Wednesday, 21 February 2024

पहली अनबन और सबसे पसंदीदा जगह



कहते हैं बड़ा नाजुक होता है हमारा मन, जो शब्दो से टूट जाता है और शब्द होते है जादूगर जिनसे मन को जोड़ा जाता है। इन्ही शब्दों में कभी मिठास भी होती है तो कभी कड़वाहट भी, तो कहीं जीवन तो कही जहर भी। 


मेरे आस पास हर वक्त कुछ न कुछ चल रहा होता है जैसे कोई सिनेमा या ड्रामा। यूँ तो अनेक ऐसे प्रसंग हैं इस रंगभूमि में किंतु कुछ ऐसे हैं जिन्हें शेयर करने की इच्छा रोक नहीं पाता। आज महिलाओं को लेकर दो क़िस्से आपको साझा करने जा रहा हूँ, उम्मीद है आप गौर फ़रमायेंगे। एक है नई नवेली दुल्हन जब ससुराल पहुँचती है उसकी “पहली अनबन” और दूसरी मुझे मेरे एक दोस्त ने भेजी है औरत कि अपने घर में “सबसे पसंदीदा जगह” कौन सी होती होगी? किसी को दिल पर लगे तो माफ करना दोस्त 🙏🏻

पहली—

पहली बार अनबन हुई थी तब मन कच्चा था दुल्हन का, बच्ची की तरह बिलख कर रोई थी। सास ने बेटे को कुछ नहीं कहा, बहू से कहा- मेरे घर के चार कोने हैं, तेरे घर का कोई कोना नहीं, जो जोर-जोर से रोएँ, जितना चाहे रो सकती है, लेकिन घर की बात बाहर पता नहीं चलनी चाहिए।

“उस औरत ने राई की तरह पल्ले से बाँधी थी बात बाहर की नजर तो नहीं लगी, हाँ खुद घुन लगे गेहूँ सी खोखली होती रही।”

कितनी बार पति ने गले पर हाथ कसकर कहा या तो जहर खा ले या घर छोड़ दे। उससे इतना भी ना कहा गया कि कैसे छोड़ दूं घर। इस घर से प्यार है मुझे, एक-एक चीज बड़े चाव से सजायी है। परदों, पंखों, सोफों पर कभी धूल तक नहीं बैठने दी। चोखट से आखरी कोने तक रोज पोछा लगाती हूँ झुक कर, खपकर, कमर दर्द में भी, घर मेरा नहीं पर मैं तो घर की हूँ बस चुप्पी मारे पडी रही। 


कितनी ही हिदायतें मिलती रही रोज औरतों को घर बसाना सीख ले, दूध की मलाई उतार घी की बचत हो सकती है, मजदूरों की चाय मीठी ज्यादा, दूध कम डाला कर, पंखा चलता छोड़ दिया, बिजली का बिल आता है। बचत करना सीख ले, बासी बची हुई रोटी खाया कर, अनाज पैसे में आता है सब्जियां बासी कर देती है, बाजार से आती हैं। कभी कमाकर लाकर देख तुम्हारे भले के लिए ही कहती हूँ।

“पता नहीं क्यों दुनिया भ्रम में है कि घर पैसों से बसते हैं मुझे तो लगता रहा घर सिर्फ औरतों की चुप्पियों से बसते हैं।”

दूसरी—

दोस्त आपने कभी सोचा है? कि एक औरत कि अपने घर में सबसे पसंदीदा जगह कौन सी होती होगी? शायद ध्यान नहीं गया होगा इस तरफ़ कभी आपका। कभी पल भर के लिए ये सोचिये तो ज़रा, ये वही जगह है जहाँ उसकी उम्र निकलती है लगभग। उस घर की रसोई। जी हाँ बिल्कुल ठीक समझे आप। उस घर की रसोई जहाँ वो आधे से ज्यादा वक्त गुजारती है। औरत के लिए वो रसोई सिर्फ मकान का एक हिस्सा नहीं होता। वो रसोई तो असल में उसकी सच्ची सखी होती है उसके लिए। एक ऐसी सखी जिसके साथ वो अपने जीवन के सारे राज़ साझा करती है हर रोज।

उस रसोई में खुद के सारे रंग बिखेर कर रखती है वो। अपनी खुशी, अपना दुःख, अपने आंसू, अपना गुस्सा, अपना असीम प्रेम और ना झेली जा सकने वाली बेसुरी आवाज भी, जिसमें वो गुनगुनाया करती है कुछ नगमे जो पसन्द है उसे हमेशा से।

