Tuesday, 31 August 2021

गांवो मे लोकतंत्र,— पंचायती राज का बदनुमा चेहरा लोकतंत्र के नाम पर कोढ़ है ....



" जितने हरामखोर थे जर्रो- जवार में, परधान, ब्लाक प्रमुख और जिला पंचायत शिरोमणि बनकर छा गये पहली कतार में" 



शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर वे एक पैसा भी खर्च करना गुनाह समझते हैं। इन जंजीरों में जकड़ा समाज जड़ता, अज्ञानता और दकियानूसी विचारों का गुलाम बनकर रह गया है। एक प्रगतिशील समाज, आधुनिक राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना बोध की तो वे कल्पना भी नहीं कर सकते। बजबजाते नाली में सूअर की तरह आनंद मना रहे ऐसे लोग असंतुष्ट मानव बनने की अपेक्षा संतुष्ट सूअर बनना ही ज्यादा पसंद करते हैं। ऐसे सूवरों का एक बाबा साहब नहीं हजार बाबा साहब पैदा हो जायं, तब भी बिष्टा मे लोटना और खाना नही जायेगा। ५ साल मे एक बार इनके लिये कुछ दिनों के लिये रामराज्य जरूर आता है, जिसमे इनको भरपूर दारू, मुर्गा, अनाज मिलता है, वोट खतम होते ही ये फिर उसी सूवर बाड़ें मे ढकेल दिये जाते हैं अगले ५ साल के लिये ।

इंसान केवल शोहरत का मोहताज होता है। वह दुसरों की बुराई जरूर करता है लेकिन अपनी केवल तारीफ़, वाहवाही, शाबासी ही सुनना पसंद करता है। हर व्यक्ति इस दुनिया में जन्म लेकर आता है और किसी न किसी चीज़ से असंतुष्ट भी होता तथा उसे बदलने, सुधारने की नीयत भी रखता है लेकिन आसानी से बदल अपने घर,परिवार को भी नहीं पाता है।

हर व्यक्ति के जीवन में कुछ न कुछ रहस्य होते हैं और हर घर, परिवार की कुछ रहस्यमयी बातें होती है। हम उनपर बात नहीं कर पाते इसलिये हमारे अंदर असहमति या अलगाव जन्म लेती है। जैसे मनुष्य अपने विचारों का दायरा बढ़ाता है वैसे वैसे वह पाता है कि व्यक्ति, घर, परिवार, क्षेत्र, राज्य, देश सभी जगहों पर यह समस्याएं विधमान हैं। घर के बंटवारे हों या राज्य तथा देश के जरूर कुछ न कुछ ऐसा पनपता है जिसपर हमने समय रहते विमर्श नहीं किया होता है। कुछ मामले राष्ट्रीय हो जाते हैं तो कुछ चार दिवारी के भीतर दम तोड़ देते हैं। शुरुआत में कोई भी समस्या बड़ी नहीं होती है इसलिये जब भी समस्या पनपती दिखे उसपर सभ्यता और शालीनता से मंथन करने में कोई बुराई नहीं।

एक और बात। हमें हमेशा लगता है कि मैं, मेरा परिवार, मेरी व्यवस्था, मेरा धर्म, मेरा कर्म ही केवल श्रेष्ठ अथवा सटीक हैं लेकिन हमारी कमियों को बाहरी लोग अधिक जानते, समझते हैं। लोग क्या सोचते हैं भले ही हमें उसका फर्क न पड़े मगर यह सत्य है कि हमारी सबसे ख़राब बातें कभी हम तक नहीं पहुंचती। यदि बेहतर बनना है तो उन कमियों को जानें, स्वीकार करें और उससे सीखकर अपनी दुनिया जरूर बदलेगी। आंखिर हम भारत के वासी हैं।

Monday, 30 August 2021

सोचता हूँ…



कि कैसा होगा वह क्षण जब इस तरह की बातें दिमाग में जागती होंगी? कैसे होता होगा इनका विकास व प्रकाशन? हमें आज बेहद ख़ास, रोचक राजनीतिक महायोद्धा मिले हैं एक जो अपनी मनमोहक बातों के जाल में फँसा लेता है और ऐप से वर्षा कराने व इधर-उधर करने की बात करता है। धन्य हुई देवभूमि …. 


