साहबान, मेहरबान, कद्रदान, जरा इधर दीजिए ध्यान।
देश में कोरोना का कहर है, सैलाब का सितम है, आग की तबाही है, सोशल डिस्टेंसिंग का सवाल है। माल, थिएटर, मल्टीप्लेक्स ज्यादातर बंद हैं। ऐसे में घर बैठे मन बहलाइए। राजनीतिक दल आपकी सेवा में हाजिर हैं, वो मुप्त मनोरंजन करते हैं। पैसे का सवाल नहीं, सिर्फ वोट का सवाल है।
अपने यहाँ जनतंत्र एक तमाशा है
जिसकी जान मदारी की भाषा है
धूमिल की ये पंक्तियां उनकी लंबी और मशहूर कविता `पटकथा’ का हिस्सा है, जिसे भारतीय राजनीति के शाश्वत सत्य के रूप में अक्सर कोट किया जाता है।
आज आपको कलम और तलवार के धनी अब्दुर्रहीम खानखाना का एक दोहा सुनाना चाहता हूं।
“कहु रहीम कैसे निभै केर बेर को संग। वे डोलत रस आपने उनके फाटत अंग।”
निश्चित ही यह एक अकल्पनीय समय है। वह घटित हो रहा है, जो किसी ने कभी सोचा तक नहीं था। आगे बढ़ती हुई एक सदी अचानक थम गई, बीती हुई सदी अपने तमाम जख्मों के साथ फिर प्रकट हो गई। फिर वही भूख, पलायन, गरीबी और बेबसी, बेबसों का वही रेला।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक दुख और दर्द का समुंदर ठाठे मार रहा है। हर कोई आवाक् है, बदहवास है। क्या मजदूर, क्या मालिक, क्या शासन, क्या प्रशासन...हर पल एक नयी चुनौती सामने आती है, रूप बदल बदल कर नयी नयी मुश्किलें नुमाया होती हैं...लेकिन जंग जारी है।
कहानियां बेशुमार हैं लेकिन उन्हें दृश्यों में पिरोकर एक सुपरहिट शो बनाने की क्षमता किसके में है? इस सवाल का अब तक कोई जवाब नहीं मिल पाया है। बिना बेहतर स्क्रीन प्ले के हिट फिल्म नहीं बन सकती है। स्क्रिप्ट हाथ में नहीं है, कोई बात नहीं है लेकिन क्या कांग्रेस इसकी तलाश में नज़र आ रही है? फिलहाल कम से कम मुझे ऐसा नहीं लगता है।
मुझे याद है, शी जिनपिंग भारत आया था। साथ में उसकी सलोनी पत्नी भी थी। वह साबरमती आश्रम गया, ओटले पर बैठा और चरखा चलाया। यह उस महात्मा की धरती थी, जिसने हिन्द स्वराज में पश्चिमी सभ्यता के दोषों की निर्मम व्याख्या की थी। जब पश्चिमी मानवद्रोह को भी मात दे देने वाले, निर्दोष संसार से जैविक युद्ध लड़ने वाले चीन का सरगना उस पवित्र धरती को कलंकित करने आया था, तब बहुत लोगों ने उन चित्रों में विन्यस्त विडम्बना पर ध्यान नहीं दिया था, उनका ध्यान चित्र में मौजूद दूसरे व्यक्ति पर केंद्रित था, जो भारत का प्रधान है। क्या तीस साल से एक ही जगह पर रुककर सड़ गई बौद्धिकता को अब अपनी चिंताओं का विस्तार नहीं करना चाहिए? अमरीका तो बुरा है ही, भारत भी बुरा बन गया है, किंतु क्या चीन के चरित्र की व्याख्या अब भी नि:शंक होकर नहीं की जाएगी? अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो इसे चाइनीज़-वायरस में निहित मानवद्रोह का समर्थन ही माना जाएगा!
विश्व-व्यवस्था बदल चुकी है। बुराई ने अपना अड्डा पश्चिम से बदलकर पूर्व में स्थापित कर लिया है- यही नए युग का सत्य है!
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