इन सारे रंगों को सबकी नज़र से बचाकर रखने में मदद करती है उसकी वो सखी। जैसे उसकी मुस्कुराहट को खाने की खुशबू में बदल देती है, उसकी चहक को चाय की मिठास में घोल देती है, छुपा लेती है उसके आँसू जल्दी से प्याज के कसैले रस में। दबा देती है उसका गुस्सा मसाले के डब्बों में सबकी नज़र से बचाकर। आनंद देती है उसे इस बात का कि भले आवाज़ बेसुरी सही मग़र फ़िर भी किसी सुप्रसिद्ध गायिका से कम नहीं वो किसी तरह से ये यकीन दिलाती है उसकी सखी उसे और ये सिलसिला चलता रहता है यूँ ही हर रोज़, आजीवन। इसलिए यकीन मानिये एक औरत की सबसे अज़ीज़ जगह घर में रसोई ही होती है उसकी सच्ची संगी उसकी सखी।

अपना क्या? अपने को तो बस शब्द बुनने है, कहानियाँ गड़नी है। इस पर मुझे एक प्रसंग अनायास ही याद आता है... 

धर्म हमारी रक्षा और कल्याण के लिए है। अगर वह हमारी आत्मा को शांति और देह को सुख प्रदान नहीं करता, तो मैं उसे पुराने कोट की भाँति उतार फेंकना पसंद करूँगा। जो धर्म हमारी आत्मा का बंधन हो जाए। उससे जितना जल्द हम अपना गला छुड़ा लें, उतना ही अच्छा।

Monday, 12 February 2024

तोहफा



धुँध की एक महक होती है ये महक मुझे उस जहान में पहुंचा देती है जहां मैं इतना संतुष्ट होता हूं कि मेरी कोई इच्छा ही नहीं रह जाती। ठंड का मौसम मुझे बेहद पसंद है। इतना कि अगर सौदा करना हो तो मैं गर्मियों के तीन दिन दे कर सर्दी का एक दिन अपने पास रख लूं।


कोहरे से घिरे आसमान में दूर कहीं लाल रौशनी चमक रही होती है। वो रौशनी मेरी उम्मीदों का सूरज है। वो सूरज जो सबके लिए नहीं सिर्फ मेरे लिए चमकता है। ओस की बूंदें जब मेरे जिस्म पर पड़ती हैं तो लगता है जैसे मेरी आत्मा तक आनंद में भीग रही हो। मैं ठिठुरता हूं, सर्दी से मेरा बुरा हाल होता है, टोपी पहनना मुझे सजा लगती है लेकिन फिर भी मैं इस ठंड से मोहब्बत करता हूं। मोहब्बत ऐसी ही तो होती है। लाख खामियों के बाद भी जिसे पाने की ज़िद हो उसी से तो सच्ची मोहब्बत है। 

कभी कभी सोचता हूं कि कितना खुदगर्ज़ हूं मैं अपनी खुशी के लिए उन लोगों की परवाह नहीं करता जो हर साल सर्दी की वजह से मर जाते हैं लेकिन फिर मैं सोचता हूं आज के दौर में मरने के लिए सर्दी का इंतज़ार करता ही कौन है ? गर्मी मार रही है, भूख मार रही है, महामारी मार रही है, चिंताएं मार रही हैं, इंसान हर तरफ से तो मर ही रहा है फिर अगर मैंने जीने के लिए सर्दियों का सहारा ले लिया तो क्या ही बुरा किया। 

इन्हीं सर्दियों की किसी खूबसूरत शाम में मैं किसी खूबसूरत के साथ निकलना चाहता हूं सैर पर। हालांकि उसे सर्दियाँ बर्दाश्त नहीं होतीं हो मगर फिर भी मैं जाना चाहता हूं। मुझे यकीन है ये सर्दियाँ मेरी मोहब्बत की लाज रखेंगी। इसकी खूबसूरती इतनी ज़्यादा होगी कि वो कुछ देर के लिए भूल ही जाएगी कि उसे सर्दियाँ बर्दाश्त नहीं होतीं। मुझे भी तो हरी चाय (ग्रीनटी) बर्दाश्त नहीं होती लेकिन जब उसके साथ होता हूं तो सब बर्दाश्त हो जाता है ।   


इस मोहब्बत के बदले सर्दियाँ मुझे बस यही तोहफा दे दें कि हर साल इन सर्दियों में कम से कम एक शाम उसके साथ बिता सकूं। वो मेरे लिए सर्दियों को बर्दाश्त कर ले और मैं उसके लिए बिना घबराए एक कप हरी चाय पी सकूं। 

ज़्यादा मांगने पर ना मिलने की वजह दिखा देती है किस्मत लेकिन मैंने बहुत कम मांग है इसके लिए कोई बहाना नहीं चलेगा। उसे साथ सर्दियों की एक शाम और हरी चाय, इतना ही तो।

