Wednesday, 17 January 2024

नदी का किनारा और उस पर बहता मन

नदी का किनारा और उस पर बहता मन 
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क्या हम उन चीज़ों को खो सकते हैं, जो महत्वपूर्ण हैं? मुझे लगता है कभी नहीं। महत्वपूर्ण चीजें हमेशा बनी रहती हैं। हम खोते केवल उन चीज़ों को हैं जो हमें लगता था कि महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वास्तव में बेकार थी, जैसे कि नकली ताकत जिसका इस्तेमाल हम प्यार की ऊर्जा पर काबू करने के लिए करते हैं।


क्यों, ओह, वह मुझसे बात क्यों नहीं करेगी? वह परेशान लग रही है। यह क्या हो सकता है? मैंने क्या कहा? मैंने क्या किया? मुझे किसी से पूछना चाहिए, लेकिन किससे? मैं अपना सिर खुजा रहा हूं, याद करने की कोशिश कर रहा हूं,

या शायद भूलने की बीमारी और आत्मसमर्पण का दिखावा करें? एक ऐसी घटना थी जिसने शायद उसे परेशान कर दिया होगा। मैंने सच्चा होने की कोशिश की, लेकिन मैं बेहतर कर सकता था। यही सब तो होता है जब हमारा दिमाग उधेड़बुन करता है। 

नदी किनारे बैठने से जैसे जमीन से रिश्ता टूट जाता है। घण्टों चुप बैठने के बाद सोचूँ कि इतनी देर क्या सोचा तो समझ नही आता। खुले आसमां के नीचे मन उड़ता-उड़ता गुजरे वक्त में पहुँच जाता है। मेरे कितने प्रिय लोगों के साथ कितना कुछ अप्रिय गुजर गया। कैसे बताऊँ कि उन संग क्या हुआ ? 

मेरे कितने अपने लोग इस दुनिया से हमेशा के लिए चले गए फिर भी मैं अपने मोबाइल से बरसों बाद भी, अब जब उनके मोबाइल नम्बर सर्विस में नही है, उनके नम्बर डिलीट नही कर पाया। कांटेक्ट लिस्ट में बेमतलब हो चुका उनका नाम उनके भौतिक अस्तित्व की खुरचन के रूप में मेरे पास है। 

मेरा मन गुजर चुके लोगों के लिए कम, उनके पीछे अकेले छूटे लोगों के लिए ज्यादा रोता है। किसी को अपना जीवन आधार बना लेना, उसके लिए दिन-रात व्याकुल रहना, अपनी हर खुशी में उसे ऐसे ढूँढना जैसे अंधेरे कमरे की दीवार में कोई स्वीच बोर्ड टटोले। 

कल्पना करिए उस कमरे में स्वीच बोर्ड ही ना हो। प्रेम साथ है तो रौशनी है। मगर बिछड़ जाए तो ? पीछे छूटे लोग जिनका जीने का सलीका हमेशा के लिए बदल गया के प्रति विकलता अधिक महसूस होती है। उनके लिए अब होली बदरंग हो गई, दिवाली मद्धम हो गई, पूरी दुनिया मरघट सी वीरान हो गयी। हर जश्न बेमतलब, हर कामयाबी बेमानी हो गई। स्मृतियों के प्रवाह में नदी किनारे बैठे उम्र का पानी उल्टी दिशा में बहने लगा । नदियाँ हजार परतों में छिपाकर रखा खालीपन बाहर ले आती है। एक ख्वाहिश है कि बागेश्वर का सरयू घाट (बगड़) हो और मैं लहरों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलूं और हाथ में मेरे भोले बाबा जी हाथ हो। हकीकत मे गर नही हो सकता तो ख्वाबों में ही एक मुलाकात हो। बहता पानी भीतर जाने क्या अवरुद्ध करता है ? नदी के पास कौन सी आदिम भाषा है जो वो हर बार अंतस को पुकार लेती है ? 

“घट गया क्या क़ुबूल करने में, 
मैं भी अव्वल हूँ भूल करने में।
जी भी कर सकते थे पर लगे हैं हम, 
ज़िंदगी को फ़ज़ूल करने में॥”

Tuesday, 16 January 2024

राम यत्र-तत्र, सर्वत्र हैं..


