Tuesday, 23 August 2022

शिकायत



अक्सर हमें शिकायत होती है कि हम अपने दिल की बात किसी से नही कह पाते हैं। मगर ऐसा भी नही है कभी किसी से बिना किसी संकोच के कह भी जाते हैं।
हमारे आस-पास बहुत से ऐसे लोग होते हैं जो कभी किसी से अपने दिल की बात शेयर नही कर पाते हैं, वो अपनी हसरतों, ख्वाहिशों के दाग मुहब्बत में धो लेते हैं।




यूं हसरतों के दाग मोहब्बत में धो लिए, खुद दिल से दिल की बात कह ली और रो लिये। घर से चला था मैं खुशी की तलाश में, गम राह में खड़े थे वही साथ हो लिये।
मुरझा चुका है फिर भी, ये दिल फूल ही तो है। अब आप की खुशी इसे काँटे से तोलिए। होंठों को सी चुके तो जमाने ने कहा, यूं चुप से क्यों लगे हो, अजी कुछ तो बोलिए…….

इसी बात पर कुछ फ़रमाया है, जरा दिल से पढ़ियेगा, आपके दिल तलक मेरे अल्फ़ाज़ पहुंचने का अहसास हो तो शब्दों के माध्यम से कमेंट कर जरुर बतलाइयेगा……

मैंने मांगी थी कुछ डालियाँ
हाथ में वो नीम की पत्तियाँ दे गये
तंग जब भी किया हिचकियों ने मुझे
मुझको मेरी लिखी चिट्ठियाँ दे गये
मेरा आगन अभी तक तो सूखा नही
अपने आंसू कहीं और जा बहाइये।

किताबों में तुमने जो कुछ लिख दिया
आज तक वो हर एक पन्ना मोड़े रहा 
मेरी चादर थी छोटी पता था मुझे 
इसी लिये पॉव अपने सिकोड़े रहा 
राधिका कृष्ण सब द्वापरी बातें हैं 
इस प्रसंगों में न अब मुझे उलझाइये
पूछकर हाल मेरा अब तुम 
ऐ अजनबी दोस्त यूं न बहलाइये। 

मगर मुझे लगता है कभी-कभी किसी के साथ बेवजह भी बैठ जाना चाहिए, क्या पता वह आपसे कोई बात करना चाहे। खुशी व गम का सम्बंध ऐसा है जैसे ग़ुब्बारे में भरी हवा और सुई का है। जैसे मात्र एक छोटी सी सुई चुभने पर बड़े से बड़े ग़ुब्बारे की हवा क्षण भर में फुर्र हो जाती है वैसे ही किसी के पास बैठकर प्यार के दो बोल बोलने मात्र से ही उसे खुशी दिलाई जा सकती हैं। इसलिए जीवन में ख़ुशियाँ बाँटते चलिए  सफर आज नही तो कल कट ही जायेगा। पर आपके जाने के बाद भी आपको सबसे ज़्यादा याद वो अनजान दोस्त ही करेगा जिसे कभी आपने खुशी दी थी।

Monday, 22 August 2022

पहला सफ़ेद बाल


आज पहला सफ़ेद बाल दिखा। कान के पास काले बालों के बीच से झाँकते इस पतले रजत-तार ने सहसा मन को झकझोर दिया। ऐसा लगा, जैसे वसन्त में वनश्री देखता घूम रहा हूँ कि सहसा किसी झाड़ी से शेर निकल पड़े! या पुराने जमाने में किसी मजबूत माने जानेवाले किले की दीवार पर रात को बेफिक्र घूमते गरबीले किलेदार को बाहर से चढ़ते हुए शत्रु के सिपाही की कलगी दिख जाए! या किसी पार्क के कुंज में अपनी राधा को हृदय से लगाए प्रेमी को एकाएक राधा का बाप आता दिख जाए। 

            

कालीन पर चलते हुए काँटा चुभने का दर्द बड़ा होता है। मैं अभी तक कालीन पर चल रहा था। रोज नरसीसस जैसी आत्म-रति से आईना देखता था। अपने काले केशों को देखकर, सहलाकर, सँवारकर प्रसन्न होता था। उम्र को ठेलता जाता था, वार्द्धक्य को अँगूठा दिखाता था। पर आज कान में यह सफेद बाल फुसफुसा उठा, ‘भाई मेरे, एक बात कान्फिडेंस’ में कहूँ-अपनी दुकान समेटना अब शुरू कर दो!’

तभी से दुखी हूँ। ज्ञानी समझाएँगे – जो अवश्यम्भावी है, उसके होने का क्या दुख? जी हाँ, मौत भी तो अवश्यम्भावी है, तो क्या जिन्दगी भर मरघट में अपनी चिता रचते रहें? और ज्ञान से कहीं हर दुख जीता गया है? वे क्या कम ज्ञानी थे, जो मरणासन्न लक्ष्मण का सिर गोद में लेकर विलाप कर रहे थे, ‘मेरो सब पुरुषारथ थाको! स्थितप्रज्ञ दर्शन अर्जुन को समझानेवाले की आँखें उद्धव से गोकुल की व्यथा-कथा सुनकर डबडबा आई थीं। मरण को त्योहार माननेवाले ही मृत्यु से सबसे अधिक भयभीत होते हैं। वे त्योहार का हल्ला करके अपने हृदय के सत्य भय को दबाते हैं।

मैं वास्तव में दुखी हूँ। सिर पर सफेद कफन बुना जा रहा है, आज पहला तार डाला गया है। उम्र बुनती जाएगी इसे और यह यौवन की लाश को ढँक लेगा। दुख नहीं होगा मुझे? दुख उन्हें नहीं होगा, जो बूढ़े ही जन्मे हैं।

मुझे गुस्सा है, इस आईने पर। वैसे तो यह बड़ा दयालु है, विकृति को सुधारकर चेहरा सुडौल बनाकर बताता रहा है। आज एकाएक यह कैसे क्रूर हो गया? क्या इस एक बाल को छिपा नहीं सकता था? इसे दिखाए बिना क्या उसकी ईमानदारी पर बड़ा कलंक लग जाता? उर्दू कवियों ने ऐसे संवेदनशील आईनों का जिक्र किया है, जो माशूक के चेहरे में अपनी ही तस्वीरें देखने लगते हैं। जो उस मुख के सामने आते ही गश खाकर गिर पड़ते हैं। जो उसे पूरी तरह प्रतिबिम्बित न कर सकने के कारण चटक जाते हैं। सौन्दर्य का सामना करना कोई खेल नहीं है। मूसा बेहोश हो गया था। ऐसे भले आईने होते हैं, उर्दू-कवियों के और यह एक हिन्दी लेखक का आईना है।

मगर आईने का क्या दोष? बाल तो अपना सफेद हुआ है। सिर पर धारण किया, शरीर का रस पिलाकर पाला, हजारों शीशियाँ तेल की उड़ेल दीं और ये धोखा दे गए। संन्यासी शब्द इसीलिए इनसे छुट्टी पा लेता है कि उस विरागी का साहस भी इनके सामने लड़खड़ा जाता है। आज आत्मविश्वास उठा जाता है। साहस छूट रहा है। किले में आज पहली सुरंग लगी है। दुश्मन को आते अब क्या देर लगेगी। 

