Thursday, 27 May 2021

क्या रक्तबीज की तरह शिव के कहने पर काली आयेंगी कोरोना का संहार करने के लिए फिर धरा पर!


वर्तमान हालात देखकर यह कहना बिलकुल भी गलत नही होगा कि कोरोना महामारी रक्तबीज सा चरित्र लेकर आया है। रक्तबीज की तरह भयानक असुर ही है यह। जैसा हम सभी को ज्ञात है कि रक्तबीज बड़ा ही भयानक असुर था।उसे वरदान था कि उसके रक्त के एक बूंद गिरने से एक और रक्तबीज उत्पन्न हो जायेगा। इसतरह युद्ध में रक्त गिरने से हर बूंद से हजारों राक्षस पैदा हो जाता था। चहुं ओर हाहाकार मचने लगा जिससे देवता घबरा गये। रक्तबीज पूर्व जन्म में असुर सम्राट रम्भ था।जिसे इन्द्र ने तपस्या करते समय मार डाला था। इन्द्र को किसी के तपस्या से जब यह डर होने लगता था कि कहीं उसकी सत्ता कमजोर न हो जाए तो वह उस तपस्वी का तप भंग करने का कोई न कोई उपक्रम कर ही डालता था। रक्तबीज ने घोर तपस्या के बल पर ब्रह्माजी से वर ले लिया था कि उसके एक बूंद रक्त धरती पर गिरने से एक और रक्तबीज उत्पन्न हो जायेगा। असंख्य रक्तबीज के होने से सम्पूर्ण धरा पर रक्तबीज ही दिखने लगा।त्राहिमाम मच गया।शिवजी के कहने से काली जी ने उसका संहार किया और उसका रक्त भूमि पर न गिरे इसलिए उसका रक्तपान किया।


आज कोरोना भी रक्तबीज की तरह आया है।एक से असंख्य संक्रमित हो रहे हैं।आज यह भीषण आपदा महामारी का रूप ले मानव का संहार कर रही है। रक्तबीज की तरह कोरोनाबीज भी  चाइना के साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के कारण उत्पन्न असुर है। उसकी काली करतूत का नतीजा है यह कोरोना, इसे फैलाकर स्वयं चैन की बंशी बजा रहा। विश्व विजय कर शासन करने कि ललक का परिणाम है यह कोरोना। “समरथ को कछु दोष न गोसाईं।” कोरोना महामारी फैलाकर आज वह स्वयं मौज कर रहा है। हमारे देश के दिग्गज, छद्मभेषी ट्रंप के आगमन की तैयारी में पैर पसार रहे थे,कोरोना पर ध्यान ही नहीं दिया।असंख्य संक्रमित हुए, हजारों काल कवलित हो गये। ‘लौक डाउन’ हुआ देश में। उसमें भी कितने काल के ग्रास हो गये।कितने भूख से,कितने यात्रा करने में तो कितने अन्य कारणों से संक्रमित हो गये। फिर भी स्थिति काबू में हो गयी थी। बिहार में चुनावी बिगुल बज गयी। चुनाव करना आवश्यक! मैं खाऊँ, मैं ही खाऊँ वाली बात!जनता की जान पुनः सांसत में। बंगाल,असम, तमिलनाडु आदि राज्यों में चुनाव! चुनाव होना तो लाजमी था ही। राजनीति नहीं हो तो देश कैसे विकास करेगा!

इन्द्र को सत्ता चाहिये, इन्द्रासन संस्थापित करना परमावश्यक।आज चुनाव का प्रसाद बंट रहा है कोरोना के रूप में।जनता ने भी बढ़चढ कर हिस्सा लिया तो अब भुगते! इतना ही नहीं ऐसी विकट परिस्थिति में हरिद्वार में कुम्भ आवश्यक था। “अमृत कलश “जो निकलना था।पीकर राजनेताओं को अमरत्व जो पाना था। युगों तक सत्ता की बागडोर जो संभालनी थी। तथाकथित धर्म के ठेकेदार साधू महात्मा के कारण कुम्भ करने का दबाव, साथ में व्यापारी लोगों की धनलोलुपता के कारण कुम्भ का पदार्पण।आज हरिद्वार महामारी से पट गया है। हाहाकार मचा हुआ है।असमय मृत्यु को वरण कर रहे हैं लोग। हरिद्वार मौत की नगरी में तब्दील हो रही है। मुँह छुपा कर मठाधीश लोग बैठे हैं। व्यापारी मौत पर तिजारत कर रहे हैं। लोगों में हाहाकार है,रोगी के लिए, न बेड है न अक्सीजन।जांच,वेंटीलेटर कुछ भी नहीं है।नाकाम हो रही है सरकार। वैक्सीन नहीं मिल रहा है। 