Monday, 5 February 2024

बागेश्वर की जलेबी



बागेश्वर में निलेश्वर-भीलेश्वर वैसे ही हैं जैसे बॉलीवुड में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल। एक-दूसरे से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर बसे निलेश्वर-भीलेश्वर दो अलग-अलग पर्वत शिखर हैं लेकिन इनका नाम अक्सर एक साथ ही लिया जाता है। जहां एक तरफ भगवान शंकर विराजमान हैं और एक छोटी पर जगतजन्नी माँ चण्डिका विराजमान हैं। इन्ही के सामने त्रिर्वेणी नदियों (सरयू, गोमती व अदृष्य सरस्वती) का संगम है जहां से हिमालय दर्शन होते हैं। इन्ही पर्वतों के बाद बागेश्वर में गावों की शुरुआत होती है। 

947 गांव मिलाकर बनाया गया एक शहर बागेश्वर। बागेश्वर काफी खूबसूरत शहर है लिहाजा इसे छोटी काशी के नाम से भी जाना जाता है। बागेश्वर फिर भी भारत की आधुनिक छांव का एक बड़ा हिस्सा समेटे हैं। मैं अपने बालपन में पहली बार जब बागेश्वर को एक शहर के आइने में देखने पंहुचा। हां मैं आज अपनी दृष्टि से बागेश्वर देखूं तो इसे मिनी काशी ही कहूंगा।


सुबह की शीतल बयार और सुनसान सड़क पर सन्नाटा पसरा। कितना जल्द ही यह शोरगुल से भर जायेगा। फिर बिन मंजिल ढूंढ़ते किसी टेंपो की तरह नहीं। इर्द गिर्द कई आवाजें घूमना शुरू हो जायेंगी। दुकानों के द्वार खुल जाएंगे। सब्जियां ठेलों पर चढ़ जाएंगी। फैशन के इस दौर में रंग बिरंगे साजो साज की चीजें भी बिकना शुरू हो जाएंगी और विशाल जनमानस शहर के मस्तिष्क में दिखेगा। बीते कुछ साल पहले मेरा मिनी स्विज़रलैंड भी जाना हुआ था। कौसानी बागेश्वर का नगीना है। उसके माथे पर चमकती बिंदी की तरह। वाह जैसे बागेश्वर की श्रृंगार घूंघट काढ़े कौसानी में विचरण कर रही हो। ऐसा ही कौसानी है।

लेकिन कौसानी सुमित्रा नंदन पंथ और महात्मा गांधी को आंखों में लिए बैठा है। कौसानी हिमालय शृंखला की लम्बी चौड़ी रेंज को लिए अपनी आंखों में बैठा है। बागेश्वर एक बहुत पुराना गुलदस्ता लिए हाथों में बैठा है। बागेश्वर शहर की भीड़ में कोई जोकर लिए राजकपूर खड़ा है। कोई सिगरेट जलाए कालिया का अमिताभ और कोई ढपली बजाकर लोगों को रिझाता किशोर कुमार। बागेश्वर अलग है बिल्कुल अलग। मेरी आंखों का बागेश्वर मुझे काशी में भी दिखेगा ये उस दिशा की ओर चलने पर ही अनुमान हो गया था।

कोहरा धीरे धीरे हटा। धुंध कमजोर हुई फिर एकदम भोर जो अंधेरे का चादर हटा रही थी उसकी नब्ज रुक गई। परत दर परत अब हीलियम और हाइड्रोजन के गुच्छे से निकली किरण धरा का आँगन चूमने आ रही थी। मैं बागेश्वर के उस दृश्य का चुम्बन कर रहा था, जो बागेश्वर के होंठों के भीतर था। धीरे धीरे जनसमूहों का संलयन होना शुरू हुआ। पान की ढाबली खुली, चूरन की दुकान भी। हाथों की मैल कई हाथों में लगना शुरू हुई, व्यापार का जमाव लोगों को इकट्ठा करने लगा और मैं भी अब धीरे धीरे अपना रुख अपनी मंज़िल की ओर करने लगा।

