प्रणाम! कई दिनों की व्यस्तता के बाद आज फिर यहाँ लौटा हूँ तो चलिए आज आपको एक कहानी सुनाता हूँ।
एक बार की बात है, एक साधू किसी नदी के पनघट पर गया और पानी पीकर वहीं पत्थर पर सिर टिकाए सो गया। पनघट पर पनिहारिन आती-जाती रहीं और कुछ न कुछ कहती-सुनती रहीं। तभी तीन-चार पनिहारिनें पानी के लिए एक साथ आ गईं तो उनमें गपशप भी शुरू हो गईं।
एक पनिहारिन ने कहा:
“ये देखो! साधु हो गया, फिर भी तकिए का मोह नहीं गया। पत्थर का ही सही, लेकिन रखा तो है। भोग-विलास से इतना मोह!”
पनिहारिन की बात साधु ने सुन ली। उसने तुरंत पत्थर फेंक दिया।
तभी दूसरी बोली: "साधु तो हो गया, लेकिन खीज नहीं गई। अभी रोष नहीं गया, मन पर नियंत्रण नहीं है। यूँ क्रोध में तकिया फेंक दिया।”
तब साधु सोचने लगा, अब वह क्या करे?
तभी तीसरी पनिहारिन बोली :
"बाबा! यह तो पनघट है। यहाँ तो हमारी जैसी पनिहारिनें आती ही रहेंगी, कुछ न कुछ बोलती ही रहेंगी, उनके कहने पर आखिर आप बार-बार यूँ ही जो है उसमें परिवर्तन करोगे तो साधना कब करोगे?”
पास ही खड़ी एक चौथी पनिहारिन ने भी कुछ कहने के क्रम में कमाल की बात कह दी :
“महात्मा, क्षमा करना, लेकिन हमको लगता है, आपने सब कुछ तो छोड़ा लेकिन अपना चित्त नहीं छोड़ा है, अभी तक मन से आप वही का वही बने हुए हैं। जो सन्यास से पहले थें।
दुनिया आपको पाखण्डी कहे तो कहे, आप जैसे भी हो, बस हरिनाम लेते रहो, अपनी धुन में अपनी साधना में रहो।”
सच ही तो है, दुनिया का तो काम ही है कहना, कुछ तो लोग कहेंगे।
आप ऊपर देखकर चलेंगें तो कहेंगे- “अभिमानी हो गए।”
नीचे देखकर चलेंगें तो कहेंगे- “किसी को कुछ समझता ही नहीं, यहाँ तक कि किसी की तरफ देखता भी नहीं।”
आँखे बंद कर लेंगे तो कहेंगे कि- “देखो, ध्यान का नाटक हो रहा है।”
चारो ओर देखना चाहेंगे तो कहेंगे कि- “नज़र का ठिकाना नहीं। भटकती आत्मा की तरह निगाह भटकती ही रहती है।”
गर दुनिया से परेशान होकर आपने आँखें फोड़ लीं तो फिर यही दुनिया आपको कहती मिलेगी कि- “किया हुआ भोगना ही पड़ता है। ये पाप का दंड है।”
हो सकता है, यह कहानी थोड़े बहुत बदलाव के साथ आपने पहले भी पढ़ी या सुनी होगी, न भी सुना हो तो मर्म समझिए, हर दौर में लगभग ऐसा ही रहा समाज, कहने का संक्षेप में मतलब यही है कि....
कहीं न कहीं अतिरंजना में यह भी कहा जा सकता है कि ईश्वर को राजी करना आसान है, लेकिन संसार को, यहाँ के सभी लोगों को राजी करना मुश्किल है, कुछ आड़े-टेढ़े, रूठे, खुन्नस खाए रहेंगे ही आपसे, जो आपको आगे बढ़ता हुआ नहीं बल्कि अक्सर पीछे धकेलने में लगे रहेंगे।
मतलब यही कि दुनिया क्या कहेगी, अगर उस पर ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान देंगे तो आप न ध्यान लगा पाएँगे और न खुद का ध्यान रख पाएँगे।
अर्थात जो पूरे जतन से कर रहे हैं उस पर भी संदेह हो जाएगा और भी बहुत कुछ बाकी आप खुद ही समझ सकते हैं।
आनंदमस्तु!