आखिर!हो भी कैसे!हम भारतीय हैं।हमारे यहाँ तो देने की प्रथा है।एक से बढ़कर एक ऋषि हुए जो अपना सब कुछ दान कर दिये दधीचि ने अस्थि तक दान कर दिये,जनक अपने जामाता को सिर, कर्ण कवच कुंडल आदि अनेकों दानवीर से इतिहास भरा पड़ा है इसमें अगर वैक्सीन दान दे दिया गया तो कौन बड़ी बात हुई! देश अपना परम्परा का निर्वाह कर रहा है। अपने तो अपने होते ही हैं।परायों को अपना बनाना चाहिए।पड़ोसी ही काम आते हैं या आयेंगे।कभी कभार अपने पर आक्रमण ही तो करते हैं वे। हमारे सिपाही मजबूत हैं।कुछ इसी बहाने गोलोक धाम ही तो जाते हैं!उनके परिजन को लाखों रूपये तो सरकार देती ही है।वैक्सीन देना सरकार की बहुत बड़ी उपलब्धि है।तारीफे काबिल!पड़ोसी की सहायता करनी चाहिये थी!अपनों को क्या आज न तो कल मिलेगा ही। जो जीवित रहेंगे उन्हें आज न कल मिलेगी ही। परायों के लिए कुछ बलि ही चढ़ गये तो क्या हुआ? वसुधैव कुटुम्बकम्! जनसंख्या वृद्धि भी तो बहुत है। कुछ आंकड़े कम हो गये तो क्या हुआ। इन्द्र राज्य तो स्थापित हो रहा है। अमरत्व तो हो रहा है। इतिहास में नाम अंकित तो हो रहा है। रक्तबीज की तरह शिव के कहने पर काली आयेंगी कोरोना का संहार करने के लिए धरा पर।

तब तक मजा कीजिये! नहीं मजा करना है? तो मौन रहिये। अधिक चूं चपड़ करेंगे तो इन्द्र के चमचे गाली गलौज करेंगे। अपनी बेइज्जति नहीं करवानी हो तो मुख पर अंगुली रख कर मौन रहना ही श्रेयस्कर है!

🤬🙏🏻

मैं जानता हूं !

मैं जानता हूं कि मेरी इस पोस्ट को पढ़ने-समझने के बाद भी कोई एक भी बेचैन होकर सरकार से सवाल नहीं पूछेगा।

लाइक, कमेंट और शेयर- इन तीन आदतों ने एक नागरिक के 11 संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह घर बैठे बहुत आसान कर दिया है। 

ये बाजार का दिया एक और कम्फर्ट जोन है, जो सरकार की उंगली पर नाचता है। जब तक यह मौजूदा स्वरूप में है, तब तक तो सच जानकर सरकार से जवाबदेही मांगिये हुज़ूर।

26 मई को मोदी सरकार दूसरे कार्यकाल के 2 साल पूरे कर लेगी। पहले कार्यकाल में सरकार ने देश की इकॉनमी को तबाह कर दिया, लेकिन कुछेक को छोड़कर बाकी जनता खामोशी से देखती, झेलती रही। 


इस पारी में सरकार इस देश की तमाम बौद्धिकता, इतिहास, देश की अमूल्य ऐतिहासिक धरोहरों को खत्म करने जा रही है। उम्मीद है, अगले 3 साल में यह काम पूरा हो जाएगा।

मेरे विचार में यह हो ही जाना चाहिए। भारत इसी मूर्खता का हकदार है। 

सिर्फ़ नई पीढ़ी ही नहीं, पुरानी पीढ़ी के कई दिग्गज सोशल मीडिया पर व्हाट्सएप ठेलकर वक़्त ग़ुज़ार रहे हैं। बाकी लोग अपना चेहरा चमकाकर खुश हैं। 

लेकिन उनकी मूर्खता और सरकार से सीधे सवाल न पूछने की सनातनी प्रवृत्ति ने आरएसएस और बीजेपी सरकार को दीमक की तरह भारत की बौद्धिक संपदा और इतिहास को खत्म करने या बदलने के काम में लगा दिया है। 

दिल्ली में सबकी आंखों के सामने इंडिया गेट के पास पुराने भारत का कब्रिस्तान बन रहा है। 

