मेरी उम्र या मेरी उम्र के आस-पास या उससे पहले के सभी साथी जानते होंगे, हमारे बचपन में गांव-गांव मदारी घूमा करते थे। इन तपते-धधकते और लू के थपेड़े मारते दो महीनों की भरी दुपहरी में डुगडुगी बजाते वे आ धमकते। उनमें एक मदारी ऐसा होता, जो जादू दिखलाता। वह खेल तो शुरू करता हंसी-मजाक से। पहले खूब हंसाता। किसी का मजाक उड़ता, किसी के घर की पोल खोलता। किसी बच्चे की छुन्नी तक गायब कर देता। किसी की जेब का पैसा किसी की जेब में डाल देता। किसी के सिक्के से दो सिक्का बना देता। बीच में मौका ताड़ कर किसी के काले-पीले दांत पर नसीहत झाड़ते हुए लोगों का मन ताड़ता और मंजन बेच देता।
खैर, खेल को भावनात्मक दोहन के स्तर पर ले जाता और अंत में अपने साथी के पेट में छुरा घोंप देता। फिर अपने हाथ में लाल रंग लगाए ऐसी लरजती आवाज में हुंकारा लगाता और जोर-जोर से अपनी डफली पीटते हुए चिल्लाता कि जल्दी से पैसे,अनाज जो कुछ तुम्हारे पास है लाकर मेरी चादर पर डाल दो वरना इस आदमी की जान चली जाएगी। हम डर जाते फिर फटाफट जाकर घर से पैसे या अनाज लाकर उसकी चादर पर डाल देते या उस वक्त जो जेब में होता सब दे देते।
अंततः मदारी सारा माल समेटता, उसका चाकू लगा साथी धूल झाड़ते हुए उठता और खेल का सुखांत समापन होता।
वह खेल हमने न जाने कितनी बार देखा होगा, पर हर बार द्रवित हो अपनी जेब से यथाशक्ति मदारी की चादर पर कुछ न कुछ डाला।
इन दिनों उस मदारी की डुगडुगी मेरे कानों में हर समय गूंज रही है। मैंने तो अपनी जेब में हाथ नहीं डाला, क्योंकि वह पहले ही खाली हो चुकी है, पर पता है मदारी की कमाई कम ही सही, पर होगी जरूर।
मदारी की आदत है, जहां उसे कमाई की संभावना अधिक नजर आती है, वहां वह नए-नए खेल लेकर बार-बार जाता है।
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