क्या करूँ? इसे उखाड़ फेंकूँ? लेकिन सुना है, यदि एक सफेद बाल को उखाड़ दो, तो वहाँ एक गुच्छा सफेद हो जाता है। रावण जैसा वरदानी होता है, कम्बख्त। मेरे मुहबोले चाचा ने एक नौकर सफेद बाल उखाड़ने के लिए ही रखा था, पर थोड़े ही समय में उनके सिर पर काँस फूल उठा था। एक तेल बड़ा ‘मनराखन’ हो गया है। कहते हैं, उससे बाल काले हो जाते हैं। (नाम नहीं लिखता, व्यर्थ प्रचार होगा) उस तेल को लगाऊँ? पर उससे भी शत्रु मरेगा नहीं, उसकी वर्दी बदल जाएगी। कुछ लोग खिजाब लगाते हैं। वे बड़े दयनीय होते हैं। बुढ़ापे से हार मानकर, यौवन का ढोंग रचते हैं। मेरे एक परिचित खिजाब लगाते थे। शनिवार को वे बूढ़े लगते और सोमवार को जवान-इतवार उनका रँगने का दिन था। न जाने वे ढलती उम्र में काले बाल किसे दिखाते थे! शायद तीसरे विवाह की पत्नी को। पर वह उन्हें बाल रँगते देखती तो होगी ही। और क्या स्त्री को केवल काले बाल दिखाने से यौवन का भ्रम उत्पन्न किया जा सकता है? नहीं, यह सब नहीं होगा।शत्रु को सिर पर बिठाए रखना पड़ेगा। जानता हूँ, यह धीरे-धीरे सब वफादार बालों को अपनी ओर मिला लेगा।

याद आती है, कवि केशवदास की, जिसे ‘चन्द्रवदन मृगलोचनी’ ने बाबा कह दिया, तो वह बालों पर बरस पड़ा था। हे मेरे पूर्वज, दुखी, रसिक कवि! तेरे मन की ऐंठन मैं अब बखूबी समझ सकता हूँ। मैं चला आ रहा हूँ, तेरे पीछे। मुझे ‘बाबा’ तो नहीं, पर ‘दादा’ कहने लगी है-बस, थोड़ा ही फासला है!

मन बहुत विचलित है। आत्म-रति के अतिरेक का फल नरसीसस ने भोगा था, मुझे भी भोगना पड़ेगा। मुझे एक अन्य कारण से डर है। मैंने देखा है, सफेद बाल के आते ही आदमी हिसाब लगाने लगता है कि अब तक क्या पाया, आगे क्या करना है और भविष्य के लिए क्या संचय किया। हिसाब लगाना अच्छा नहीं होता। इससे जिन्दगी में वणिक-वृत्ति आती है और जिस दिशा से कुछ मिलता है, आदमी उस दिशा में सिजदा करता है। बड़े-बड़े ‘हीरो’ धराशायी होते हैं। बड़ी-बड़ी देव-प्रतिमाएँ खंडित होती हैं। 

राजनीति, साहित्य, जन-सेवा के क्षेत्र की कितनी महिमा-मंडित मूर्तियाँ इन आँखों ने टूटते देखी हैं। कितनी आस्थाएँ भंग होते देखी हैं। बड़ी खतरनाक उम्र है यह, बड़े समझौते होते हैं सफेद बालों के मौसम में। यह सुलह का झंडा सिर पर लहराने लगा है। यह घोषणा कर रहा है, अब तक के शत्रुओ ! मैंने हथियार डाल दिये हैं। आओ, सन्धि कर लें।’ तो क्या सन्धि होगी-उनसे, जिनसे संघर्ष होता रहा? समझौता होगा उससे, जिसे गलत मानता रहा?

पर आज एकदम ये निर्णायक प्रश्न मेरे सामने क्यों खड़े हो गए? बाल की जड़ बहुत गहरी नहीं होती। हृदय से तो उगता नहीं है यह! यह सतही है, बेमानी ! यौवन सिर्फ काले बालों का नाम नहीं है। यौवन नवीन भाव, नवीन विचार ग्रहण करने की तत्परता का नाम है। यौवन साहस, उत्साह, निर्भरता और खतरे-भरी जिन्दगी का नाम है। यौवन लीक से बच निकलने की इच्छा का नाम है और सबसे ऊपर, बेहिचक बेवकूफी करने का नाम यौवन है। मैं बराबर बेवकूफी करता जाता हूँ। यह सफेद झंडा प्रवंचना है। हिसाब करने की कोई जल्दी नहीं है। सफेद बाल से क्या होता है?

यह सब मैं किसी दूसरे से नहीं कह रहा हूँ, अपने-आपको ही समझा रहा हूँ। द्विमुखी संघर्ष है यह-दूसरों को भ्रमित करना और मन को समझाना। दूसरों से भय नहीं। सफेद बालों से किसी और का क्या बिगड़ेगा? पर मन तो अपना है। इसे तो समझाना ही पड़ेगा कि भाई, तू परेशान मत हो। अभी ऐसा क्या हो गया है! यह तो पहला ही है और फिर अगर तू नहीं ढीला होता, तो क्या बिगड़नेवाला है। 

पहला सफ़ेद बाल का दिखना एक पर्व है। दशरथ को कान के पास पहला सफ़ेद बाल दिखे, तो उन्होंने राम को राजगद्दी देने का संकल्प किया। उनके चार पुत्र थे। उन्हें देने का सुभीता था। मैं किसे सौंपूँ? कोई कन्धा मेरे सामने नहीं है, जिस पर यह गौरवमय भार रख दूँ। किस पुत्र को सौंपूँ? मेरे एक मित्र के तीन पुत्र हैं। सबेरे यह मेरा दशरथ अपने कुमारों को चुल्लू-चुल्लू पानी मिला दूध बाँटता है। इनके कन्धे ही नहीं हैं-भार कहाँ रखेंगे? बड़े आदमियों के दो तरह के पुत्र होते हैं-वे, जो वास्तव में हैं, पर कहलाते नहीं हैं और वे, जो कहलाते हैं, पर हैं नहीं। जो कहलाते हैं, वे धन-सम्पत्ति के मालिक बनते हैं और जो वास्तव में हैं, वे कहीं पंखा खींचते हैं या बर्तन माँजते हैं। होने से कहलाना ज्यादा लाभदायक है।

अपना कोई पुत्र नहीं। होता तो मुश्किल में पड़ जाते। क्या देते? राज-पाट के दिन गए, धन-दौलत के दिन हैं। पर पास ऐसा कुछ नहीं है, जो उठाकर दे दिया जाए। न उत्तराधिकारी है, न उसका प्राप्य। यह पर्व क्या बिना दिये चला जाएगा?
पर हम क्या दें? 
महायुद्ध की छाया में बढ़े हम लोग, 
हम गरीबी और अभाव में पले लोग, 
केवल जिजीविषा खाकर जिए हम लोग 
हमारी पीढ़ी के बाल तो जन्म से ही सफेद हैं। 

हमारे पास क्या है? हाँ, भविष्य है, लेकिन वह भी हमारा नहीं, आनेवालों का है। तो इतना रंक नहीं हूँ – विराट भविष्य तो है। और अब उत्तराधिकारी की समस्या भी हल हो गई। पुत्र तो पीढ़ियों के होते हैं। केवल जन्मदाता किसी का पिता नहीं होता। विराट भविष्य को एक पुत्र ले भी कैसे सकता है? इससे क्या कि कौन किसका पुत्र होगा, कौन किसका पिता कहलाएगा ? मेरी पीढ़ी के समस्त पुत्रो, मैं तुम्हें वह भविष्य ही देता हूँ। यद्यपि वह अभी मूर्त्त नहीं हुआ है, पर हम जुटे हैं, उसे मूर्त्त करने। हम नींव में फँस रहे हैं कि तुम्हारे लिए एक भव्य भविष्य रचा जा सके। वह तुम्हारे लिए एक वर्तमान बनकर ही आएगा, हमारा तो कोई वर्तमान भी नहीं था। मैं तुम्हें भविष्य देता हूँ और इस देने का अर्थ यह है कि हम अपने आपको दे रहे हैं, क्योंकि उसके निर्माण में अपने-आपको मिटा रहे हैं। लो, सफेद बाल दिखने के इस पर्व पर यह तुम्हारा प्राप्य सँभालो। होने दो हमारे बाल सफेद। हम काम में तो लगे हैं, जानते हैं कि काम बन्द करने और मरने का क्षण एक ही होता है।
हमें तुमसे कुछ नहीं चाहिए। ययाति जैसे स्वार्थी हम नहीं हैं जो पुत्र की जवानी लेकर युवा हो गया था। बाल के साथ, उसने मुँह भी काला कर लिया। हमें तुमसे कुछ नहीं चाहिए। हम नींव में धंस रहे हैं, लो, हम तुम्हें कलश देते हैं।

