सोच रहा हूं क्यूँ न इस दीपावली हम सब मिलकर एक नया विचार करें, दोस्तों ओर रिश्तेदारों को मिले तो बिना गिफ्ट के मिले। उस गिफ़्ट के बचे पैसे से किसी की दीपावली मनाने में सहयोग करें। ये क्या वाहियात परम्परा हम शुरू कर बैठे कि.....
तुम मेरे यहाँ आना तो गिफ्ट लेते आना और फिर मैं तेरे यहाँ जाऊंगा तो गिफ्ट लेता जाऊंगा। बड़ी-बड़ी कंपनियां चांदी काट रही हैं और हम जैसा मध्यम वर्ग डिब्बों के रेट उलट पलट रहा है कि किस दोस्त को क्या देना है ? कौन सा रिश्तेदार कितनी हैसियत का है ? कोई दोस्त या रिश्तेदार महंगा गिफ्ट देता है तो उसको गिफ्ट भी महंगा ही वापिस करना होगा और कोई दोस्त या रिश्तेदार हल्का गिफ्ट देता हैं तो उसको गिफ्ट भी हल्का देने से काम चल जाएगा। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है , आज टीवी और सारा मीडिया आपको ये बताने पर लगा है कि कितना-कितना सामान कहाँ-कहाँ बेचा जा रहा है, ये खबरे नहीं है दोस्तों ये आपका दिमाग घुमाने की साजिश है कि आपको लगे सारी दुनिया लगी है सामान खरीदने में आप रह गए पीछे....................
इस साल इस विचार पर काम करे, दीवाली को दीवाला न बनाए
हमारे पूर्वजों ने तो केवल खील, बताशे, चीनी के खिलौने लक्ष्मी पूजन के बाद प्रशाद के रूप में अपने पड़ोसियो के देने की परंपरा
बनाई थी। परन्तु हम सबने दिखावे के लिए इस परंपरा को महंगे महंगे गिफ्टों में बदल दिया, एक मध्यम वर्ग का मुझ जैसा इंसान किसी दोस्त और रिश्तेदार के पास जाने से पहले सौ बार गुणा भाग करता है और अंत मे इस निष्कर्ष पर पहूंचता है कि रहने दो अगली दीपावली देखेंगे ..…….
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“दोस्तों जिंदगी में पराया कोई नहीं होता,
सिर्फ मन का वहम है...
भरोसा रूका तो इंसान पराया होता जाता है
और सांसे रूकी तो शरीर…..!!!”
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Bahut sahi kaha
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