भारत सरकार से निवेदन है कि आपदा की बड़ती घटनाओं को ध्यान में रखते हुए इस एप्प को तत्काल प्रभाव से अनुमति प्रदान करें और नोबेल पुरस्कार देने वाली संस्था से भी व विश्व की महान हस्तियों को निवेदन करना चाहिए कि बादलों को इधर-उधर करने वाली ऐसी बहुमूल्य और जन उपयोगी खोज के लिए उत्तराखंड के स्वास्थ्य मंत्री डॉ धन सिंह रावत जी को नोबेल पुरस्कार दिया जाय।

भाई कौन सा नशा करते हो? अपने मुखारबिन्दु खोलो और बता डालो। आंखिर ये ‘बरखा एप' कहाँ मिल रिया है गुरु!

Friday, 20 August 2021

जब मोबाइल आपको डराने लगे !!




जरा दिमाग में जोर देकर याद कीजिए जब मोबाइल नहीं थे, लैंड लाइन भी नहीं के बराबर थे। उस वक़्त एक व्यक्ति विभिन्न जाति या संप्रदायों में संदेश वाहक होता था जो खबरें लेकर सभी जगह जाता था। वह व्यक्ति मृत्यु के संदेश भी लाता था और पैदा होने से विवाह तक के भी। अगर वह एक ही महीने के अंदर कई शोक संदेश ले आता था तो लोग उसे मनहूस मानने लगते थे और उसे देखते ही डरने लगते थे कि "हे ईश्वर हमें बुरी खबर अब मत देना।" 


रोबर्ट ग्रीन अपनी किताब '48 लॉज़ ऑफ पॉवर' में शायद इसीलिए एक नियम शक्ति का यह भी बताते हैं कि आप लोगों को बुरी या मनहूस खबरें न सुनाए। उस शोक की खबर लाने वाले व्यक्ति को देखकर आपकी धड़कने बढ़ने लगती थी और दिल बैठने लगता था, पसीना निकलने लगता था और पूरे शरीर में झुनझुनी होने लगती थी...।

अब संदेश वाहक की जगह आपके-हमारे मोबाइल फोन ने ले ली है। अब सारे संदेश मोबाइल ही लेकर आता है। आपकी एकाउंट डिटेल, ट्रांज़िक्शन, नौकरी की सूचना, सेलेक्ट या रिजेक्ट होने की सूचना सब कुछ मोबाइल पर ही आती हैं। अगर आप रात में किसी के एक्सीडेंट या मृत्यु की खबर सुनते हैं और यह कई बार होने लगता है तो आपका मस्तिष्क उन्हें अपनी स्मृति में सुरक्षित कर लेता है और फिर मोबाइल की घंटी बजते ही आपके दिल की धड़कनें बढ़ने लगेंगी, पसीना आने लगेगा, सांस फूलने लगेंगी, नींद उड़ने लगेगी। अगर आपको किसी ने धमकी दी हो या ब्लैकमेल किया हो या किसी पुलिस अफसर ने आप से किसी केस के बारे में कई बार फोन करके पुलिस स्टेशन बुलाया हो तो फिर यही लक्षण कई कई गुना बढ़ जाते हैं। आप एक मनोवैज्ञानिक समस्या से ग्रस्त हो जाते हैं और इसका निराकरण न करने पर कई मानसिक और शारीरिक समस्याओं से ग्रसित भी हो जाते हैं जैसे- आईबीएस, अनिंद्रा, डिप्रेशन, फोबिया, अपच, बेचैनी, अनियंत्रित धड़कन, सिरदर्द, बदन दर्द, सीने में दर्द आदि।

