Friday, 27 October 2023

हां तुम बिलकुल —


अधिकांश सुन्दरी-सेवियों के जीवन में एक ऐसा समय आता है जब सुंदरियाँ उनके पास श्रद्धा-पूर्ण पत्र भेजने लगते हैं। कोई उनकी शारीरिक प्रशंसा करता है कोई उनके सद्विचारों पर मुग्ध हो जाता है। मुझ जैसे अदने से लेखक को भी कुछ दिनों पूर्व यह सौभाग्य प्राप्त है। ऐसे पत्रों को पढ़ कर हृदय कितना गद्गद हो जाता है इसे किसी मुझ जैसे भोले लड़के ही से पूछना चाहिए। अपने फटे कंबल पर बैठा हुआ वह कैसे गर्व और आत्मगौरव की लहरों में डूब जाता है। भूल जाता है कि रात को गीली लकड़ी से भोजन पकाने के कारण सिर में कितना दर्द हो रहा था खटमलों और मच्छरों ने रात भर कैसे नींद हराम कर दी थी। मैं भी कुछ हूँ यह अहंकार उसे एक क्षण के लिए उन्मत्त बना देता है। पिछले साल सावन के महीने में मुझे एक ऐसा ही पत्र मिला। उसमें मेरी मनगणत प्रसंग की दिल खोल कर दाद दी गयी थी।

पत्र-प्रेषक स्वयं एक अच्छे कवि हैं। मैं उनकी कविताएँ पत्रिकाओं में अक्सर देखा करता हूँ। कवि महोदय का पत्र, पत्र कम किसी उपहार से कहीं अधिक मर्मस्पर्शी था। प्यारे भैया ! कह कर मुझे सम्बोधित किया गया था मेरी रचनाओं की सूची और प्रकाशकों के नाम-ठिकाने पूछे गये थे। अंत में यह शुभ समाचार है कि मेरी पत्नी जी को आपके ऊपर बड़ी श्रद्धा है। वह बड़े प्रेम से आपकी रचनाओं को पढ़ती हैं। वही पूछ रही हैं कि आपका विवाह कहाँ हुआ है। आपकी संतानें कितनी हैं तथा उनकी कोई फोटो भी है हो तो कृपया भेज दीजिए। मेरी जन्म-भूमि और वंशावली का पता भी पूछा गया था। इस पत्र विशेषतः उसके अंतिम समाचार ने मुझे पुलकित कर दिया।


यह पहला ही अवसर था कि मुझे किसी महिला के मुख से चाहे वह प्रतिनिधि द्वारा ही क्यों न हो अपनी प्रशंसा सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गरूर का नशा छा गया। धन्य है भगवान् ! अब रमणियाँ भी मेरे कृत्य की सराहना करने लगीं ! मैंने तुरंत उत्तर लिखा। जितने कर्णप्रिय शब्द मेरी स्मृति के कोष में थे सब खर्च कर दिये। मैत्री और बंधुत्व से सारा पत्र भरा हुआ था। अपनी वंशावली का वर्णन किया। कदाचित् मेरे पूर्वजों का ऐसा कीर्ति-गान किसी भाट ने भी न किया होगा। स्पष्ट से अपनी बड़ाई करना उच्छृंखलता है मगर सांकेतिक शब्दों से आप इसी काम को बड़ी आसानी से पूरा कर सकते हैं। खैर मेरा पत्र समाप्त हो गया और तत्क्षण लेटर बॉक्स के पेट में पहुँच गया। इसके बाद से आज तक कोई पत्र न आया।

