Wednesday, 26 January 2022

राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस और भारतीय संविधान..



स्वतंत्रता दिवस संग्राम के दिनों में 26 जनवरी को ही सदैव स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया था लेकिन 15 अगस्त 1947 को देश के स्वतंत्र होने के बाद 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाए जाने के बजाय इसका इतिहास भारतीय संविधान से जुड़ गया और 26 जनवरी भारतवर्ष का एक महत्वपूर्ण 'राष्ट्रीय पर्व' बन गया।


26 जनवरी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अंतर्गत 26 जनवरी 1929 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रावी नदी के तट पर देश के लिए पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा की थी और 26 जनवरी 1930 को महात्मा गांधीजी के नेतृत्व में पूर्ण स्वतंत्रता की शपथ ली गई। आखिर 15 अगस्त 1947 को भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ और इससे पहले नौ दिसंबर 1946 को डॉ राजेंद्र प्रसाद को 'संविधान सभा' का अध्यक्ष बनाया गया। 29 अगस्त 1947 को डॉ भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में 'संविधान निर्माण समिति' का गठन हुआ।

26 नवंबर 1949 को भारत के संविधान को अंगीकृत किया गया और 26 जनवरी 1950 को यह लागू हुआ। भारत प्रभुत्व संपन्न प्रजातंत्रात्मक गणराज्य बना। देश का 'संविधान' दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इसके निर्माण कार्य पर करीब ₹64 लाख खर्च हुए। संविधान में पहले एक प्रस्तावना प्रस्तुत की गई जिससे 'भारतीय संविधान' का सार, उसकी अपेक्षाएं, उसका उद्देश्य, उसका लक्ष्य तथा दर्शन प्रकट होता है।

गणतंत्र हो जाने का अर्थ है अपने देश का भविष्य अपने हाथों में होना। हममें से हर कोई एक बटे सवा सौ करोड़ हिन्दुस्तान है। यदि हम सब अपना अपना काम ईमानदारी और मेहनत से करें तो हमारी आन-बान-शान, हमारी मुहब्बत, हमारा प्यारा तिरंगा विश्व में सबसे ऊपर लहराएगा। आइए, गणतंत्र दिवस को कर्त्तव्य दिवस के रूप में मनाएं और प्रार्थना करें, कि..........

'शम्मा-ए-वतन की लौ पर जब क़ुर्बान पतंगा हो होठों पर गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो..."

आज आपने दिल्ली के राजपथ पर निकलने वाली झांकियों और उनके बीच में फहरा रहा तिरंगा ध्वज देखा होगा जो आपसे यह कह रहा है कि "मुझे आकाश जितनी ऊंचाई दो, भाईचारे का वातावरण दो, मेरे सफेद रंग पर किसी निर्दोष की खून के छींटे न लगें, आंचल बन लहराता रहूं।"

“मुझे फहराता देखना है तो सुजलाम सुफलाम को सार्थक करना होगा। मुझे वे ही हाथ फहराएं जो गरीब के आंसू पोंछ सकें, मेरी धरती के  टुकड़ें न होने दें, जो भाई-भाई के गले में हो, गर्दन पर नहीं‌। कोई किसी की जाति-धर्म न पूछे। यही हमारी वास्तविक आजादी है एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था की सफलता है।"

सभी देश वासियों को गणतंत्र दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं
जय हिन्द! जय भारत! वन्दे मातरम! 🇮🇳

#Republicday2022

Wednesday, 12 January 2022

राष्ट्र के लिए नई इबारतें लिखेंगी युवा शक्ति



स्वामी विवेकानंद की जयंती पर आज देश 'राष्ट्रीय युवा दिवस' भी मना रहा है। हम युवा देश के तौर पर दुनिया के फलक पर उभर रहे हैं। हर देश का भविष्य निश्चित रूप से युवा पीढ़ी पर निर्भर करता है। अर्थात आप कह सकते हैं कि जितना बड़ा आपका संघर्ष होगा जीत उतनी ही शानदार होगी। 