Friday, 19 August 2022

प्यार भरा प्रेम संवाद



जब भी प्रेम की बात होती है, भगवान श्रीकृष्ण का नाम सबसे पहले आता है। श्रीकृष्ण को प्रेम और स्नेह का प्रतीक माना जाता है। पुराणों के अनुसार, श्रीकृष्ण की 16 हजार 108 रानियां थीं। श्रीकृष्ण की मुख्य रानियों में रुक्मणि, सत्यभामा का नाम शामिल है। इसके अलावा बाल्यावस्था में श्रीकृष्ण के गोकुल में गोपियों संग रासलीला की कहानियां आज भी मशहूर हैं। हालांकि सभी को प्रेम और स्नेह का पाठ पढ़ाने वाले श्रीकृष्ण का नाम सिर्फ राधा के साथ ही लिया जाता है। हर कोई प्रभु कृष्ण के नाम का जाप करते समय 'राधे श्याम' का उच्चारण करता है। भले ही उनकी 160108 रानियां थीं लेकिन जब प्रेम की मिसाल दी जाती है तो श्रीकृष्ण और राधा का प्रेम सबसे ऊपर होता है। श्रीकृष्ण और राधा की प्रेम कहानियां पीढ़ी दर पीढ़ी सुनने को मिलती हैं। लेकिन जब भी राधारानी और श्रीकृष्ण के प्रेम का जिक्र होता है तो यह सवाल जरूर मन में उठता है कि जब दोनों के बीच इतना प्रेम था, तो कृष्ण ने राधा से विवाह क्यों नहीं किया? 16108 रानियों में एक राधा क्यों नहीं थीं? 




यह तुम्हारा मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट, यह तुम्हारा सुंदर मुकुट, जिसमें सारे रंग समाएं हैं! वही प्रतीक है। मोर के पंखों से बनाया गया मुकुट प्रतीक है इस बात का कि कृष्ण में सारे रंग समाए हैं। महावीर में एक रंग है, बुद्ध में एक रंग है, राम में एक रंग है–कृष्ण में सब रंग हैं। इसलिए कृष्ण को हमने पूर्णावतार कहा है…सब रंग हैं। इस जगत की कोई चीज कृष्ण को छोड़नी नहीं पड़ी है। सभी को आत्मसात कर लिया है। कृष्ण इंद्रधनुष हैं, जिसमें प्रकाश के सभी रंग हैं। कृष्ण त्यागी नहीं हैं। कृष्ण भोगी नहीं हैं। कृष्ण ऐसे त्यागी हैं जो भोगी हैं। कृष्ण ऐसे भोगी हैं जो त्यागी हैं। कृष्ण हिमालय नहीं भाग गए हैं, बाजार में हैं। युद्ध के मैदान पर हैं। और फिर भी कृष्ण के हृदय में हिमालय है। वही एकांत! वही शांति! अपूर्व सन्नाटा!
कृष्ण अदभुत अद्वैत हैं। चुना नहीं है कृष्ण ने कुछ। सभी रंगों को स्वीकार किया है, क्योंकि सभी रंग परमात्मा के हैं।

श्री राधे श्री कृष्ण की साक्षात् ह्रदय है और राधा-कृष्ण के संवाद में बहुत गहराई है। उसे शब्दों में समझा पाना उतना आसान नहीं है।ये बात उस समय की है जब महाभारत के बाद श्री कृष्ण द्वारिका लौटे थे। वो बहुत उदास रहने लगे रुक्मणी ,सत्यभामा आदि सभी रानियों ने उनकी उदासी का कारन पूछा लेकिन कृष्ण नहीं बोले। रुक्मणी जी समझ गईं की कृष्ण के मन में अनंत वेदना है।

और उस वेदना का एक मात्र उपाय श्री राधाजी हैं। उन्होंने मुस्कुराते हुए कृष्ण से पूछा क्यों न राधा को कुछ दिन मेहमानी के लिए यहां बुला लिया जाए। कृष्ण रुक्मणी की और कृतज्ञता से मुड़े और हल्की सी मुस्कराहट में अपनी स्वीकृति देते हुए वह से चले गए। रुक्मणी जी के आमंत्रण पर राधाजी द्वारका आईं यह संवाद उसी समय का है।

श्री राधा जी का प्रश्न:-
कितने वर्षों बाद द्वारकाधीश आज ये घडी आयी है ।स्वर्ग सजे महलों में कैसे तुमको राधा याद आयी है।

कृष्ण की मनुहार—
मत कहो द्वारकाधीश मैं तो तुम्हारा कान्हा हूँ।क्यों समझ रही हो मुझे पराया मैं तो जाना माना हूँ।
जब से बिछुड़ा तुम सब से हे राधे मुझे विश्रांति नहीं।हर दम दौड़ा भागा हूँ राधे मुझे किंचित शांति नहीं।

राधा के उल्हाने —
क्यों होगी शांति तुम्हे कान्हा जब से तुम द्वारकाधीश बने।गोकुल वृन्दावन को विसरा राजनीति के आधीश बने।
वंशी भूले ,यमुना भूले ,भूले गोकुल के ग्वालों को।
प्रेम पगी राधा भूले भूले ब्रज के मतवालो को।
अब बहुत दूर जाकर बोलो कान्हा कैसे लौटोगे।
जो दर्द दिया ब्रज वनिताओं को बोलो कैसे मेटोगे।
एक समय था उठा गोवर्धन ब्रजमंडल की तुमने रक्षा की थी।
एक समय था अर्जुन को गीता में लड़ने की शिक्षा दी थी।
एक समय था ब्रज मंडल में तुम सबके प्यारे प्यारे थे।एक समय था जब हम सब तुम पर वारे वारे थे।
कैसे कृष्ण महाभारत का कोई हिस्सा हो सकता है ?कैसे कृष्ण प्रेम के बदले युद्ध ज्ञान को दे सकता है ?
प्रेम शून्य होकर अब क्यों तुम प्रेम जगाने आये हो।भूल चुके तुम जिन गलियों को क्यों अपनाने आये हो।
मैं तो प्रेम पगी जोगन सी सदा तुम्हारे साथ प्रिये।
तुम विसराओ या रूठ के जाओ मैं बोलूंगी सत्य प्रिये।

कृष्ण का दर्द—
सत्य कहा प्रिय राधे तुमने मैंने जीवन मूल्यों को त्यागा है।
लेकिन न किंचित सुख में रहा ये कान्हा तुम्हारा अभागा है।
विषम परिस्थितियों ने मुझ कान्हा को कूटनीति है सिखलाई।
पर तुम्हारे इस प्रिय अबोध को राजनीति कभी नहीं भाईं।
लेकिन न किंचित सुख पाया इन भव्य स्वर्ग से महलों में।
बिसर न पाया वह सुख जो मिला था गोकुल की गलियों में।
भूला नहीं आज तक हूँ मैं वह आनंदित रास प्रिये।
जीवन की आपा धापी में वे यादें सुगन्धित पास प्रिये।
नन्द यशोदा और ब्रज वालों का ऋण कैसे चुका पाऊंगा ?
कौन सा मुख लेकर अब उनके सम्मुख मैं जाऊंगा ?
कई बार छोड़ कर राजपाट आने का मन करता है।
लेकिन कर्तव्यों के पालन में सौ बार ये मन मरता है।
मेरी विषम विवशताओं का आज आंकलन तुम करो प्रिये।
अपराध बोध से ग्रसित इस ह्रदय दंश को तुम हरो प्रिये।

राधा का प्रेम लेपन—
कान्हा से तुम कृष्ण बने फिर तुम बने द्वारकाधीश।
भक्तों के तुम भगवन प्यारे मेरे हो आधीश।
इस अपराध बोध से निकलो तुम सबके प्रिय हो बनवारी।
भक्तों के तुम तारण कर्ता राधा तुम पर वारि वारि।
सौ जन्मों के वियोग को सह लूंगी कान्हा प्यारे।
एक पल तेरा संग मिले जो मेरे हों बारे न्यारे।

