधला गए हैं। हम कह रहे हैं, हम इनफ़ेक्टेड ही नहीं होंगे तो कुछ नहीं होगा। इसमें हम यह पूछना भूल रहे हैं कि अगर हम इनफ़ेक्टेड हो गए, तब भी क्या होगा? एक वर्ल्डोमीटर्स डॉट इनफ़ो करके वेबसाइट है, जो कोरोना वायरस के रीयल टाइम अपडेट्स देती है। कोरोना के आंकड़ों का वर्गीकरण दो तरह से किया जाता है- क्लोज़्ड केसेस और एक्टिव केसेस। क्लोज़्ड केसेस यानी मृतकों और रिकवर्ड लोगों के आंकड़े।
इसके क्या कारण हो सकते हैं? खुली दुनिया से सम्पर्क, जो विकसित देशों में ज़्यादा रहता है? या वहां की जीवनशैली सम्बंधी चुनौतियां? प्रदूषण, धूम्रपान, मधुमेह, मोटापा- जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को दुर्बल बनाकर हमें विषाणु के समक्ष निष्कवच कर देते हैं। तो क्या कोरोना वायरस पश्चिमी जीवनशैली में निहित बुराइयों पर एक निर्णायक टिप्पणी है? क्या यह जंक-फ़ूड, शुगर ड्रिंक्स, फ़ैक्टरी फ़ॉर्मिंग, मीट इंडस्ट्री के अंत की घोषणा कर रहा है? क्या इससे सभ्यतागत परिवर्तन होंगे? क्या अब इसके बाद सादा जीवनशैली, शाकाहार, शारीरिक श्रम-प्रधान दैनन्दिनी, प्राकृतिक उपचार, योग-व्यायाम-उपवास आदि का महत्व बढ़ने जा रहा है?
बागेश्वर जिला प्रशासन, शासन स्तर या सामाजिक स्तर पर अभी क्या बदलाव किए जाने चाहिए इस सम्बंध में आप लोगों ने अपने सुझाव मुझे प्रेषित करे, जो बेहद रोचक रहा। आंखिर कोरोना पॉजिटिव व्यक्ति व उसके परिवार की हिम्मत की कैसे बढ़ाया जा सके। साथ ही किसी को टूटने से या किसी का घर,परिवार,दुनिया बर्बाद होने कैसे हम बचा सकते हैं। क्यूँकि यह कोरोना नामक बीमारी हमारे समाज में मानसिक रूप से लोगों को अधिक बिमार कर रही है। दूसरी महामारियों की तरह कोरोना भी पहले से बंटे हुए समाजों को और बांटेगा। ग़रीबी और अमीरी की खाई और चौड़ी होगी। ‘ग़रीब’ शब्द के बहुत गहरे और प्रभावी राजनीतिक मायने सामने आएंगे। दलितों के मुद्दे महत्वपूर्ण तो रहेंगे, लेकिन मुमकिन है कि बहुत हद तक वे ‘ग़रीब’ और ‘ग़रीबी’ में जज़्ब होकर रह जाएं।
इसके कारण भारतीय समाज में इंसान और इंसान के रूप में सोशल डिस्टेंसिंग की सामाजिक आदत पैदा हो सकती है। बहुत मुमकिन है कि यह आपदा जाति और जाति के बीच छूआछूत को कम कर आदमी और आदमी के बीच सामाजिक दूरी को लंबे समय के लिए आदत में बदल दे।
कोरोना संक्रमित होने पर जहां आज हमारा समाज अपनी ही एक महत्वपूर्ण कड़ी का साथ छोड़ देता है, यह गलत है। समाज को पूर्व की महामारियों से सबक लेते हुए एक साथ आगे बढ़ना चाहिए। मेरे कुछ महत्वपूर्ण सुझाव जो मैं आपसे सांझा कर रहा हूँ उस पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें—
🔹सर्वप्रथम समाज में व्याप्त कोरोना के भय को कम करने के लिए जिला प्रशासन ने जन-जागरूकता अभियान निरन्तर चलाना चाहिए। जिससे लोगों का भ्रम दूर किया जा सके।
🔹 जिला प्रशासन एक कोविड कॉल सेण्टर संचालित कर संक्रमित व्यक्ति को एक ही बार फोन कर विस्तृत विवरण लेना चाहिए। न कि अलग-अलग करके एक दर्जन से अधिक फोन। जिससे मानसिक अवसाद की स्थिति पैदा हो सकती है।
🔹संक्रमित के परिवार से जहां समाज दूरी बना रहा है वह भी किसी अवसाद से कम नही है। शासन प्रशासन को इस ओर ध्यान देते हुए जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है। तांकी वह परिवार इस दुःख की घड़ी में स्वयं को अकेला व लज्जावान न समझ बैठे।
🔹ग्राम-प्रहरी, प्रधान, आशा, आगनवाड़ी के माध्यम से सरकार व प्रशासन उस परिवार की निगरानी भी सुनिश्चित करे । तांकी उस परिवार को समाज द्वारा अनावश्यक तौर पर फैलाए गए भ्रम से बचाया जा सके।