इसे बनाने में जिस शानदार ऐतिहासिक भवनों को गिराया जाएगा, उनमें जनपथ रोड पर शास्त्री भवन के पास का राष्ट्रीय संग्रहालय भी शामिल है। 

नेशनल अर्काइव में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े ऐतिहासिक दस्तावेज़, मुगल व ब्रिटिश काल के दस्तावेज़, 45 लाख फाइलें, 25 हजार दुर्लभ पांडुलिपियाँ, एक लाख से ज्यादा नक्शे व लाखों निजी पत्र और 2,80,000 दूसरे दस्तावेज़ भी हैं।

मोदी सरकार ने सिर्फ यह कहा है कि इसके म्यूजियम को बरकरार रखा जाएगा। बाकी दस्तावेजों का क्या होगा, कोई नहीं जानता। 

भारत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य भारत माता की मूक-बधिर, ग़ुलाम बहुसंख्यक संतानें हैं, जिन्हें झूठ और अपनी धार्मिक श्रेष्ठता पर ग़ुरूर है। 

ये सब-कुछ जानते, समझते हुए भी देश को चाट रहे दीमक का इलाज़ नहीं करतीं, क्योंकि उन्हें दीमक के बारे में भ्रम है कि वह उनके धर्म की रक्षा कर रहा है। 

वे बड़े से बड़ा झूठ और दुष्प्रचार इसीलिए बरदाश्त कर लेते हैं। 

सेंट्रल विस्टा पुराने भारत का मकबरा होगा। उसमें संघी, नफरती साहित्य, देश के इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश किए गए झूठे तथ्य इफ़रात में मिलेंगे। 

वही बच्चों को भी पढ़ाये जाएंगे और संसद की बहस का भी हिस्सा होंगे और व्हाट्सएप पर भी ठेले जाएंगे। बाजार में नई किताबें भी उसी पर केंद्रित होंगी। 

तब ज़रूर आपको अपनी खोखली धार्मिक और नस्ली श्रेष्ठता पर घमंड होगा। फिर भी आप नहीं समझ पाएंगे कि आप गाय और गोबर के युग में पहुंच चुके हैं। 

तब आप गोबर और गौमूत्र पीकर पूरी तरह से सनातनी हो चुके होंगे। दुनियाभर की बौद्धिक जमात आप पर जानवरों की तरह हुकूमत करेंगी। और आप ग़ुलामों की तरह पीठ पर डंडे खाकर कोल्हू के बैल बने होंगे।

क्योंकि आप सब इसी लायक हैं। 🙏🙏

भारत को किसी से बेहतर या दुनिया का ‘गुरु’ बनाना नहीं बल्कि हर देश के बराबर बनाना चाहते थे नेहरू।



वर्तमान समय मे जिस प्रकार से सोशल मीडिया के माध्यम से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के चरित्र-हनन का विषाक्त अभियान चलाया जा रहा है। उन्हें ‘अभारतीय’ साबित किया जा रहा है। औपचारिक और अनौपचारिक मीडिया को इसके लिए औजार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन नेहरू ऐसी शख्सियत थे जिन्हें न केवल भारतीय सभ्यता, संस्कृति की अद्भुत समझ थी बल्कि उन्होंने इसे ही आधुनिक भारत की बुनियाद बनाया और भारत का वैश्विक आचार-विचार कैसा हो, यह भी उन्हीं भारतीय मूल्यों के अनुसार तय किया। भारत के निर्माण में नेहरू के योगदान की अगर हम बात करे तो वह किसी से छुपी नहीं है। इसके लिए हमे नेहरू की अपनी लिखी किताबों से ही शुरू करना चाहिए। ‘हिंदू’ संस्कृति सहित भारतीय संस्कृति और इतिहास के बारे में बताने वाली नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ से बेहतर कोई किताब नहीं। इससे नेहरू की सोच का न्दजा लगाया जा सकता है। यह किताब उन्होंने तब लिखी जब वह अहमदनगर फोर्ट जेल में थे। नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी में इसकी पांडुलिपि रखी है, इसे जाकर देखना चाहिए। उनकी आत्मकथा पढ़िए जिसमें वह गांधीजी से लगातार बहस करते दिखते हैं। इससे पता चलता है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के केंद्र में रहे लोग किस तरह असहमतियों पर बहस, बात-विचार करते हुए सहमति बनाते थे। इसके साथ ही ‘ग्लिम्प्सेज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ पढ़ें, ये तीनों ही क्लासिक किताबें हैं।
जवाहरलाल नेहरू को सबसे पहले तो एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में हम सभी को देखना चाहिए। भारत को आजादी दिलाने मे उनका भी एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है, साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि प्रधानमंत्री बनने से पहले वह तीस साल तक लोगों को एकजुट करने में लगे रहे। उन तीस सालों में से उनके नौ साल जेल में बीते। वह गांधी जी के बाद सरदार पटेल, मौलाना आजाद, राजेंद्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी जैसे बड़े स्वतंत्रता सेनानियों में शुमार थे। अगर हम इतिहास में थोड़ा पीछे जाएं तो दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे इतने स्वतंत्रता सेनानियों के नाम आएंगे जिनका जिक्र करना भी मुश्किल होगा। लेकिन यह बात याद रखनी होगी कि इन नामों में नेहरू भी एक थे। दूसरे, हमें उन्हें स्वतंत्र भारतीय गणराज्य के संस्थापक और आधुनिक भारत के रचनाकार के तौर पर याद रखना चाहिए। आजादी के चंद माह बाद ही गांधीजी नहीं रहे और फिर कुछ बरसों के भीतर सरदार पटेल का भी निधन हो गया और तब नए भारत के निर्माण में नेहरू की भूमिका और उनकी जिम्मेदारी कहीं अधिक हो गई। निश्चित रूप से उनका साथ एक योग्य मंत्रिमंडल ने दिया जिसमें हर क्षेत्र के प्रतिभाशाली लोग थे। इनमें से कुछ स्वतंत्रता सेनानी थे, तो सीडी देशमुख और जॉन मथाई जैसे अपने फन के माहिर बुद्धिजीवी भी।