श्री कृष्णा ने कहा — 
सच कहूँ राधा जब जब भी तुम्हारी याद आती थी इन आँखों से आँसुओं की बुँदे निकल आती थी।

श्री राधा जी बोली —
“मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ, ना तुम्हारी याद आई ना कोई आंसू बहा। क्यूंकि हम तुम्हे कभी भूले ही कहाँ थे जो तुम याद आते। इन आँखों में सदा तुम रहते थे। कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ इसलिए रोते भी नहीं थे। प्रेम के अलग होने पर तुमने क्या खोया इसका एक आइना दिखाऊं आपको ?कुछ कडवे सच ,प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊ ? कभी सोचा इस तरक्की में तुम कितने पिछड़ गए।
  • यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की और समुन्द्र के खारे पानी तक पहुच गए ?
  • एक ऊँगली पर चलने वाले सुदर्शन चक्र पर भरोसा कर लिया और दसों उँगलियों पर चलने वाळी बांसुरी को भूल गए ?
  • कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो ….जो ऊँगली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी
  • प्रेम से अलग होने पर वही ऊँगली क्या क्या रंग दिखाने लगी ?
  • सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के काम आने लगी 
  • कान्हा और द्वारकाधीश में क्या फर्क होता है बताऊँ ‘
  • कान्हा होते तो तुम सुदामा के घर जाते सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता
  • युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं, और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं.
  • कान्हा प्रेम में डूबा हुआ आदमी दुखी तो रह सकता है पर किसी को दुःख नहीं देता।

आप तो कई कलाओं के स्वामी हो स्वप्न दूर द्रष्टा होगीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो, पर आपने क्या निर्णय किया। अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी? और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया। सेना तो आपकी प्रजा थी। राजा तो पालाक होता है। उसका रक्षक होता है।
आप जैसा महा ज्ञानी उस रथ को चला रहा था जिस पर बैठा अर्जुन आपकी प्रजा को ही मार रहा था। आपनी प्रजा को मरते देख आप में करूणा नहीं जगी क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे।
आज भी धरती पर जाकर देखो, अपनी द्वारकाधीश वाली छवि को ढूंढते रह जाओगे। हर घर हर मंदिर में मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे। आज भी मै मानती हूँ लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं, उनके महत्व की बात करते है, मगर धरती के लोग, युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा करते हैं। गीता में मेरा दूर दूर तक नाम भी नहीं है। पर आज भी लोग उसके समापन पर” राधे राधे” करते हैं।

श्री कृष्ण जन्माष्टमी की आप सभी साथियों को हार्दिक बधाई। भगवान श्री कृष्ण जी का आशीर्वाद हम सभी पर सदैव बना रहे, यही मेरी प्रार्थना है।

।। राधे राधे।।🙏

Thursday, 11 August 2022

संस्कृत: वह एकमात्र भाषा जो आज भी प्रयोग में है



संस्कृत भाषा गायब नहीं हुई है। भारत में जैसे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और दुनिया भर के कई शोध संस्थानों में विशेषज्ञ संस्कृत भाषा का अनुसंधान कर रहे हैं। देश या कहें विदेशों के कई मंदिरों में आज भी भिक्षु व भिक्षुणी प्रतिदिन संस्कृत में शास्त्रों का पाठ करते हैं। संस्कृत का अभी भी दुनिया में अपने अद्वितीय सांस्कृतिक मूल्य के साथ उपयोग किया जा रहा है, और यह निश्चित रूप से भविष्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहेगी।


       


भारत में सबसे पुराने ग्रंथ, जैसे "वेद", संस्कृत भाषा से बने हैं, और उनमें उपमहाद्वीप की कुछ प्राचीन भाषाओं जैसे तमिल के तत्व भी शामिल हैं। भारत में कुछ मंदिरों और यहां तक कि दूरदराज के कुछ इलाकों में अभी भी संस्कृत का प्रयोग किया जाता है। प्राचीन भारत में लगभग सभी महत्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए थे, जिसने बहुत सारे नाटक, दर्शन, वास्तुकला, योग, पौराणिक कथाओं आदि की भी जन्म हुई थी। शास्त्रीय संस्कृत में बड़ी संख्या में धार्मिक, दार्शनिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक, राजनीतिक, कानूनी और कलात्मक रचनाएँ भी लिखी गईं थीं। सौभाग्यवश, वे सभी हजारों वर्षों के ऐतिहासिक परिवर्तनों से बचे हैं।


           


हालाँकि, संस्कृत एक मौखिक भाषा नहीं बन पाई। यहां तक कि पंडित भी शायद संस्कृत का इस्तेमाल केवल औपचारिक उद्देश्यों के लिए करता था। इस संबंध में, संस्कृत भाषा प्राचीन काल की चीनी भाषा के समान है। अर्थात्, यद्यपि लोग इसे लिखित रूप में उपयोग करते थे, पर बातचीत में दूसरी बोली भाषा का इस्तेमाल करते थे। संस्कृत अब आमतौर पर केवल धार्मिक समारोहों में और जन्म, विवाह, अंत्येष्टि और मंदिर की प्रार्थना जैसे अवसरों पर उपयोग की जाती है।

संस्कृत का मूल्य कई सांस्कृतिक क्लासिक्स में परिलक्षित होता है, और दूसरी ओर, लोगों का मानना है कि संस्कृत के उपयोग से मस्तिष्क की शक्ति में सुधार हो सकता है, और संस्कृत का उपयोग करने वाले लोग भगवान के साथ आध्यात्मिक संचार प्राप्त कर सकते हैं। इसीलिए स्कूल के पाठ्यक्रम में संस्कृत को शामिल करना आवश्यक साबित है। संस्कृत विज्ञान, गणित, चिकित्सा और अंतरिक्ष से संबंधित ज्ञान में समृद्ध है। इसके अलावा, कई एशियाई देशों की भाषाओं में संस्कृत तत्व भी हैं, जो इतिहास और धार्मिक प्रसारण के परिणाम दोनों से संबंधित हैं।


        


संस्कृत भाषा ने हमारी संस्कृति, संस्कार, परम्पराओं और सभ्यताओं को सींच कर समृद्ध बनाया है। वैज्ञानिक भाषा होने के साथ संस्कृत विश्व की अनेक भाषाओं की जननी भी है। संस्कृत दिवस पर हम अपनी इस अमूल्य धरोहर को संरक्षित-संवर्धित करने के प्रति समर्पित हों। संस्कृत दिवस की शुभकामनाएं।

आज़ादी का अमृत काल


रामायण में एक प्रसंग है जब सीता जी को वन में छोड़ने के बाद अयोध्या वासियों के मन में गुस्सा होता है। तब गुरु वशिष्ठ राजा श्री राम से कहते हैं कि राजा का धर्म है कि समय-समय पर वह किसी उत्सवधर्मिता का आयोजन करता रहे। इससे जनता का ध्यान शासन की ओर से बंटा रहता है और राजा सुविधापूर्ण कार्य करता रहता है। 




मोदी सरकार ने पिछले 8 साल समन्दर मंथन किया है। उस मन्थन में से अमृत निकाला है और इस आज़ादी पर्व पर वह अमृत जनता को परोसा जा रहा है। देश की वित्त मंत्री से जब संसद पूछती है कि देश की वित्तीय स्थिति कैसी है तब वह कहती हैं कि वित्तिय स्थिति के बिगड़ने के आरोप राजनीतिक है इसलिए मैं जवाब भी राजनीतिक दूंगी और वह आंकड़े रखने से बचती नज़र आती हैं। संसद सत्र शुरू होने से ठीक पहले  ब्लूमबर्ग एक प्रायोजित लेख जारी करता है जिसमे जिक्र है कि भारत मे मंदी आने की संभावना जीरो प्रतिशत है। वित्त मंत्री जी उसी लेख का जिक्र बार-बार संसद में करती हैं।ब्लूमबर्ग और वित्र मंत्री जी ने मंदी न आने का कोई तर्क कोई आंकड़े अपने बयान को पुख्ता करने के लिए नही दिए। ये गजब है कि देश की वित्तमंत्री को अपने आंकड़ों से ज्यादा ब्लूमबर्ग पर विश्वास है। दरअसल भारत सरकार अमृत काल आंकड़ों से नही आंकती। 