लोकतंत्र हमारे संस्कारों और विचारों में समाहित हैं और इसे सशक्त बनाने में युवाओं की सक्रिय भागीदारी भारत की समृद्धि और प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने के लिए जरूरी है। आज 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद जयंती और युवा दिवस पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।

"उठो और जागो और तब तक रुको नहीं जब तक कि तुम अपनी मंजिल प्राप्त नहीं कर लेते।" आज का दिन युवाओं का दिन है और स्वामी विवेकानंद की ये चंद पंक्तियां युवाओं पर सटीक बैठती हैं जिन्होंने उनके इस संदेश को साकार किया।

सच्ची सफलता और आनंद का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि कुछ नहीं मांगा जाए। पूर्ण रूप से नि:स्वार्थ व्यक्ति ही सबसे सफल है। स्वामी विवेकानंद के आदर्श और विचारों के सम्मान में उनकी जयंती 'राष्ट्रीय युवा दिवस' के रूप में 1985 से मनाई जाती है। आज 35.6 करोड़ युवा है भारत में और दुनिया में अपना भारत सबसे ज्यादा युवाओं वाला देश है।

स्वामी विवेकानंद ने 1893 में 30 वर्ष की आयु में शिकागो में हुए धर्म सम्मेलन में भारतीय अध्यात्म का लोहा पूरे विश्व में मनवा दिया था। इस भाषण के माध्यम से भारत को सार्वभौमिक पहचान दिलवाने स्वामी जी के बारे में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था- "यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।"

'जोश के साथ होश' के उद्घोषक महान राष्ट्रीय संत स्वामी विवेकानंद जी को स्वतंत्रता के 'अमृत महोत्सव' में शत-शत- नमन।

Tuesday, 11 January 2022

आन-बान-शान की भाषा 'हिंदी' तो हिंदी के प्रयोग में हिचक क्यों?


'हिंदी है हम, वतन है हिंदुस्तां हमारा' लेकिन आज देश में दो देश जी रहे हैं। एक पुराना भारत जिसे आज का शिक्षित वर्ग रूढ़िवादी मानता है। दूसरा भारत 'शिक्षित वर्ग- अंग्रेजीदां' है, जो न देश को जानता है, न परंपराओं के पीछे छिपे तत्वों को ही समझना चाहता है। मुगल आए तो उन्होंने 'भरत के भारत' को 'हिंदुस्तान' बना दिया। अंग्रेज आए तो यह 'इंडिया' बन गया। अंग्रेज चले गए तो 'इंडिया डैट इज भारत' बन गया, जो अंग्रेजियत है आज भी बची हुई है‌। इसे देखकर लगता है कि यह 'इंडिया डैट बाज भारत' न हो जाए।


लगता है आज देश में अंग्रेजों का राज (अंग्रेजी मानसिकता और संस्कृति का) स्थापित होने लगा है। भारतीय संस्कृति एवं हिंदी आज भी अंग्रेजीदां के साथ बंधी  है। इस बंधन को खोलना होगा, क्योंकि आज अंग्रेजियत हावी होती जा रही है। भारतीयता के साथ 'हिंदी की जड़' को 'अंग्रेजी कुल्हाड़ी' से काटा जा रहा है। क्या इसी का नाम 'अमृत महोत्सव' है।

आधुनिकता की ओर तेजी से अंग्रसर कुछ भारतीय ही आज भले ही अंग्रेजी बोलने में अपनी आन-बान-शान समझते हो, किंतु सच यही है कि 'हिंदी' ऐसी भाषा है जो प्रत्येक भारतवासी को वैश्विक स्तर पर मान-सम्मान दिलाती है। सही मायनों में हिन्दी विश्व की प्राचीन समृद्ध एवं सरल भाषा है।