’नेहरू भारत को किसी से बेहतर या दुनिया का ‘गुरु’ बनाना नहीं बल्कि हर देश के बराबर बनाना चाहते थे। नेहरू का विश्वास दूसरों से बेहतर या बड़ा बनने में नहीं था। हर देश की अपनी विशेष सभ्यता और संस्कृति थी, कुछ तो भारत जितनी ही प्राचीन थी।“
भारत का व्यवहार नैतिक सिद्धांत आधारित होता था, जिसे नेहरू ने गांधी से लिया था। दूसरा, शांति और अहिंसा में विश्वास। जब भारत ने आजादी पाई, दुनिया दूसरे विश्व युद्ध से उबर रहा था। अकेले सोवियत संघ में 2 करोड़ लोग मारे जा चुके थे। यूरोप तहस-नहस हो चुका था। दुनिया दो ध्रुवों में बंट चुकी थी। नेहरू का मानना था कि भारत को इनमें से किसी का हिस्सा नहीं बनना चाहिए बल्कि संघर्ष को खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए और हाल में औपनिवेशिक राज से आजाद हुए देशों की अगुवाई करनी चाहिए। इसी के तहत गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव पड़ी। संक्षेप में कहें तो भारत को तब ऐसे देश के तौर पर देखा जाता था जो वैश्विक मामलों पर नैतिक आधार पर फैसले लेता था। लेकिन वह स्थिति अब नहीं रही।
कश्मीर हो या चीन, बेशक उस पर कोई फैसला लेना कितना भी मुश्किल रहा हो, उनके लिए आलोचना करना एक बात है, लेकिन सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे सरासर झूठ के बारे में आप क्या कहेंगे? यह सिद्ध करने के लिए कि वह व्यभिचारी थे, उन लोगों ने इतिहास के अलग-अलग समय की नेहरू की उनकी भतीजी, बहन के साथ तस्वीरों को इस्तेमाल किया, यह भयावह है। नेहरू को एक पश्चिमी, व्यभिचारी, ‘भारतीयता’ इत्यादि से बेपरवाह व्यक्ति के तौर पर पेश करने के शातिराना एजेंडे के तहत इस तरह का झूठ फैलाया गया। लेकिन वैदिक काल, वेद और उपनिषद समेत भारतीय संस्कृति और इतिहास के बारे में उनका ज्ञान कितना गहरा था, यह जानने के लिए उनकी ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ को पढ़ लेना ही काफी होगा। इतिहासकारों ने भी दावे के साथ कहा है कि आधुनिक कालखंड में कोई और नेता उनके ज्ञान की बराबरी नहीं कर सकता।
नेहरू का मानना था कि आर्थिक आजादी पाने के लिए सरकार को भारी उद्योग में निवेश करना होगा ताकि मशीनरी के लिए हमें बड़े देशों पर निर्भर नहीं रहना पड़े। उनका यह भी मानना था कि महत्वपूर्ण क्षेत्र सरकार के पास ही रहें क्योंकि निजी क्षेत्र के पास उतना खर्च करने का पैसा नहीं था। परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष से लेकर मेडिकल रिसर्च पर ही उन्होंने जोर नहीं दिया बल्कि फिल्म, कला, संस्कृति जैसे क्षेत्रों को भी अहमियत दी जिसकी वजह से साहित्य अकादमी, एनएसडी, एफटीआईआई, आईआईटी, आईआईएम जैसे संस्थान खुले। इन सबने एक ऐसे भारत की आधारशिला रखी जो न केवल एक औद्योगिक देश था बल्कि एक सॉफ्ट पावर भी था। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उन्होंने भारत की बुनियाद रखी बल्कि यह है कि उन्होंने यह काम कैसे किया। वह लोकतांत्रिक तरीके के प्रति प्रतिबद्ध थे और वह इस बात के पक्षधर थे कि बेशक रफ्तार कम हो लेकिन कोई भी पीछे नहीं छूट जाए। वह अपनी पार्टी और मंत्रियों ही नहीं बल्कि विपक्षी नेताओं के साथ भी आम सहमति बनाते थे। आज की तरह नहीं कि जो मन चाहा किया क्योंकि आपके पास 300 से ज्यादा सांसद हैं।
इस साल 2021 में भारत अपना 75वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाएगा तब आजाद भारत के आजाद नागरिक होने के नाते आपको क्या लगता है, देश को उन्हे कैसे याद करना चाहिए?



