मेरे प्यारे बागेश्वर,
कैसे हो मेरे भाई!
पहचाना?
कोई बात नहीं।
स्मृति गड्डमड्ड होती रहती है। तुमसे मिले भी तो बहुत दिन हो गए। शायद आखिरी बार कब जी भर के निहारा था तुम्हें मुझे ठीक से याद भी नही। पर तब करीब महीना भर साथ रहा था।
पहले भी तुमसे बार-बार मिलता रहा हूं। आज भी साथ हूँ पर भागदौड़ की इस भीड़ में लगता है कहीं गुम न हो जाऊँ।
अहा!
तुम्हारे भट्ट के डुबके, हरी साग और भात की याद आती है, तो मुंह में पानी भर जाता है। ...
वो नदियाँ, वो झरने, वो पहाड़, वो छोटे-बड़े बुग्याल, वो हिमाल जब याद आते हैं तो मन अथाह प्रेम से भर उठता है। …
यह मेरे लिए अजीब है कि तुम्हें अपनी पहचान बतानी पड़ रही है मुझे। मगर मुझे इसका बुरा भी क्यों मानना चाहिए! तुम्हारी गोद में पले सभी को तो हरदम बतानी पड़ती है, बरसों से साबित करनी पड़ती है अपनी पहचान, कि वे बिल्कुल तुम्हारी गोद के हैं। पूरमपूर तुम्हारे हैं। मुझे कभी-कभी लगता है कि मैं तो थोड़ा दूर का हूं। फिर मेरे जैसे तो अनेक हैं, जो तुम्हे चाहते तो बहुत हैं, चाहते हुए भी तुम्हारे पास नहीं आ पाते।
माफ करना मेरे बागेश्वर!
मगर तुमने मुझे दूर का होने का, कभी अहसास होने न दिया। न कभी खुद से जुदा ...
बुरा न मानना मेरे भाई!
खैर, कैसी हैं तुम्हारी वादियां? तुम्हारे गांव-गलियारे!
अब तो तुम पियराने लगे होगे। रंग बदलने लगी होगी तुम्हारी हरियाली। अक्तूबर आते-आते तुम्हारे आंगन के 'बैट वृक्ष' छोड़ने लगेंगे पत्ते। कुछ पेड़ निझा जाएंगे। चीड़ की ललियाई पत्तियां टूट कर तैरनी शुरू कर देंगी हवाओं में।
मैंने तो तुम्हारे दो ही रंग देखे हैं- हरा और पीला। तुम्हारा सफेद रंग देखने की शक्ति मुझमें नहीं, सो कभी तुम्हारे पास उस जगह पर ज़्यादा समय टिका नहीं। ठंड में दांत किटकिटाने लगते हैं मेरे। तो डर लगता है कहीं जम न जाऊँ तुम्हारे तुम्हारे उस रूप के दीदार के बाद पहाड़ों की उस चोटी पर।
खैर, और कहो!
कैसा है तुम्हारे बागनाथ मन्दिर का वातावरण! बैजनाथ का हाल। वहां की मछलियां कैसी है? भांग के घोटे का प्रसाद अब भी तो बंटता होगा शिवरात्रि पर!
कैसी है महर्षि मार्कण्डेय की तपस्थली त्रिवेणी के उस संगम पर? दुर्गा पूजा की तैयारियां भी चलने वाली होंगी अब कुछ दिनों में। जैसे कावड़ यात्रियों को बीच रस्ते से लौटा दिया गया था, वैसे ही दुर्गा पूजा और रामलीला भी तो नहीं रोक दी जायेगी।
शिखर-भनार, कोट माई, सनेती, लीती, भराड़ी, बागेश्वर व बदियाकोट में अब भी लगते होंगे मेले।
पिंडारी के नजारे तो भला क्या बदले होंगे!...
बस नजरें बदल गई हैं।
इधर महीने भर से तुम्हारे बारे में कुछ ठीक-ठीक खबरें नहीं मिल पा रहीं। परसों कोई बता रहा था कि सिपाही कुछ ज्यादती करते हैं तुम्हारे लोगों पर। मगर यह तुम्हारे लोगों के लिए कोई नई बात तो नहीं। माफ कर देना उनको। बेचारे वे भी तो हमारे बच्चे हैं। खेती-बाड़ी बेच कर अपने मां-बाप की आंखों में तैरते सपनों को जीते हुए किसी और की हुकूमउदूली करते हैं। वे अपने मन की कब कुछ कह या कर पाए हैं।
फिक्र उन लोगों की हो रही है, जो साल भर से ज्यादा हुआ, अपने घरों में बंद रहे हैं।
कोरोना काल के चलते पिछले दो सालों से बंद रोज़गार के अब उनके घरों में पता नहीं कितना अनाज बचा होगा। कैसे खाते-पीते होंगे उनके बच्चे।
पता नहीं कितने जा पाते होंगे अपने धान के खेतों में। अपनी बगानो में। यह तो धान की फसल तैयार होने का मौसम है। उनकी रखवाली कौन करता होगा।
जिनका गुजारा सैलानियों के सहारे होता था- वे घोड़े वाले, गाड़ी वाले, होटल वाले, हलवा-पूड़ी, भुट्टे, चाय और पकौड़े बेचने वाले। उनके बच्चे सलामत तो हैं न मेरे भाई!
पहाड़ों से जो गए थे मैदानों में या मैदानों से जो गए थे पहाड़ों पर, रोजगार की तलाश में। जो सड़कें बनाते थे, होटलों, रेस्तरां, सैलानी झोपड़ियों में बर्तन मांजते, झाड़ू-बुहारी करते खाना पकाते-परोसते थे। किराए के एक कमरे में दस-दस जन ठुंसे रह कर पैसे जमा कर अपने गांव लौट कोई बेहतर ठीया बनाने का सपना देखा करते थे। पता नहीं, अब उनके क्या समाचार हैं। पता नहीं, उनमें से कितने वापस लौट पाए, कितने वहीं हैं।
हो सके, तो अपनी कुछ खोज-खबर देना, मेरे भाई।
अपनी 24साल की आयु पूर्ण कर 25वें बसंत की दहलीज़ पर कदम रखा तो तुमने, पर जरा संभलकर चलना मेरे भाई, समय बहुत कठिन है आज….
डबडबातीं अखियों से शुभ रात्रि 🙏🏻
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