फूल बेचने वाले लड़के को भला क्या मालूम था। उसने भूल से कह दिया- एक गुलाब ले लीजिए, भगवान आपकी जोड़ी सलामत रखेगा। वो लड़की सच में ही मेरे इतने क़रीब खड़ी थी कि किसी को भी वहम हो जाए, साथ में है।
असमंजस की स्थिति बन गई। मैं मुस्करा दिया। वो भी शायद झेंपकर मुस्कराई होगी। मैंने देखा तो नहीं, पर उसकी परछाई देखकर कल्पना बांधी। अपराह्न के चार बजे होंगे और धरती पर हम दोनों की लम्बी-सी परछाई गिर रही थी। परछाई में सच में ही जुड़े कंधों वाली इतनी क़ुरबत मालूम होती, जैसे हाथ थामे खड़े हों। मुझे लगा मैं अपनी परछाई से दोयम हो गया हूं। उससे हार गया हूं। मेरा हाड़-मांस का होना अकारथ था। मुझे एक बेआवाज़ अंधेरे के वृत्त में धरती पर गिर पड़ना था, एक युगल आकृति में- जैसे चित्रकार बनाते हैं तिमिरचित्र।
मैंने फूल ले लिया। मुझे उसकी कोई ज़रूरत नहीं थी, फिर भी रख लिया। किताब में सहेज लिया। फूल बेचने वाले को कहने का मन हुआ कि दोस्त, तुम्हें तो तुम्हारे फूल के दाम मिल गए, लेकिन तुम्हारी दुआ बेकार जाएगी। ना कोई जोड़ी है, ना किसी को सलामत रहना है। ये तो बस यों ही अफ़रातफ़री में जुड़ गया एक साथ है। यहां इतनी भीड़ है कि भ्रम होता है, अलग-अलग नहीं हैं।
वो दिल्ली थी। मैं वैशाली मेट्रो स्टेशन पर था। फूल को किताब में रखकर आगे बढ़ चला। वो भी साथ ही चली। हमने साथ में ही क़तार में लगकर टोकन लिया। साथ ही प्लेटफ़ॉर्म पर पहुंचे। साथ ही मेट्रो का इंतज़ार किया। साथ ही गाड़ी में घुसे। साथ-साथ बैठे।
मैंने मन ही मन सोचा- उम्रभर का नहीं, चंद मिनटों का तो साथ रहेगा। बीस रुपए का गुलाब था। अपने हिस्से की दुआ पूरी करके ही मुरझाना चाहता था। उस फूल की ये ख़ुदमुख़्तारी मुझे रुच गई, यों तो दुनिया में कुछ चीज़ें पूरे जीवन की पूंजी लगाकर ना मिलें, इतनी अमोल होती हैं।
मेट्रो चलती रही। एक-एक कर स्टेशन आते रहे। मुसाफ़िर उतरते-चढ़ते रहे। मैं हर स्टेशन पर सोचता, शायद यहीं तक का साथ हो, किंतु दरवाज़ा खुलकर बंद हो जाता और वो अपनी जगह पर बनी रहती। मैं ख़ुद को चंद और मिनटों की क़ुरबत की मुबारक़बाद देता। कौशाम्बी आया और गया। आनंद विहार आकर निकल गया। यमुना बैंक पर तो लगा, अब वो उतर जाएगी, लेकिन पर्स टटोलकर ही स्थिर हो गई। प्रगति मैदान पर भी नहीं उतरी।
मैंने कनखियों से देखा, उसके कान में मिट्ठू के पिंजरे के जैसा एक नन्हा-सा झुमका था, जो पूरे समय झूल रहा था, जैसे नीमबेहोशी में कोई हिंडोला लहराता हो। बालों की एक लट चेहरे पर चली आई थी। गाल पर बरसों पुरानी एक खरोंच का निशान था। बड़ी तीखी नाक। उसका फ़ोन बजा। मुस्कराकर वो बात करती रही। मैंने अब देखा, उसके एक क्रुकेड टुथ था। ऊपर की दंतपंक्ति में एक दांत अपनी जगह पर हलका-सा तिर्यक।
वो कौन थी, क्या पता। कहां से आई, कहां को उसे जाना था। ना जान, ना पहचान। लेकिन एक लापरवाह भूल से कही गई वो बात थी- भगवान आपकी जोड़ी सलामत रखेगा। वो बात भले झूठी हो, लेकिन सुंदर थी। उसकी कल्पना में रस था। मेरा-उसका उस एक झूठे आरोप का नाता बन गया था, जैसे कहने भर से ही कुछ जुड़ गया। जैसे कि कुछ भी कहना इस संसार में हवा का एक बगूला भर ना हो, कहने से उसका एक ठोस आकार बन जाता हो, नियति बंध जाती हो। गुलाब की कली बेचने के मक़सद से बोला गया वो एक ब्यौपारी झूठ ही तो था। किसी को अनजाने में भी ऐसी बातें नहीं कहना चाहिए, जो हमें वैसी माया में बिसरा दें।