देश की पिछले 8 साल की बेरोजगारी दर भयावह तरीके से बढ़ी है। पिछली सरकारों ने अर्थव्यवस्था को एक शेप दी। उस शेप की अपनी स्ट्रेंथ है जो नोटबन्दी और जीएसटी और लॉक्डाउन के आत्मघाती शॉट झेल गयी। लेकिन इतनी चोट के बाद वित्त मंत्री और भारत सरकार ने अर्थव्यवस्था को मरहम लगानी थी जबकि मोदी सरकार किसी मरहम के बारे जानती ही नही। परिणाम यह कि अर्थव्यवस्था जल्द ही आर्थिक पैकेज मांगने वाली है और सरकार के हाथ पहले से खड़े हैं। विदेशी कर्ज बेतहाशा बढा है, भारतीय मुद्रा बेतहाशा गिरी है। मुद्रा गिरने से जो महंगाई बढ़ी उसका कोई निवारण नही सोचा गया। स्विस बैंक से आप पैसा लाने वाले थे जबकि आपकी ही छत्रछाया में अरबो रुपिया स्विस पहुंच गया। महंगाई, बेरोज़गारी,  भ्रष्टाचार, धार्मिक उन्माद , असुरक्षाबोध तेजी से बढ़े हैं। बिजनेस करने का माहौल और सुविधा तेज़ी से खराब हुए हैं। कुपोषण इंडेक्स, हंगर इंडेक्स, हैप्पीनेस इंडेक्स लड़खड़ाये हुए हैं। गरीबी रेखा से नीचे जाने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। किसान को महंगाई के वावजूद कुछ हाथ नही लग रहा। सब, कुछ ही हाथों में सिमटता जा रहा है। देश की संस्थाओं की स्वायत्तता ठेंगें पर है। भाजपा और सत्ता के करीबी मित्र अमीर हुए हैं और भक्त समझते हैं कि भाजपा ही देश है, भाजपा के मित्र ही देश हैं। 

भाजपा सरकार ने आठ साल जहर बोया और अमृत मिलने का दावा कर रहे हैं। विश्व भर के तथाकथित राष्ट्रवादी समुदाय   इवेंट मैनेजमेंट के पक्के खिलाडी होते हैं, वे दिन रात राजनीति सोचते हैं और राजनीति की आँख से ही देश को देखते हैं। वे हर बड़े पल को भुना लेना चाहते हैं। आज़ादी में तथाकथित राष्ट्रवादियों की कोई भूमिका नहीं होती, देश के निर्माण में उनका कोई योगदान नहीं होता लेकिन वे ऐसा दर्शाते हैं कि देश और आज़ादी के सच्चे पहरेदार वे ही हैं।

देश का यह आर्थिक आपातकाल है। विश्व भर की अर्थव्यवस्थाएं जहाँ महंगाई से लड़ने की तयारी में हैं वहीँ भारत सरकार जीएसटी बढाकर ज्यादा से ज्यादा टैक्स इकठा करने की फ़िराक में है। यह कदम बताता है कि एक तरफ मुद्रा सस्ती होने से जनता की खरीद शक्ति कम हो रही है दूसरी और सरकार ने अनन्य  चीजों पर टैक्स लगा दिए हैं। खाज में कोढ़ का काम इस सरकार ने यह किया है कि महंगाई कम करने की बजाय उन्होंने महंगाई बढ़ा कर टैक्स संग्रहण  का काम किया है। आपको यदि यह सब अमृत लगता है तो जरूर ही यह आज़ादी का अमृत काल होगा। आपको सिर्फ आठ साल में सामान दोगुने तिगुने से ज्यादा कीमत में मिल रहा और देश की आर्थिक गति बैकफुट पर है तो यकीनन ही यह अमृत काल होगा।

देशभर में शहर-शहर कांग्रेसी विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। देश भर की सड़कों पर प्रोटेस्ट मार्च निकल रहा है। कांग्रेस के बड़े से बड़े दिग्गज सड़कों पर हैं। इसमें मुख्यमंत्री हैं, सांसद हैं, विधायक हैं, कांग्रेस के बड़े से बड़े पदाधिकारी हैं। सरकार पर ‘लोकतंत्र की हत्या’ के आरोप लगाए जा रहे हैं। आज दिग्गज नेताओं के अलावा बड़ी तादाद में कांग्रेस कार्यकर्ता सड़कों पर उतरे हैं। “भारत जोड़ो तिरंगा यात्रा” पूरे देश भर में कांग्रेस निकाल रही है। 

अब याद कीजिए कि कांग्रेस कब जनहित से जुड़े किसी मुद्दे पर इतनी ताकत से सड़क पर उतरी थी। शायद ही याद आए। कांग्रेस स्वतंत्र भारत के अपने इतिहास के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है, फिर भी जनहित के किसी मुद्दे पर पार्टी ने कभी सड़कों पर इस तरह अपनी ताकत नहीं झोंकी है। लेकिन सवाल जब गांधी परिवार का हो, भले ही कथित भ्रष्टाचार से जुड़ा हो, कांग्रेस उतरेगी। पूरी ताकत से उतरेगी। परिवारवाद के लिहाज से आलोचक गांधी परिवार को कांग्रेस की मौजूदा दुर्गति के लिए जिम्मेदार ठहरा सकते हैं, लेकिन परिवार पार्टी के लिए मजबूरी भी है। इससे इनकार नहीं कर सकते कि आज यह परिवार ही है जो कांग्रेस को बांधे रखा है नहीं तो न जाने कब की पार्टी बिखर चुकी होती। गांधी परिवार के लिए कांग्रेसियों में जूनून कोई नई बात नहीं है। इस जुनून में समर्पण भी है, चाटुकारिता भी है, महत्वाकांक्षाएं भी हैं, ध्यान खींचने के लिए ड्रामा भी है…। कभी कोई कांग्रेसी गांधी परिवार के लिए खुदकुशी करने का हाई वोल्टेज ड्रामा कर देता है तो कभी कोई प्लेन ही हाईजैक कर लेता है।

भाजपा-कांग्रेस ने देश की आजादी की 75वी वर्षगांठ पर आयोजित “हर घर तिरंगा यात्रा” एवं “भारत जोड़ो तिरंगा यात्रा” के माध्यम से देश के आम जन के मन में ये तेरा तिरंगा, ये मेरा तिरंगा वाली भावनाओं का बीज अंकुरित करने का काम किया है। जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण व देश को शर्मसार करने वाला काम है। तिरंगा अभियान से उपजी विसंगतियों पर सरकार को ध्यान देना होगा। 

आज़ादी के अमृत महोत्सव के अंतर्गत भारत सरकार ने देश के 20 करोड़ घरों पर तिरंगा फहराने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस मकसद को पूरा करने के लिए राष्ट्रीय ध्वज संहिता में बदलाव किए गए हैं ताकि इतनी बड़ी तादाद में तिरंगा सबको उपलब्ध करवाया जा सके। पूरी सरकारी मशीनरी जब इस काम में लगी है तो लक्ष्य तो पूरा हो ही जाएगा। लेकिन अच्छा होता अगर इस आपाधापी में उपजी विसंगतियों पर भी सरकार का ध्यान जाता।

सोशल मीडिया पर किसी स्कूल का वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें एक अध्यापक छोटे-छोटे बच्चों से तिरंगे के लिए 15-15 रुपए लाने की बात कर रहा है। वे बच्चे जिनके मां-बाप पांच रुपए भी बड़ी मुश्किल से दे पाते होंगे, वे 15 रुपए कहां से और कैसे लेकर आएंगे। अध्यापक इस बात से बेपरवाह नज़र आता है और इससे भी कि सरकारी भाषा में कही जा रही बात को मासूम बच्चे कितना समझ पा रहे होंगे।