इस पर मेरे एक रोगी मित्र ने मुझसे पुछा था कि मोबाइल फोन के आने के बाद हम सब इतने मानसिक रूप से बीमार क्यों होने लगे हैं और शारीरिक रोग भी इतने क्यों बढ़ गए हैं। जैसा कि हम सभी जानते हैं, हमारा शरीर पहले से उपस्थित किसी अंग को बदलने पर किसी और का अंग लगाने पर प्रतिक्रिया देता है जिसके लिए सर्जन कई दिनों तक स्टेरॉइड देते हैं ताकि प्रतिक्रिया ना हो। अब 21वीं सदी में तो हमने एक नए अंग मोबाइल फोन को ही अपने शरीर का हिस्सा बना लिया है तो प्रतिक्रिया या रिएक्शन तो होगी ही।तो सोच लो किस हद तक बिमार हो चुका इन्सान।

“मदारी की कमाई कम ही सही, पर होगी जरूर” आंखिर खेल मदारी का


मेरी उम्र या मेरी उम्र के आस-पास या उससे पहले के सभी साथी जानते होंगे, हमारे बचपन में गांव-गांव मदारी घूमा करते थे। इन तपते-धधकते और लू के थपेड़े मारते दो महीनों की भरी दुपहरी में डुगडुगी बजाते वे आ धमकते। उनमें एक मदारी ऐसा होता, जो जादू दिखलाता। वह खेल तो शुरू करता हंसी-मजाक से। पहले खूब हंसाता। किसी का मजाक उड़ता, किसी के घर की पोल खोलता। किसी बच्चे की छुन्नी तक गायब कर देता। किसी की जेब का पैसा किसी की जेब में डाल देता। किसी के सिक्के से दो सिक्का बना देता। बीच में मौका ताड़ कर किसी के काले-पीले दांत पर नसीहत झाड़ते हुए लोगों का मन ताड़ता और मंजन बेच देता। 


खैर, खेल को भावनात्मक दोहन के स्तर पर ले जाता और अंत में अपने साथी के पेट में छुरा घोंप देता। फिर अपने हाथ में लाल रंग लगाए ऐसी लरजती आवाज में हुंकारा लगाता और जोर-जोर से अपनी डफली पीटते हुए चिल्लाता कि जल्दी से पैसे,अनाज जो कुछ तुम्हारे पास है लाकर मेरी चादर पर डाल दो वरना इस आदमी की जान चली जाएगी। हम डर जाते फिर फटाफट जाकर घर से पैसे या अनाज लाकर उसकी चादर पर डाल देते या उस वक्त जो जेब में होता सब दे देते। 

अंततः मदारी सारा माल समेटता, उसका चाकू लगा साथी धूल झाड़ते हुए उठता और खेल का सुखांत समापन होता। 

वह खेल हमने न जाने कितनी बार देखा होगा, पर हर बार द्रवित हो अपनी जेब से यथाशक्ति मदारी की चादर पर कुछ न कुछ डाला।

इन दिनों उस मदारी की डुगडुगी मेरे कानों में हर समय गूंज रही है। मैंने तो अपनी जेब में हाथ नहीं डाला, क्योंकि वह पहले ही खाली हो चुकी है, पर पता है मदारी की कमाई कम ही सही, पर होगी जरूर। 

मदारी की आदत है, जहां उसे कमाई की संभावना अधिक नजर आती है, वहां वह नए-नए खेल लेकर बार-बार जाता है।

Sunday, 8 August 2021

कोरोनाकाल में ही नहीं अपने जीवन में फ़ेक समाचारों को पहचानिए ! कहीं आप किसी का भोजन बनने तो नहीं जा रहे हैं ?


इस कोरोनाकाल में जितने प्रयोग विषाणु पर चल रहे हैं, उतने हम-मानवों पर भी चल रहे हैं। हम-आप कैसे सोचते हैं, किस तरह की ख़बरों में बह जाते हैं और कैसे लोगों के कहे में आकर अपनी-अपनी राजनीतिक विचारधारा से चिपक जाते हैं। तो चलिए आज इस पर खुलकर बात करते हैं। समाचार व फेंक समाचार में कितना अन्तर होता है ? इसे कैसे पहचान सकते हैं ? इस पर हमें क्या करना चाहिए और क्या नही करना चाहिए ? 



