Thursday, 27 August 2020

लगता है वायरस बदल देगा नेताजी के बोल- बच्चन


आज दुनिया में कोरोना ने एक साथ तीन बड़े बदलाव की नींव डाल दी है। जहाँ इस महामारी से पूरी दुनिया के समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीति अब पहले जैसे नहीं रह जाएंगे। ऐसा नहीं कि ये बदलाव बीमारी पर काबू पाने तक ही रहेंगे। भविष्य में भी थोड़े-बहुत सुधारों के साथ ये दिखेंगे। जब दुनिया और उसकी सियासत बदलेगी, तो भारतीय राजनीति भला कैसे बची रह सकती है। बहुत मुमकिन है कि कोविड-19 से पैदा लोगों का डर और डर की राजनीति केंद्र में आएं।

अभी नेताओं के नारों में बिजली, सड़क, पानी, फ़्लाइओवर और विकास की बातें होती हैं। अब आगे हो सकता है ये मास्क, वेंटिलेटर, दवाओं और दूसरे मेडिकल इक्विपमेंट के इर्द-गिर्द घूमने लगें। भारतीय राजनीति के दो सबसे अहम शब्द ‘विकास’ और ‘जाति’ को कोरोना काल में ‘वायरस’ और ‘जैविक देह’ रिप्लेस कर दें, ऐसा अंदाज़ा लगाया जा सकता है। 

♦️पैमाने बदल जाएंगे — 
अगर हमारी राजनीति में ‘विकास’ का आगे ज़िक्र भी आएगा, तो उसके इर्द-गिर्द मौजूदा वक़्त और भविष्य के वायरल अटैक से बचने की तैयारी और नाकामी की बातें ज़्यादा होगी। आने वाले दिनों में आम आदमी की सेहत की चिंता हमारे राजनीतिक विमर्श का सबसे ज़रूरी सवाल बनकर उभरेगी। इस सवाल के ज़रिए यह पूछा जाएगा कि ग़रीब-गुरबा और दबाए-सताए गए लोगों की जगह क्या है और क्या होनी चाहिए। इन सवालों के जवाब ही भारत में लोकतांत्रिक विमर्श की दशा और दिशा तय करेंगे। 

इस विमर्श में नेताओं की योग्यता के पैमाने बदल जाएंगे। आने वाले चुनावों में देखा जाएगा या यूँ कहें देखा जायेगा कि किस राजनीतिक दल, नेता और मुख्यमंत्री ने कोरोना संकट का सामना प्रभावी ढंग से किया। किसने महामारी के फैलने की रफ़्तार को मजबूती से थामा। किसने इस आपदा का सामना करने के लिए अपने राज्य के मेडिकल इंफ़्रास्ट्रक्चर में तेज़ी से जरूरी बदलाव किए। इन पैमानों के आधार पर ही हमारी राजनीति और हमारे नेताओं की लोकप्रियता तय होगी। जनता किसके पक्ष में एकजुट होगी, इसके लिए भी कसौटी बदलेगी। सवाल उठेगा कि महामारी के दौरान किसने ग़रीब तबके की समस्याओं को संज़ीदगी से लिया। किसने उन तक सरकारी या दूसरे ज़रिए से मदद पहुंचाई। किसने इन भयानक दिनों में ग़रीब और मजबूर लोगों को ध्यान में रखकर नीतियां बनाईं। यह भी देखा जाएगा कि सबसे तेज़ पहल किसने की और कौन पीछे रह गया।

♦️समाज और बंटेगा —
दूसरी महामारियों की तरह कोरोना भी पहले से बंटे हुए हमारे समाजों को और बांटेगा। ग़रीबी और अमीरी की खाई और चौड़ी होगी। ‘ग़रीब’ शब्द के बहुत गहरे और प्रभावी राजनीतिक मायने सामने आएंगे। दलितों के मुद्दे महत्वपूर्ण तो रहेंगे, लेकिन मुमकिन है कि बहुत हद तक वे ‘ग़रीब’ और ‘ग़रीबी’ में जज़्ब होकर रह जाएं। 

इसके साथ ही नई सामाजिक पहचान उभरेगी। पुरानी पहचान नई सूरत अख़्तियार कर सकती है। राजनीतिक विमर्श में ‘प्रवासी मज़दूर’ की एक नई कैटिगरी उभर सकती है। महामारी और इससे आया डर भारतीय समाज में माइग्रेशन की सहज प्रक्रिया को नुकसान पहुंचाएगा। प्रवासी मज़दूरों के मुद्दे राजनीति में महत्वपूर्ण होकर उभरेंगे।