🔹कई जगहों पर सामाजिक बहिष्कार जैसी चीजें सामने आ रही है ऐसे समाज के उपद्रवी तत्वों पर पुलिस प्रशासन द्वारा दण्डात्मक कार्यवाही भी अतिआवश्यक है।
🔹लोगों को एक दूसरे का सहारा बन अपने समाज के सभी वर्ग के सभी सदस्यों को बचाने के लिए समान प्रयत्न करने होंगे।
🔹समाज में हमसभी को आगे बढ़कर संक्रमित व्यक्ति या उस परिवार की हिम्मत बढ़ाने में सहयोग करना होगा। तभी वह इस कोरोना की लड़ाई को जीत सकता है। यदि उसके दिमाग ने अपने समाज की बहिष्कृत रवैए को सच मान धारणा बना ली तो दुनिया की कोई शक्ति उसे नही बचा सकती है।
🔹हमारे समाज व हम सब को मिलकर सोचना होगा कि हमें किस दिशा की ओर आगे बढ़ना है। हम पश्चिमी सभ्यता की तरह ही पश्चिमी संस्कृति की ओर तो नही बड़ रहे है।
🔹 कोरोना महामारी पश्चिमी संस्कृति की तरह ही कहीं हमारे भारतीय समाज की संयुक्त परिवार व सामाजिक जीवन की अवधारणा को पूरी तरह से समाप्त न कर दे।आने वाले समय में हमें व हमारी सरकारों को इस ओर भी सोचने व निर्णय लेने की आवश्यकता है।
🔹 आइसोलेशन पर रहने वाले व्यक्ति से समय- समय पर वार्तालाप होना आवश्यक है, उसे इस संकट से उबारने के लिए। समाज में अधिकतर देखने में आ रहा है कि संक्रमित होने के बाद उसके दोस्त भी उससे दूरी बना ले रहे हैं जो बहुत ही ग़लत है। यदि हम किसी की तकलीफ़ में सहारा नही बन सके तो हम उसके दोस्त कहलाने के लायक नही हैं। ठीक वैसे ही जब हम अपने ही समाज के एक व्यक्ति को बचाने के लिए आगे नही बाड़ सकते हैं तो हमें सामाजिक कहलाने का कोई अधिकार नही।
🔹 आइसोलेशन में रह रहे व्यक्ति के लिए मोटिवेशनल साहित्य या लेक्चर की व्यवस्था होनी आवश्यक है। क्यूँकि उस वक्त व्यक्ति कुछ सोच-समझ वाली स्थिति में नही खुद को रख पा रहा है।
🔹कोरोना के साथ ही साथ मानसिक तनाव से संक्रमित व्यक्ति को बाहर निकालने के लिए यदि जिला प्रशासन सहमति प्रदान करता हैं तो मैं व मेरे जैसे अन्य साथी जो कोरोना पर विजय पाकर वापस अपने घर पहुँच चुके हैं एक टीम बनाकर संक्रमित लोगों को मोटिवेट कर मानसिक अवसाद से बचाने में अपनी निशुल्क सहभागिता करना चाहता हूँ।
🔹अपने समाज के लिए इस विकट घड़ी में हमारे साथ हमारे जंप्रतिनिधियों को भी आगे आकर लोगों का सहारा बनने की ज़रूरत है। परन्तु हमारे बागेश्वर शहर का दुर्भाग्य है ऐसा कोई जनप्रतिनिधि नही। जिसने एक बार भी अपने क्षेत्र के कोरोना संक्रमित की फोन में कुशलक्षेप पूछी हो और उसके परिवार को ढाढ़स बधाया हो।
♦️ वैसे मुझे यह कहते हुए कोई डर या झिझक नही है कि मेरे ग्राम प्रधान के अलावा मेरे क्षेत्र के किसी भी जनप्रतिनिधि का इन सत्रह दिनों में कोई कॉल या संदेश मुझे प्राप्त नही हुआ, जो क्षेत्र के प्रति मेरे जंप्रतिनिधियों की गम्भीरता को दर्शाता है। प्राप्त जानकारी के अनुसार बागेश्वर जनपद में लगभग सभी क्षेत्रों का यही हाल है। वैसे भी हम पहाड़ियों के लिए एक फ़्लू ही तो है कोरोना कुछ और नही। जीवन आनन्द के लिए है इसे डर में व्यतीत करने से बेहतर है उस मुसीबत के समय में भी अपने हिस्से की खुशी ढूड़ ली जाए। हर हाल में खुश रहना ही जीवन है।
“कोई इलज़ाम उठाओ कोई साज़िश तो बुनो
कोई अफ़साना सुनाओ जरा कुछ तो बोलो
कौन मिस्सार हुआ उस की कहानी कह दो
सर उठाओ कि जमाने को भी कुछ हासिल हो
हम सरे-ए-दार खुद आ बैठे हैं इल्ज़ाम गढ़ो
तेग को धार दो खंजर को रवानी दो जरा
वरना खामोशी के असबाब बताओ तो जरा !!”
नोट- जिन्हें वाक़ई यह पागलपन लगता है, वे यहाँ बहस करके वक्त ज़ाया न करें। जो सहमत हैं, उनका स्वागत है। आगे का रास्ता सुझायें। घर में चुप बैठकर सत्य का जाप करने से कुछ नहीं होगा। सत्य को शक्तिमान बनाने के लिए दैनिक प्रभात फेरियों की ज़रूरत है।
धन्यवाद!!