इसी तरह की एक ख़बर और है कि फरीदाबाद में एक राशन दुकान संचालक ने झंडा खरीदे बिना राशन न देने का एक संदेश व्हाट्सएप ग्रुप पर भेजा है। उसने लिखा है कि उसकी दुकान से जुड़े सभी राशन कार्ड धारक 20 रुपए लेकर डिपो पर झंडा लेने पहुंचें। ऐसा न करने वालों को अगस्त महीने का गेहूं नहीं दिया जाएगा। बताया जा रहा है कि जिले की लगभग 7 सौ राशन दुकानों को खाद्य आपूर्ति विभाग ने झंडा वितरण केंद्र बनाया गया है और हर दुकान को डेढ़-दो सौ झंडे अग्रिम भुगतान पर दिए गए हैं।

ख़बर यह भी है कि रेल कर्मियों के अगस्त के वेतन से 38 रुपए तिरंगे के वास्ते काट लिए जाएंगे। कई बैंक कर्मचारियों ने भी शिकायत की है कि उनकी तनख़्वाह से 50-50 रुपए तिरंगे के नाम पर उनसे बिना पूछे काट लिए गए हैं। रेल कर्मियों ने तो इस कटौती पर मज़ेदार सवाल उठाया है। उनका कहना है कि जब भाजपा के दफ़्तर से तिरंगा 20 रुपए में बेचा जा रहा है, तो उनकी तनख्वाह से लगभग दोगुनी राशि क्यों वसूली जा रही है। रेल कर्मियों के संगठन ने इस वसूली पर ऐतराज़ जताया है।

माना कि 15, 20, 38 या 50 रुपए की रकम बहुत मामूली है, लेकिन वसूली का यह तरीका ठीक नहीं है। वसूली के मनमाने तरीकों से कुछ दिक्कतें भी पैदा हो सकती हैं। मान लीजिए कि कोई सरकारी या बैंक कर्मचारी इस कटौती के बाद राशन लेने जाए और वहां फिर उससे तिरंगा लेने पर ही राशन मिलने की बात कही जाए, तो वह क्या करेगा! सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले ग़रीब बच्चों के मां-बाप क्या करेंगे!

आख़िरी बात- सरकार को पूरी पारदर्शिता के साथ बताना चाहिए कि वेतन कटौती से जो राशि इकठ्ठा की जा रही है, वह कुल कितनी होगी और कहां खर्च की जाएगी। जब आयकर चुकाने वाले मुट्ठी भर लोग कह सकते हैं कि उनके टैक्स का पैसा किसानों की कर्ज माफ़ी या लोगों को मुफ़्त चीज़ें बांटने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए, तो सरकारी मुलाजिम भी तो जानें कि उनकी तनख्वाह का हिस्सा- जो ज़रा सा ही क्यों न हो, किस काम में लगने वाला है।

आज हम बात करते हैं सरकार की, सारा दोष किसी भी परेशानी का सरकार पर डाला जाता है। गान्धीजी को शायद अनुमान था इस बात का। तभी तो उन्होंने कहा था, "स्वराज्य का अर्थ है आत्मनिर्भर होना। यदि अपना शाषण होने के बाद भी हम हर छोटी समस्या के लिये सरकार का मुँह ताकना शुरू कर दें तो उस स्वराज्य का कोई मतलब नही रह जायेगा।"



खैर आप अमृत काल की उत्सवधर्मिता में खोये रहिये, राजा का धर्म है उत्सवधर्मिता में आपको घुमाये रखे। जरुरी सवाल कोई और कर लेगा, आप अमृत का रसपान कीजिए। घर-घर जश्न मनाइए।

Tuesday, 9 August 2022

सोशल मीडिया को अलविदा कहते हुए छोड़ देना चाहिए।




जैसे आज एक के बाद एक साहब अपने परिवार के साथ देश छोड़कर चले गए हैं वैसे ही अब हमें भी सोशल मीडिया को अलविदा कहते हुए छोड़ देना चाहिए। क्योंकि देश में नकारात्मक्ता नामक रायता इसी के माध्यम से फैलाया जा रहा है। आपकी सोच के साथ लगातार प्रयोग किए जा रहे हैं। आप पर सोशलमीडिया के माध्यम से लगातार नजर रखी जा रही है। जब तक हर कोई सुरक्षित नहीं होगा तब तक कोई सुरक्षित नहीं रहेगा। मेरी संवेदना उन सभी साथियों के साथ है, जो इस महामारी में साथ छोड़कर चले गए हैं।




आज़ादी के बाद से आज देश को पहली बार महसूस हो रहा है कि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी जैसे-जैसे ताकतवर होते जा रहे हैं, नागरिक स्वयं को उतना ही कमजोर और खोखला महसूस कर रहे हैं जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए। 

राष्ट्राध्यक्ष के साथ देश बाहरी तौर पर मज़बूत होता नज़र आए पर अंदर से उसका नागरिक अपने आप को टूटा हुआ और असहाय महसूस करने लगे, यक़ीन करने जैसी बात नहीं है पर हो रहा है। इस समय जो कुछ महसूस हो रहा है वह राष्ट्र के हित में स्वैच्छिक ‘रक्तदान’ करने के बाद लगने वाली कमजोरी से काफ़ी अलग है। बहुत कम लोगों ने कभी इस बारे में भी सोचा होगा कि उन्हें अब एक व्यक्ति के रूप में भी अपने प्रधानमंत्री के बारे में कुछ ऐसा जानना चाहिए जो मार्मिक हो, अंतरंग हो, ऐसा निजी हो जिसे साहस के साथ सार्वजनिक रूप से व्यक्त और स्वीकार किया गया हो। कुछ जानने की इच्छा का बहुत सारा सम्बन्ध इस बात से भी होता है कि आम नागरिक अपने नायक को लेकर किस तरह की आसक्ति अथवा भय का भाव रखते हैं। इसके उलट यह भी है कि नायक की आँखों और उसके हाव-भाव में ऐसा क्या है जो उसकी एक क्रूर अथवा नाटकीय शासक की छवि से भिन्न हो सकता है !

उदाहरण के तौर पर जवाहर लाल नेहरू की भारत के प्रधानमंत्री के रूप में, गांधी जी के साथ बैठे कांग्रेस के नेता या फिर चीनी हमले में हुई पराजय से हताश सेनापति के रूप में जो छवियां दस्तावेज़ों में इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं वे उनके उस आंतरिक व्यक्तित्व से भिन्न हैं जो उनके निधन के साढ़े पाँच दशकों से अधिक समय के बाद भी लोगों के दिलों पर राज कर रही हैं। इस व्यक्तित्व में नेहरू द्वारा जेल में लिखी गई ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ और बेटी इंदिरा के नाम लिखे गए पत्र हैं, निधन के वक्त बिस्तर के पास पाई गई अंग्रेज कवि रॉबर्ट फ़्रॉस्ट की कविता है, छोड़ी गई वसीयत के अंश हैं, सिगरेट से धुआँ उगलती तस्वीर है, एडवीना के साथ अंतरंगता को ज़ाहिर करते हुए फोटोग्राफ़्स हैं। उनके इर्द-गिर्द ऐसा क्या नहीं है जो उन्हें अपने समकालीन राष्ट्राध्यक्षों से अलग नहीं करता हो ? अटलजी को लेकर भी उत्पन्न होने वाली भावनाएँ उन्हें एक प्रधानमंत्री से अलग भी कुछ अन्य कोमल छवियों में प्रस्तुत करती हैं। युद्ध तो अटल जी ने भी जीता है।




नरेंद्र मोदी में निश्चित ही किसी नेहरू की तलाश नहीं की जा सकती। की भी नहीं जानी चाहिए। पर उस नरेंद्र मोदी की तलाश अवश्य की जानी चाहिए जिसके बचपन से प्रारम्भ होकर प्रधानमंत्री बनने तक की लम्बी कहानी के बीच के बहुत सारे पात्र और क्षण छूटे हुए होंगे। भारत के राष्ट्रीय पक्षी मोर को उनके सानिध्य में बिना किसी भय अथवा संकोच के खड़े हुए देखकर उनके अनछुए व्यक्तित्व के प्रति दो तरह की जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती हैं: पहली तो यह कि प्रधानमंत्री का पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम क्या प्राकृतिक है ? क्या वह पहले भी कभी इसी प्रकार से व्यक्त या अभिव्यक्त हो चुका है ? दूसरा यह कि अपनी दूसरी तमाम व्यस्तताओं के बीच इस तरह का समय पक्षियों के लिए कैसे निकाल पाते होंगे ?