♦️प्रवासी तय करेंगे देश व प्रदेश की राजनीति में मुद्दे —
2011 की जनगणना के आंकड़े देखें तो 34 करोड़ से अधिक प्रवासी, उनके घर-परिवार, रिश्तेदार, सब मिलकर भारतीय समाज में एक प्रभावी वोट बैंक के रूप में चुनावी राजनीति में उभर सकते हैं। हिंदी क्षेत्र, ख़ासतौर पर उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के अलावा उत्तराखंड की राजनीति में इन प्रवासी मज़दूरों के सवाल चुनावी लिहाज से अहम हो सकते हैं। इन राज्यों से बड़ी संख्या में प्रवासी महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली और हरियाणा जाते हैं। यह जनसंख्या अपने परिवार, नाते-रिश्तेदारों के साथ मिलकर लोकतांत्रिक दबाव बनाने वाले एक बड़े समूह के रूप में उभर सकती है। 

कोरोना के दिनों में भी प्रवासी की दशा, उनकी घर वापसी, उनके दुर्दिन और उन्हें सहयोग करने की राजनीतिक रणनीतियां बताती हैं कि आने वाली चुनावी जंग में ‘प्रवासी’ एक प्रभावी सामाजिक और राजनीतिक पहचान बनकर उभरेंगे। जिसे राजनीतिक सलाहकार भी अहम मानते हैं। फ़र्श से अर्श तक की राजनीतिक उठापटक में प्रवासियों का महत्वपूर्ण योगदान होने की संभावनाओं से इनकार नही किया जा सकता है। 

♦️अब हमारी आदत में शामिल होगी ‘दूरी’ —
दुनिया के कई अर्थशास्त्री कोरोना के बाद भयावह आर्थिक मंदी और ग़रीबी की एक नई महामारी की आहट साफ़-साफ़ सुन रहे हैं। ऐसे में भारत की सियासत में संगठित और असंगठित मज़दूरों का सवाल भी अहम होने वाला है। इसमें एक फ़र्क़ आ सकता है कि नए संदर्भ में राजनीतिक दल अपनी लेबर यूनियन की बजाय सीधे ही मज़दूरों को संगठित करेंगे। 

ऐसा इसलिए होगा क्योंकि मज़दूर संगठन अब पहले की तरह प्रभावी नहीं रहे। यह साफ़ महसूस हो रहा है कि मज़दूरों का सवाल भारतीय राजनीति के कुछ मूल सवालों में से एक होकर उभर सकता है।

इसी तरह राजनीति का डॉक्टरीकरण और डॉक्टरी का राजनीतिकरण भी देखने को मिल सकता है। हममें से कई लोग ख़ुद को जातीय पहचान से थोड़ा अलग कर एक ‘जैविक देह’ के रूप में देखने लगेंगे। 

इसके कारण भारतीय समाज में इंसान और इंसान के रूप में सोशल डिस्टेंसिंग की सामाजिक आदत पैदा हो सकती है। बहुत मुमकिन है कि यह आपदा जाति और जाति के बीच छूआछूत को कम कर आदमी और आदमी के बीच सामाजिक दूरी को लंबे समय के लिए आदत में बदल दे।
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Friday, 14 August 2020

क्या आप जानते हैं शिव जी का वास कहलाने वाले कैलाश मानसरोवर को चीन के कब्जे से किसने छीना था?


आज़ादी के बाद चीन ने “कैलाश पर्वत व कैलाश मानसरोवर” और अरुणाचल प्रदेश के बड़े भूभाग पर जब कब्ज़ा कर लिया तो देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी UNO पहुंचे की चीन ने ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा कर लिया है, हमारी ज़मीन हमें वापस दिलाई जाए।
इस पर चीन ने जवाब दिया कि हमने भारत की ज़मीन पर कब्ज़ा नहीं किया है बल्कि अपना वो हिस्सा वापस लिया है जो हमसे भारत के एक शहंशाह ने 1680 में चीन से छीन कर ले गया था। यह जवाब UNO में आज भी ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में मौजूद है।