अपने विवरण के पूर्ण होने के पश्चात् मुझे अनायास ही याद आया “चांद सी महबूबा हो मेरी” गाने में हीरो अपनी हिरोइन के मोटापे से दुखी है। वह उस पर उसका मज़ाक़ भी बनाता है और डर के मारे खुद के मन को भी समझाता नजर आता है। वही अधिकतर हमारे समाज की भी समस्या आन पड़ी है। तभी तो आज प्रातः भ्रमण पर सड़क का नजारा आप देख सकते हैं। इतनी सुबह-सुबह आंखिर किसको क्या चाहिए। इसी उधेड़बुन में हम लगातार भीड़ का हिस्सा बने हुए हैं। उसने हरगिज़ नही सोचा था कि महबूबा एक ही बच्चे के बाद चांद जैसी गोल मटोल हो जायेगी। अगली लाइन में पिटने से बचने के लिए बेचारा मजबूरी में बोला "हां तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था"। यही हाल मेरे कुछ साथियों का भी है, यदि किसी के दिल पर लगे तो क्षमाप्रार्थी हूँ। वैसे मेरी नजर से तुम देखो तो फिर एक मस्त फ़साना याद आयेगा, ऐसे न देख मुझे नजर लग जायेगी, चोट जाने कहां-किधर लग जायेगी”। चल हट झूठे, बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला। 

खैर अब तो अपनी महबूबा की तुलना भी कोई चाँद से करने में इतना कतरायेगा, जैसे विक्रम वेताल ने कोई डरावनी कहानी से रूबरू कराया हो। इस पर बहादुर शाह ज़फ़र ने क्या खूब फ़रमाया है,—
तुम ने किया न याद कभी भूल कर हमें,
हम ने तुम्हारी याद में सब कुछ भुला दिया। 

व्यक्ति में इतनी ताकत हमेशा होनी चाहिए कि अपने दुख अपने संघर्षों से अकेले जूझ सके। जिस दिन ये समझ आ गया तो उस दिन लगने लगेगा बस जीवन इसी का एक पहलू है। 

“सिंह सुवन, सत्पुरुष वचन, कदली फलै इक बार,
तिरिया तेल हमीर हठ, चढ़ै न दूजी बार.“

यानीं सिंहनी एक बार में एक ही शावक को जन्म देती है सज्जन लोग बात को एक बार ही कहता है, केला एक बार ही फलता हैं। स्त्री को एक बार ही तेल उबटन लगाया जाता हैं ऐसा ही राव हम्मीर का हठ हैं यानि हम्मीर देव चौहान ने एक बार जो ठान लिया, फिर वो अपनी भी नहीं सुनते थे, इस कारण इन्हें हठीला हम्मीर भी कहा जाता हैं। 

    

Saturday, 21 October 2023

मानसिकता की सारी गड़बड़ —



मुझे लगता है हर किसी मन में कुछ पाने की दौड़ हमेशा नचाती है। अक्सर ऐसे में वह छूट जाता है जो सामने है, जो वर्तमान क्षण है। आप जो भी पाने के लिए दौड़ेंगे, वही नहीं मिलेगा। 

अहिंसक होना चाहेंगे, हो नहीं पाएँगे। शांत होना चाहेंगे, शांत नहीं हो पाएँगे। संसार से भागना चाहेंगे, भाग नहीं पाएँगे। जो भी होना होता है। वह कभी भी आपकी चाह से नहीं होता। चाह से चीजें दूर हटती जाती हैं। चाह दरअसल बाधा है। आप जो हो बस उसी के साथ राजी हो जाएँ। यही सुखी जीवन का मूल मंत्र है। तो पूरे होश के साथ आप अपनी सजगता बनाए रखें। प्रकृति स्वयं सब सिद्ध करेगी।


कभी सोचा है आपने, यह भ्रम किसने फैलाया कि स्त्री पर हाथ नहीं उठाया जाना चाहिए? तो चलिए आज कुछ इतिहास के तथ्यों के माध्यम से समझते हैं आंखिर हम किस हद तक सही हैं? हमारा पहाड़ किस दिशा की तरफ बड़ रहा है? विचार करियेगा...