मोदी को काम करने की जिस तरह की आदत और अभ्यास है उसके बीच प्रधानमंत्री निवास में मोरों को दाना चुगाने या केवड़िया में तोतों को अपने नज़दीक आमंत्रित करने का उपक्रम उनके वास्तविक व्यक्तित्व को लेकर चौंकाने वाले भ्रम उत्पन्न करता है। क्योंकि उनके प्रशंसक इसके बाद यह भी जानना चाहेंगे कि प्रधानमंत्री ने आख़िरी फ़िल्म कब और कौन सी देखी थी, कौन सी किताब पढ़ी थी, वे जब अकेले होते हैं कौन सा संगीत सुनते हैं और यह भी कि उनकी पसंदीदा सिने तारिका कौन रही है। उनके मन में कभी किसी के प्रति कोई प्रेम उपजा था क्या ?और क्या उसके कारण किसी अवसाद में भी डूबे थे कभी ?

देश और दुनिया की बदलती हुई परिस्थितियों में नागरिकों के लिए अब ज़रूरी हो गया है कि वे अपने नायकों की राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से अलग उनके/उनमें मानवीय गुणों और संवेदनाओं की तलाश भी करें। ऐसा इसलिए कि अब जो निश्चित है वह केवल नागरिकों का कार्यकाल ही है, शासकों का नही‌। शासकों ने तो इच्छा-सत्ता का स्व-घोषित वरदान प्राप्त कर लिया है। नागरिक जब अपने शासकों को उनकी पीड़ाओं, संघर्षों , आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं की परतें उघाड़कर जान लेते हैं तो वे अपने आपको उस भविष्य के साथ जीने अथवा न जीने के लिए तैयार करने लगते हैं जो व्यवस्था के द्वारा तय किया जा रहा है ।क्योंकि नागरिकों को अच्छे से पता है कि ऑक्सिजन की कमी या साँसों का अभाव सिर्फ़ उनके ही लिए है, शासक तो बड़े से बड़े संकट से भी हमेशा सुरक्षित बाहर निकल आते हैं।वर्तमान संकट का समापन भी ऐसा ही होने वाला है।

सादर 🙏🏻

Saturday, 6 August 2022

आप जानते हैं सबसे अधिक "मीठा" वाला देश कौन है ?


जैसा कि हम सभी इस बात से अवगत हैं, चीनी यानी सुगर दुनिया भर के लोगों के लिए अनिवार्य खाद्य पदार्थ है। खपत की गई चीनी की मात्रा के संदर्भ में, भारत दुनिया में सबसे अधिक सुगर का उत्पादन और खाने वाला देश है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि भारत सबसे अधिक चीनी सामग्री वाला देश है। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2022-2023 में भारत में चीनी का कुल उत्पादन 35.8 मिलियन टन तक पहुंच जाएगा। वास्तव में, भारतीय लोगों के आहार में लगभग सभी खाद्य पदार्थ, जैसे दाल, चाय एवं स्नैक्स आदि में चीनी से अविभाज्य हैं।




चीनी न केवल स्वादिष्ट होती है, यह मनुष्यों को प्रत्यक्ष ऊर्जा प्रदान करती है। वर्तमान में, दुनिया में चीनी मुख्य रूप से दो प्रकार के पौधों से आती है, एक गन्ना (लगभग 80%) है और दूसरा चुकंदर (लगभग 20%)। वर्तमान में कुल 110 से अधिक देशों में चीनी का उत्पादन किया जा रहा है। इस साल वैश्विक चीनी उत्पादन 182 मिलियन टन तक जा पहुंचेगा। भारत के अलावा इस साल ब्राजील में चीनी उत्पादन करीब 36 मिलियन टन तक पहुंचेगा। उधर थाईलैंड 10.5 मिलियन टन चीनी का उत्पादन करता है, लेकिन ब्राजील और थाईलैंड में उत्पादित अधिकांश चीनी का निर्यात किया जाता है। इसके अलावा, चीन 10.1 मिलियन टन सुगर का उत्पादन करता है, लेकिन यह चीन की भारी आबादी के लिए पर्याप्त नहीं है। इस साल  अमेरिका में चीनी का उत्पादन 8.2 मिलियन टन तक पहुंच जाएगा, जिसमें चुकंदर 55 प्रतिशत और गन्ना केवल 45 प्रतिशत है। लेकिन अमेरिका ने भी 2022 में 7.6 मिलियन टन कॉर्न सिरप का उत्पादन किया। कॉर्न सिरप आमतौर पर पेय, दूध और प्रसंस्कृत खाद्य उद्योगों में चीनी के विकल्प के रूप में उपयोग किया जाता है। इस साल यूरोपीय संघ द्वारा 16.3 मिलियन टन चीनी का उत्पादन करने की उम्मीद है।




भारत की कुल चीनी खपत 29.8 मिलियन टन है, जो दुनिया में सबसे अधिक होता है। दूसरा 17 मिलियन टन के साथ यूरोपीय संघ है। उधर चीन 15.2 मिलियन टन के साथ तीसरे स्थान पर है। चौथा तो अमेरिका 11.3 मिलियन टन। बेशक, हमारी जनसंख्या को देखते हुए, हमारे लोगों में सुगर की खपत उतना ज्यादा तो नहीं है। यूरोपीय और अमेरिकी लोग वास्तव में बहुत अधिक मिठाई खाते हैं। उनके दैनिक भोजन में चीनी की मात्रा एशियाई लोगों की तुलना में बहुत अधिक है। डब्ल्यूएचओ की सिफारिशों के अनुसार दैनिक चीनी का सेवन 11 ग्राम है, और यदि यह 25 ग्राम से अधिक है, तो यह अत्यधिक है। पर औसत अमेरिकी प्रतिदिन 126.4 ग्राम चीनी का सेवन करता है, क्योंकि उनके फास्ट फूड, सोफ्ट ड्रिंकिंग और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ में चीनी बहुत अधिक है। उधर यूरोपीय लोग कॉफी, चाय, चॉकलेट, केक और अन्य खाद्य पदार्थों में भी चीनी मिलाते हैं। इन आहार संबंधी आदतों के कारण यूरोपीय लोगों की दैनिक चीनी का सेवन अनुशंसित मात्रा से लगभग 9 गुना अधिक हो जाता है। इसलिए, यूरोपीय और अमेरिकियों की उच्च मोटापे की दर अकारण नहीं है।



चीनी के अलावा ग्लूकोज, शहद भी दूसरे रूपों का सुगर है। "चीनी" वास्तव में एक कार्बोहाइड्रेट है जो ऊर्जा प्रदान कर सकता है। लेकिन उच्च चीनी आहार से मोटापा, हृदय रोग, मधुमेह, दंत रोग, उच्च रक्तचाप, उच्च कोलेस्ट्रॉल आदि खतरे को बढ़ाया जाता है। इसलिए स्वस्थ आहार अपनाकर बीमारियों से दूर रहना और अपने शरीर की रक्षा करना चाहिये।