राजकुमार सिंह

आपदा में अवसर की नई इबादत लिख रहा भारत, यहाँ जनसेवा की आड़ में राजनीति चमकाने की कोशिश..


हमने अपने मन में हर चीज़ की एक छवि बना ली है। हम छवियों का एक समूह हैं और जीवनपर्यन्त उन छवियों को संतुष्ट करने में लगे रहते हैं, हमने कभी ख़ुद को संतुष्ट नहीं किया अपने भूतकाल को सन्तुष्ट किया है। छवियाँ एक मृत चीज़ हैं, जो कि भूत है, जिसे हम अपने यथार्थ का बलिदान देकर ज़िंदा रखते हैं। हमारे लिए इस पल का महत्त्व इस पल के निकल जाने के बाद ही है, इसी को स्मृति कहते हैं। हम हर चीज़ को अपनी स्मृति में रख लेना चाहते हैं (जिसका एक उदाहरण फ़ोटो खींचना भी हो सकता है) क्योंकि अंदर हम अनजाने में ही कहीं ये जानते हैं कि हम इस पल में उपस्थित नहीं हैं और हमें अपने ही भविष्य से ये उम्मीद भी है कि वो हमारे यथार्थ से ही हमंय मिलवाएगा (बाद में हम उसमें विज़िट करेंगे)। जब उस पल का उस पल में ही कोई महत्व नहीं तो बाद में क्या होगा लेकिन हमारे लिए जो गुज़र गया उसका ही महत्व होता है। हमारे लिए जीवन का मतलब सिर्फ़ भूतकाल है जो भविष्य जैसा बस दिखाई पड़ता है, एक ऐसा भूतकाल जिसकी नियति में कभी वर्तमान होना था ही नहीं, जो कभी घटित ही नहीं हुआ। जब हमारा वर्तमान घटित नहीं हुआ, हमारा भूतकाल घटित नहीं हुआ, तो फिर हम कहाँ से घटित हो गए?
इसी प्रकार से जीवन के रहते हम कभी उसमें नहीं होते, जब वो गुज़र जाता है तो हम उसकी स्मृति में होते हैं और इसीलिए बनाते हैं परिवार ताकि वो स्मृतियाँ चलती रहें और हमारा ये भ्रम क़याम रहे कि स्मृतियों के अस्तित्व से हमारा अस्तित्व है, स्मृतियाँ हैं तो हम हैं। ख़ुद को (शरीर को) अमरता देने की एक झूठी दिलासा, जबकि यदि हम ख़ुद को जान गए होते तो अमर हो गए होते।