जानते हैं चीन ने किस शहंशाह का नाम लिया था ?
“औरंगज़ेब” का…


दरअसल चीन ने पहले भी इस हिस्से पर कब्ज़ा किया था, जिस पर औरंगज़ेब ने उस वक़्त चीन के चिंग राजवंश के राजा “शुंजी प्रथम” को ख़त लिख कर गुज़ारिश की थी कि कैलाश मानसरोवर हिंदुस्तान का हिस्सा है और हमारे हिन्दू भाईयों की आस्था का केन्द्र है, लिहाज़ा इसे छोड़ दें।

लेकिन जब डेढ़ महीने तक किंग “शुंजी प्रथम” की तरफ से कोई जवाब नहीं आया तो औरंगजेब ने चीन पर चढ़ाई कर दी जिसमें औरंगजेब ने साथ लिया कुमाऊँ के राजा “बाज बहादुर चंद” का और सेना लेकर कुमाऊँ के रास्ते ही मात्र डेढ़ दिन में “कैलाश मानसरोवर” लड़ कर वापस छीन लिया…
ये वही औरंगज़ेब है जिसे की कट्टर इस्लामिक बादशाह और “हिन्दूकुश” कहा जाता है, सिर्फ उसी ने हिम्मत दिखाई और चीन पर सर्जिकल स्ट्राइक कर दी थी..


इतिहास के इस हिस्से की प्रमाणिकता को चेक करना हो तो आज़ादी के वक़्त के UNO के हलफनामे देख सकते हैं जो आज भी संसद में भी सुरक्षित हैं।
 
और आप ये किताबें भी पड़ सकते हैं..
हिस्ट्री ऑफ उत्तरांचल :- ओ सी हांडा
द ट्रेजेड़ी ऑफ तिब्बत :– मन मोहन शर्मा
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मोबाइल की सवारी करके घर तक आ पहुंचा है स्कूल


कुछ दिनो पूर्व फ़ोन पर अपने एक मित्र से उसकी कहानी सुनी तो बड़ा अच्छा लगा कि हम निरंतर विकास की ओर अग्रसर हैं। हमारा भले ही कुछ ख़ास हो नही पाया परन्तु आने वाली नई पीढ़ी जरुर कुछ नया करेगी, ऐसा हर मध्यम वर्गीय परिवार सोच रहा है आज, सोचे भी क्यूँ नही, अभी सोचने पर फ़िलहाल कोई टैक्स थोड़े ही लग रहा है। चलो अब सीधे मुद्दे पर आकर उस बातचीत का कुछ अंश आपके सामने पेश करता हूँ। आपको कैसा लगा जरुर बताइयेगा अपने-अपने अनुभव!!••••••••••