भारत में सबके अपने-अपने राम है। गांधी के राम अलग हैं, लोहिया के राम अलग, बाल्मीकि और तुलसी के राम में भी फर्क है। कबीर ने राम को जाना, तुलसी ने माना, निराला ने बखाना। राम एक है, पर राम के बारे में द्दष्टि सबकी अलग है। त्रेता युग के श्रीराम त्याग, शुचिता, मर्यादा, संबंधों और इन संबंधों से ऊपर मानवीय आदर्शों की वे प्रतिमूर्ति है, जिनका दृष्टांत आधुनिक युग में भी अनुकरण करने के लिए दिया जाता है। 


ऐसे ही अतीत की एक घटना अक्सर मुझे याद आती है। जितना मैं राम को पढ़ पाया उस आधार पर, राम रावण युद्ध अनवरत जारी था। एक दिन युद्ध भूमि में राम का रण कौशल क्षीण हो रहा था। वो जो भी बाण चलाते वह अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाता। भगवान राम को लगा कि अब पराजित हो जाऊंगा। 

तब भगवान राम युद्ध भूमि में दिव्य दृष्टि से देखे की वास्तव में आज क्या कारण है कि आज युद्ध में मेरा प्रभाव क्षीण हो रहा है। तो उन्होंने देखा कि ओह आज तो साक्षात मां दुर्गा (शक्ति) रावण के रथ पर आरूढ़ है। तब राम किसी भी तरह युद्ध की आचार संहिता अर्थात् सूर्यास्त तक इंतजार किए।

 युद्ध से लौटकर जब उस दिन राम रात्रि विश्राम के समय अपने सेना नायकों के साथ शिला पट्टा पर बैठे थे तो पहली बार उनके नेत्र से आंसू गिरे। इस घटना से आहत होकर जामवंत ने पूछा प्रभु क्या बात है आज आपके नेत्र से आँसू? इस पर राम ने मात्र इतना ही बोला कि अब ये युद्ध मैं जीत नहीं पाऊंगा।

भगवान राम ने कहा कि जब पूरी सृष्टि जानती है कि मैं सत्य की रक्षा के लिए युद्धरत हूँ तो फिर शक्ति को मेरे साथ होना चाहिए। आज दुर्गा अन्यायी के साथ है। “जिधर अन्याय शक्ति उधर” यही मेरे आत्मीय कष्ट का कारण है। भगवान राम ने देवी की स्तुति की और उन्हें अंततः त्याग और समर्पण से अपने पक्ष में कर लिया।

कालांतर में यह कहानी फिर से दोहराई जा रही है इस बार भी रावण के साथ शक्ति है। रावण ने भगवान राम से कहा कि मैं तुम्हे बंद कर दूंगा। राम घबरा गए है कि मैं तो हर मनुष्य में हूं, यह मुझे दीवारों के बीच बंद करने की साजिश रच रहा है। 

भगवान राम फिर से उदास है फिर से आंखें बह रही हैं। युद्ध में राम एक बार फिर पराजित होते दिख रहे हैं लेकिन यकीन मानिए भगवान राम ही अंततः जीतेंगे रावण शक्तिहीन होगा।

जय श्री राम 🙏🏻

घुघुती

सदियों से हमारे कुमाऊं क्षेत्र में एक विशेष तरीके से मनाया जाने वाला उत्सव जो मौसम के बदलाव और प्रवासी पक्षियों की वापसी का संकेत देता है। इसे काले कौवा (काले कौवे) या घुघुती (एक अन्य स्थानीय पक्षी का नाम) का त्योहार कहा जाता है। लोग आटे, गन्ने की चीनी और घी से डीप-फ्राइड व्यंजन बनाते हैं। मीठे आटे को अनार, ड्रम, ढाल और तलवार के आकार में बनाया जाता है। एक बार जब वे पक जाते हैं, तो आकृतियों को हार बनाने के लिए पिरोया जाता है जिसे घुघुती (पक्षी का समान नाम) कहा जाता है, जिसके बीच-बीच में एक नारंगी (छोटा संतरा) भी पिरोया होता है। बच्चे सुबह उठकर इन्हें पहनते हैं। 


बच्चे बाहर जाते हैं और कौवों को ज़मीन पर लौटने का निमंत्रण देते हैं— 
“काले काले, भूल बाटे अइले!" 
(काले, काले, अब घर आओ!) 