वर्तमान समय मे हम देख रहे है कि राजनीति में लगातार आ रही गिरावट ने इसके ढांचे को छिन्न-भिन्न करके रख दिया है त्याग और समाज सेवा के लिए जाने जाने वाले इस क्षेत्र में आज ना तो कोई जननायक ही रह गया है और ना ही उसके अंदर समाज के लिए त्याग समर्पण की ही भावना रह गई है आज जो लोग इस क्षेत्र में आ भी ही रहे हैं तो उनका मकसद समाज सेवा से अधिक रातो रात शोहरत बटोरना व राजनीत को हथियार बनाकर  मुनाफा कमाना भर रह गया है। तभी तो कोरोना के इस महामारी में यह तंग दिल नेता जनता के साथ खड़े होने के बजाय अपने द्वारा की गई जनसेवा को सोशल मीडिया पर कैश करते नजर आ रहे हैं। मौजूदा संकट काल में भी इन्हें जनता का दुख दर्द दिखाई नहीं दे रहा है। इन दिनों  वे  जनसेवा के नाम पर जो थोड़ा बहुत  दिखावा कर रहे हैं  उसके पीछे भी उनका  वोटों का गणित  साफ दिखाई दे रहा है उन्हें चिंता जनता के  दुख दर्द कि नहीं  बल्कि अगले साल  2022 में  होने वाले  विधानसभा चुनाव की अधिक चिंता है उसी का नतीजा है कि वह ना चाहते हुए भी इन दिनों  सेवा के बहाने जनता के बीच  दिखाई देने को मजबूर है ।इन दिनों सोशल मीडिया पर विधायक निधि से जन उपयोगी कार्य के लिए दिए जा रहे खर्चे का ब्यौरा तेजी से वायरल हो रहे है।  लगभग अधिकांश नेतागण या कार्यकर्ता इस तरह की पोस्ट सोशल मीडिया पर डालकर अपने कार्यकर्ताओ की वाहवाही बटोर रहे है।  वैसे विधायक निधि का पैसा आमजन की समस्याओं को दूर करने के लिए विधायको को अपने क्षेत्र के विकास कार्यो के लिए आवंटित किया जाता रहा है पर अफसोस आज तक कभी किसी नेता ने सम्भवतः इस धन का प्रयोग स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में नहीं किया होगा। आज कोरोना संकटकाल के दौरान इस धन का व्यय नेताजी द्वारा कोरोना संकटकाल से निपटने के लिए किया जा रहा है।  सायद इस धन का प्रयोग आज से पहले भी स्वास्थ्य सेवाओं में व्यय किया होता तो सायद आज हालात कुछ और होते।
भाजपा हो, काग्रेस हो या अन्य कोई हर दल के विधायक, विधायक निधि का ब्यौरा सोशल मीडिया पर इस तरह वायरल कर रहे है जैसे मानो उनकी जेब से पैसा खर्च हो रहा हो। किसी भी पार्टी के बड़े नेता या कार्यकर्ता का ना कोई निजी अस्पताल कोरोना संकटकाल में जनता की सेवा के काम आया और ना ही इनके बडे बडे निजी होटल आम जनता के काम आए।  सायद अगर ये नेता जी अपने निजी होटल या निजी स्कूल ही कोविड सेन्टर में तब्दील कर देते तो जो अस्थाई कोविड सेन्टर बनाए गये है उनकी लागत तो कुछ हद तक तो बच ही जाती, साथ ही कोविड के मरीजो को बेहतर सुविधा भी मुहैय्या हो पाती। असल में कोविड संकटकाल में किसी भी जनप्रतिनिधी ने अब तक ऐसी कोई पहल नहीं की जिससे कि उनके निजी संसाधनों का उपयोग जनहित में हो रहा हो। वही कोरोना सकटकाल में सरकार उन सरकारी संसाधनों का भी सदप्रयोग नहीं कर पाई जो सरकारी भवन कई वर्षो से धूल फाक रहे है और ना ही विपक्षी दलो ने इस पर सरकार को कोई सुझाव दिया।
आज सोशल मीडिया के माध्यम से हर कोई जनता के बीच बना रहना चाहता है। ऐसा जताना चाहता है कि एकमात्र वही आपकी मदत करना चाहता है या यूं कहें कर सकता है। “नर सेवा नारायण सेवा से बेहतर है” ऐसा हम इतिहास मे पढ़ते आए हैं परन्तु आज का मद्दतगार समाज आपकी मदद से पहले फोटो को ज्यादा प्राथमिकता दे रहा है। क्यूकी उसे व उसके समर्थको को सोशल मीडिया मे प्रसारित जो करना है। संघर्ष में वृद्धि और आपदाओं से निपटने की नाकाबलियत सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं, इसलिए आपदाओं से निपटने की बेहतर तैयारी, सही नीतियां इनसे निपटने में मदद कर सकती हैं। इसके साथ ही समाज के सभी वर्गों का विकास भी बहुत जरुरी हैं, क्योंकि आर्थिक, सामजिक और राजनैतिक रूप से पिछड़ा वर्ग ही किसी भी तरह की आपदाओं और संघर्षों का सबसे ज्यादा शिकार बनता है, ऐसे में उनके सर्वांगीण विकास इन संघर्षों में लगाम लगा सकता है।    




राजकुमार सिंह
स्वतंत्र पत्रकार, उत्तराखंड
rajkumarsinghbgr@gmail.com
9719833873

इंटरमीडियरी स्टेटस यानी बिचौलियों का दर्जा तो काम से क्यूँ खफा !