भारत की राजभाषा हिंदी जो न केवल भारत में बल्कि अब दुनिया के अनेक देशों में बोली जाती है, पढ़ाई जाती है। भले ही दुनिया में अंग्रेजी भाषा का सिक्का चलता हो लेकिन हिंदी अब अंग्रेजी भाषा से ज्यादा पीछे नहीं है। उसका सम्मान कीजिए। हिंदी में बोलिए। हिंदी में पत्र व्यवहार कीजिए। तभी सार्थक होगा आज का 'विश्व हिंदी दिवस'।

आज हिंदी देश की आधी से ज्यादा आबादी की आम जुबान है। सिनेमा, टीवी ने इसे बाजार व्यवसाय की एक कामयाब भूमिका में ढाला है। रोजगार की व्यापक दुनिया खुली है। फिर भी हिंदी हमारी जीवन शैली का जरूरी हिस्सा बनती नहीं दिख रही। आखिर क्यों? कौन सी ऐसी हिचक है जो आड़े आ रही है?

भारत विभिन्न भाषाओं एवं बोलियों का देश है। इसमें अंग्रेजी ही सामान्य भाषा के रूप में काम करती है जो अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्य है अत: यही अंग्रेजी भाषा अब आवश्यकता बन गई है। अधिकतर अच्छे विद्यालय अंग्रेजी माध्यम के हैं जहाँ प्राथमिक शिक्षा अंग्रेजी में दी जाती है। इसी कारण हिंदी उपेक्षित हुई है।

'हिंदी है हम, वतन है हिंदुस्तां हमारा' लेकिन आज लगभग सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी में प्रश्न पूछना एक परंपरा सी है, जिससे हिंदी पूर्ण तय: उपेक्षित रही है। सूचना क्रांति के दौर में पुस्तकों का महत्व बढ़ा है लेकिन हिंदी में विश्वस्तरीय पुस्तकों का अभाव, वैज्ञानिक एवं परिभाषित शब्दों का हिंदी में अनुवाद न होना, तकनीकी एवं उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्ययन का माध्यम अंग्रेजी का होना मुख्य कारण है। ऐसे हालात में हिंदी की जो उपेक्षा हो रही है, हम सभी के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।


♦️अब यूनेस्को ने हिंदी प्रसार के लिए उठाए कदम 

दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में कल 10 जनवरी को 'विश्व हिंदी दिवस' मनाया गया। हिंदी अपनी सरलता की वजह से हमारे ज्ञान और संस्कृति के प्रसार में काफी अहम भूमिका निभा रही है। इसमें संदेह नहीं कि सूचना और तकनीक के क्षेत्र में हिंदी का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल और युवाओं के बीच इसकी लोकप्रियता की वजह से आने वाले समय में हिंदी भाषा का भविष्य काफी उज्जवल होगा।

इस बीच हिंदी प्रेमियों के लिए यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र संघ की एक शाखा) की तरफ से एक खुशखबरी है कि विश्व धरोहर केंद्र ने भारत के यूनेस्को द्वारा चिन्हित धरोहर स्थलों के ब्यौरे को अपनी वेबसाइट पर हिंदी में प्रकाशित करने की सहमति जताई है।

उधर विदेश में हिंदी की पढ़ाई को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सरकार ने विदेशी यूनिवर्सिटीज में भारत की भाषा, संस्कृति और पढ़ाई को आगे बढ़ाने के लिए 50 पद स्थापित किए हैं। इनमें 13 पद हिंदी के प्रसार के लिए बनाए गए हैं। वर्तमान में एक सौ देशों में 670 शिक्षण संस्थानों में हिंदी भाषा पढ़ाई जाती है जो यह दर्शाता है कि भविष्य में वैश्विक स्तर पर हिंदी का अविरल रुप से बढ़ना जारी रहेगा। और एक हमारा देश भारत जो हिन्दी की जननी है वहाँ हिन्दी को छोड़ अंग्रेज़ी का मोह अधिक है। राष्ट्रभाषा हिन्दी व कार्यभाषा अंग्रेज़ी।

