नदी का किनारा और उस पर बहता मन
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क्या हम उन चीज़ों को खो सकते हैं, जो महत्वपूर्ण हैं? मुझे लगता है कभी नहीं। महत्वपूर्ण चीजें हमेशा बनी रहती हैं। हम खोते केवल उन चीज़ों को हैं जो हमें लगता था कि महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वास्तव में बेकार थी, जैसे कि नकली ताकत जिसका इस्तेमाल हम प्यार की ऊर्जा पर काबू करने के लिए करते हैं।
क्यों, ओह, वह मुझसे बात क्यों नहीं करेगी? वह परेशान लग रही है। यह क्या हो सकता है? मैंने क्या कहा? मैंने क्या किया? मुझे किसी से पूछना चाहिए, लेकिन किससे? मैं अपना सिर खुजा रहा हूं, याद करने की कोशिश कर रहा हूं,
या शायद भूलने की बीमारी और आत्मसमर्पण का दिखावा करें? एक ऐसी घटना थी जिसने शायद उसे परेशान कर दिया होगा। मैंने सच्चा होने की कोशिश की, लेकिन मैं बेहतर कर सकता था। यही सब तो होता है जब हमारा दिमाग उधेड़बुन करता है।
नदी किनारे बैठने से जैसे जमीन से रिश्ता टूट जाता है। घण्टों चुप बैठने के बाद सोचूँ कि इतनी देर क्या सोचा तो समझ नही आता। खुले आसमां के नीचे मन उड़ता-उड़ता गुजरे वक्त में पहुँच जाता है। मेरे कितने प्रिय लोगों के साथ कितना कुछ अप्रिय गुजर गया। कैसे बताऊँ कि उन संग क्या हुआ ?
मेरे कितने अपने लोग इस दुनिया से हमेशा के लिए चले गए फिर भी मैं अपने मोबाइल से बरसों बाद भी, अब जब उनके मोबाइल नम्बर सर्विस में नही है, उनके नम्बर डिलीट नही कर पाया। कांटेक्ट लिस्ट में बेमतलब हो चुका उनका नाम उनके भौतिक अस्तित्व की खुरचन के रूप में मेरे पास है।
मेरा मन गुजर चुके लोगों के लिए कम, उनके पीछे अकेले छूटे लोगों के लिए ज्यादा रोता है। किसी को अपना जीवन आधार बना लेना, उसके लिए दिन-रात व्याकुल रहना, अपनी हर खुशी में उसे ऐसे ढूँढना जैसे अंधेरे कमरे की दीवार में कोई स्वीच बोर्ड टटोले।
कल्पना करिए उस कमरे में स्वीच बोर्ड ही ना हो। प्रेम साथ है तो रौशनी है। मगर बिछड़ जाए तो ? पीछे छूटे लोग जिनका जीने का सलीका हमेशा के लिए बदल गया के प्रति विकलता अधिक महसूस होती है। उनके लिए अब होली बदरंग हो गई, दिवाली मद्धम हो गई, पूरी दुनिया मरघट सी वीरान हो गयी। हर जश्न बेमतलब, हर कामयाबी बेमानी हो गई। स्मृतियों के प्रवाह में नदी किनारे बैठे उम्र का पानी उल्टी दिशा में बहने लगा । नदियाँ हजार परतों में छिपाकर रखा खालीपन बाहर ले आती है। एक ख्वाहिश है कि बागेश्वर का सरयू घाट (बगड़) हो और मैं लहरों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलूं और हाथ में मेरे भोले बाबा जी हाथ हो। हकीकत मे गर नही हो सकता तो ख्वाबों में ही एक मुलाकात हो। बहता पानी भीतर जाने क्या अवरुद्ध करता है ? नदी के पास कौन सी आदिम भाषा है जो वो हर बार अंतस को पुकार लेती है ?
“घट गया क्या क़ुबूल करने में,
मैं भी अव्वल हूँ भूल करने में।
जी भी कर सकते थे पर लगे हैं हम,
ज़िंदगी को फ़ज़ूल करने में॥”