♦️ क्या सोशल मीडिया कंपनियां भारत सरकार के आगे अपनी 'चौधराहट' सरेंडर करेंगी?

केंद्र सरकार की गाइडलाइंस का पालन करने के लिए ये कंपनियां अमेरिका स्थित हेडक्वाटर्स की प्रतिक्रिया का इंतजार करती हैं, तो किसी कंटेंट को हटाने के आदेश पर भी ये कंपनियां अपने मुख्यालय की प्रतिक्रिया का इंतजार करती हैं। केंद्र सरकार का मानना है कि इस स्थिति में देश के लिए खतरा पैदा हो सकता है। इन सोशल मीडिया कंपनियों को भारत में ही ऑफिस बनाकर काम करना होगा और सरकार या कोर्ट के आदेश पर कंटेंट को तुरंत हटाना होगा। समस्या की मुख्य जड़ 'सेंशरशिप' ही है। दरअसल, केंद्र सरकार की ओर से सोशल मीडिया कंपनियों को इंटरमीडियरी स्टेटस यानी बिचौलियों का दर्जा मिला हुआ है। जिसकी वजह से किसी यूजर के आपत्तिजनक कंटेंट पर इन कंपनियों को कोर्ट में पार्टी नहीं बनाया जा सकता है। 


'फ्री स्पीच' का हवाला देते हुए ट्विटर लगातार मनमानी करता रहा है। माइक्रोब्‍लॉगिंग साइट ट्विटर ने हाल ही में भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा के एक ट्वीट पर 'मैनिपुलेटेड मीडिया' (Manipulated Media) का लेबल भी लगा दिया है। वहीं, किसान आंदोलन को लेकर फैलाई गए भ्रामक कंटेंट, CAA जैसे मुद्दों पर ट्विटर की ओर से कोई कार्रवाई नहीं की गई थी। ओटीटी प्लेटफॉर्म भी ऐसे कई कंटेंट प्रसारित करते हैं, जिससे समस्याएं पैदा हो जाती हैं। इन पर कंटेंट को लेकर कोई सेंसर बोर्ड नहीं है, जिसकी वजह से हिंसा से भरा या अश्लील कंटेंट भी सबके लिए आसानी से उपलब्ध हो जाता है।सरकार इसी पर रोक लगाना चाहती है। 

“घर का जोगी, जोगी, बाहर का जोगी सिद्ध पुरुष”। हम भारतीयों की एक मानसिक धारणा बन गई है जब तक हमें या हमारे किसी व्यक्ति को कोई बाहरी व्यक्ति(बाहरी देश, अन्य समाज) मान्यता नही देता तब तक वह हमारे लिए तुच्छ ही होता है। उसके बाद भी घर की मुर्गी दाल बराबर !

Thursday, 20 May 2021

शवों की दुर्गति पर सोशल मीडिया में जंगल की आग की तरह फैली ‘शववाहिनी गंगा’



भारत के इतिहास मे शायद ही ऐसा व्यवहार मनुष्य के शरीर के साथ किया गया हो। उत्तर प्रदेश कि सरकार कह रही है कि व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त है। उसके लिए अदालत के कहे वो दो शब्द ही काफी हैं। पहला- ये नरसंहार है और दूसरा- चिकित्सा व्यवस्था राम भरोसे है। हमारी सरकारें सचाई से परे हैं, अगर यकीन नहीं होता तो पढ़िये इस गुजराती कवियत्री पारुल खाखर की कविता का हिंदी अनुवाद। मगर पहले ये वेदना, ये दर्द महसूस करने की ताकत जरूर रखिएगा ----

शव-वाहिनी गंगा —

एक साथ सब मुर्दे बोले ‘सब कुछ चंगा-चंगा’
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
ख़त्म हुए शमशान तुम्हारे, ख़त्म काष्ठ की बोरी
थके हमारे कंधे सारे, आँखें रह गई कोरी
दर-दर जाकर यमदूत खेले
मौत का नाच बेढंगा
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
नित लगातार जलती चिताएँ
राहत माँगे पलभर
नित लगातार टूटे चूड़ियाँ
कुटती छाती घर घर
देख लपटों को डफली बजाते वाह रे ‘बिल्ला-रंगा’
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
साहेब तुम्हारे दिव्य वस्त्र, दैदीप्य तुम्हारी ज्योति
काश असलियत लोग समझते, हो तुम पत्थर, ना मोती
हो हिम्मत तो आके बोलो
‘मेरा साहेब नंगा’
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा!
 