Monday, 10 January 2022

लोकतंत्र



साहबान, मेहरबान, कद्रदान, जरा इधर दीजिए ध्यान। 

देश में कोरोना का कहर है, सैलाब का सितम है, आग की तबाही है, सोशल डिस्टेंसिंग का सवाल है। माल, थिएटर, मल्टीप्लेक्स ज्यादातर बंद हैं। ऐसे में घर बैठे मन बहलाइए। राजनीतिक दल आपकी सेवा में हाजिर हैं, वो मुप्त मनोरंजन करते हैं। पैसे का सवाल नहीं, सिर्फ वोट का सवाल है।


अपने यहाँ जनतंत्र एक तमाशा है
जिसकी जान मदारी की भाषा है 

धूमिल की ये पंक्तियां उनकी लंबी और मशहूर कविता `पटकथा’ का हिस्सा है, जिसे भारतीय राजनीति के शाश्वत सत्य के रूप में अक्सर कोट किया जाता है।

आज आपको कलम और तलवार के धनी अब्दुर्रहीम खानखाना का एक दोहा सुनाना चाहता हूं। 

“कहु रहीम कैसे निभै केर बेर को संग। वे डोलत रस आपने उनके फाटत अंग।”

निश्चित ही यह एक अकल्पनीय समय है। वह घटित हो रहा है, जो किसी ने कभी सोचा तक नहीं था। आगे बढ़ती हुई एक सदी अचानक थम गई, बीती हुई सदी अपने तमाम जख्मों के साथ फिर प्रकट हो गई। फिर वही भूख, पलायन, गरीबी और बेबसी, बेबसों का वही रेला।

कश्मीर से कन्याकुमारी तक दुख और दर्द का समुंदर ठाठे मार रहा है। हर कोई आवाक् है, बदहवास है। क्या मजदूर, क्या मालिक, क्या शासन, क्या प्रशासन...हर पल एक नयी चुनौती सामने आती है, रूप बदल बदल कर नयी नयी मुश्किलें नुमाया होती हैं...लेकिन जंग जारी है।


कहानियां बेशुमार हैं लेकिन उन्हें दृश्यों में पिरोकर एक सुपरहिट शो बनाने की क्षमता किसके में है? इस सवाल का अब तक कोई जवाब नहीं मिल पाया है। बिना बेहतर स्क्रीन प्ले के हिट फिल्म नहीं बन सकती है। स्क्रिप्ट हाथ में नहीं है, कोई बात नहीं है लेकिन क्या कांग्रेस इसकी तलाश में नज़र आ रही है? फिलहाल कम से कम मुझे ऐसा नहीं लगता है।

मुझे याद है, शी जिनपिंग भारत आया था। साथ में उसकी सलोनी पत्नी भी थी। वह साबरमती आश्रम गया, ओटले पर बैठा और चरखा चलाया। यह उस महात्मा की धरती थी, जिसने हिन्द स्वराज में पश्चिमी सभ्यता के दोषों की निर्मम व्याख्या की थी। जब पश्चिमी मानवद्रोह को भी मात दे देने वाले, निर्दोष संसार से जैविक युद्ध लड़ने वाले चीन का सरगना उस पवित्र धरती को कलंकित करने आया था, तब बहुत लोगों ने उन चित्रों में विन्यस्त विडम्बना पर ध्यान नहीं दिया था, उनका ध्यान चित्र में मौजूद दूसरे व्यक्ति पर केंद्रित था, जो भारत का प्रधान है। क्या तीस साल से एक ही जगह पर रुककर सड़ गई बौद्धिकता को अब अपनी चिंताओं का विस्तार नहीं करना चाहिए? अमरीका तो बुरा है ही, भारत भी बुरा बन गया है, किंतु क्या चीन के चरित्र की व्याख्या अब भी नि:शंक होकर नहीं की जाएगी? अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो इसे चाइनीज़-वायरस में निहित मानवद्रोह का समर्थन ही माना जाएगा!

विश्व-व्यवस्था बदल चुकी है। बुराई ने अपना अड्‌डा पश्चिम से बदलकर पूर्व में स्थापित कर लिया है- यही नए युग का सत्य है!