वैसे आजकल गर्मी का मौसम है तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं शहरों में क्या हाल है अभी। कुछ दिन पहले मुझसे बेटी ने कहा-पापा घर में आप अंडरवियर और बनियान में इधर-उधर न घूमा करें क्यों कि मोबाइल पर अब स्कूल घर पर आ गया है। कल मोबाइल पर मिस मुझे पढ़ा रही थी तब आप अंडरवियर और बनियान में मेरे पीछे घूम रहे थे।
यह दृश्य देखकर मिस शर्मा गयी थीं और मुझसे पूछा था कि तुम्हारे घर में कैसा बदतमीज नौकर है जो अंडरवियर और बनियान में बेधड़क इधर-उधर घूमा करता है। तब मैंने मिस से कहा कि ये मेरे घर का नौकर नहीं, बल्कि मेरे पापा हैं जो घर पर हाफ पैंट, अडरवियर या बनियान में घूमा करते हैं। बेटी की बातों को सुनकर मैं सकते में आ गया और खुद में सुधार लाने की कोशिश करने लगा। बाद में सोचा कि यह सच है कि अब स्कूल मोबाइल की सवारीकरके घर तक आ पहुंचा है।
इसलिए मुझे भी उस स्कूल के कायदे कानून और उसमें  पढ़ाने वाली मिसों का ख्याल रखना चाहिए। लेकिन मुझे याद है कि एक बार गलती से बेटी मेरा मोबाइल अपने बैंग में लेकर स्कूल चली गयी थी तो इसी मिस ने मुझे बुलाकर कहा था कि आपको शर्म नहीं आती कि आप बच्ची को मोबाइल के साथ  स्कूल भेज देते हैं। तब मैंने बेटी की गलतियों का अहसास करते हुए उनसे क्षमा मांग लिया था और कहा था कि अब मेरी बेटी मोबाइल नहीं देखा करेगी।
इसके बाद मैंने बेटी को मोबाइल देना बंद कर दिया था। लेकिन जैसे ही कोरोना युग शुरू हुआ तब उसी स्कूल के प्राचार्य ने मुझे काल करके कहा कि आप बच्ची को मोबाइल दिया करें क्यों कि अब बच्चियों को मोबाइल पर ही
पढ़ाया जा रहा है। इसके बाद सोचा कि स्कूलों के भी सिद्धांत समय के साथ-साथ बदलते रहते हैं। कल तक जो स्कूल बच्चों को मोबाइल देने से मना कर रहे थे अब वे अभिभावकों को उन्हें मोबाइल देने सलाह दे रहे हैं।
यह सब देख-सुनकर मेरी पत्नी ने मुझसे कहा कि आने वाले दिनों में मोबाइल स्कूल भी खुलेंगे। तब बच्चे स्कूल नहीं जायेंगे और मोबाइल पर ही पढ़ाई करके उंची डिग्रियां हासिल करेंगे। जब लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने चरवाहा विद्यालय, पहलवान विद्यालय खोला था।
मैंने कहा तुम ठीक कहती हो। अब जबकि गूगल और मोबाइल ही दुनिया के ज्ञान गुरु हो गये हैं तो कुछ भी संभव है।अब तो मोबाइल पर विवाह भी हो रहा है। मोबाइल पर अदालते लगायी जा रही हैं। जज से लेकर वकील और मुवकिल तक मोबाइल अदालत में मौजूद रहते हैं। जबकि परिवार के टूट जाने की सुनवाई ऐसी अदलत में चल रही होती है और दूसरी और मौजूद लड़की अदालत के निर्णयों पर असहमति जताते हुए अपना मोबाइल स्वीचआफ कर लेती है तो अदालत को सुनवाई बंद करनी पड़ती है। आगे मैंने कहा सभी प्रकार की दुकानें मोबाइल पर खुल गयी हैं। यहां तक कि  विश्वविद्यालयों के द्वारा वेविनार का आयोजन किया रहा है। एक समय ऐसा भी आयेगा जब सरकार को मोबाइल विश्वविद्यालय और मोबाइल स्कूल खोलने पड़ेंगे। तब ऐसे विश्वविद्यालय के कुलपति को मोबाइल कुलपति, मोबाइल प्रोफेसर, मोबाइल स्कूल, मोबाइल प्राचार्य के नाम से जाना जायेगा। स्कूल, बस्ता, काँपी, पेन्सिल, स्कूल बैग, स्कूल ड्रेस सब बीते जमाने की बातें होंगी तब। आने वाले समय में इस पर भी शोध किए जायेंगे। 
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बालवीर तीलू रौतेली—



तीलू रौतेली (जन्म तिलोत्तमा देवी), गढ़वाल, उत्तराखण्ड की एक ऐसी वीरांगना जो केवल 15 वर्ष की उम्र में रणभूमि में कूद पड़ी थी और सात साल तक जिसने अपने दुश्मन राजाओं को कड़ी चुनौती दी थी। 15 से 20 वर्ष की आयु में सात युद्ध लड़ने वाली तीलू रौतेली संभवत विश्व की एक मात्र वीरांगना है। तीलू रौतेली उर्फ तिलोत्‍तमा देवी भारत की भारत की रानी लक्ष्‍मीबाई, चांद बीबी, झलकारी बाई, बेगम हजरत महल के समान ही देश विदेश में ख्‍याति प्राप्‍त हैं।


इसी बात को ध्‍यान में रखते हुए उत्‍तराखंड सरकार ने तीलू देवी के नाम पर एक योजना शुरू की है, जिसका नाम तीलू रौतेली पेंशन योजना है। यह योजना उन महिलाओं को समर्पित है, जो कृषि कार्य करते हुए विकलांग हो चुकी हैं। इस योजना का लाभ उत्‍तराखंड राज्‍य की बहुत सी महिलायें उठा रहीं हैं।.....