कफन में लिपटी लासे, अधजली, क्षत-विक्षत, जानवरों की मौजूदगी, शवों की दुर्गति। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा देखने को मिला है । गंगा के किनारे कन्नौज, उन्नाव , कानपुर, बनारस, प्रयागराज, गाजीपुर,बलिया। एक छोर से दूसरे छोर लासे ही लासे इन्साफ मांग रही है। सरकार की स्वास्थ्य व्यवस्था ध्वस्त है। सरकारों ने बोलने व कुछ लिखने पर पाबंदी लगाई है। सच को उजागर करने वाले पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं। देश मे जीवन पर संकट है, इलाज मिल नहीं रहा है। मृत्यु के बाद चिता नसीब नहीं है। कई जगहों पर गंगा किनारे कदम-कदम पर शव हैं। ऐसा लगता है मानो गंगा में लाशों की बाढ़ आ गई है।
11 मई वह दिन है जब प्रसिद्ध कवयित्री पारुल खाखर ने अपने फेसबुक पेज पर एक कविता, शववाहिनी गंगा पोस्ट की। सोशल मीडिया पर जंगल की आग की तरह फैल गया। नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद शायद यह पहली बार है कि उनकी मातृभाषा गुजराती में लिखी गई एक कविता ने न केवल सरकार की आलोचना की है, बल्कि आम आदमी की पीड़ा को भी आवाज दी है कि कैसे दूसरी कोरोनोवायरस लहर ने हमें तबाह कर दिया है। लेकिन आम गुजराती, जिनमें से कई का साहित्य से कोई लेना-देना नहीं है, ने इसे अपनी भावनाओं को आकर्षक और प्रतिध्वनित पाया। उन्होंने इसे खूब शेयर किया। एक या दो दिनों के भीतर, कविता का अंग्रेजी, हिंदी, मराठी और कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो गया। इतनी शक्तिशाली और बहादुर कविता लिखने के लिए  खाखर की प्रशंसा की गई, लेकिन ट्रोल सेनाओं के अपमानजनक संदेशों की बौछार भी की गई। 51 वर्षीया खाखर अपनी रोमांटिक कविता के लिए जानी जाती हैं। राजनीतिक मुद्दे कुछ ऐसे नहीं हैं जिन्हें उन्होंने पहले छुआ था। लेकिन दूसरी कोविड लहर के कुप्रबंधन और सरकार की विनाशकारी विफलता के कारण उसके आसपास की तबाही ने उसे अंदर से पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया। यही कारण है कि उन्हें ऐसी राजनीतिक और क्रांतिकारी कविता लिखने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसे अपलोड करने के बाद उन्हें इतना भारी ट्रोल किया गया है कि उन्हें अपना फेसबुक प्रोफाइल लॉक करना पड़ा है। सोशल मीडिया से अपनी कविता के लिए कहती हैं "जब मैंने कुछ भी गलत नहीं कहा तो मैं क्यों हटाऊं।" ।
इस पर यह तर्क देना गलत नहीं होगा कि भारत एक निर्वाचित सरकार द्वारा स्वतंत्र भाषण और जवाबदेही पर एक अभूतपूर्व हमला देख रहा है, जब जनता की निगाह कहीं और है। एक ऐसे देश में जहां प्रधान मंत्री अपनी प्रजा को यह याद दिलाने के लिए हर अवसर का लाभ उठाने के लिए जाने जाते हैं कि अधिकारों और कर्तव्यों को अलग-अलग देखने की जरूरत नहीं है, संभव है कि भारत एक सक्रिय लोकतांत्रिक तंत्र के साथ महामारी से उभरेगा।
भारतीय सविधान का अनुच्छेत्र -21 कहता है कि किसी भी व्यक्ति को विधिद्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उससे जीबन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। इसी मामले में सुपीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अनुच्छे-21 के अन्तर्गत जीवन का अर्थ मात्र एक जीव के अस्तित्व से कहीं अधिक है। मानवीय गरिमा के साथ जीना व वे सब पहलु जो जीवन को अर्थपूर्ण, पूर्ण और जीने योग्य बनाते है इसमें शामिल है।

®️ राजकुमार सिंह