जब भी प्रेम की बात होती है, भगवान श्रीकृष्ण का नाम सबसे पहले आता है। श्रीकृष्ण को प्रेम और स्नेह का प्रतीक माना जाता है। पुराणों के अनुसार, श्रीकृष्ण की 16 हजार 108 रानियां थीं। श्रीकृष्ण की मुख्य रानियों में रुक्मणि, सत्यभामा का नाम शामिल है। इसके अलावा बाल्यावस्था में श्रीकृष्ण के गोकुल में गोपियों संग रासलीला की कहानियां आज भी मशहूर हैं। हालांकि सभी को प्रेम और स्नेह का पाठ पढ़ाने वाले श्रीकृष्ण का नाम सिर्फ राधा के साथ ही लिया जाता है। हर कोई प्रभु कृष्ण के नाम का जाप करते समय 'राधे श्याम' का उच्चारण करता है। भले ही उनकी 160108 रानियां थीं लेकिन जब प्रेम की मिसाल दी जाती है तो श्रीकृष्ण और राधा का प्रेम सबसे ऊपर होता है। श्रीकृष्ण और राधा की प्रेम कहानियां पीढ़ी दर पीढ़ी सुनने को मिलती हैं। लेकिन जब भी राधारानी और श्रीकृष्ण के प्रेम का जिक्र होता है तो यह सवाल जरूर मन में उठता है कि जब दोनों के बीच इतना प्रेम था, तो कृष्ण ने राधा से विवाह क्यों नहीं किया? 16108 रानियों में एक राधा क्यों नहीं थीं?
यह तुम्हारा मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट, यह तुम्हारा सुंदर मुकुट, जिसमें सारे रंग समाएं हैं! वही प्रतीक है। मोर के पंखों से बनाया गया मुकुट प्रतीक है इस बात का कि कृष्ण में सारे रंग समाए हैं। महावीर में एक रंग है, बुद्ध में एक रंग है, राम में एक रंग है–कृष्ण में सब रंग हैं। इसलिए कृष्ण को हमने पूर्णावतार कहा है…सब रंग हैं। इस जगत की कोई चीज कृष्ण को छोड़नी नहीं पड़ी है। सभी को आत्मसात कर लिया है। कृष्ण इंद्रधनुष हैं, जिसमें प्रकाश के सभी रंग हैं। कृष्ण त्यागी नहीं हैं। कृष्ण भोगी नहीं हैं। कृष्ण ऐसे त्यागी हैं जो भोगी हैं। कृष्ण ऐसे भोगी हैं जो त्यागी हैं। कृष्ण हिमालय नहीं भाग गए हैं, बाजार में हैं। युद्ध के मैदान पर हैं। और फिर भी कृष्ण के हृदय में हिमालय है। वही एकांत! वही शांति! अपूर्व सन्नाटा!
कृष्ण अदभुत अद्वैत हैं। चुना नहीं है कृष्ण ने कुछ। सभी रंगों को स्वीकार किया है, क्योंकि सभी रंग परमात्मा के हैं।
श्री राधे श्री कृष्ण की साक्षात् ह्रदय है और राधा-कृष्ण के संवाद में बहुत गहराई है। उसे शब्दों में समझा पाना उतना आसान नहीं है।ये बात उस समय की है जब महाभारत के बाद श्री कृष्ण द्वारिका लौटे थे। वो बहुत उदास रहने लगे रुक्मणी ,सत्यभामा आदि सभी रानियों ने उनकी उदासी का कारन पूछा लेकिन कृष्ण नहीं बोले। रुक्मणी जी समझ गईं की कृष्ण के मन में अनंत वेदना है।
और उस वेदना का एक मात्र उपाय श्री राधाजी हैं। उन्होंने मुस्कुराते हुए कृष्ण से पूछा क्यों न राधा को कुछ दिन मेहमानी के लिए यहां बुला लिया जाए। कृष्ण रुक्मणी की और कृतज्ञता से मुड़े और हल्की सी मुस्कराहट में अपनी स्वीकृति देते हुए वह से चले गए। रुक्मणी जी के आमंत्रण पर राधाजी द्वारका आईं यह संवाद उसी समय का है।
श्री राधा जी का प्रश्न:-
कितने वर्षों बाद द्वारकाधीश आज ये घडी आयी है ।स्वर्ग सजे महलों में कैसे तुमको राधा याद आयी है।
कृष्ण की मनुहार—
मत कहो द्वारकाधीश मैं तो तुम्हारा कान्हा हूँ।क्यों समझ रही हो मुझे पराया मैं तो जाना माना हूँ।
जब से बिछुड़ा तुम सब से हे राधे मुझे विश्रांति नहीं।हर दम दौड़ा भागा हूँ राधे मुझे किंचित शांति नहीं।
राधा के उल्हाने —
क्यों होगी शांति तुम्हे कान्हा जब से तुम द्वारकाधीश बने।गोकुल वृन्दावन को विसरा राजनीति के आधीश बने।
वंशी भूले ,यमुना भूले ,भूले गोकुल के ग्वालों को।
प्रेम पगी राधा भूले भूले ब्रज के मतवालो को।
अब बहुत दूर जाकर बोलो कान्हा कैसे लौटोगे।
जो दर्द दिया ब्रज वनिताओं को बोलो कैसे मेटोगे।
एक समय था उठा गोवर्धन ब्रजमंडल की तुमने रक्षा की थी।
एक समय था अर्जुन को गीता में लड़ने की शिक्षा दी थी।
एक समय था ब्रज मंडल में तुम सबके प्यारे प्यारे थे।एक समय था जब हम सब तुम पर वारे वारे थे।
कैसे कृष्ण महाभारत का कोई हिस्सा हो सकता है ?कैसे कृष्ण प्रेम के बदले युद्ध ज्ञान को दे सकता है ?