हनुमान जी ने भी दो गदा खींच के मारा था लंकिनी को, भरत जी ने अपनी माँ कैकेई को भला बुरा सुनाया था, ज़रूरत पड़ने पर लक्ष्मण जी ने सूर्पनखा का नाक काट दिया, भगवान श्री कृष्ण ने भी पूतना का वध किया था!

जब रानी चेनम्मा और रानी लक्ष्मीबाई युद्ध के मैदान में गयी तो क्या स्त्री समझ कर उन पर वार नहीं किया गया होगा? युद्ध का मैदान स्त्री पुरुष का भेद क्या जाने?

कन्या है तो हाथ मत उठाओ, आखिर क्यों भाई? गलती करेगी तो मार भी पड़ेगी जैसे बेटे को पड़ती है, सब सुविधा दो लेकिन हाथ मत उठाओ?

इसी मानसिकता ने सारी गड़बड़ की है, दो थप्पड़ बचपन में लगाओ और फिर बताओ की तुम कहीं की परी नहीं हो, गलती करोगी तो कुटाई भी होगी, तब जाकर वह एक दम सही रास्ते पे चलेगी

सारा काम मेरी गुडिया, मेरी रानी, मेरी परी करने वालों ने बिगाड़ा है, लेकिन जब उनकी बेटी लव जिहाद का शिकार हो जाती है तब उनके पास छाती पीटने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता, एक घटना देखने को मिला है जिसमें अपनी बेटी को तो सुधार नहीं पाए लेकिन श्राद्ध जरूर किए थे तो आखिर ऐसा नौबत क्यों आया?

लड़का और लड़की दोनों को हमारा धर्म और कानून समानता का अधिकार देता है लेकिन अक्सर यह देखने को मिलता है गलती चाहे लड़की करे फिर भी ज्यादातर दोष लड़कों के ऊपर डाल दिया जाता है। 

आजकल अक्सर आपको बड़े शहरों में देखने को मिलेगा की बहुत सी लड़कियां नशा करती है, गलत रास्ते पर चलती है और इसका असर धीरे-धीरे छोटे-छोटे शहरों के साथ गांव में भी आने लगा है। इस पर हमारे देश की सिनेमा का बहुत बड़ा हाथ है। सास भी कभी बहूँ थी दिखाकर संयुक्त परिवारों का बंटाधार किया है। कौन और क्यूँ कोई सुध लेगा। जिसका सम्राट ही घर-परिवार त्याग आधुनिक महात्मा बन बैठा हो। 

आज फिर जुकरू से अकाउंट प्रतिबन्धित करवाने की तमन्ना है……..

Sunday, 8 October 2023

मैं....

पेड़ कितना मजबूत है
ये पेड़ नहीं आँधियाँ बतायेंगी,
तुम्हारे चित्त की हालत
तुम्हारे शब्द नहीं
तुम्हारी वृत्तियाँ बतायेंगी।
मैं ने देखी, 
मैं की माया।
मैं को खोकर, 
मैं ही पाया।
सिर्फ़ सिर झुका तो क्या झुका
अहंकार झुकाओ तो जानें……….


Sunday, 1 October 2023

फकीरी -



अपनी ज़िन्दगी भी यारों कुछ वो जींस, टी-शर्ट की यारी जैसी हो चली है। इस पर किसी ने खूब कहा कहा है, “जींस, टी-शर्ट तो वैसे भी मजदूरों के लिए बनाए गए थे जो आज बदलते वक्त के साथ फैशन में आ गए।”

अजीब है न!