1) समाचार का स्रोत देखिए। बताने वाला कौन है, उसकी  विषय-योग्यता क्या है। प्रस्तोता और विषय की जाँच से यह पहचान शुरू होती है। 

2 ) ख़बरों के केवल शीर्षकों पर न जाइए। अनेक बार लोग ख़बर को चटपटा बनाने के लिए ऊटपटांग हेडलाइन गढ़ रहे हैं।

3 ) आँफ़िशियल सह-स्रोत भी पढ़ें। एक जानकारी अनेक स्रोतों से होने पर स्पष्टतर होती है और सच-झूठ खुल जाता है।

4 ) कहीं ख़बर मज़ाक या व्यंग्य तो नहीं। अनेक बार हास-परिहास में भी बातें कह दी जा रही हैं।

5 ) आपके पूर्वाग्रह, आपके पूर्वविश्वास आपकी राय तय कर सकते हैं। आपकी राजनीतिक विचारधारा, आपकी सामाजिक स्थिति और आपके परिवार का प्रभाव भी आप पर पड़ता है।

6) विशेषज्ञों से प्रश्न भी करिए। विश्वसनीय स्रोतों से आपको सवाल करने चाहिए।

7) कुछ भी शेयर करने से पहले जानिए कि आप पैंडेमिक ही नहीं, इन्फोडेमिक से भी जूझ रहे हैं। जिम्मेदार नागरिक का कर्त्तव्य निभाइए ।

♦️फ़ेक समाचार तीन प्रकार के हो सकते हैं : 

1) पूर्णतः फ़ेक समाचार, जो एकदम कोरोनावायरस-अनजान लोगों को ठगने और गुमराह करने के लिए बनाये जाते हैं। इनके शिकार अवैज्ञानिक फंन्तासी-फ़िल्मी सोच वाले लोग होते हैं।

2) सत्य आँकड़ों और जानकारियों को आड़े-तिरछे और ग़लत ढंग से निष्कर्ष निकालकर परोसने वाले फ़ेक समाचार। इनके टारगेट पर पढ़े-लिखे, किन्तु अवैज्ञानिक सोच वाले लोग होते हैं। ध्यान रहे : डिग्री पा जाना और साइंटिफिक टेम्पर का विकास कर पाना --- दोनों एकदम अलग हैं। इस समय ढेरों सम्भ्रान्त लोग ज्ञानलिप्त फ़ेक समाचार पढ़कर उन्हें सच मान बैठे हैं।

3) यह भी हो सकता है कि समाचार प्रस्तुत करने वाला कुछ कहना चाह रहा हो और आप कुछ और समझ रहे हों‌। अगर आप डॉक्टर या वैज्ञानिक नहीं हैं, तो ऐसा होना लाज़िमी है। जिन बातों को ये लोग सालों-साल पढ़ते-समझते हैं, उन्हें आप एक लेख या पोस्ट से कैसे समझ सकते हैं ? इसलिए बार-बार पढ़िए। अनेक स्थानों से पढ़िए। किन्तु विश्वसनीय स्रोतों से पढ़िए , सनसनीखेज  स्रोतों से नहीं।

यह भी हो सकता है कि विज्ञान ही नयी जानकारी मिलने पर विषय को बेहतर समझ कर कुछ और राय देने लगे ? ध्यान रहे : इस समय दुनिया-भर की प्रयोगशालाएँ और अस्पताल शोधरत हैं और लगातार नयी जानकारियाँ पायी जा रही हैं। ऐसे में पुरानी जानकारी का परिष्करण, मण्डन और खण्डन, तीनों सम्भव हैं। विज्ञान का तरीका यही है, वह स्वयं को तार्किक ढंग से तोड़ता-फोड़ता आगे बढ़ता है।

स्वयं से प्रश्न करिए : इस पैंडेमिक की आँच में कहीं आपके मनोविज्ञान को पकाया तो नहीं जा रहा ? यदि हाँ, तो आप किसका भोजन बनने जा रहे हैं ? तो सोचिए आप कितने बुद्धिमान है ?