मंडीहाउस स्टेशन आया। अब तो मुझे ही उतरना था। मैं ग्रीनपार्क जा रहा था, मंडीहाउस पर मेट्रो की लाइन बदलना होती थी। संयोग कि वह भी यहीं उतरी। किंतु उसे और आगे नहीं जाना था। उसकी मंज़िल मंडीहाउस ही थी। इतना भर ही संग-साथ था। कौन जाने, एनएसडी की स्टूडेंट हो। क्या पता, त्रिवेणी कैफ़े पर किसी के साथ चाय पीने का वादा हो। या शायद सांझढले घर ही जा रही हो। मंडीहाउस के बाहर ऑटो-रिक्शा वालों के इसरार की ज़िद में उसे खो जाना हो, दिल्ली की गलियों में कहीं गुम जाना हो। ऐसे विलीन हो जाना हो, जैसे भोर का सपना। फिर खोजे से ना मिलना हो।
मैं उसे दूर तक देखता रहा, जब तक कि आंख से ओझल ना हो गई। मैं उम्मीद कर रहा था कि वो शायद एक बार मुड़कर देखेगी, किंतु सच तो यही है कि लड़कियां अगर ऐसे वाक़यों पर पलटकर देखने लगें तो जीवन दु:ख से भर जाए उनका। मन का तो काम ही है तृष्णा करना और दु:ख देना। लेकिन जीवन को तो बांधकर चलना होता है।
उसकी पीठ सुदूर जाकर धुंधला गई। मैंने उससे मन ही मन कहा, ये आख़िरी है, ज़िंदगी में अब मिलना ना होगा। तुम्हें विदा। दुनिया बहुत बड़ी है, इसलिए नहीं कि यहां ख़ूब सारे नदी-पहाड़ हैं, बल्कि इसलिए कि उसमें दो के बीच अंतरिक्ष जितनी असम्भव दूरियां होती हैं। मैंने किताब खोली और फूल को देखा। ये तुम्हारा घर है- मैंने उससे कहा- पूरा जीवन अब तुम्हें इस किताब के भीतर रहना है।
सहसा मुझे ममता कालिया की कहानी दूसरा देवदास की याद हो आई। उसमें भी ऐसा ही होता है। हर की पौड़ी पर एक तरुण एक पुजारी से कलावा बंधवा रहा होता है कि एक लड़की पास आकर खड़ी हो जाती है। पुजारी उससे संकल्प पढ़वाने को कहता है। लड़की कहती है- नहीं, हम कल आरती की बेला आएंगे। हम शब्द सुनकर पुजारी को भ्रम होता है कि वो लड़के के साथ है। सुखी रहो, फूलो-फलो का आशीष दे बैठता है। लड़का लड़की झेंप जाते हैं। उनके असमंजस की इस वर्णमाला को मैं कहानी पढ़ते समय निजी अनुभव से तुरंत पहचान गया था।
कहानी में फिर ऐसा होता है कि बाद उसके लड़के को कुछ और होश नहीं रहता। वो उस फूलो-फलो के आशीष से तादात्म्य बना लेता है। अगले दिन फिर उसी लड़की की टोह में उसे ढूंढता फिरता है, जिसने कल आरती की बेला आने का वचन दिया था। वो उसे फिर मनसा देवी की झूलागाड़ी में मिल ही जाती है।
वो कहानी पढ़ते समय मैं अपने को त्रासदी के लिए तैयार कर रहा था। मैं जानता था कि कहानी के अंत में लड़की उस लड़के से हमेशा के लिए खो जाएगी। ऐसा ही तो कहानियों में होता है। किंतु उस कहानी में ऐसा हुआ नहीं। दोनों आख़िर मिल ही गए। लेखिका ने उसको दूसरा देवदास इसलिए नहीं कहा था, क्योंकि वो दुर्भागा था। बल्कि इसलिए कहा था कि लड़की का नाम पारो था।
मुझे निराशा हुई। मुझे लगा, जैसे लेखिका की कहानी का नायक मेरी कहानी के नायक से जीत गया था। उसने दूसरी बार उस लड़की को खोज लिया था। मैंने इस शिक़ायत को चुपचाप अपने मन में रख लिया। कहानी के नायक का नाम सम्भव था। मेरी कहानी की तरह सबकुछ उसके लिए इतना असम्भव नहीं था।