जब कभी मैं प्रेम विषय पर कुछ लिखना चाहता हूं और दिमाग ब्लैंक हो जाता है तब मैं तुम्हारी तस्वीर देखता हूँ। तुम्हारी ऑंखें, तुम्हारे होंठ, तुम्हारा चेहरा। फिर उंगलियां तैरती है कीबोर्ड पर और छप जाती है कोई प्रेम कहानी। सच कहूं तो तुम पूरी किताब हो प्रेम की, मैं बस कुछ पन्नों को ही पढ़ पाया हूँ। बहुत मशरूफ़ रहता हूं, दुआ करो मुझे फुर्सत नसीब हो और पूरी किताब पढ़ सकूं तसल्ली से।

कहते हैं चमकीली धूप जब सर्द लकीर बनकर रह जाए तो दर्द होता है। अनगिनत पीड़ाओं को जब अल्फाजों की रूह न मिले तो दर्द होता है॥

ईश्वर ने हर किसी को कुछ रिश्तों के साथ धरती पर भेजा, उनके लिए शुक्रिया और शुक्रिया उन रिश्तों के लिए भी जो अपने आप ही बनते गए। कब कैसे किधर..? कुछ नहीं पता, पर बने। कुछ तूफान आने पर भी टिके रहे और कुछ हवा की जरा सी सरसराहट भी झेल न सके और उड़ गए। ऐसे रिश्तों के लिए शुभचिंतकों से नसीहतें मिलती रहती है कि मैंने इन्हें बिना-वजह ही सर पर चढ़ाया, खुशामद की। कुछेक लोगों को लगता है मेरा इनसे कोई गुप्त मतलब होता है तभी, अब मतलब क्या है वो तो मेरा दिल या उनका दिल ही जानता है।

वैसे जब पीड़ाओं को अल्फाज़ न मिले तो, मैं बस वही अल्फाज़ बनने की कोशिश करता हूं, पर वो शब्द कब पन्ने - पन्ने बढ़ते चले जाते हैं पता नहीं चलता। फिर रुकूं तो उन्हीं लोगों को तकलीफ होती है। नतीजा, वहीं रिश्ते पलायन करने लगते हैं और दोष अल्फाजों को देने लगते है। खैर अब मैंने फकीरी अपना ली है। अपनी चारपाई खुले आकाश के नीचे बिछाई है, न दीवारों का डर और न दरवाजे का। रही बात अल्फाज़ बनने की तो जन्मजात गुण है जो जाने नहीं वाला। बाकी जिन्हें ठहरना है वो ठहरें, जिन्हें जाना है वो शौक से जाएं।

वैसे अब उम्र धीरे-धीरे फिसल रही है। पता भी नहीं कितनी बाकी रही, रोज थोड़े पन्ने पढ़ता हूँ दुआ करो साँसे पूरी होने से पहले आखिरी पन्ना पलटकर बन्द कर दूं किताब।

मुझे मजनू नहीं बनना, न रांझा, न रोमियों। इनके जैसा कुछ नही चाहिए। मुझे इमरोज के फीमेल वर्जन की तलाश है। हो सके तो दुआ करना यहीं नसीब हो। जीवन की संध्या में तुम्हारे साथ रहने का सौभाग्य या कोई ऐसा मकान जो पटा पड़ा हो तुम्हारी तस्वीरों से। दीवारों, छतों, सीढ़ियों हर जगह बस तुम ही तुम। हो सके तो दुआ करना। सुना है जिसकी ऑंखें मासूम होती है ऊपर वाला भी उनकी सुनता है ...

कहाँ से लाऊँ रोशनी, खुशी व उम्मीद की बातें ? जो जीवन में ना के बराबर है। इन काले यथार्थ के अतल गह्वर में एक सर्जक के नाते मैं अपनी ओर से छींट भर रंग, चुटकी भर उजाला घोल सकता हूँ। इससे ज्यादा क्या ? ख़ुशी, उम्मीद, सपने शून्य में पैदा नहीं हो सकते। इन्हें एक ठोस आधार चाहिए होता है। 

मेरे हाथ में क़लम है, लिखने को कुछ भी लिख दूँ, पल में हवाई महल खड़ा कर दूँ, दुष्टों का नाश कर दूँ, लाटरी लगवा दूँ, मगर जीवन की समस्याओं का ऐसा सरलीकृत हल देना सही होगा क्या ?