Friday, 5 August 2022

किसे न होगा सावन प्यारा


धरती से टकराने वाली बारिश की बूंदों की खुशबू हमारी आत्मा को भर देती है क्योंकि पानी का छींटा हमारे कानों के लिए शुद्ध संगीत है। आकाश में जब बादल उमड़ते हैं तो प्रेमी का मन मयूर नाचने लगता है। रिमझिम में नवयौवना का प्रेमी उससे दूर रहे, यह उसे किसी कीमत पर सहन नहीं हो सकता। तभी तो बरसात में जैसे झींगुर या मेढ़क बढ़ जाते हैं, उसी तरह अनायास प्रेमियों की संख्या में भी बाढ़ सी आ जाया करती है। वजह, हर युवा मन प्रेम की तरंगों में हिचकोले खाने लगता है। कह सकते हैं कि नदी में जिस तरह बाढ़ आती है, ठीक वैसे ही इस मौसम में इश्क परवान चढ़ता है।




किसे न होगा सावन प्यारा, कौन है जो कजरी पर झूम नहीं जाता, मेघ देखकर अब भी तो निकट महसूस होता है प्रेम। बारिश तो प्रेमियों का इत्र है, बदन पे मलो तो महक उठे। फिर किसके भीतर प्रेम नहीं रहता, सभी तो गढ़ते हैं अपने हिस्से की परिभाषा। मनुष्य को न देखो तो दरख़्तों को निहारो, बरखा में संवाद करते हैं वे और सावन में उन पर डले झूले। आकाश तक पहुंचने की कोशिश में नन्हे कदम महत्वाकांक्षाओं की पहली उड़ान भरते हैं। 

जब बारिश के बाद खिलते हैं धनक के रंग और मयूर के पंख तो थोड़े सुर्ख़ हो जाते हैं गाल भी। धरती पर हर बूंद के साथ नृत्य करती हैं कलियां, उनके निखर जाने का समय जो है। तमाम रंग जोड़कर इकट्ठा करता है चित्रकार, पीत में मिलाकर नील बरसाए तो हरा बने। मेघ नहीं बरसते मात्र सावन में स्मृति भी रिसती हैं, दीवार पर पानी की बूंदें आती हैं जैसे जाने कहां से। 

कितना कुछ फिर लौट आता है इस महीने, मैंने जाना कि जो नहीं है मौजूद मैंने उसे आज तक नहीं कहा है विदा।

वैसे बारिश को एक निश्चित अनुपात में होना चाहिए। इतना कि कोई गीला हो पर डूबे ना। फूल खिलें पर गलें ना। जो लोग घरों के बाहर हैं वे वापस लौट सकें। फसल और चेहरे खिल सकें। 

बारिश को इतना भर होना चाहिए कि किसी को याद किया जा सके, इतना ही बरसे पानी कि जिसे याद किया है उसे भुलाया जा सके।

किसी ने क्या खूब कहा है,
शब्दों के बीज से विचारों के वृक्ष बनते हैं,
मैं सचेत रहता हूं कि जब इनसे फूल झरें,
तो सहेजे जाएं किताबों के बीच में।

Thursday, 4 August 2022

छज्जों पे पनपता प्यार..



कभी आपने गौर किया, आपके आस-पास क्या गजब की कहानियाँ चल रही होती हैं और आप न जाने कहां खोए रहते हैं। कभी कोशिश कीजिएगा समझने की, कड़ियों को आपस में जोड़कर जानने की, तो मानो ऐसा लगेगा की जैसे कोई फिल्म चल रही हो आपके आस-पास।

अगर आप कभी शहरों की ज़िन्दगी से रूबरू हुए हैं तो अक्सर आपने सुना या देखा होगा लड़के अपने छत पे खड़ी पड़ोसन से "सुनिए! लाइट है?" कहके बात की शुरुवात करते हैं। 



अगर लड़की का जवाब "हाँ/नहीं" कुछ भी आया हो तो इसका मतलब लड़की इंट्रेस्टेड है और अगर कुछ न बोल के इग्नोर कर दे तो इसका मतलब "अभी और मेहनत की जरूरत  है!!"

वैसे शहर के मुहबोले अंकल और आंटी किसी काम आएं न आये बिजली के बहाने ही सही दो पड़ोसियों की बात शुरू करने के काम जरूर आते हैं। अक्सर मोहल्ले की आंटियां अपने परपंच की शुरुआत "भाभीजी लाइट बहुत कट रही है आजकल" से शुरू करके  "ससुराल समर का क्लाईमेक्स या शर्मा जी के लौंडे के रिजल्ट" को लेकर ख़त्म होती है!

खैर इस छज्जे वाले प्यार की खासियत ये है के इस बिजली के आने जाने के शेड्यूल से शुरू होकर एक दूसरे के टाइम टेबल की पूर्ण जानकारी के बाद ख़त्म होता है। लड़का अक्सर छत पे अपना अधूरा चार्ज एंड्राइड फोन पे "तेरा होने लगा हूँ खोने लगा हूँ.." गाना लड़की के आने पे लगा देता है लड़के के पास "सैमसंग गुरु" नामक एक अन्य वैकल्पिक फोन जरूर होता है जिसकी बैटरिया इन बाप-बेटे से भी बेसरम होती है.. और हाथ में पतली सी "अवध सीरीज" लेकर 'बहुत गर्मी है!!" बोलकर छत पे पढ़ने का दिखावा भी करता है।। लड़की भी कहां पीछे होती है और अपनी छत पर फैले कपडे के पीछे से छुप छुप के लड़के की सूक्ष्म जाँच किया करती है।

लड़का अपना भौकाल मोहल्ले के अपने से कम उम्र के बच्चों पे धौंस जमा के टाइट करता रहता है। जाँच पड़ताल पूरी करने के बाद और लड़के की कड़क धूप में छत पे की गयी मेहनत को देखकर लड़की मान ही जाती है। 



छत पे पनपा प्यार अक्सर मिश्राजी द्वारा लड़की की शादी किसी इंजिनियर/डॉक्टर से तय होने पे ख़त्म होता है। कुछ लौंडे फर्जी हाथ पैर मारते है। ये और कुछ नहीं बस उनका दारू पीने का बहाना मात्र यहीं से शुरू होता है। आज हम देख रहे हैं अपने शहर का भी कुछ हाल यही होता जा रहा है नशे के क्षेत्र में, पर कमबख़्त प्यार, मोहब्बत के क़िस्से यहां नजर ही नही आते। 

जीवन में आगे बढ़ने में ज़्यादातर लोगों के लिए सबसे बड़ा अवरोध अक्सर अपने बारे में लोगों की राय या अपने उपहास या हँसी उड़ने का डर होता है। 

मैं आपसे पूछता हूँ। क्या दूसरे लोगों की वाकई इस बात में दिलचस्पी है कि आप क्या करते हैं और उनके पास क्या सचमुच इतना समय है कि वे आपके बारे में कोई ठोस राय बनाएँ?

अगर आपको लगता है कि कोई चीज करने लायक है तो आप बिना यह सोचे कि दूसरे उसके बारे में क्या सोचेंगे, उसे बस कर डालिए और अगर कोई आप पर हँसता है तो आप भी उनके साथ हँस सकते हैं। संभव है कि वे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आपकी किसी ऐसी चीज में मदद कर दें, जिसे आप गलत कर रहे हों! या उसमें थोड़ी सुधार की आवश्यकता हो! वैसे ज्यादातर लोग आपके बारे में नहीं सोच रहे होते। वे लोग अपनी ही चीजों में व्यस्त होते हैं, इस पर भरोसा रखिए।

समझने की बात ये है कि आपको अपने जीवन को ‘हाँ’ कहने की ज़रूरत है, एक ‘हाँ’ से आप कुछ नहीं खोएँगे, लेकिन, एक ‘ना’ से आप जरूर खोएँगे। ‘ना’ एक बंद दरवाजा है, किसी भी वजह से दरवाजे को बंद नहीं रखना है, हम सबको पता है कि यह बेहद छोटा जीवन है, इसमें बार-बार दरवाजे को बंद करने, फिर खोलने का भी वक्त नहीं है।