तीलू रौतेली के पिता का नाम गोरला रावत भूपसिंह था, जो गढ़वाल नरेश राज्य के प्रमुख सभासदों में से थे। गोरला रावत गढ़वाल के परमार राजपुतों की एक शाखा है जो संवत्ती 817( सन् 741) मे गुजर देश (वर्तमान गुजरात राज्य) से गढ़वाल के पौडी जिले के चांदकोट क्षेत्र के गुरार गांव(वर्तमान गुराड गांव) मे गढ़वाल के परमार शासकों की शरण मे आयी।इसी गांव के नाम से ये कालांतर मे यह परमारो की शाखा गुरला अथवा गोरला नाम से प्रवंचित हुई। रावत केवल इनकी उपाधी है। इन परमारो को गढ राज्य की पूर्वी व दक्षिण सीमा के किलो की जिम्मेदारी दी गयी। चांदकोट गढ ,गुजडूगढी आदि की किले इनके अधीनस्थ थे। तीलू के दोनो भाईयो को कत्युरी सेना के सरदार को हराकर सिर काटकर गढ़ नरेश को प्रस्तुत करने पर 42-42 गांव की जागीर दी गयी । युद्ध मे इन दोनो भाईयों(भगतु एवं पत्वा ) के 42-42 घाव आये थे। पत्वा(फतह सिंह ) ने अपना मुख्यालय गांव परसोली/पडसोली(पट्टी गुजडू ) मे स्थापित किया जहां वर्तमान मे उसके वंशज रह रहे है। भगतु(भगत सिंह )के वंशज गांव सिसई(पट्टी खाटली )मे वर्तमान मे रह रहे है।

 तीलू रौतेली ने अपने बचपन का अधिकांश समय बीरोंखाल के कांडा मल्ला, गांव में बिताया। आज भी हर वर्ष उनके नाम का कौथिग ओर बॉलीबाल मैच का आयोजन कांडा मल्ला में किया जाता है। इस प्रतियोगीता में सभ क्षेत्रवासी भाग लेते है।

तीलू रौतेली गोरला रावत भूप सिंह (गढ़वाल के इतिहास मे ये गंगू गोरला रावत नाम से जाने जाते है।) की पुत्री थी, 15 वर्ष की आयु में तीलू रौतेली की सगाई इडा गाँव (पट्टी मोंदाडस्यु) के सिपाही नेगी भुप्पा सिंह के पुत्र भवानी नेगी के साथ हुई। गढ़वाल मे सिपाही नेगी जाति सुर्यवंशी राजपूत है जो हिमाचल प्रदेश से आकर गढ़वाल मे बसे है।

इन्ही दिनों गढ़वाल में कन्त्यूरों के लगातार हमले हो रहे थे, और इन हमलों में कन्त्यूरों के खिलाफ लड़ते-लड़ते तीलू के पिता ने युद्ध भूमि प्राण न्यौछावर कर दिये। इनके प्रतिशोध में तीलू के मंगेतर और दोनों भाइयों (भगतू और पत्वा) ने भी युद्धभूमि में अप्रतिम बलिदान दिया।
कुछ ही दिनों में कांडा गाँव में कौथीग (मेला) लगा और बालिका तीलू इन सभी घटनाओं से अंजान कौथीग में जाने की जिद करने लगी तो माँ ने रोते हुये ताना मारा....

तीलू तू कैसी है, रे! तुझे अपने भाइयों की याद नहीं आती। तेरे पिता का प्रतिशोध कौन लेगा रे! जा रणभूमि में जा और अपने भाइयों की मौत का बदला ले। ले सकती है क्या? फिर खेलना कौथीग!

तीलू के बाल्य मन को ये बातें चुभ गई और उसने कौथीग जाने का ध्यान तो छोड़ ही दिया बल्कि प्रतिशोध की धुन पकड़ ली। उसने अपनी सहेलियों के साथ मिलकर एक सेना बनानी आरंभ कर दी और पुरानी बिखरी हुई सेना को एकत्र करना भी शुरू कर दिया। प्रतिशोध की ज्वाला ने तीलू को घायल सिंहनी बना दिया था, शास्त्रों से लैस सैनिकों तथा "बिंदुली" नाम की घोड़ी और अपनी दो प्रमुख सहेलियों बेल्लु और देवली को साथ लेकर युद्धभूमि के लिए प्रस्थान किया।



♦️ युद्ध भूमि में पराक्रम 
सबसे पहले तीलू रौतेली ने खैरागढ़ (वर्तमान कालागढ़ के समीप) को कन्त्यूरों से मुक्त करवाया, उसके बाद उमटागढ़ी पर धावा बोला, फिर वह अपने सैन्य दल के साथ "सल्ड महादेव" पंहुची और उसे भी शत्रु सेना के चंगुल से मुक्त कराया। चौखुटिया तक गढ़ राज्य की सीमा निर्धारित कर देने के बाद तीलू अपने सैन्य दल के साथ देघाट वापस आयी. कालिंका खाल में तीलू का शत्रु से घमासान संग्राम हुआ, सराईखेत में कन्त्यूरों को परास्त करके तीलू ने अपने पिता के बलिदान का बदला लिया; इसी जगह पर तीलू की घोड़ी "बिंदुली" भी शत्रु दल के वारों से घायल होकर तीलू का साथ छोड़ गई