बच्चे पक्षियों को अपने हार से भोजन देते हैं और बदले में आशीर्वाद मांगते हैं। पक्षियों को प्रसाद चढ़ाने के बाद, बच्चों को दिन भर उनके हार पहनने को मिलते हैं और वे जब चाहें तब भोजन खाते हैं। मजाल है इस दिन कौवा लाख बुलाने पर भी आ जाये। तब से हमारे यहां एक कहावत प्रसिद्ध है, “घुघुतियक जै काव कस अकड़ रो”। पर आज पक्षियों का वह निमंत्रण तुरन्त बिन बुलाए मेहमान बंदर स्वीकार कर बच्चों को डरा उनकी माला ही लपक ले रहे हैं। 

मीठे आटे से यह पकवान जिसे 'घुघुत' नाम दिया गया है। सदियों से चली आ रही परम्परा के अनुरूप आज भी इसकी माला बनाकर बच्चे मकर संक्रांति के दिन अपने गले में डालकर कौवे को बुलाते हैं और कहते हैं -
 
'काले कौवा काले घुघुति माला खा ले'।
'लै कौवा भात में कै दे सुनक थात'।
'लै कौवा लगड़ में कै दे भैबनों दगड़'।
'लै कौवा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़'।
'लै कौवा क्वे मेंकै दे भली भली ज्वे'।

पारम्परिक पर्वों का अद्भुत अनुभव लेने एक बार आप भी देवभूमि अवश्य आइए। यहां के स्नान, ध्यान, ज्ञान व पकवान आपको अभिभूत कर देंगे। यहां कि समृद्ध संस्कृति व विरासत आपको अभिभूत कर देगी। 

#HapppyGhughuti2024 
#uttarayani #makarsankranti2024

Friday, 5 January 2024

मैं अभी सतह पर हूँ



तुम कहते हो के पढ़ लेते हो चेहरा मेरा, कितना हसीन झूठ है, मग़र कहते रहो। जैसे तुम्हें भ्रम है वैसे मुझे भी हमेशा भ्रम रहा है कि मैं चेहरे पढ़ लेता हूँ। लोगों की आँखों में देख कर उनके एहसास जान लेता हूँ, उनके दुखों को टटोल कर पता कर लेता हूँ कि अभी पके हैं या नहीं। 


लेकिन यह भ्रम टूट रहा है, मैं अभी सतह पर हूँ। लोगों के चेहरों पर कई परतें हैं। पहले एक हँसी का मुखौटा है, फिर एक मेकअप की तह है, मेकअप के नीचे उसका फाउंडेशन है जो झूठ को पकड़ कर रखता है। फाउंडेशन के नीचे त्वचा है, त्वचा के नीचे मौसम भरे हुए हैं - झूमता हुआ सावन है, सिसकता हुआ पतझड़ है, गीली सी बारिशें हैं और इन मौसमों से गुज़रते हुए रिश्ते हैं, उम्मीदें हैं, अपेक्षायें हैं, तोड़े हुए वायदे हैं। इन सबके बीच जहाँ तहाँ सुख और दुःख के फिंगर प्रिंट्स हैं, ये प्रमाण एक दूसरे से उलझे हुए हैं, गुँथे हुए हैं। इनको अलग करना मेरे उँगलियों के बस की बात नहीं है। 

मैं इन सब परतों के नीचे जाकर सच्चाई तलाश करूँ तो शायद ख़ुद दब जाऊँगा एहसासों के मलबे में। मैंने तय किया है कि मैं अब सतह की लकीरों को छूकर बस अपने मन की बात कह दूँगा। बस इतना कह दूँगा कि हम सब मुखौटे हैं, कह दूँगा कि जो तुम्हारे साथ हुआ है वह किसी और के साथ भी हुआ है, कह दूँगा कि सब सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे, कह दूँगा कि जीवन यूँ ही चलता रहेगा। और जो यह सब नहीं कह पाया तो लिखूँगा कविताएँ जो सोख ली जाएँगी इन सारी परतों में और मेरे नहीं होने के बाद भी साथ चलेगी इन चेहरों के, चेहरे जो कह नहीं पाते सच्चाई, चेहरे जो बुतों में जान नहीं डालते। चेहरे जो मुझसे कुछ ख़ास अलग नहीं हैं। इस जहां में दोस्त रोता वही है जिसने सच्चे रिश्ते को महसूस किया हो, वरना मतलब का रिश्ता रखने वालों की आंखों में न शर्म होती है और न पानी।