कई सारी पुरानी इमारतों से दो तल्ली से तीन तल्ली इमारतों को देखते देखते। एक सुगंध प्राणों तक जा पहुंची। चाशनी में लिप्त मेरे दृष्टि की यह उस समय की पहली दुकान थी। सुबह की मिठास बागेश्वर के मंगल (स्वर्गीय श्री मंगल सिंह परिहार जी) की जलेबी ने ताजा कर दी। वैसे जलेबी अमीनाबाद की बहुत मशहूर है, पर मेरे शहर बागेश्वर की जलेबी भी उससे मुझे कभी कमतर नही जान पड़ी। बागेश्वर की स्मृति को इस दुकान ने ताजा कर दिया। हम तीनों को देवभूमि उत्तराखंड ने ताजा कर दिया। तजुर्मन करीब पचास साल से भी ज्यादा पुराने इस मकान के नीचे ठीक चौराहे से थोड़ा पहले चाशनी में भीगी यह दुकान। एक सौ वाट का बल्ब और स्टोव की भारी आवाज जैसे उन्नीस सौ चौंतीस में लाहौर से लुधियाना रवाना हो रही भाप वाली रेलगाड़ी की तरह की आवाज कानों में पड़ रही हो और उस पीले प्रकाश में कढ़ाही में उबलती चाशनी। जिससे निकलने वाली भाप को दादा बार बार बड़े से झांझर से देखते। मुख में राम का नाम और साठ से भी ऊपर की उम्र में बहुत ही तीव्र स्फूर्ति प्रेरित कर उठी। माथे पर गोल चंदन और वह मकान मध्यकाल में घसीट ले गया।


लगा अभी आंखों से अपने गाँव को देख लूंगा। वही जहां अठरा सौ सत्तावन से लेकर आज तक आजादी के न जाने कितने नारे गूंजे होंगे। जहां से कुली बेगार प्रथा का अंत हुआ था। दादा की दुकान यहां थोड़ा अलग थी। दादा भगवान शंकर के भक्त थे सो दीवारों पर भगवान शंकर जी की तस्वीरें। जिनमें से हनुमान जी भी विराज मान और सभी देवी देवताओं के सम्मुख दीप प्रज्वलित होता हुआ। धूप की खुशबू से वाष्पित कोना कोना।

दादा से बातचीत शुरू करने का जी बनाया। दादा बहुत खुशी से मुझे इतिहास बताने लगे। भगवान शंकर का भक्त होने पर उन्होंने मुझे बताया शिव ही हैं जिन्होंने हमें संभाल रखा है। बागेश्वर शिव धाम है, सब उन्हीं की महिमा माया है। बताने लगे कि जब वे अपने गांव से यहां आए थे तब बागेश्वर जंगल था। कोई बहुत ज़्यादा दुकान नहीं थी, सिवाय दस-बारह के।आज हजारों दुकानें हैं। कौसानी के बारे में कहा कि मिनी स्विज़रलैंड है वहां जाना विदेश की धरती के दर्शन जैसा है। मैंने भी कहा दादा मैं जब लेखक बनूँगा तब आपकी जलेबी और दुकान पर कुछ लिखूंगा। दादा खुश हो गए भगवान शंकर से मेरे लिए दुआएं करने लगे। बेटा जलेबी तैयार कर लीं। उस वक्त दही और जलेबी ने मेरी आत्मा तृप्त कर दीं। मेरे साथ बागेश्वर तृप्त हुआ। दादा से आशीर्वाद लिया। फिर कभी मुलाकात करने की कह अपना झोला उठाया। पृथ्वी के चक्कर में अब बागेश्वर धीरे धीरे पूर्वार्द्ध जा रहा था और मैं उत्तरार्ध आगे की ओर बढ़ चला। 

यूं तो वहां से आज भी ज्यादा दूर नहीं आया था। लेकिन पीछे शायद सल्तनत छोड़ आया था। आज जब भी उस दुकान के पास से गुजरता हूँ तो मुझे वो मेरी पहली दही जलेबी और दादा की बातें याद आती हैं। अब न दादा रहे न ही वो जलेबी। गजब का दौर हुआ करता था जब दूर गाँव के लोग मिठाई के नाम पर मंगल की जलेबी ले कर त्योहार मनाया करते थे। उत्तरायणी में जलेबी लेने की तब लाईन लगा करती थी। वैसे हमारे पहाड़ों में एक रिवाज है जब भी हम कौतिक (मेला) जाते हैं तो वहां से लौटते वक्त घर में मौजूद सभी के लिए कुछ न कुछ कौतकी बान लेकर ज़ाया करते हैं। जलेबी से जुड़ी मेरी यादें अक्सर मुझे अतीत के उस मोड़ पर ले पहुँचती हैं जहां पहुंचने की बात मैंने तब कही थी, पर पहुंच अब तलक भी नही पाया हूँ। खैर मुझ जैसे घुमक्कड़ी का भी कोई एक ठौर होता है यह सोंच कर छनी हुई धूप और भून रहे आकाश संग मैं फिर एक बार हर बार की तरह उस जलेबी की मेरी पहली दुकान से आगे बढ़ चलता हूँ।