शत्रु को पराजय का स्वाद चखाने के बाद जब तीलू रौतेली लौट रही थी तो जल श्रोत को देखकर उसका मन कुछ विश्राम करने को हुआ, कांडा गाँव के ठीक नीचे पूर्वी नयार नदी में पानी पीते समय उसने अपनी तलवार नीचे रख दी और जैसे ही वह पानी पीने के लिए झुकी, उधर ही छुपे हुये पराजय से अपमानित रामू रजवार नामक एक कन्त्यूरी सैनिक ने तीलू की तलवार उठाकर उस पर हमला कर दिया।

निहत्थी तीलू पर पीछे से छुपकर किया गया यह वार प्राणान्तक साबित हुआ।कहा जाता है कि तीलू ने मरने से पहले अपनी कटार के वार से उस शत्रु सैनिक को यमलोक भेज दिया।

♦️ विरासत  
उनकी याद में आज भी कांडा ग्राम व बीरोंखाल क्षेत्र के निवासी हर वर्ष कौथीग (मेला) आयोजित करते हैं और ढ़ोल-दमाऊ तथा निशाण के साथ तीलू रौतेली की प्रतिमा का पूजन किया जाता है।

तीलू रौतेली की स्मृति में गढ़वाल मंडल के कई गाँव में थड्या गीत गाये जाते हैं- 

ओ कांडा का कौथिग उर्यो
ओ तिलू कौथिग बोला
धकीं धे धे तिलू रौतेली धकीं धे धे
द्वी वीर मेरा रणशूर ह्वेन
भगतु पत्ता को बदला लेक कौथीग खेलला
धकीं धे धे तिलू रौतेली धकीं धे धे !


उत्तराखंड वीरों की ही नहीं बल्कि वीरांगनाओं की भी भूमि रही है, ऐसी ही वीरता व अदम्य साहस की प्रतीक, उत्तराखण्ड की वीरांगना, वीर बाला तीलू रौतेली जी की 357वीं जयंती पर उन्हें शत-शत नमन।
किसी ने मुझसे कहा, आपका नाम बड़ा सुंदर है। मैंने कहा, ये सच है, मैं हमेशा अपने नाम जितना सुंदर लगना चाहता हूँ। ये नाम एक निकष बन गया है। मेरे सम्मुख एक मर्यादा, मैं क्यूँ इस पर दोष लगाऊं?



फिर किसी ने कहा, आँखें तो बड़ी करुण। मैंने कहा, ये सच है, मैं ऐसी करुण आँखें लेकर मुस्करा नहीं पाता, मुझे संकोच होता है। मैं क्यूँ ये सम्मोहन तोड़ूं? ये आँखें मेरा निकष बन गईं। मेरे सम्मुख एक लक्ष्मणरेखा। 

फिर कोई कह बैठा, तुम्हारी आवाज़ में जैसे एक गूंज है, मौन है! तुम कुछ बोलते क्यों नहीं, स्वयम् को छिपाते क्यों हो? मैंने कहा, ये सच है। पर मैं किसी को अपनी आवाज़ सौंपने से सकुचाता हूँ। जैसे कुछ भी कहना एक पर्वत लांघना हो!

इतनी सुंदर भाषा- यह तो रोज़ ही सुनता हूँ। यह भी सच ही तो है, पर यह भाषा एक शीशमहल बन गई है, इस जीवन की तरह। पूरी की पूरी पार्थिव, भंगुर, नश्वर, निष्कवच। तिस पर मैं इतने अवरोध अपने पर लादे लिए चला हूँ। 

मेरा कोई और नाम होता तो? कोई और चेहरा, कोई और आवाज़? मैं कोई और भाषा लिखता तो? इन चार चीज़ों से ज़्यादा मुझे कोई जानता नहीं, और यही तो मेरी कन्दरा है, मेरा सुख!

"छलनामयी संसार है", किसी ने कहा, “छलना को तब सुंदर होना चाहिए ना", कह बैठा मैं।

अपने नाम जितना सुंदर, नेत्रों जितना करुण !!
~ राजकुमार ~