प्रेम शून्य होकर अब क्यों तुम प्रेम जगाने आये हो।भूल चुके तुम जिन गलियों को क्यों अपनाने आये हो।
मैं तो प्रेम पगी जोगन सी सदा तुम्हारे साथ प्रिये।
तुम विसराओ या रूठ के जाओ मैं बोलूंगी सत्य प्रिये।
कृष्ण का दर्द—
सत्य कहा प्रिय राधे तुमने मैंने जीवन मूल्यों को त्यागा है।
लेकिन न किंचित सुख में रहा ये कान्हा तुम्हारा अभागा है।
विषम परिस्थितियों ने मुझ कान्हा को कूटनीति है सिखलाई।
पर तुम्हारे इस प्रिय अबोध को राजनीति कभी नहीं भाईं।
लेकिन न किंचित सुख पाया इन भव्य स्वर्ग से महलों में।
बिसर न पाया वह सुख जो मिला था गोकुल की गलियों में।
भूला नहीं आज तक हूँ मैं वह आनंदित रास प्रिये।
जीवन की आपा धापी में वे यादें सुगन्धित पास प्रिये।
नन्द यशोदा और ब्रज वालों का ऋण कैसे चुका पाऊंगा ?
कौन सा मुख लेकर अब उनके सम्मुख मैं जाऊंगा ?
कई बार छोड़ कर राजपाट आने का मन करता है।
लेकिन कर्तव्यों के पालन में सौ बार ये मन मरता है।
मेरी विषम विवशताओं का आज आंकलन तुम करो प्रिये।
अपराध बोध से ग्रसित इस ह्रदय दंश को तुम हरो प्रिये।
राधा का प्रेम लेपन—
कान्हा से तुम कृष्ण बने फिर तुम बने द्वारकाधीश।
भक्तों के तुम भगवन प्यारे मेरे हो आधीश।
इस अपराध बोध से निकलो तुम सबके प्रिय हो बनवारी।
भक्तों के तुम तारण कर्ता राधा तुम पर वारि वारि।
सौ जन्मों के वियोग को सह लूंगी कान्हा प्यारे।
एक पल तेरा संग मिले जो मेरे हों बारे न्यारे।
श्री कृष्णा ने कहा —
सच कहूँ राधा जब जब भी तुम्हारी याद आती थी इन आँखों से आँसुओं की बुँदे निकल आती थी।
श्री राधा जी बोली —
“मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ, ना तुम्हारी याद आई ना कोई आंसू बहा। क्यूंकि हम तुम्हे कभी भूले ही कहाँ थे जो तुम याद आते। इन आँखों में सदा तुम रहते थे। कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ इसलिए रोते भी नहीं थे। प्रेम के अलग होने पर तुमने क्या खोया इसका एक आइना दिखाऊं आपको ?कुछ कडवे सच ,प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊ ? कभी सोचा इस तरक्की में तुम कितने पिछड़ गए।
- यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की और समुन्द्र के खारे पानी तक पहुच गए ?
- एक ऊँगली पर चलने वाले सुदर्शन चक्र पर भरोसा कर लिया और दसों उँगलियों पर चलने वाळी बांसुरी को भूल गए ?
- कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो ….जो ऊँगली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी
- प्रेम से अलग होने पर वही ऊँगली क्या क्या रंग दिखाने लगी ?
- सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के काम आने लगी
- कान्हा और द्वारकाधीश में क्या फर्क होता है बताऊँ ‘
- कान्हा होते तो तुम सुदामा के घर जाते सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता
- युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं, और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं.
- कान्हा प्रेम में डूबा हुआ आदमी दुखी तो रह सकता है पर किसी को दुःख नहीं देता।
आप तो कई कलाओं के स्वामी हो स्वप्न दूर द्रष्टा होगीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो, पर आपने क्या निर्णय किया। अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी? और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया। सेना तो आपकी प्रजा थी। राजा तो पालाक होता है। उसका रक्षक होता है।
आप जैसा महा ज्ञानी उस रथ को चला रहा था जिस पर बैठा अर्जुन आपकी प्रजा को ही मार रहा था। आपनी प्रजा को मरते देख आप में करूणा नहीं जगी क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे।
आज भी धरती पर जाकर देखो, अपनी द्वारकाधीश वाली छवि को ढूंढते रह जाओगे। हर घर हर मंदिर में मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे। आज भी मै मानती हूँ लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं, उनके महत्व की बात करते है, मगर धरती के लोग, युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा करते हैं। गीता में मेरा दूर दूर तक नाम भी नहीं है। पर आज भी लोग उसके समापन पर” राधे राधे” करते हैं।
श्री कृष्ण जन्माष्टमी की आप सभी साथियों को हार्दिक बधाई। भगवान श्री कृष्ण जी का आशीर्वाद हम सभी पर सदैव बना रहे, यही मेरी प्रार्थना है।
।। राधे राधे।।🙏
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