किसी ने क्या खूब कहा है, “समय सदा एक जैसा नहीं रहता है वह सदैव परिवर्तनशील है और बदलता रहता है। वो दौर भी नहीं रहा, ये दौर भी नहीं रहेगा और फिर नया सवेरा होगा।”
“मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ, वो महज़ ली हुई साँसें हैं। की हुई बातें हैं। साथ–साथ देखा शरद व पूनम का चाँद है। जागती रातें हैं। उन जागती रातों की कुछ करवटें हैं। भागती सुबहें हैं। अलसायी गर्म दोपहर हैं। उदास शामें हैं। भारी बरसात है। उसमें किया हुआ इंतज़ार है। जिया हुआ साथ है और हैं, तुम्हारे स्पर्श में लिपिबद्ध चंद अक्षर।”
♦️किसी ने उदाहरण के साथ मैसेंजर में सवाल किया-
“माँ अपने बच्चे को वयस्क बनाने के लिए 20 साल गुज़ार देती है जबकि वही एक अन्य स्त्री को उसे बेवक़ूफ़ बनाने में मात्र 20 मिनट ही लगता है।”
यार, ऐसी दर्दभरी बातें क्यों लिखते हो? इतना दुखी क्यों रहते हो?
मैंने जवाब लिखकर दिया-
रहता नही हूँ। बस दिखाता रहता हूँ। इससे पर्सनैलिटी बूस्ट अप होती है। पेन इज़ अ फैंसी इमोशन। लगता रहता है कि आदमी इतना दर्द रखता है, यानी कुछ तो बात है इसमें। जब तक आप दुखी नही दिखेंगें, कथित बौद्धिक समाज आपको सीरियसली लेगा ही नही। कहीं यह भी पढ़ा था मैंने कि, एक समय के बाद दुख जीवन मूल्य प्रतीत होने लगता है।बस इतनी सी बात है। बाकी कोई बात नही है।
ये सवाल तो मेरे लिए ठीक वैसा हो गया मानो जैसे मैं शिवालय के बाहर खड़ा हूँ, कोई भक्त भगवान शंकर जी के द्वारपाल के रूप में बाहर बैठे नन्दी महाराज के कान में अपनी परेशानियों की दास्ताँ कहता हुआ आगे निकल रहा हो। जैसा हमारे समाज में कहा जाता है, या यूँ कहें प्रचलित है। अब मैं लाख तरिके लगा के सोच लूँ अभी जाने वाला व्यक्ति क्या कह गया हो ? क्या किसी को समझ आयेगा ?
मेरे लिए यह सवाल भी ठीक वैसा ही है, जैसे कोई कान में कह कर निकल लिया और मैं सोचता ही रहा।
“मानो मैं भगवान शंकर जी से विनती कर रहा हूँ, हे प्रभु जगत तुम्हारे बिना आबाद कैसे रहेगा। मुझ जैसा तुच्छ मनुष्य कैसे फिर, दूसरों के कान में दास्ताँ अपनी कहेगा।”
नोट- मैसेंजर में सवाल पूछने वाले के बारे में पूछकर शर्मिन्दा न करें।
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